अगानासुत्त (Aggannasutta)
अगानासुत्त एक बौद्ध धार्मिक ग्रंथ है|
बौद्ध धर्म के त्रिपिटक है, जिसमें महात्मा बुद्ध के वचन संकलन है|
सुतपिटक-
सुत का अर्थ है- धर्मोंप्रदेश
सुतपिटक में बौद्ध धर्म उपदेशों का संकलन है|
विनयपिटक-
इसमें मिक्षु, भिक्षुणीयो के संघ व दैनिक जीवन संबंधी आचार-विचार का उल्लेख है|
अधिधम्मपिटक-
इसमें बौद्ध धर्म के बारे में उल्लेख है|
सुतपिटक के 5 निकाय है-
दीर्घ निकाय
मंझिम निकाय
संयुक्त निकाय
अगुतर निकाय
खुद्दकपिटक
सुत्तपिटक के दीर्घ निकाय में कुल 34 सुत्त (सूत्र) है| इसमें 27वां सुत्त आगनासुत्त है|
आगनासुत्त में बुद्ध के उपदेशों व प्रवचनों का वर्णन है, जो बुद्ध ने भारद्वाज व वशिष्ठ नामक दो ब्राह्मणों को दिए थे|
इन दोनों ब्राह्मणों ने भिक्षुक बनने के लिए अपने परिवार व जाति को छोड़ दिया था|
इस कारण अन्य ब्राह्मणों ने उसका अपमान किया तथा जाति से बहिष्कृत कर दिया था|
तब बुद्ध ने उन्हें जाति, वंश व नस्लीय श्रेष्ठता के झूठे दम्म, सामाजिक दुष्परिणामों व कुतर्कों के बारे में उपदेश दिया था|
बुद्ध उन्हें नैतिकता, सुकर्म व धम्म की महता बताते हैं तथा कहते हैं कि चारों वर्णों में कोई भी भिक्षुक बन सकता है|
अगानासुत्त की विषय वस्तु-
प्रथम भाग- अगानासुत्त के प्रथम भाग में वशिष्ट, भारद्वाज व बुद्ध की ब्राह्मणवाद पर चर्चा का वर्णन है|
द्वितीय भाग- इसमें ‘पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति’ का वर्णन किया गया है|
तृतीय भाग- इसमें ‘सामाजिक व्यवस्था की स्थापना’ व ‘जातियों के उद्भव’ का वर्णन है|
ब्राह्मणवाद पर विचार-
अगानासुत्त में जातिगत कर्मकांडों, अंधविश्वास, अतार्किक परंपराओं व ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध किया गया है|
अगानासुत्त की शुरुआत में गौतम बुद्ध की श्रावस्ती यात्रा का वर्णन मिलता है| इस यात्रा के दौरान दो ब्राह्मणों भारद्वाज व वशिष्ट ने बुद्ध से प्रभावित होकर संघ की सदस्यता ग्रहण करके भिक्षुक बन गए थे|
बुद्ध ने सामाजिक, लैंगिक व जातीय समानता पर बल दिया| धम्म व संघ में चारों वर्ण व स्त्रियों को दीक्षित होने का अधिकार था|
ब्राह्मणवादी विचारधारा ‘कि ब्राह्मण मुख से तथा शुद्र पैरों से उत्पन्न हुए हैं’ का बुद्ध ने विरोध किया है|
बुद्ध के अनुसार लोगों का मूल्यांकन व श्रेणीकरण जन्म के आधार पर नहीं, बल्कि कर्म के आधार पर होना चाहिए|
बुद्ध के मत में धम्म व्यक्ति के इस जन्म और मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम है, जो भी व्यक्ति अच्छे कर्म करेगा, वह किसी भी वर्ण का हो अरिहंत की स्थिति को पा सकता है|
UN घोषाल ने अपनी पुस्तक ‘A history of India Political ideas’ 1966 में लिखा है कि “अगानासुत्त सामाजिक व्यवस्था में दैवी निर्माण की वैदिक धारणा को चुनौती देता है| इसमें लोगों का विभाजन उनकी आवश्यकता, सुविधा व क्रियात्मक प्रदर्शन पर आधारित है|
बौद्ध धर्म मूलत: वैदिक धर्म में व्याप्त कुरीतियों तथा बुराइयों के विरोध का परिणाम था तथा यह एक मध्यमार्गी एवं व्यवहारिक धर्म के रूप सामने आया|
बुद्धों ने ब्राह्मणों की वरीयता का विरोध किया, क्षत्रियों की स्थिति में सुधार किया, व्यापारिक वर्ग वैश्य को संरक्षण वर्ग में सम्मानित किया तथा शूद्रों को समानता का दर्जा दिया|
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति-
अगानासुत्त के द्वितीय भाग में वर्णन
पृथ्वी पर जब जीवन की शुरुआत हुई उस समय सभी जीव प्रकाशमान थे| सूर्य व चंद्रमा का प्रकाश नहीं था| जीवो में कोई भेद नहीं था|
कालांतर में प्रकाश आया, जीवों में विभेद पैदा हुआ, यौन संबंधों की शुरुआत हुई तथा चावल की खेती शुरू हुई|
जातियों का उद्भव-
खतिया जाति (क्षत्रिय)-
चावल की खेती की शुरुआत से जमीन के प्रभुत्व व उत्पादन की समस्याएं पैदा हुई| उत्पादकों की चोरी शुरु हुई|
लालच, शोषण, झगड़ों की वजह से समाज में अव्यवस्था फैल गयी|
तब इस अव्यवस्था या मत्स्य न्याय से छुटकारे के लिए सामाजिक अनुबंध द्वारा संप्रभु पैदा किया गया|
इस प्रकार कानून व व्यवस्था की स्थापना के लिए सर्वप्रथम खतियां (क्षत्रिय) जाति पैदा हुई|
बुद्ध के मत तीन तरह के संप्रभु पैदा हुए-
महाजनसम्मत (The People Choice) जनता द्वारा नियुक्त महाजनसम्मत
खतिया (God of Rice Field) चावल क्षेत्रों का स्वामी
राजा- धम्म के साथ लोगों को खुश रखने वाला
बुद्ध ने क्षत्रिय वर्ग को सबसे श्रेष्ठ माना है|
बुद्ध “सभी जातियों में खतिया जाति सर्वश्रेष्ठ है, वह अपने ज्ञान व आचरण की वजह से देवताओं व पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ है|”
ब्राह्मण (झायका व अज्जायका)-
जब समाज में अनाचार बढ़ा व अव्यवस्था फैली तो कुछ लोग परेशान होकर शांति की तलाश में जंगलों में चले गये, तथा झोपड़ियों में रहकर ध्यान लगाते रहे| यही ब्राह्मण है|
बुद्ध इन्हे जयंती या झायका कहता है| जिसका तात्पर्य है- ‘ध्यान लगाने वाला’
इसमें से कुछ जो लोगों के साथ रहते थे, तथा किताबे लिखते थे| बुध ने उन्हें अज्जायका कहा, जिसका अर्थ है- ‘ध्यान न लगाने वाला’
वैशा (Vessa)-
वैशा का तात्पर्य है- वैश्य
ऐसे लोग जो परिवारों के साथ रहते थे तथा विभिन्न प्रकार के व्यवसाय प्रारंभ कर दिए वैश्य बने|
शुद्धा (Sudda)-
शुद्धा का का तात्पर्य- शुद्र
ऐसे लोग जो शिकारी जीवन में रहते थे, वे शूद्धा कहलाये|
शूद्धा का तात्पर्य है- जिनकी जीविका का आधार है- पीछा करना अर्थात शिकारी
तपस्वी-
उपयुक्त चारों जातियों के लोग, जो अपने जीवन से असंतुष्ट थे, जिन्होंने अपना घर छोड़ दिया तथा ब्रह्मचारी बन गए| यह पांचवी जाती थी|
इस प्रकार सामाजिक संरचना, स्वेच्छा व आवश्यकता पर आधारित थी|
बुद्ध के अनुसार कोई भी जाति अच्छी या बुरी, उच्च या निम्न नहीं होती है|
चारों जातियों में कोई भी तपस्वी बन सकता है, तथा निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है|
राज्य की उत्पत्ति-
बौद्ध धर्म में राज्य की उत्पत्ति के संदर्भ में सामाजिक समझौते सिद्धांत का समर्थन किया है|
अव्यवस्था से परेशान लोगों ने आपसी समझौते (महासम्मत चुनाव) के द्वारा एक राजा का चयन किया, जिससे अव्यवस्था उत्पन्न करने वाले उन लोगों को दंडित किया जा सके|
महासम्मत- जो बहुत से लोगों की सहमति से बना हो|
अगानासुत्त (दीर्घ निकाय) मे पहली बार राजा और उसकी राजसत्ता के प्रति जन सहमति दर्शाते हुए उसे महासम्मत कहा है,जो राजा के गणतंत्र रूप का संकेत है|
बौद्ध धर्म में राजनीति का मूल आधार नैतिकता है| यदि राजा अनैतिक होगा तो मंत्री व प्रजा भी अधार्मिक व अनैतिक होंगे, इसलिए राजा को नैतिक होना चाहिए|
अश्वघोष ने अपनी रचना ‘बुद्ध चरित्र’ में लिखा है कि “राजनीति धर्म व नैतिकता दोनों के विरुद्ध है, लेकिन बुरी होती हुए भी आवश्यक है, क्योंकि समाज में व्यवस्था बनाए रखना राजा के द्वारा ही संभव है|
अग़ानसुत्त में राजा की परिभाषा “धम्मं परमं रंजती त राज:” अर्थात राजा वह है जो धम्म के आधार पर प्रजा का रंजन (प्रसन्न) करता है|
बौद्ध धर्म में राजनीति को नैतिकता के अंकुश में रखा गया है|
UN घोषाल (A History of Indian Political Ideas) 1966 के अनुसार “अर्थशास्त्र के शिक्षक राज्य की सुरक्षा व समृद्धि के सर्वोपरि लक्ष्य के प्रति इतने समर्थित थे कि इस साधन में उन्होंने नैतिकता के उल्लंघन की अनदेखी कर दी, परंतु बौद्धधर्म ने अपनी कठोर व अनम्य नैतिक संहिता के चलते शासन कार्य के क्षेत्र में नैतिक नियमों के वर्चस्व में कोई ढील नहीं आने दी|
विधि निर्माण-
बौद्ध धर्म ने भारत में ‘राज्य द्वारा विधि निर्माण’ के विचार का सूत्रपात किया|
अर्थात राज्य के लिए कानून निर्धारित करने का अधिकार स्वयं राजा का है|
वैदिक व्यवस्था में कानून दैवीय आज्ञा के अधीन था तथा राजा कानून का संरक्षक मात्र था| कानून धर्मशास्त्रों के आदेश की अभिव्यक्ति मात्र था|
जबकि बौद्ध धर्म के अनुसार कानून प्रभुसत्ताधारी की इच्छा का परिणाम है|
संप्रभुता-
बौद्धवादी दर्शन में संप्रभुता या शासन के 7 घटक हैं-
चक्का रतन या चक्र खजाना (चक्रवर्ती राजा)-
यह चक्र नियंत्रक या संप्रभुता का प्रतीक या प्रतिनिधि राजा है|
राजा की लोगों व क्षेत्र पर प्रभुसत्ता होती है|
हाथी रतन या हाथी खजाना
अस्सा रत्न या अश्व खजाना
परिणायक रत्न या पार्षद खजाना
Note- हाथी, घोड़ा, पार्षद ये राज्य नियंत्रण के साधन हैं|
इत्यीरत्न या स्त्री रत्न खजाना
मणिरत्न या मणि खजाना
ग्रहपतिरत्न या क्षेत्र व प्रशासन खजाना
Note- इत्यीरत्न, मणिरत्न, ग्रहपतिरत्न ये नियंत्रण ये आधार हैं|
न्यायिक प्रशासन- न्यायिक प्रशासन के तहत सर्वोच्च अपीलीय परिषद ‘अष्ट कुलक’ थी, अर्थात 8 सदस्यीय न्यायिक परिषद|
दीर्घ निकाय एक संवाद संग्रह है, जिसमें बुध व उनके शिष्यों भारद्वाज व वशिष्ट के मध्य संवाद है|
राइस डेविड “मानव चिंतन के इतिहास में दीर्घ निकाय प्लेटों के संवाद जितना ही महत्व रखता है|”
दीर्घ निकाय में लिखा है कि ‘राजनीतिक तौर पर बुद्ध (राजा) बनने के लिए एक ‘महान व्यक्ति’ में 32 विशेषताएं होनी चाहिए| ऐसा राजा क्षेत्रीय विस्तार या भौतिक संसाधनों के नियंत्रण में विश्वास नहीं करता है, बल्कि न्यायोचित व नैतिक व्यवस्था के निर्माण में रुचि लेता है|
चक्रवर्ती राजा-
बौद्ध धर्म में आदर्श राजा को चक्रवर्ती राजा कहा गया है|
चक्रवर्ती राजा में निम्न 10 गुण होने चाहिए-
दान
शील
त्याग
इमानदारी
नम्रता
तपस्या
सद्भावना
अहिंसा
धैर्य
अविरोध
अर्नेस्ट बेंज- Buddhism or Communism : Which Holds The Future of Asia 1966
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