राज्य, राज्य व्यवस्था
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में राष्ट्र-राज्य प्रमुख कर्ता होता है|
राष्ट्र-राज्य के चार प्रमुख तत्व होते हैं-
जनसंख्या
भूमि/क्षेत्रफल
सरकार
प्रभुसत्ता
कर्ताओं के रूप में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में राष्ट्र-राज्यों की मुख्य विशेषताएं-
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में राष्ट्र-राज्यों की चार आधारभूत विशेषताएं हैं-
प्रभुसत्ता
राष्ट्रवाद
प्रांतीय अखंडता
कानूनी समानता
प्रभुसत्ता-
प्रभुसत्ता का अर्थ आंतरिक एवं बाह्य प्रभुसत्ता से है|
आंतरिक प्रभुसत्ता का अर्थ है- राज्य को अपने नागरिकों तथा उनके संबंधित समूहो के सभी प्रकार के व्यवहार को नियंत्रित करने का अधिकार|
बाह्य प्रभुसत्ता का अर्थ- प्रत्येक राज्य को अपनी इच्छित नीतियों के आधार पर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में इच्छित भूमिका निभाने का अधिकार|
राष्ट्र राज्यों की सामान्य स्वीकृति पर ही अंतरराष्ट्रीय कानून आधारित होता है| कानून राज्य से ऊपर नहीं होता है|
प्रभुसत्ता- संपन्न राष्ट्र-राज्यों के बीच संबंध ही अंतरराष्ट्रीय संबंध है|
राष्ट्रवाद-
राष्ट्र-राज्य व्यवस्था में राष्ट्रवाद के तत्व की विवेचना करते हुए जोसेफ फ्रेंकल ने लिखा है कि “जब से फ्रांसीसी क्रांति हुई है, तब से राष्ट्रवाद एक धार्मिक एवं भावनात्मक शक्ति बन गई है, जिससे राष्ट्र राज्यों में राज्य के सभी तत्वों को जोड़ने की शक्ति है और यह एक तरह की इकाई बन गई है| जहां कहीं राष्ट्र-राज्य वास्तविकता बन गया है वहां राष्ट्रवाद ने राज्य को शक्ति एवं बल दिया है और जहां इस इच्छा की पूर्ति अभी शेष है, वहां राष्ट्रवाद में बहूनस्लीय राज्यों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है|”
क्षेत्रीय अखंडता-
राष्ट्र-राज्य बनाने का श्रेय मुख्यतः क्षेत्रीय अखंडता को दिया जाता है, क्योंकि किसी भी राष्ट्र की संकल्पना उसके क्षेत्रीय अस्तित्व के द्वारा होती है| और राज्य की सीमाओं में रहने वाले लोगों की सुरक्षा उसका मुख्य उत्तरदायित्व होता है|
कानूनी समानता/ प्रभुसत्तात्मक समानता-
विश्व के सभी राष्ट्र-राज्यो को उसकी जनसंख्या, सैनिक शक्ति, आर्थिक शक्ति व उसके आकार को ध्यान में रखे बिना बराबर का प्रभुसत्ता संपन्न राज्य स्वीकार किया गया है|
अंतरराष्ट्रीय कानून ने सभी राज्यों को सभी अधिकारों एवं कानूनी प्रतिष्ठा के लिए बराबर का राज्य माना है|
अर्नाल्ड बोफोर्स राष्ट्र-राज्यों के संबंध में कहते हैं “वे कार्य, जो शक्ति के विकेंद्रीकरण में परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं, युद्ध और शांति के लिए तथा उपनिवेश तथा विस्तार के लिए पक्ष और विपक्ष हो, अंतरराष्ट्रीय संबंधों अर्थात अंतरराष्ट्रीय मामलों की प्रमुख विशेषता है| इसमें अनेक प्रभुसत्ता संपन्न राज्य लगातार एक दूसरे के संपर्क में रहते हैं|”
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों में परिवर्तन आया| एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका में प्रभुसत्ता संपन्न राज्यों का उदय हुआ तथा अंतर्राष्ट्रीय कार्य क्षेत्र बढ़ा तथा राष्ट्र राज्यों के बीच विश्व स्तर पर कार्य हुए|
इस पर कई विद्वानों ने राष्ट्र-राज्य व्यवस्था के अंत की भविष्यवाणी की तो कई विद्वानो ने इन कर्ताओं की भूमिका में कमी की बात कही|
हर्बट स्पीरो “आज अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का संचालन देशों के मध्य संबंधों के रूप में नहीं होता है और न ही अब राष्ट्रों के बीच संबंध सबसे महत्वपूर्ण आभास है|”
प्रो ए हरज तथा कैनेथ बोल्डिंग “परमाणु युग ने राष्ट्र-राज्य के संकल्प को तथा देशों की प्रभुसत्ता के विचार को बिल्कुल निरर्थक कर दिया|”
चार्ल्स मल्लिक “अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अब राष्ट्र ही कर्ता के रूप में परम तत्व नहीं है, बल्कि संस्कृतिया है|”
राष्ट्र-राज्य व्यवस्था में बाधाएं-
निम्नलिखित तत्वों ने पारम्परिक राज्य केंद्रीय अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में गतिरोध या बाधाएं उत्पन्न की हैं|-
बढ़ती हुई आपसी निर्भरता-
वर्तमान में प्रत्येक राष्ट्र-राज्य दूसरे राष्ट्र-राज्य पर निर्भर रहने लगा है|
कच्चा माल खरीदने एवं बने हुए माल को बेचने के लिए धनी राष्ट्रों को निर्धन राष्ट्रों पर निर्भर रहना पड़ता है|
इसी प्रकार निर्धन राष्ट्र बिना धनी राष्ट्रों की निर्भरता से अपने लोगों की मांगे पूरा नहीं कर सकते हैं|
इस पारस्परिक निर्भरता से प्रभुसत्ता कमजोर हुई है तथा राष्ट्र-राज्य की अवधारणा कमजोर हुई|
राष्ट्रवादी सार्वभौमिकता-
वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा के लिए राष्ट्र-राज्य को अपने राष्ट्रीय हितों के उद्देश्यों के साथ-साथ दूसरे देशों के राष्ट्रीय हितों को भी ध्यान में रखना पड़ता है|
अब शक्तिशाली कर्ताओं के लिए शस्त्र नियंत्रण और निशस्त्रीकरण की भावना को अनदेखा करना असंभव लगने लगा है, भले ही महाशक्तियां शस्त्र दौड़ में भी लिप्त रहने लगी हो|
अंतर्राष्ट्रीय एकीकरण की प्रवृति-
अंतरराष्ट्रीय आपसी निर्भरता के युग में राष्ट्-राज्यों में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वे अपने आप अपने विकासात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति कर ले| इसलिए उनके लिए अब क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग बहुत आवश्यक है| जैसे- EU, ASEAN, SAARC
परमाणु युग और उसका प्रभाव-
परमाणु शस्त्रों के आविर्भाव से राष्ट्र-राज्य व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है| एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य संभावित युद्ध में अपने लोगों की सुरक्षा के लिए अपने आप को असमर्थ पाता है|
राष्ट्रीय शक्ति पर प्रतिबंध-
विश्व में बढ़ती हुई जनमत की शक्ति, अंतरराष्ट्रीय कानून का संहिताकरण तथा उसकी बढ़ती हुई भूमिका, निशस्त्रीकरण के पक्ष में शक्तिशाली आंदोलन तथा शक्ति नियंत्रण व्यवस्था इत्यादि ऐसे तत्व हैं, जिन्होंने समकालीन युग में अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक देश की राष्ट्रीय शक्ति पर प्रतिबंध लगाया है|
आज किसी राष्ट्र-राज्य के लिए अंतरराष्ट्रीय संबंधों की, युद्ध अथवा शक्ति के द्वारा अपने उद्देश्यों की प्राप्ति यदि असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है|
राष्ट्र- राज्य की प्रभुसत्ता-संपन्न समानता के सिद्धांत का क्षय होना-
परंपरागत राष्ट्र-राज्य व्यवस्था में प्रभुसत्ता संपन्न समानता का सिद्धांत एक मूलभूत सिद्धांत था| लेकिन वास्तव में प्रभुसत्ता संपन्न समानता वास्तविकता की अपेक्षा सिद्धांत के रूप में में ही ठीक है|
क्योंकि राष्ट्र-राज्य व्यवस्था के आदर्श युग (1815 से 1945) में भी 8 या 9 शक्तिशाली यूरोपीय राष्ट्र ही अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में प्रभावी कर्ता थे|
वर्तमान में भी संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, फ्रांस तथा चीन के पास वीटो शक्ति है| इसके अलावा जापान, जर्मनी के साथ चार-पांच अन्य राष्ट्र मुख्य रूप से कर्ता है| अधिकतर छोटे राज्य पूर्णत: अथवा आंशिक रूप से धनी, विकसित तथा शक्तिशाली राष्ट्रों पर निर्भर है|
कई शक्तिशाली अराज्यीय कर्ताओं का आविर्भाव-
बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे कई शक्तिशाली अराज्यीय कर्ताओ के आविर्भाव से राष्ट्र-राज्य व्यवस्था पूरी तरह प्रभावित हुई है|
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने तीसरी दुनिया के देशों तथा अपने देशों की आर्थिक नीतियों तथा कार्यों को प्रभावित करने की विशाल शक्ति प्राप्त कर ली है|
उपरोक्त वर्णन से यह लगता है कि राष्ट्र-राज्य व्यवस्था समाप्त हो गई है| लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि राष्ट्र-राज्य व्यवस्था समाप्त हो गई है अथवा भविष्य में समाप्त हो रही है|
राष्ट्र-राज्य अभी भी विश्व में एक प्रभावी राजनीतिक संगठन है, जिसका हित, उद्देश्य तथा सामर्थ्य ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति के उतार-चढ़ाव को निर्धारित करता है|
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