Muhammad Iqbal / मोहम्मद इकबाल (1873 से 1938)
जीवन परिचय-
जन्म- 22 फरवरी 1873 को सियालकोट (पाकिस्तान) में हुआ|
मृत्यु- 21 अप्रैल 1938
मोहम्मद इकबाल एक कवि, धार्मिक दार्शनिक, राजनीतिक आदर्शवादी, शायर तथा मुस्लिम नवोत्थान के अग्रणी विचारक थे|
इनका परिवार कश्मीरी हिंदू पंडितों का वंशज था, जिन्होंने 17वीं सदी में इस्लाम अपना लिया था|
इकबाल लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज तथा गवर्नमेंट कॉलेज के आचार्य थे|
1905 में वे उच्च शिक्षा के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय की ट्रिनिटी कॉलेज गये, जहां वे अंग्रेज हेगेलवादियों व JME मैकटैगार्ट (उनके शिक्षक) जैसे दार्शनिकों से बहुत प्रभावित हुए|
उसके बाद उन्होंने म्युनिख (जर्मनी) से ईरान में तत्वशास्त्र पर शोध निबंध लिखा|
म्युनिख से वापस लंदन आकर बेरिस्टर की उपाधि प्राप्त की|
1908 में वापिस लाहौर लोटे तथा वकालत करने लगे|
1922 में ब्रिटिश सरकार ने इन्हें ‘सर’ की उपाधि दी|
इकबाल 1925 से 1928 तक पंजाब विधान परिषद के सदस्य रहे|
1930 व 1932 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अध्यक्ष रहे|
उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मेलन 1930, द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 1931 में भाग लिया|
इकबाल को ‘अल्लामा इकबाल’ भी कहा जाता है| अल्लामा का तात्पर्य है- बड़ा आलिम यानी महाविद्वान
इनको पाकिस्तान का ‘आध्यात्मिक जनक’ भी कहा जाता है|
मोहम्मद इकबाल पर जलालुद्दीन रूमी के आदर्शों तथा उनकी रचना ‘मनसबी शरीफ’ का प्रभाव पड़ा है|
इनको पाकिस्तान का राष्ट्रीय कवि भी माना जाता है|
विद्वान हर्मन हेक्स ने कहा है कि इकबाल का ‘जबरदस्त काम’ तीन दुनियाओ से जुड़ा है-
भारत की
इस्लाम की
पश्चिमी चिंतन की
कैंब्रिज विश्वविद्यालय में इनके अध्यापक रहे R. A निकलसन ने उन्हें ‘अपने समय के साथ असहमति रखने वाला व्यक्ति’ कहा है|
राजाराममोहन गांधी (इतिहासकार) के अनुसार “इकबाल ने हिम्मत के साथ व समझदारी से कदम उठाये|”
A अप्पोदराई ने अपनी पुस्तक ‘Political Thought in India’ में लिखा है कि “प्रारंभ में इकबाल ने देशभक्तिपूर्ण और मातृभूमि के प्रेम से रचनाएं लिखी, लेकिन बाद में, प्रचंडवादी राष्ट्रवादी धार्मिक कट्टरपंथी में परिवर्तित हो गये| अत: इकबाल मुस्लिम राष्ट्रवाद तथा धर्म व राजनीति पर अपने विचारों के कारण प्रसिद्ध हुए थे| उन्होंने मुसलमानों के लिए पृथक राज्य के सिद्धांत का प्रचार किया|”
रचनाएं-
The development of Metaphysics in Persia 1908
The Secrets of the Selfness
The call of the Marching Bell 1924- इसमें उर्दू में लिखित दार्शनिक कविताएं हैं|
The Reconstruction of Religious thought in Islam 1930
जाविद नामा 1932- इसका तात्पर्य है, ‘अमरत्व की पुस्तक’| इस पुस्तक की तुलना दांते की प्रसिद्ध रचना ‘डिवाइन कॉमेडी’ से की जाती है|
असरार-ए-खुदी
बंग-ए-दारा
Message from the East (पयाम-ए-माशरिक़) 1923
Gabriel's Wing (बाल-ए-जिबरिक़) 1935
The Road of Moses (जरब-ए-कालिम)
इकबाल के राजनीतिक चिंतन के तत्वशास्त्रीय आधार
परम अहं-
इकबाल ने अपना बौद्धिक जीवन एक सर्वेश्वरवादी रहस्यवादी के रूप में आरंभ किया था| अर्थात ईश्वर सब कुछ है और सब कुछ ईश्वर ही है| (सर्वे खल्विदं ब्रह्मा)
आगे चलकर अपने कैंब्रिज के अध्यापकों के प्रभाव से वे आस्तिकवादी अनेकवादी बन गये| वे प्लेटोवादियों तथा सूफियों की इस धारणा के विरोधी हो गये कि जीवन में चिंतन ही सब कुछ है|
इसके बाद उनका कुरान के सिद्धांत में विश्वास बढ़ने लगा| तथा उनके अनुसार कुरान परम अहम् अखंड अहम् का प्रतिपादन करती हैं तथा बतलाती है कि उसी अहं से अनेकता तथा असीमता का प्रादुर्भाव होता है|
इकबाल एकेश्वरवाद व तौहीद के पक्के समर्थक थे| पर वे इस धारणा को नहीं मानते हैं कि परमात्मा या ईश्वर मानव रूप है, विशालकाय पुरुष है और पृथ्वी के उस पार स्वर्ग विराजमान है| कुरान में वर्णित तौहीद सिद्धांत के अनुसार ईश्वर एक है, अद्वितीय व अजन्मा है|
इकबाल के मत में विश्व में एक आध्यात्मिक सत्ता है| वे आत्म तत्व व भौतिक तत्व दोनों को ही शाश्वत मानते हैं
इकबाल आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत की भी आलोचना करते हैं, क्योंकि यह केवल भौतिक पदार्थों की संरचना बताता है, वह उस परम आध्यात्मिक सत्ता के बारे में कुछ नहीं बताता है, जो संपूर्ण भौतिक संरचना का आधार है| अपनी रचना ‘पियामे मशरिक’ में इकबाल ने भौतिकवादी विश्वदर्शन के खोखलेपन को उघाड़कर रख दिया है|
परमअहं सर्वव्यापी तथा विकल्पातीत दोनों हैं और पुरुष भी है| इकबाल ने लिखा है कि “परम अहं में कार्य तथा संकल्प का एकात्म्य होता है, उसकी सृजनात्मक शक्ति अहमो की एकता के रूप में कार्य करती है| ईश्वरीय शक्ति का हर परमाणु, चाहे वह अस्तित्व की श्रेणी में कितना निम्न क्यों न हो, एक अहं के रूप में कार्य करता है|
काल का सिद्धांत- (इकबाल का बर्गशा)-
जहां ब्रिटिश दार्शनिक मैकटैगार्ट के अनुसार काल वास्तविक है| कोई घटना अतीत, वर्तमान व भविष्य की है, यह उस मनुष्य की दृष्टि से कहा जा सकता है, जो उस घटना के संबंध में विचार करता है, स्वयं में अतीत, वर्तमान अथवा भविष्य कोई वस्तु नहीं है| इकबाल मैकटैगार्ट के इस दृष्टिकोण से भी असहमत है
इकबाल मैकटैगार्ट के अलावा यूनानीयों तथा हिंदुओं के इस दृष्टिकोण से भी असहमत है कि काल की गति, चक्र की गति के सदृश्य हैं|
काल की व्यवस्था के संदर्भ में इकबाल फ्रांसीसी दार्शनिक बर्गसां से प्रभावित है| बर्गसां के प्रभाव के कारण ही वे कहते हैं कि काल वास्तविक है| गणितीय काल अतीत, वर्तमान व भविष्य में नापा जा सकता है|
इकबाल विश्व की गतिशीलता के सिद्धांत को मानते हैं| उनकी दृष्टि में प्रकृति स्थिर तथा सीमित सत्ता नहीं है| वह सदैव के लिए निश्चित नहीं है, बल्कि उसमें सृजनात्मकता विद्यमान है| इस विषय में इकबाल के विचार व्हाइटहैड से मिलते हैं|
मानवीय अहं : स्वतंत्रता तथा अमरत्व-
मानवीय अहं के संबंध में इकबाल कुरान के दृष्टिकोण को स्वीकार करते हैं|
अहं आदि है अर्थात उसका कभी काल में प्रारंभ नहीं हुआ|
भौतिक प्राणी की मृत्यु के उपरांत अहं पृथ्वी में लीन नहीं हो जाता|
‘अपने रहस्य का नवीन उधान’ कविता में इकबाल ने लिखा है कि अहं अदृश्य है और उसके प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है|
इकबाल की रचना ‘जाविद नामा’ के अनुसार अहं के विकास की तीन अवस्थाएं हैं-
व्यक्तित्व की अवस्था- अहं की सृजनात्मक संभावनाओं का साक्षात्कार करना पहली अवस्था है|
सामाजिकता की अवस्था- अहं को दूसरे अहमो के संदर्भ में देखना दूसरी अवस्था है|
परम अवस्था- ईश्वर का साक्षात्कार करना तथा ईश्वरीय चेतना के पर्यवेक्ष्य में अहं को देखना, तीसरी अवस्था है|
अहं अमर नहीं है, किंतु उसमें अमरत्व की भावना है| इकबाल के शब्दों में “जब अहं परिपक्व होकर आत्मा की स्थिति प्राप्त कर लेता है तब उसके विनाश का डर नहीं रहता है|”
अति मानव या खुदी का सिद्धांत-
नित्शे की भांति इक़बाल भी अतिमानव के आदर्श के प्रतिपादक है|
उनके मत में अतिमानवता आत्मसयंम की प्रक्रिया पर आधारित है|
इक़बाल के अतिमानव के दो मुख्य गुण हैं-
पूर्ण आत्मसंयम
स्वेच्छापूर्वक ईश्वरीय आदेशों का पालन करने की क्षमता|
इकबाल का खुदी का सिद्धांत केवल आत्मा ही नहीं, बल्कि मानव के संपूर्ण व्यक्तित्व को समाहित करता है, क्योंकि इकबाल आत्मा व शरीर के गुणों में अंतर नहीं करते|
खुदी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की चरम अवस्था है| इसके तहत वह अपने अंदर ऐसे गुणों का विकास करता है, जो ईश्वरीय है|
इसके अनुसार व्यक्ति को अपने भीतर नई इच्छाएं पैदा करनी चाहिए व उन्हें प्राप्त करके जीवन के नये लक्ष्यों की तरफ बढ़ना चाहिए|
खुदी के सिद्धांत के तीन नियम है-
प्रथम नियम- धर्म की आज्ञाओ का पालन करना
द्वितीय नियम- आत्म नियंत्रण करना
तीसरा नियम- पृथ्वी पर व्यक्ति भगवान का प्रतिनिधि बनकर रहें|
Note- इकबाल ने अतिमानव का विचार जर्मन दार्शनिक नीत्से से लिया है, किंतु इकबाल का अतिमानव (इंसान-ए- कामिल) नीत्शे के अतिमानव की भांति एशिया (ईरान) के भू-स्वामी वर्ग के अभिजाततंत्रीय गुणों का प्रतिनिधित्व करने वाला ‘नार्दिक जाति का स्वर्णकेशी नरपशु’ नहीं है, अपितु आत्मसंयमी व ईश्वरीय प्रतिनिधि है|
कर्मयोग सिद्धांत की सराहना-
इकबाल यूनानियों, प्लेटोवादियों व सूफीवादियों के विरोधी हैं, क्योंकि ये तीनों सूक्ष्म व आध्यात्मिक चिंतन को ही आदर्श मानते हैं तथा स्थूल व तथ्यात्मक जगत की अपेक्षा करते हैं| सूफियों ने जाहिर (दृश्य) व वार्तिन (अदृश्य) के बीच जो भेद किया है, उससे विश्व तथा उसकी समस्याओं के प्रति उदासीनता उत्पन्न होती है|
इकबाल ने अपनी रचना ‘असरारे खुदी’ में लिखा है कि “पलेटो उन भेड़ों के झुंड में से एक था, जिन्होंने अकर्मण्यता, दरिद्रता तथा आत्महत्या का संदेश देकर लोगों के मन को दूषित और भ्रष्ट कर दिया|”
इकबाल के मतानुसार ‘इस्लाम कर्म तथा शक्ति का संदेश देता है|’ कर्म जीवन का सार है| विश्व शाश्वत शोक का स्थान नहीं है और न गुलाबो की शैया है|
इकबाल सामूहिक तथा सामाजिक क्रियाकलाप मे निरंतर भाग लेने की प्रेरणा देते हैं| इसलिए वे गीता में श्री कृष्ण द्वारा प्रतिपादित ‘कर्मयोग’ की सराहना करते हैं|
वीर पूजा-
इकबाल ने ‘नायक पूजा’ या ‘वीर पूजा’ का समर्थन किया है| तथा लोगों को ‘अतिमानव’ यानी सर्वगुण संपन्न मानव की शरण में जाने की सलाह देते हैं|
पाश्चात्यीकरण विरोध-
इकबाल भौतिकवादी यूरोपीय संस्कृति के कटु आलोचक थे| उनका मानना था कि यूरोप में बुद्धि, तर्क और भौतिक शक्तियां काफी हैं फिर भी वहां शोषण व अशांति है| इसका कारण उनके द्वारा धर्म व अध्यात्म की अवहेलना करना है|
इकबाल ने कहा कि ‘मार्टिन लूथर व प्रोटेस्टेंट सुधार के समय से ही पश्चिमी समाज ने ईसा मसीह की सार्वभौमिक आचार नीतियों को छोड़ राष्ट्रवाद रूपी संकीर्ण नीतियां अपना ली,जो आधुनिक मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा है|
इकबाल के राजनीतिक विचार-
धर्मतंत्र राज्य-
इकबाल इस्लाम का पुनरुत्थान करना चाहते थे|
इकबाल ने आधुनिक विश्व की समस्याओं के धार्मिक समाधान को स्वीकार किया| इसलिए उन्होंने नित्शे के अनीश्वरवाद तथा आधुनिक राष्ट्र राष्ट्रों द्वारा समर्थित भौतिकवाद व धर्मनिरपेक्षता की आलोचना की|
इकबाल ने मैकियावली को ‘शैतान का संदेशवाहक’ कहा, क्योंकि मैकियावली ने नीतिशास्त्र व राजनीति को एक दूसरे से पृथक कर दिया|
इकबाल ने धर्मनिरपेक्ष राज्य के बजाय धर्मतंत्रीय राज्य का समर्थन किया है|
इकबाल की दृष्टि में धर्म, प्रगति का तत्व है, अतः राजनीतिक शक्ति को इस्लाम के धार्मिक आदर्शों की दिशा में प्रवृत्त किया जाय|
इकबाल धर्म को व्यक्ति का निजी मामला नहीं मानते थे, बल्कि धर्म का जीवन के सभी पक्षों पर नियंत्रण चाहते थे|
पूंजीवाद और साम्यवाद की समीक्षा-
इकबाल पूंजीवाद व समाजवाद तथा साम्यवाद के विरोधी थे|
इकबाल कुरान के इस कथन में विश्वास करते थे कि ईश्वर ने प्राणियों के लिए पृथ्वी की रचना की है तथा पृथ्वी केवल ईश्वर की है| यदि कोई पूंजीपति अथवा जमीदार पृथ्वी पर अपना एकाधिकार जमाना चाहता है तो वह ईश्वरीय विधान में अनुचित हस्तक्षेप है|
इकबाल हर प्रकार के शोषण के शत्रु थे| उन्होंने श्रमिकों तथा कृषकों के दावों का समर्थन किया और भविष्यवाणी की कि पूंजीवादी अन्यायो के विरुद्ध किसी दिन क्रांति अवश्य होगी|
किंतु इकबाल ने समाजवाद को भी स्वीकार नहीं किया| उनको समाजवादी दर्शन के भौतिकवादी उग्रता से घृणा थी|
समाजवादी केवल शरीर की भौतिक आवश्यकताओं को अधिक महत्व देते थे, इस कारण मन और आत्मा की आवश्यकताओं की उपेक्षा करते थे|
इकबाल कार्ल मार्क्स के उन अनीश्वरवादी सिद्धांतों के आलोचक थे, जो केवल भौतिक सुविधाओं की समानता के उपदेश हैं|
इकबाल “राष्ट्रवाद तथा अनीश्वरवादी समाजवाद दोनों घृणा, संदेह व क्रोध की उन शक्तियों को उत्तेजित करते हैं, जो मनुष्य की आध्यात्मिक शक्तियों को क्षीण करती है|”
सर्वइस्लामवाद अथवा इस्लामी सार्वभौमिकवाद-
प्रारंभ में इकबाल ने देशभक्ति की कविताएं लिखी तथा हिंदू-मुस्लिम एकता तथा राष्ट्रवाद के समर्थक थे|
1904 में उन्होंने ‘तराना ए हिंद’ लिखा- ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’| उन्होंने राम तथा रामतीर्थ पर प्रशस्तियां लिखी|
किंतु बाद में मुसलमानों की मुस्लिम भ्रातत्व की आकांक्षा का समर्थन करने लगे और अपने को सर्वइस्लामवादी घोषित कर दिया|
उन्होंने राष्ट्रवाद की प्रादेशिक और जातीय धारणा के स्थान पर इस्लामिक पुनरुत्थान का संदेश दिया|
उनकी दृष्टि में इस्लाम न राष्ट्रवाद है, न साम्राज्यवाद है बल्कि एक ‘राष्ट्र संघ’ है| तौहिद (एकेश्वरवाद) के सिद्धांत से उन्होंने विश्व एकता का निष्कर्ष निकाला|
उन्होंने अपनी कविता ‘तराना-ए-मिल्ली’ में लिखा कि “चीन ओ अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा| मुस्लिम है हम, वतन सारा जहां हमारा|”
दयानंद सरस्वती ने जहां ‘वेदों की ओर लौटो’ का आह्वान किया वही इकबाल ने ‘आदि इस्लाम की ओर वापस चलो’ का नारा दिया|
सर्वइस्लामवाद का तात्पर्य है- सम्पूर्ण विश्व के मुसलमानों के भीतर एकता व बंधुत्व का भाव| इकबाल इसे ‘एकीकृत मिल्लत’ कहते हैं| सर्वइस्लामवाद का मुख्य आधार धर्म है|
राष्ट्रवाद का विरोध-
इकबाल ने राष्ट्रवाद की जगह ‘इस्लामी विश्ववाद’ की संकल्पना दी|
उन्होंने राष्ट्रवाद का विरोध दो आधारों पर किया है-
अखिल भारतीय राष्ट्रवाद के आदर्श से देश में हिंदुओं की सर्वोच्चता स्थापित हो जाएगी|
राष्ट्रवाद का आदर्श विभिन्न मुस्लिम देशों के मध्य प्रथक्ता व अलगाव के भाव पैदा करेगा|
इकबाल के अनुसार “आधुनिक राष्ट्रवाद का पाश्चात्य आदर्श मुस्लिम बिरादरी के लिए घातक विष है| यह पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों की इस्लाम को दुर्बल बनाने की कुटिल चाल है|
उनके अनुसार “राष्ट्रवाद मूर्ति पूजा का सूक्ष्म रूप था|”
पाकिस्तान संबंधी विचार-
इकबाल के अनुसार 1799 का वर्ष इस्लामी राजनीतिक पतन का चरम बिंदु था|
टीपू सुल्तान की पराजय तथा सवारिनो के युद्ध में तुर्की जहाजी बेड़े का विनाश इस्लाम के पराभव की पराकाष्ठा का घोतक है|
एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान शब्द रहमत अली की देन है| लेकिन स्वायत्त मुस्लिम राज्य का विचार इकबाल की देन है| इकबाल ने सांप्रदायिक विभाजन का समर्थन किया|
इकबाल ने सर्वप्रथम 1928 में मोतीलाल नेहरू समिति के समक्ष ‘एकीकृत उत्तरी-पश्चिम भारतीय मुस्लिम राज्य’ का प्रस्ताव रखा था|
इकबाल का मत था कि संयुक्त भारत में मुसलमानों का कोई भविष्य नहीं हो सकता|
मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में इकबाल ने कहा कि “संविधान को एक संमाग भारत की धारणा पर आधारित करना अथवा ब्रिटेन की लोकतांत्रिक भावनाओं के सिद्धांत को भारत में लागू करना अनजाने ग्रह युद्ध की तैयारी करना है|”
6 दिसंबर 1933 को अपने भाषण में इकबाल ने यह संकेत दिया कि देश का धार्मिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक संबंधों के आधार पर पुन: बंटवारा कर लिया जाय|
28 मई 1937 को इकबाल ने जिन्ना को पत्र लिखा, जिसमें सुझाव दिया कि मुस्लिम भारत अपनी समस्याओं का हल कर सकें, इसके लिए आवश्यक है कि देश का पुन: बंटवारा किया जाय|
राज्य व धर्म के द्वेत तथा राजनीतिक संप्रभुता का खंडन-
इकबाल ने पाश्चात्य जगत द्वारा समर्थित ‘दो तलवारों के सिद्धांत’ (सम्राट व धर्म की द्वैत सत्ता) का विरोध किया था|
उनके अनुसार इस्लाम एक सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था है, जिसमें धार्मिक व लौकिक सत्ता का एकीकरण है|
इस्लाम में राज्य, व्यक्ति तथा सरकार को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है|
उनके मत में धर्म व अध्यात्म से अलग कोई राजनीतिक संप्रभुता नहीं होती है|
इकबाल ने कहा कि “कुरान धर्म तथा राज्य को, आचारनीति तथा राजनीति को एक ही ईश्वरीय ज्ञान के अंतर्गत संयुक्त करना चाहती है|
लोकतंत्र तथा लोकप्रिय संप्रभुता की आलोचना-
इकबाल राजनीति लोकतंत्र के आलोचक थे| उनका कहना था कि विधानसभाओं तथा संसदों में जो वाद-विवाद तथा विचार-विमर्श होता है, वे पूंजीपतियों के मायाजाल मात्र है|
इकबाल ने आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय राज्य का समर्थन किया है, तथा जनप्रभुत्व के सिद्धांत का खंडन किया अर्थात जनता के बजाय ईश्वर सर्वोपरि है|
उन्होंने नारा दिया कि “लोकतंत्र से दूर और पूर्ण मानव के दास बन जाओ|”
लोकतंत्र के बारे में कहा कि “यह ऐसे ही है, जैसे 200 गधों के दिमाग से एक इंसान की सोच निकालना|
राष्ट्र संघ की आलोचना-
इकबाल का सर्वइस्लामवाद मुस्लिम भ्रातत्व पर आधारित था| इसलिए उन्होंने 1920 में बने राष्ट्र संघ (League of Nations) की आलोचना की|
उन्होंने राष्ट्र संघ को ‘यूरोपीय कूटनीति का दुर्बल संगठन’ कहा तथा भविष्यवाणी की कि राष्ट्र संघ का विनाश अवश्यम्भावी है|
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