Pandita Ramabai/ पंडिता रमाबाई (1858-1922)
जीवन परिचय-
प्रथम भारतीय नारीवादी विचारक पंडित रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 का कनारा जिला (कर्नाटक) में हुआ|
पंडिता रमाबाई भारतीय समाज सुधारक, सामाजिक कार्यकर्ता, महान नारीवादी, कवि व अद्येता थी|
इसका जन्म उच्चवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था| इसके पिता संस्कृत के विद्वान थे|
इसके पिता ने इनको संस्कृत भाषा में संस्कृत ग्रंथों की शिक्षा दी|
संस्कृत धर्मशास्त्रों के अध्ययन से इनको पता चला कि बिना कारण ही स्त्रियों पर इतने कठोर प्रतिबंध लगे हुए हैं|
इन प्रतिबंधों व शोषण के कारण इन्होंने ब्राह्मण पितृतंत्र का विरोध किया तथा नारीमुक्तिवाद का समर्थन किया|
माता-पिता की मृत्यु के बाद 20 वर्ष की आयु में कलकता चली गयी|
जातीय भेदभाव व पूर्वाग्रह के प्रति रोष की वजह से एक गैर ब्राह्मण वकील विपिन बिहारी दास मेधावी से 22 वर्ष की उम्र में विवाह किया| एक बेटी पैदा हुई तथा बेटी के जन्म के 2 वर्ष बाद पति की मृत्यु हो गयी|
संस्कृत के ज्ञान के कारण प्रोफेसर टोनी ने रमाबाई को ‘शिक्षा की देवी सरस्वती’ की संज्ञा दी|
संस्कृत ग्रंथों के ज्ञान के कारण इनको ‘पंडिता’, ‘सरस्वती’ जैसी उपाधियां दी गयी|
रमाबाई ने केशव चंद्र सेन को अपना गुरु माना|
ये थोड़े समय के लिए ब्रह्म समाज से भी जुड़ी थी|
1882 में रमाबाई ने ‘हंटर कमीशन’ के सामने नारी व्यवसायिक शिक्षा की मांग रखी|
1882 में रमाबाई पूना चली गयी और महिला कल्याण हेतु ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना की, जिसका विरोध तिलक ने किया था|
1883- 86 में शिक्षा प्राप्ति के लिए ब्रिटेन में रही तथा वहां ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया|
रमाबाई ने हिंदू धर्म के विकल्प में ईसाई धर्म का समर्थन किया|
1886 में रमाबाई अमेरिका चली गयी| वहां भारतीय उच्चवर्गीय जाति की विधवाओं के लिए ग्रह खोलने हेतु धन एकत्रित करने के लिए बोस्टन में ‘रमाबाई एसोसिएशन’ बनायी|
1889 में भारत लोटी तथा उच्च जातियों की विधवाओं हेतु बम्बई में ‘शारदा सदन’ (शिक्षा का घर) स्थापित किया|
बाद में इस संस्था को पूना ले गयी जहां हिंदू रूढ़ीवादी तत्वों व तिलक की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा|
असहयोग व आलोचना के कारण रमाबाई ने ‘शारदा सदन’ को ‘क्रिश्चियन मुक्ति सदन’ में बदल दिया| तथा बाद में पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन का नाम दिया|
1898 में पथभ्रष्ट स्त्रियों के उद्धार के लिए ‘कृपा सदन’ शुरू किया|
1919 में ब्रिटिश सरकार ने समाज सुधार के लिए इनको ‘केसर ए हिंद’ की उपाधि प्रदान की|
मृत्यु- 1922 में रमाबाई की मृत्यु हो गयी|
1989 में भारत सरकार द्वारा इनके नाम पर डाक टिकट जारी किया गया|
पंडिता रमाबाई को ‘गुलाम भारत की आजाद महिला’ भारत की ‘प्रथम उदारवादी नारीवादी’ ‘प्रथम सक्रिय नारीवादी कार्यकर्ता’ माना जाता है|
बाल गंगाधर तिलक द्वारा संचालित अखबार ‘केसरी’ ने ‘शारदा सदन’ पर हिंदू स्त्रियों के धर्मांतरण का आरोप लगाया था|
सत्यशोधक समाज के संचालक ज्योतिबा फुले ने रमाबाई की अनेक कार्यों के लिए प्रशंसा की है|
गैल आमवेट ने अपनी पुस्तक ‘सीकीग बेगमपुरा: दी सोशल विजन ऑफ एंटीकास्ट इंटएक्चुअल’ में लिखा है कि “रमाबाई द्वारा स्थापित मुक्ति सदन ‘एक आदर्श स्त्री समुदाय’ को स्थापित करने का प्रयास था, जिसे भारत में एक ‘नये येरूशलम’ की संज्ञा दी जा सकती है| जहां पर स्त्रियों ने बुनाई, डेयरी फार्मिंग, कृषि आदि से लेकर प्रिंटिंग प्रेस चलाई|
रचनाएं-
स्त्री धर्मनीति (मराठी भाषा में)- 1882
वायेज टू इंग्लैंड- 1983
The High Caste Hindu Women 1887
इसमें हिंदू महिलाओं की दीन-हीन स्थिति का वर्णन किया है| इसमें हिंदू स्त्री के बचपन, वैवाहिक जीवन व उसके विधवा जीवन का वर्णन है|
पीपल्स ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स 1888
द कंडीशन ऑफ द वूमेन इन USA 1889
फेमाइन एक्सपीरियंस इन इंडिया 1890
द टेस्टीमनी ऑफ अवर इन एक्सास्टिबल ट्रेजर- 1917
इसमें ईसाई धर्म अपनाने के बारे में विचार है|
मुक्ति प्रेयर बिल- 1903 में शुरू की गयी इंग्लिश मैगजीन
द न्यू टेस्टामेंट 1924
द लाइफ ऑफ द क्राइस्ट 1924
हिस्ट्री ऑफ ब्रह्मो-समाज
अर्ली लाइफ स्टोरी एंड ट्रैवल्स इन इंडिया
राइज एंड फॉल ऑफ द आर्यन मैन
भारत की प्रथम नारीवादी-
रमाबाई को भारत की प्रथम नारीवादी विचारक माना जाता है|
इन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार के अनेक कार्य किए|
1881 में इन्होंने ‘आर्य महिला सदन’ की स्थापना की|
उन्होंने ‘विधवा विवाह’ का समर्थन किया|
इन्होंने रूढ़िवादी सामाजिक व्यवस्था का विरोध किया| बाल विवाह और घरेलू हिंसा का विरोध किया| इसके लिए रमाबाई ने मराठी में ‘The Cry of Indian Woman’ लिखी|
इनके द्वारा 1882 में स्थापित ‘आर्य महिला समाज’ संगठन का लक्ष्य देहाती स्त्रियों में शिक्षा की बढ़ोतरी करना तथा बाल विवाह को रोकना था|
रमाबाई एसोसिएशन ने भारत में धर्मनिरपेक्ष स्कूल खोलने का कार्य किया|
इन्होंने मुक्ति मिशन की स्थापना की, जिसमें महिलाओं को शिक्षा व व्यवसायिक प्रशिक्षण दिया जाता था|
रमाबाई तिलक की आलोचना करती है, क्योंकि रमाबाई का मानना था कि तिलक सामाजिक सुधारों व महिलाओं के समान अधिकारों व स्वतंत्रता के विषय में पक्षपाती है|
इन्होंने अंतरजातीय विवाह, विधवा विवाह, प्रतिलोम विवाह पर बल दिया है|
उमा चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक रीराइटिंग हिस्ट्री- द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ पंडित रमाबाई’ 1998 में लिखा है, कि “यह विश्वास किया जाता है कि पंडिता ने स्त्रियों को केवल पुरुष के नृशंसतंत्र से मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया|”
रमाबाई ने अपनी पुस्तक The High Caste Hindu Women 1887 में मनुस्मृति के पवित्र नियमों में ऊंची जाति की हिंदू स्त्रियों की तात्कालिक कष्टप्रद स्थिति का मार्मिक वर्णन किया है|
इस पुस्तक को भारत का प्रथम नारीवादी मेनिफेस्टो कहा जाता है|
रमाबाई में स्त्री मुक्ति के तीन आधार बताए हैं-
आत्मनिर्भरता
शिक्षा
कार्य कुशलता
रमाबाई ने कहा है कि “मैं यह सत्य व ईमानदारी के साथ कह सकती हूं कि मनुस्मृति ही क्यों, मैंने संस्कृत भाषा में कभी भी ऐसी पवित्र पुस्तक नहीं पढ़ी, जिसमें स्त्रियों के बारे में असमानता या शोषण का कोई घृणास्पद भाव न हो’
गैल ऑमवेट ने लिखा है कि “रमाबाई औपनिवेशिक आधुनिकता के नये युग में ऐसी पहली ‘स्वायत्त नारीवादी’ थी, जिसने भारतीय महिलाओं को शोषण से मुक्ति दिलाने की प्राथमिकता पर पूरी जिंदगी समर्पित कर दी|”
रूथ वस्सार बार्गिस ने अपने लेख ‘पंडिता रमाबाई : ए वूमेन फॉर ऑल सीजन’ 2006 में लिखा है कि “रमाबाई वास्तव में सर्वेयुगीन महिला थी| वे वास्तविक समाज सुधारक, विदुषी, युगदृष्टा व कूटनीतिज्ञ थी|
सरोजिनी नायडू ने लिखा है कि “पंडिता रमाबाई वो पहली महिला ईसाई है, जिसे हिंदू संतों में गिना जाएगा|
ईसाई धर्म की स्वीकृति-
1883 में रमाबाई ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया और अपना नाम मैरी रामा रख लिया|
उनकी पुत्री मनोरमा ने भी ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया|
उनके अनुसार हिंदू धर्म में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब थी|
इन्होंने वैदिक युग की प्रशंसा की है, जिसमें पुरुष व महिला के बीच समानता विद्यमान थी|
ईसाई मिशनरियो ने जब रमाबाई द्वारा धर्म परिवर्तन को बढ़ावा न देने पर आलोचना की तब रमाबाई ने कहा कि “यह सच है कि मैं ईसाई चर्च की एक सदस्या हूं, पर मैं ईसाई पुरोहितो व धर्माध्यक्षों के मुंह से निकले प्रत्येक शब्द को मानने के लिए बाध्य नहीं हूं| मैंने बड़ी मुश्किल से अपने आप को भारतीय पुरोहित वर्ग के बंधनों से छुड़ाया है, अतः अब मैं वैसे दूसरे बंधन के लिए तैयार नहीं हूं|”
जाति व्यवस्था पर विचार-
रमाबाई महिलाओं के अधिकारों के साथ वर्ण व्यवस्था में निचले वर्ण के मानवाधिकारों पर बल देती है|
वह मनुस्मृति में वर्णित वर्ण व्यवस्था को प्रतिगामी, शोषणकारी व अमानवीय मानती थी|
इनके मत शास्त्रों को लिखते समय शुद्र व नारियों से कोई सलाह नहीं ली गयी| जाति व्यवस्था ही हिंदू राष्ट्र के अपघटन का कारण है|
संस्कृत भाषा स्त्री विरोधी है|
जाति व्यवस्था के विरोध के लिए प्रतिलोम विवाह, अंतरजातीय विवाह का समर्थन किया|
जातिवाद की समाप्ति के लिए शारदा सदन की स्थापना की व धर्मनिरपेक्षता तथा जाति निरपेक्षता पर बल दिया|
राष्ट्रवादी विचार-
रमाबाई के मत में भारत में एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण होना चाहिए, जिसमें सभी नागरिकों को स्वतंत्रता प्राप्त हो| आधुनिक भारत राष्ट्र का निर्माण अमेरिका के आधार पर होना चाहिए|
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