श्री अरविंद घोष (Aurobindo Ghosh)-(1872-1950)
जन्म- 15 अगस्त 1872 कलकाता में
पिता- कृष्णधन घोष एक चिकित्सक थे तथा पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के विशेष भक्त थे, अतः अरविंद को भाषा, रहन-सहन एवं विचारों से अंग्रेज बनाना चाहते थे|
माता- स्वर्णलता
अरबिंदो घोष को ‘राष्ट्रवाद का महान उन्नायक’ माना जाता है|
अरविंद भारतीय पुनर्जागरण और भारतीय राष्ट्रवाद की महान विभूति थे|
अरविंद ने एक राजनीतिक नेता तथा लेखक के रूप में प्राचीन वेदांत तथा आधुनिक यूरोपीय राजनीतिक दर्शन के समन्वय पर बल दिया|
रोमा रोलां ने अरविंद को ‘भारतीय दार्शनिकों का सम्राट एवं एशिया तथा यूरोप की प्रतिभा का समन्वय’ कहा है|
डॉ फ्रेडरिक स्पजलबर्ग ने उन्हें ‘हमारे युग का पैगंबर’ कहा है|
अरविंद बीसवीं सदी के आरंभ में बंगाल प्रांत में हुए उग्र आध्यात्मिक एवं धर्म प्रधान राष्ट्रवाद या उग्र राष्ट्रवाद के प्रतिनिधि थे|
अरविंद राजनीतिक जीवन की शुरुआत में क्रांतिकारी तथा गरम दल से संबंधित थे|
श्री अरविंद की प्रारंभिक शिक्षा दार्जिलिंग के कॉन्वेंट स्कूल में संपन्न हुई|
1879 ई. शिक्षा के लिए पहले मैनचेस्टर तथा बाद में लंदन गये|
1889 में कैंब्रिज के किंग्स कॉलेज से ग्रेजुएशन किया|
1892 में शास्त्रीय ट्रिपास प्रथम श्रेणी से पास किया|
1890 में I.C.S लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन घुड़सवारी की परीक्षा में भाग न लेने के कारण चयनित नहीं हो सके|
1892 में इंग्लैंड प्रवास काल के दौरान ‘लोटस’ तथा ‘डोगरस’ जैसी गोपनीय क्रांतिकारी संस्थाओं के सदस्य बने, इसके सदस्यों को भारत की मुक्ति तथा पुनर्निर्माण की शपथ लेनी पड़ती थी| इन्हें ‘गुप्त समाज’ भी कहते हैं|
अरविंद घोष ने इंग्लैंड में कैंब्रिज मजलिस की भी सदस्यता ग्रहण की थी|
1893 में भारत लौट आये|
1893 से 1910 तक अरविंद ने वड़ोदरा में बड़ौदा महाविद्यालय तथा नेशनल कॉलेज कोलकाता में अध्यापन का कार्य किया|
अरविंद ने 1902 के कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में भाग लिया तथा 1904 के मुंबई अधिवेशन में भी भाग लिया|
बनारस के 1905 के अधिवेशन में लाला लाजपत राय के निष्क्रिय प्रतिरोध के कार्यक्रम से प्रभावित हुए|
1905 में बंग-भंग आंदोलन में भाग लिया तथा गरमपंथी नेता के रूप में लाल-पाल-बाल के साथ मिलकर कार्य किया| अरविंदो का प्रसिद्ध नारा था “नियंत्रण नहीं, तो सहयोग नहीं|”
अरविंद प्रथम राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति को आवश्यक माना था|
कांग्रेस के 1906 के कलकाता अधिवेशन में भी अरविंद ने सक्रिय रूप से भाग लिया|
अरविंद को 1908 से 1910 के बीच मुजफ्फरपुर बम कांड व मानिकटोल्ला बम कांड में आरोपी बनाया गया|
वे अनुशीलन समिति से संबंधित अलीपुर बम कांड के मामले में 1908 में जेल गये|
1910 में जेल से रिहा होने के बाद में फ्रांसीसी बस्ती में पांडिचेरी में चले गए तथा 1910 में प्रत्यक्ष राजनीति को छोड़कर पांडिचेरी में ‘ऑरविले’ नामक आश्रम बनाया, तथा 1950 अपनी मृत्यु तक यही जीवन व्यतीत किया| और यहां रहते हुए आध्यात्मिक राष्ट्रवाद, मानवीय एकता व विश्व संघ जैसे विचारों का प्रचार-प्रसार करते रहे|
5 दिसंबर 1950 को पांडिचेरी में अरविंद की मृत्यु हो गई|
डॉ राधाकृष्णन, अरविंद को भारतीय राजनीतिक विचारको में सुयोग्यतम एवं सर्वोत्कृष्ट बताते थे|
टैगोर ने अरविंद के बारे में कहा है कि “भारत अरविंद के माध्यम से संसार को अपना संदेश देगा| वे भारतीय संस्कृति के मसीहा हैं|”
वे गरमपंथी विचारधारा के समर्थक थे और बंकिम चंद्र चटर्जी के आनंद मठ व कृष्ण चरित्र से प्रभावित थे|
अरविंद पहले क्रांतिकारी, फिर उग्र राष्ट्रवादी, अंत में अध्यात्मिक राष्ट्रवादी बन गये|
लॉर्ड मिंटो ने अरविंद घोष के बारे में कहा है कि “अरविंदो भारत का सबसे खतरनाक व्यक्ति है|”
अरविंद पर प्रभाव-
विवेकानंद के नववेदांत व आध्यात्मिक राष्ट्रवाद से प्रभावित हैं|
आयरलैंड के सिनफिन आंदोलन के नेताओं से विशेषकर पार्नेल के निष्क्रिय प्रतिरोध से प्रभावित थे|
जर्मन दार्शनिक नीत्शे के अतिमानव के विचार से प्रभावित थे|
जर्मन दार्शनिक हेगेल के आदर्श राष्ट्रवाद (राज्य का ईश्वरीय स्वरूप) के विचार से प्रभावित थे|
जर्मन दार्शनिक लामप्रेखट के संस्कृति चक्र सिद्धांत से प्रेरित हो मानव चक्र सिद्धांत दिया|
अरविंद ने हेगेल से विवेकवाद तथा शॉपनहार, नीत्से, बर्गसाँ से अंतर्दृष्टि व अंत: प्रज्ञानवाद लिया है|
अरविंद को अंग्रेज उपयोगितावादियों की उदारवादी, विवेकवादी धारणा पसंद नहीं थी| उन्हें भारत की आत्मा, यूनानियों की सोंदर्यवाद संबंधित संस्कृति, प्राचीन रोम के नीतिशास्त्र से संबंधित आदर्श, ईसाई गिरिजाघरों का आत्मवाद तथा विज्ञान का सार्वभौमिकतावाद व विवेकवाद पसंद था|
रचनाएं-
The Life Divine (दिव्य जीवन)
Essays on Geeta-
इसमें अरविंद ने लिखा है कि “जेल में ईश्वर मेरे सामने प्रकट हुए, मुझे गीता दी तथा सनातन धर्म का बोध कराया|”
अरविंद गीता से प्रभावित होकर लिखता है कि “हिंसा के विरुद्ध हिंसा अपरिहार्य है|”
इसमें राष्ट्रीय शत्रुओं के वध को धर्म युद्ध की संज्ञा दी है|
The Synthesis of yoga- यह अरविंद की अंतिम पुस्तक है|
Ideal of Human Unity
The ideal of Karmayogin
Defence of Indian culture
The Human cycle
सावित्री- यह एक कविता है, जिसमें सत्यवान सावित्री का वर्णन है| इसका पूरा नाम सावित्री: ए लीजेंड एंड ए सिंबल|
Basis of yoga
Renaissance of India
The Superman
New lamp for old -
यह लेखों की श्रंखला है, जो महादेव गोविंद रानाडे के समाचार पत्र इंदु प्रकाश में छपी थी|
इसमें अरविंद ने लिखा है कि “हमारा शत्रु और कोई नहीं, बल्कि हमारी कमजोरी, स्वार्थ व पाखंड है|”
इस लेख में लोगों से संघर्ष का आह्वान किया है| उनके अनुसार ब्रिटिश साम्राज्य का मुकाबला धर्मयुद्ध है|
इस लेख में अरविंद ने नरमपंथी कांग्रेसियों की आलोचना की है|
इसमें लिखा है कि “हम अंधों का मार्गदर्शन, यदि अंधा नहीं तो अवश्य ही एक आंख वाले के द्वारा किया जा रहा है|”
अरविंद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भारतीय अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस कहा करते थे|
Note- द ह्यूमन साइकिल व द आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी में राजनीति से संबंधित विषय है, जबकि लाइफ डिवाइन का संबंध दर्शन व पराभौतिकता से है|
समाचार पत्र -
‘वंदे मातरम’
उन्होंने विपिन चंद्र पाल द्वारा निकाले गए दैनिक पत्र ‘वंदे मातरम’ का प्रकाशन किया| अर्थात पहले इसके संपादक विपिन चंद्र पाल थे, इनके इस्तीफे के बाद अरविंद संपादक बने|
वंदे मातरम में अरविंद ने लिखा कि “देश के स्वतंत्र होने से पूर्व, हमें ह्रदय को स्वतंत्र करना होगा|”
इन्होंने ‘कर्मयोगी’ (अंग्रेजी में) तथा ‘धर्म’ (बांग्ला भाषा) नामक सप्ताहिक पत्रों का प्रकाशन किया|
अरविंद का मानव चक्र क्रम सिद्धांत
मानव चक्र सिद्धांत को विकास का एकीकृत सिद्धांत भी कहते हैं|
अरविंद के मानव चक्र सिद्धांत पर जर्मन विचारक कार्ल लामप्रेखट के संस्कृतियों के चक्र सिद्धांत का प्रभाव है| इसमें अरविंद ने लामप्रेखट के मनोविज्ञान में भारतीय आध्यात्मिकता भी मिला दिया|
अरविंद का मानना था कि मानव संस्कृतियों व सभ्यताओं का विकास चक्र क्रम में होता है, अतः मानव इतिहास का क्रमिक विकास होता है|
मानव चक्र सिद्धांत में अरविंद ने मानव इतिहास के पांच चरण बताएं हैं-
प्रतीकात्मक युग- वैदिक युग
प्रकारात्मक युग- वर्ण व्यवस्था वाला उत्तर वैदिक काल
परंपरावादी युग- जाति व्यवस्था वाला सामाजिक युग अर्थात मध्यकालीन भारत
व्यक्तिवादी युग- पाश्चात्य प्रभाव वाला आधुनिक युग
आत्मनिष्ठवादी युग- अरविंद के अनुसार सबसे अंत में एक आध्यात्मिक युग आना चाहिए, ताकि मानवीय आत्मा का सर्वोच्च विकास हो तथा अतिमानव (Super Human) का आगाज हो|
अरविंद का महामानव या अति मानव (Super Human)-
महामानव (विराट पुरुष या दैवीय मानव) की अरविंद की धारणा जर्मन दार्शनिक नीत्शे के सुपरमैन के विचार से प्रभावित है| लेकिन नीत्शे का अतिमानव का स्वरूप अतिदानव जैसा है, जबकि अरविंद का अतिमानव अध्यात्मिककरण पर आधारित गीता के कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ मानव (श्री कृष्ण) दैवीय मानव का साक्षात रुप है|
नीत्से का अति मानव आक्रामक, शक्ति संपन्न व अतिबौद्धिक प्राणी है, जबकि अरविंद का अतिमानव उच्चतर दैवीय शक्तियों तथा आनंद की अभिव्यक्ति करता है|
अरविंद के अति मानव में वेदांत व नीत्से के विचारों का मिश्रण है|
अरविंद का मानना था कि विश्व संघ आध्यात्मिकता पर आधारित एक आध्यात्मिकृत समाज होगा| ऐसा समाज तब बनेगा जब सर्वज्ञान संपन्न, विश्व के ज्ञाता और सृष्टा के रूप में अति मानस का अवतरण होगा|
अतिमानस के अवतार से मानव अतिमानव बनेगा|
अतिमानव ऐसा रूपांतरित व्यक्ति होगा, जिसमें उच्च आध्यात्मिक शक्तियां होंगी, जिसके परिणाम स्वरूप मानव की एक अद्वितीय नवीन मानवजाति उदित होगी, जो वर्तमान मानव जाति से श्रेष्ठ होगी|
व्यक्ति के इस रूपांतरण से सच्ची बंधुता, एकात्मक चेतना जागृत होगी|
यही एकात्मक आध्यात्मिक चेतना पारस्परिक सहयोग व सामंजस्य के गुणों के आधार पर मानवीय एकता के आदर्श का निर्माण करेगी|
Note- अरविंद ने लिखा है कि “मानव मस्तिष्क उच्चतम है, परंतु यह दैवीय चेतना से निम्न है, ईश्वर सुपरमाइंड के द्वारा मानव मस्तिष्क में चेतना का प्रवाह करते हैं|”
अरविंद के राजनीतिक विचार-
निष्क्रिय प्रतिरोध संबंधी विचार-
अरविंद ने निष्क्रिय प्रतिरोध की प्रेरणा सिन-फिन आंदोलन के स्वतंत्रता सेनानियों विशेषकर पारनेल से ली थी|
अरविंद घोष ने निष्क्रिय प्रतिरोध को ‘रक्षात्मक प्रतिरोध’ भी कहा है|
अरविंद ने उदारवादियों की प्रार्थना, याचिका तथा विरोध की संवैधानिक पद्धति की आलोचना की तथा उसकी जगह निष्क्रिय प्रतिरोध की पद्धति का अनुकरण करने पर बल दिया|
अरविंद का निष्क्रिय प्रतिरोध शांतिपूर्ण उपायों से विदेशी सत्ता को चुनौती देने का साधन था| लेकिन वे गांधीजी की तरह पूर्णतया अहिंसा में आस्था नहीं रखते थे| इनके अनुसार जब सरकार निर्दयी हो तो हिंसा का प्रयोग किया जा सकता है| अर्थात निष्क्रिय प्रतिरोध गांधी के सत्याग्रह या सक्रिय प्रतिरोध का उल्टा है|
अरविंद का मत था कि ब्रिटिश आर्थिक शोषण का निराकरण तभी संभव होगा जब भारतीय ब्रिटिश माल का बहिष्कार करें और स्वदेशी को अपनाएं|
निष्क्रिय प्रतिरोध का मुख्य उद्देश्य सामान्य व संगठित अवज्ञा द्वारा कानूनों का उल्लंघन करना तथा ब्रिटिश सत्ता का विरोध करना|
निष्क्रिय प्रतिरोध में अरविंद ने निम्न बातें शामिल की है-
स्वदेशी का प्रचार और विदेशी माल का बहिष्कार
राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार और सरकारी शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार
सरकारी न्यायालयों का बहिष्कार
जो सरकार का सहयोग करें, उसका सामाजिक बहिष्कार
ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित संस्थाओं का बहिष्कार
जनता द्वारा सरकार का असहयोग करना|
निष्क्रिय प्रतिरोध ऐसे काम करने का त्याग करता है, जिससे प्रशासन चलाने में सहायता मिले|
अधिकार संबंधी विचार-
अरविंद अधिकारों को व्यक्ति के विकास के लिए अनिवार्य मानते थे|
उनके अनुसार स्वतंत्र राष्ट्र में व्यक्ति को तीन अधिकार मिलने चाहिए-
स्वतंत्र प्रेस और अभिव्यक्ति का अधिकार
स्वतंत्र सामाजिक सभा करने का अधिकार
संगठन बनाने का अधिकार
स्वतंत्रता संबंधी विचार-
स्वतंत्रता को अरविंद अत्यधिक महत्व देते है और राष्ट्रीय विकास के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता जरूरी मानते थे|
अरविंद ने तीन प्रकार के स्वतंत्रता बतायी है -
राष्ट्रीय स्वतंत्रता
आंतरिक स्वतंत्रता
व्यक्तिगत स्वतंत्रता
राष्ट्रीय स्वतंत्रता- विदेशी नियंत्रण से मुक्ति ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता है|
आंतरिक स्वतंत्रता- किसी वर्ग या वर्गों के सामूहिक नियंत्रण से मुक्त होकर स्वशासन प्राप्त करना है|
व्यक्तिगत स्वतंत्रता- इसके लिए स्वशासन आवश्यक है| व्यक्तिगत स्वतंत्रता से राष्ट्र का चहुमुखी विकास होता है, तथा राष्ट्रीय चेतना जागृत होती है|
अरविंद तथा टैगोर दोनों का विश्वास था कि यदि मनुष्य आध्यात्मिक स्वतंत्रता प्राप्त कर लेता है, तो उसे सामाजिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता स्वत: प्राप्त हो जाती है|
अरविंद के अनुसार ‘अपने जीवन के नियमों का पालन करना ही स्वतंत्रता है|’ स्वतंत्रता की इस धारणा में रूसो तथा भगवतगीता के विचारों का समन्वय मिलता है| रूसो ने कहा था ‘स्वयं अपने द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करना ही स्वतंत्रता है|”
अरविंद के अनुसार
स्वतंत्रता और समानता की एकता को केवल मानवीय भाईचारे अर्थात बंधुत्व के गुण द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है तथा यह अन्य किसी चीज पर आधारित नहीं हो सकती|
जब आत्मा स्वतंत्रता चाहती है, तो इसका तात्पर्य है- आत्म विकास की स्वतंत्रता, मनुष्य और उसके संपूर्ण अस्तित्व में दैवीयता का आत्मविकास|
जब आत्मा समानता चाहती है, तो इसका तात्पर्य है- यह सभी के लिए समान रूप से स्वतंत्रता तथा सभी में एक ही ईश्वर तथा एक ही आत्मा की स्वीकृति चाहती है|
जब आत्मा बंधुत्व के लिए प्रयास करती है, तो इसका अर्थ है- यह आत्म-विकास की समान स्वतंत्रता को सामान्य लक्ष्य, सामान्य जीवन तथा आंतरिक आध्यात्मिक समाज की पहचान पर आधारित विवेक और भावना के संगम के रूप में स्थापित हो रही है|
ये तीनों चीजें वास्तव में आत्मा की प्रकृति है, क्योंकि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व आत्मा के दैवीय गुण है|
राष्ट्रवाद के संबंध अरविंद के विचार-
इन्होंने अपनी पुस्तक ‘लोटस टेंपल’ में राष्ट्रवाद संबंधी विचार दिए हैं|
श्री अरविंद आरंभ में उग्र राष्ट्रवाद के प्रणेता थे और बाद में पांडिचेरी चले जाने के बाद उनका राष्ट्रवाद पूरी तरह आध्यात्मिक राष्ट्रवाद हो गया|
आध्यात्मिक राष्ट्रवाद
इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी कहा जाता है|
अरविंद ने राष्ट्रवाद में भारत की आत्मा का चित्र स्पष्ट किया है| अरविंद की राष्ट्रीयता एक धार्मिक भावना से ओतप्रोत थी अर्थात ईश्वर की वाणी मानव आत्मा की अभिव्यक्ति थी|
अरविंद के अनुसार राष्ट्र किसी राजनीतिक तत्व का नाम नहीं है, बल्कि वह तो प्रभावी दैवत्य है- एक भवानी भारती, स्वयं में भारत मा| अर्थात अरविंद राष्ट्र को एक जीती-जागती देवी मानते हैं| अरविंद के मत में मातृभूमि के लिए किया गया त्याग किसी कुर्बानी से कम नहीं होता है|
अरविंद ने देशवासियों को भारत माता की रक्षा और सेवा के लिए सभी प्रकार के कष्टों को सहने की मार्मिक अपील की है|
अरविंद की राष्ट्रवाद की संकल्पना आध्यात्मिक, धार्मिक, एक विश्वास, एक आस्था है|
1907 में अरविंद ने वंदे मातरम में लिखा कि “राष्ट्रवाद राष्ट्र के समस्त अंगों की एक दैवी एकता प्राप्त करने की एक भावनात्मक प्रेरणा है|”
1908 में अरविंद ने अपने भाषण में कहा कि “राष्ट्रवाद कोरा राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, राष्ट्रवाद एक धर्म है, जो ईश्वर की देन है|”
श्री अरविंद के राष्ट्रवाद का मूल मंत्र था कि ‘भारत माता के पैरों में पड़ी बेड़ियां को काटना अर्थात विदेशी शासन से मुक्त करना उसकी संतान का परम कर्तव्य है|
अरविंद ने चेतावनी दी कि यदि हम अपना यूरोपीयकरण करेंगे तो हम अपनी आध्यात्मिक क्षमता, अपना बौद्धिक बल, अपनी राष्ट्रीय लचक और आत्मा पुनरुद्धार की शक्ति को सदा के लिए खो बैठेंगे|
अरविंद का मत था कि ईश्वरी शक्ति से व्याप्त संपूर्ण राष्ट्र जागृत होकर उठ खड़ा होगा, तो कोई भी भौतिक शक्ति उसका प्रतिकार नहीं कर सकेगी|
अरविंद के मत में मानव जाति के आध्यात्मिक जागरण में भारत को अनिवार्य भूमिका निभानी है और यह तभी हो सकेगा, जब भारत स्वाधीन होगा|
अरविंद के मत में राष्ट्रवाद का उद्देश्य पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति है|
अरविंद के शब्दों में “स्वराज्य की प्राप्ति ईश्वर में विश्वास के द्वारा ही की जा सकती है|”
अरविंद के मत में सच्ची राष्ट्रीयता सनातन धर्म है|
अरविंद के राष्ट्रवाद को कुछ लोग संकीर्ण हिंदू राष्ट्रवाद कहते हैं, लेकिन अरविंद की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा भी बहुत उदात्त थी| अरविंद का कहना था कि “हिंदू धर्म शाश्वत है, यह सार्वभौमिक धर्म है जो सबको समेटता है| एक सीमित, संकीर्ण और सांप्रदायिक धर्म तो अल्पकाल तक ही जीवित रह सकता है पर हिंदू धर्म में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं है, इस धर्म में हमें सत्य की अनुभूति होती है|”
विपिन चंद्र पाल “अन्य नेताओं के लिए राष्ट्रवाद केवल एक बौद्धिक मान्यता अथवा आकांक्षा है, वही अरविंद के लिए राष्ट्रवाद उनकी आत्मा का सर्वोत्तम मनोभाव है|”
रोनाल्ड शो ने अपनी पुस्तक The heart of Aryavarta में लिखा है “अरविंद घोष ने अराजकता के भयावह वातावरण में धर्म का स्पूर्तिदायी प्रभाव फूंकने के लिए अन्य किसी भी व्यक्ति से अधिक कार्य किया है|”
राज्य संबंधी विचार-
अरविंद की राज्य संबंधी विचारधारा विकासवादी है| वे लोक कल्याणकारी समाजवादी विचारधारा के समर्थक थे|
वे राज्य को एक यंत्र मानते हैं, जिसके द्वारा मानव मस्तिष्क पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया जाता है|
अरविंद “राज्य एक सुविधा है| हमारे सामूहिक विकास की भद्दी सुविधा इसे कभी भी स्वयं में साध्य नहीं बनाया जा सकता|”
स्वाधीनता पर श्री अरविंद के विचार-
जैसे व्यक्ति के विकास एवं समृद्धि के लिए वैयक्तिक स्वतंत्रता अनिवार्य हैं, वैसे ही राष्ट्र की शक्ति के संपूर्ण विकास तथा पूर्णता के लिए स्वशासन जरूरी है|
विदेशी शासन (अंग्रेजों का शासन) के अंतर्गत कुछ ही वर्गों का विकास हुआ, जबकि अधिकांश वर्ग पिछड़े हैं|
लेकिन स्वशासन के अंतर्गत अर्थात शिवाजी के अंतर्गत मराठों ने तथा गुरु गोविंद सिंह के अंतर्गत सिखों ने अधिकांश लोगों के हित के लिए कार्य किया था|
लोक सेवा (अफसरशाही) स्वरूप में विदेशी हैं|
विदेशी शासन, स्वशासन का विरोध है|
श्री अरविंद के पांच स्वपन-
एक ऐसा आंदोलन हो जो एक स्वतंत्र एवं संगठित भारत बनाएं|
एशिया के लोग स्वतंत्र होकर उभरे तथा भारत मानवीय सभ्यता की प्रगति में अपनी भूमिका निभाए|
मानव जाति के लिए अपेक्षाकृत अधिक न्याय संगत, अधिक उज्जवल तथा अधिक उत्कृष्ट आधार पर विश्व संघ की स्थापना हो
संसार को भारत का अध्यात्मिक उपहार प्राप्त हो|
विकास की ओर एक नए चरण का प्रारंभ हो, जिसमें व्यक्ति उच्चतर रूप की चेतना प्राप्त करें ताकि संसार की सभी समस्याओं का समाधान हो तथा एक संपूर्ण व्यक्ति एवं संपूर्ण समाज का व्यक्ति का स्वपन पूरा हो|
अरविंद की मानव एकता व विश्व संघ की धारणा-
अरविंद ने अपनी रचना The ideal of human Unity में विश्व संघ अवधारणा प्रस्तुत की है|
अरविंद मानवतावादी विचारक होने के कारण विश्व में मानव की एकता और अंतरराष्ट्रीयवाद का समर्थन करते हैं|
इनका विश्व संघ स्वतंत्र राष्ट्रीयताओं का विश्व संघ होगा, जिसमें पराधीनता, असमानता व दासता के लक्षण नहीं होंगे|
विश्व संघ की यह धारणा मानवीय स्वतंत्रता, मानवीय समानता व मानवीय बंधुता के सिद्धांत पर आधारित होगी, जिसका अंतिम आदर्श मानवीय एकता होगा तथा आधारशिला स्वतंत्रता होगी|
अरविंद के अनुसार मानव एकता का आदर्श विश्व संघ एक दिन अवश्य बनेगा क्योंकि मानव प्रकृति से बड़े संगठनों का निर्माण करता है जैसे क्रम से परिवार, कबीले, ग्राम, राज्य का संगठन मनुष्य ने किया है वैसे ही अंततः वह विश्व संघ का निर्माण करेगा|
विश्व संघ विविधता में एकता पर आधारित होगा|
इस व्यवस्था में मनुष्य को स्थान, जाति, संस्कृति, आर्थिक सुविधा के अनुसार अपने-अपने समूह बनाने का अधिकार होगा, लेकिन यह समूह संपूर्ण मानव जाति के हितों को ध्यान में रखते हुए कार्य करेंगे| शक्ति पर आधारित व कृत्रिम समूह को इस व्यवस्था में कोई स्थान नहीं होगा|
उसके अनुसार विश्व संघ का निर्माण निम्न प्रकार होगा-
स्वतंत्र राष्ट्रों को संगठित होने की आवश्यकता है|
इसके पश्चात संगठित राष्ट्र, पारस्परिक मतभेद एवं स्वार्थ मिटाकर, अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाकर विश्व संघ का निर्माण करेंगे|
अरविंद “मानव मस्तिष्क उच्चतम है, लेकिन यह दैवीय चेतना से निम्न है| ईश्वर सुपर माइंड (अति मानस) के द्वारा मानव मस्तिष्क में चेतना का प्रवाह करते हैं|”
अरविंद ने विश्व संघ की धारणा की सबसे बड़ी बाधा राष्ट्र राज्य की अतिवादी धारणा को बताया है| उन्होंने इस धारणा को सामूहिक अहमवाद की संज्ञा दी है और कहा कि स्वतंत्र विश्व संघ की स्थापना यदि करनी है तो इस सामूहिक अहमवाद में आवश्यक संशोधन करना होगा और मानवता का आध्यात्मिक धर्म अपनाना होगा|
अरविंद का तत्वशास्त्र या दर्शन : अध्यात्मवाद या भौतिकवाद का समन्वय-
अरविंद के विचारों में पूर्व का अध्यात्मवाद और पश्चिम का मानवतावाद व राष्ट्रवाद मिश्रित रूप में में पाया जाता है|
अरविंद का विचार था कि औद्योगिकीकरण के बाद यूरोप में भौतिकवाद का वरण कर लिया तथा आध्यात्मवाद को भुला दिया गया, जबकि भारत ने आध्यात्मिकवाद का वरण कर लिया|
अरविंद भौतिक पदार्थ व आत्मा दोनों को महत्वपूर्ण मानते हैं, अतः उनके दर्शन में यूरोपीय भौतिकवाद, भारतीय आध्यात्मिकवाद दोनों का समन्वय मिलता है|
अरविंद ने परम आध्यात्मिकता के विचार का उद्गम उपनिषद को माना है|”
श्रमजीवी वर्ग को प्रोत्साहन-
अरविंद ने जनसाधारण और श्रमजीवी वर्ग के महत्व का प्रतिपादन किया है|
उन्होंने राष्ट्र की शक्ति का सच्चा आधार श्रमजीवी वर्ग को बताया है|
उन्होंने श्रमजीवी वर्ग की मार्क्सवादी व्याख्या नहीं की है, बल्कि उनका आध्यात्मिक विकास करके उन्हें अन्य लोगों के समान स्तर पर लाने का प्रयास किया है|
उन्होंने श्रमजीवी वर्ग के उत्थान के लिए नैतिक मार्ग अपनाया है|
अरविंद के राजनीतिक चिंतन का आध्यात्मिक आधार-
अरविंद ने राजनीति और आध्यात्मिकता के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित किया है|
उनकी राजनीति एक योगी की राजनीति थी, न कि एक राजनीतज्ञ की राजनीति|
अरविंद “योगी को राजनीतिक नेता के पीछे खड़ा होना चाहिए या अपने को राजनीतिक नेता के रूप में व्यक्त करना चाहिए| रामदास को शिवाजी के साथ एक ही शरीर में जन्म लेना है, मैजिनी को काबुर में मिश्रित होना है|”
उनके लिए राजनीति व्यैक्तिक, राष्ट्रीय एवं वैश्विक आध्यात्मिक विकास के सिद्धांत का विस्तार ही थी|
अरविंद के लिए भारत की स्वाधीनता का अर्थ केवल कोरी राजनीतिक स्वाधीनता नहीं था वरन यह था कि भारत का लक्ष्य मानव जाति को आध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान करना है| और इसके लिए भारत को पहले स्वाधीन होना आवश्यक है|
दैवीय न्याय का सिद्धांत या आध्यात्मिक नियतिवाद-
अरविंद ने मानव इतिहास के संदर्भ में आध्यात्मिक नियतिवाद या देवी न्याय का सिद्धांत स्वीकारा है|
अरविंद के अनुसार इतिहास की प्रत्येक घटना व चरण के मूल में ईश्वर की शक्तियां कार्य करती हैं| काली की इच्छा (परमात्मा के नियामक शक्ति) का गतिशील क्रियाकलाप ही इतिहास है| इतिहास ब्रह्मा का प्रकट रूप है|
अरविंद के मत में बंगाल का राष्ट्रवाद, ब्रिटिश शोषण सब ईश्वर की योजना के अंग हैं| फ्रांस की क्रांति भी ईश्वर की इच्छा का परिणाम थी|
अरविंद के मत में अंग्रेजी शासन भी दैवीय व्यवस्था का ही एक रूप है, जो भारत को उसकी भूलों के लिए दंडित करने तथा नवीन जागरूकता का संचार करने के लिए आया है|
अरविंद “अंग्रेजी दमन ईश्वर के हथौड़े के अलावा और कुछ नहीं है, जो हमें उचित आकार में लाने के लिए पीट रहा ,है ताकि हम एक शक्तिशाली राष्ट्र बन सके एवं संसार में उसके कार्यों के अनुरूप ढाले जा सके|”
अरविंद के इस देवी न्याय सिद्धांत पर भगवदगीता व हेगेल के प्रत्ययवाद का प्रभाव है|”
हेगेल की तरह अरविंद भी राष्ट्र को देवी या विश्वात्मा मानते हैं तथा कहते हैं कि राष्ट्र के भी आत्मा होती है, जो सबसे सर्वोच्च है| व्यक्ति के समान राष्ट्र का भी एक शरीर व चेतना युक्त जीवन होता है|”
कांग्रेस के आलोचक के रूप में-
अरविंद कांग्रेस के कटु आलोचक रहे हैं| उन्होंने अपनी प्रारंभिक रचनाओं में कांग्रेस पर निम्न आरोप लगाए हैं-
कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्वाधीनता के लक्ष्य की कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं बनाई है|
कांग्रेस के इस सिद्धांत की भी आलोचना की कि राजनीतिक विकास व प्रगति धीरे धीरे होती है| जबकि फ्रांस में पीड़ित सर्वहारा वर्ग ने केवल 5 वर्ष की अवधि में 1300 वर्ष के अत्याचारी तंत्र को उखाड़ फेंका|
अरविंद के मत में कांग्रेस ने अपनी छोटी-छोटी मांगे मनवाने के लिए अंग्रेजों के प्रति स्वाभिमान पूर्ण व्यवहार नहीं किया है, बल्कि चापलूसी की है|
कांग्रेस ने भारत के सर्वहारा वर्ग को अपने साथ नहीं लिया है|
अंग्रेजों के आलोचक के रूप में-
अरविंद के मत में ब्रिटिश राजनीतिक व्यवस्था पश्चिम की सर्वोत्तम देन नहीं मानी जा सकती है|
भारत को पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की जरूरत नहीं है|
अरविंद ने भारत में अंग्रेजों की नीतियां और अंग्रेज अफसरों के व्यवहार की आलोचना की है|
अंग्रेजों की नीतियों ने भारत की आत्मा को कुंठित कर दिया है और उसके विकास की अंतशक्तियों को कुचल दिया है, आर्थिक दृष्टि से विनाश कर दिया है|
ब्रिटिश अफसरों के संबंध में अरविंद ने लिखा कि वे दुष्ट है, उनका शासन दोषो से भरपूर है उनका व्यवहार गुलामों पर हुकम चलाने वाले जमीदारों जैसा है|
अरविंदो ने उन भारतीयों का मजाक भी उड़ाया जो अंग्रेजों के दास बन गए थे|
व्यक्तिवाद व समाजवाद का खंडन-
अरविंद ने व्यक्तिवाद को एक मिथ्या दर्शन बताया है, क्योंकि व्यक्ति स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है, वह संपूर्ण ब्रह्मांड का एक भाग है, जिसका अनुभव वह राष्ट्र के माध्यम से करता है|
अरविंद ने विशुद्ध आर्थिक रूप धारण करने, नास्तिकता तथा निरंकुशता के कारण रूसी समाजवाद की आलोचना की है| उनके मत में रूसी समाजवाद ने जहां स्वतंत्रता का नाश किया है, वही जर्मन नाजीवाद ने स्वतंत्रता और समानता दोनों का गला घोट दिया है|
अरविंद ने एक दल की तानाशाही का विरोध किया है| एक दल की तानाशाही जो रूस में साम्यवाद, जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फासीवाद के रूप में थी, अरविंद ने इन्हें तर्क के द्वार का अंत कहा है|
अरविंद से संबंधित कुछ तथ्य-
उनके अनुसार व्यक्ति के विकास के लिए परिवार, समुदाय व राष्ट्र आवश्यक है|
वे पश्चिमी देशों की स्वतंत्रता को अपूर्ण मानते हैं और स्वराज को महत्वपूर्ण स्थान देते हैं|
जीवन के अंतिम चरणों में आमूल्य परिवर्तनवादी हो गए और कहते हैं कि आध्यात्मिक प्रशिक्षण के योग के द्वारा व्यक्तियों को स्वार्थ से ऊपर उठाया जा सकता है|
उन्होंने नरमपंथीयों की आलोचना की है|
उन्होंने नव वेदांतवाद का समर्थन किया है|
उनके अनुसार आत्मिक व अध्यात्मिक एकता के फलस्वरुप राष्ट्रों व राज्यों में संघर्ष नहीं होगा|
मानव धर्म के निर्माण पर जोर दिया है|
अरविंद के मत में व्यक्ति के मध्य आत्मिक व आध्यात्मिक एकता सबसे प्रभावी होती है|”
अरविंद के अनुसार हमें न केवल यूरोपीयकरण की ओर ले जाने वाले प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए, वरन भारत में व्याप्त प्रत्येक बुरी चीज का भी अवश्य विरोध करना चाहिए|”
अरविंद के शिष्या मेरी रिचर्ड थी जिन्हें मदर कहा जाता था|
अरविंद ने नव वेदांतवाद के विकास को आगे बढ़ाया| उनके अनुसार वेदांत दर्शन के माध्यम से ही हिंदू धर्म का पुनर्जागरण होगा|
देशबंधु चितरंजन दास “अरविंद देशभक्ति के कवि, राष्ट्रवाद के मसीहा एवं मानवता के प्रेमी के रूप में जाने जाएंगे| उनके शब्दों की प्रतिध्वनि न केवल भारत, बल्कि सुदूर देशों तक सुनाई देगी|”
एनीबेसेंट ने अरविंद घोष को ‘भारतीय मनीषी’ की संज्ञा दी है|
रैमजे मैकडोनाल्ड (The Awakening of India) “अरविंद घोष ने अपने हिंदुत्व और उग्र राष्ट्रवाद के बीच संबंध स्पष्ट कर दिया है| उन्होंने लिखा है कि मनुष्य को ईश्वर के विधान को पूर्ण करना है और यह तभी संभव हो सकता है, जब वह पहले स्वयं को पूर्ण करें और अपने को राष्ट्र के द्वारा पूर्ण किया जा सकता है| उनका स्वदेशी में विश्वास और भारत में ब्रिटेन के आधिपत्य को समाप्त करने की उनकी इच्छा का आधार यही धार्मिक धारणा है|”
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