संघर्ष तथा शांति
युद्ध का अभिप्राय-
दो राज्यों अथवा राजनीतिक इकाइयों के बीच हिंसक संघर्ष को युद्ध कहा जाता है, जिसमें एक हजार से ज्यादा लोगों की मृत्यु हो|
युद्ध संघर्ष से अलग है, क्योंकि संघर्ष में हिंसा का प्रयोग आवश्यक नहीं है|
रेडक्रॉस सोसाइटी “युद्ध राज्यों के मध्य संघर्षों का चरम स्तर है, जहां सेनाओं के मध्य सशस्त्र संघर्ष होते हैं|”
मार्टिन शॉ ने ‘युद्धों के अपह्रास’ का सिद्धांत दिया है|
रेमंड आरो ने ‘अतिशयोक्तिपरक युद्ध’ का सिद्धांत दिया है|
काल्डार ने ‘नवीन युद्ध’ की संकल्पना दी है|
सीमित युद्ध-
वर्तमान युग में घातक नरसंहार हथियारों के कारण युद्ध अत्याधिक भयानक बन सकता है|
इसलिए आज के युग में सीमित युद्ध की संकल्पना प्रचलित हो रही है, जिसका अभिप्राय है कि राज्यों के मध्य छोटे युद्ध हो सकते हैं, व्यापक युद्ध नहीं होंगे|
काल्डार के अनुसार “वर्तमान युद्धों में भूमंडलीकरण का व्यापक प्रभाव पड़ा है| अब युद्ध मानवीय स्वरूप का हो गया है| अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों की उपस्थिति, ऑक्सफ्रेम, सेव द चिल्ड्रन, शरणार्थी संगठन इत्यादि की उपस्थिति ने मध्ययुगीन बर्बर युद्धों के दौर को समाप्त कर दिया है|”
घातक नरसंहार के हथियार-
परमाणु हथियार, रासायनिक हथियार, तथा जैविक हथियारों को घातक नरसंहार के हथियार (WMP) कहा जाता है|
इनकी विनाशक क्षमता बहुत ज्यादा है तथा इसमें आम लोग भी मारे जाते हैं|
वर्तमान समय में युद्ध के लिए संपूर्ण युद्ध (Total War) शब्द प्रचलित है|
वर्तमान समय में युद्ध की परिवर्तित प्रकृति-
शीत युद्ध के दौरान युद्ध सामान्यतः राज्यों के मध्य होते थे|
शीतयुद्धोत्तर (1990 के बाद) युग में युद्ध राज्यों के अंदर हो रहे हैं| जैसे सूडान में गृह युद्ध के कारण सूडान का विभाजन हो गया|
1990 के बाद राज्यों के मध्य प्रजातीय संघर्ष विद्यमान है| जैसे- अफगानिस्तान में तालिबानी संघर्ष, रूस के चेचेन्या में अलगाववादी आंदोलन, पाकिस्तान में बलूचिस्तान के निर्माण के लिए बलूच प्रजातीय संघर्ष|
ग्रेग सिंडर और जॉन मलिक ने अपनी पुस्तक ‘डेवलपमेंट इन मॉडर्न वार फेयर’ में लिखा है कि वर्तमान राज्यों का स्वरूप तीन स्तर का है-
प्रथम स्तर- इसमें वे राज्य आते हैं, जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप व्यवहार करते हुए सामाजिक- कल्याण करते हैं| जैसे- पश्चिमी देश
दूसरे स्तर- इसमें वे राज्य आते हैं, जो कुछ समय के लिए स्थायित्व धारण करते हैं और कुछ समय के लिए अस्थायित्व| जैसे- पाकिस्तान, इंडोनेशिया आदि|
तृतीय स्तर- इसमें वे राज्य आते हैं, जहां की केंद्रीय सरकार अपनी पहुंच और शक्ति खो चुकी होती है तथा यहां राज्येत्तर संगठन कार्यरत होते हैं| जैसे- इराक, सीरीया तथा मध्यपूर्व के राज्य|
आतंक के विरुद्ध युद्ध-
11 दिसंबर 2001 के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने आतंक के विरुद्ध संघर्ष का नारा दिया| जिसके अंतर्गत अमेरिका ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया जिसे ऑपरेशन एंड्यूरिंग फ्रीडम का नाम दिया|
वर्ष 2002 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने ‘दुष्ट राज्यों की धुरी’ (Axis of Evil) का विचार दिया, जिसमें ‘ईरान, इराक एवं उत्तरी कोरिया’ को सम्मिलित किया|
पूर्व आशंका आधारित युद्ध-
इसके अंतर्गत एक राज्य दूसरे राज्य पर इसलिए हमला करता है कि दूसरा राज्य भविष्य में उसकी सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकता है|
जैसा कि वर्ष 2003 में अमेरिका ने इराक पर हमला किया और कहा कि इराक रासायनिक हथियार बना रहा तथा आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है|
युद्ध के कारण-
मानवीय आक्रामकता
आर्थिक लाभ की आशंका
राज्य के भौगोलिक विस्तार की आकांक्षा
शांति के उपाय-
यथार्थवादी, शांति निर्माण के लिए कूटनीतिक माध्यमों का सहारा लेते हैं|
उदारवादी, शांति स्थापना के लिए अंतर्राष्ट्रीय विधि एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के निर्माण के समर्थक है|
मार्क्सवादी, आर्थिक समानता को शांति स्थापना के लिए मूल माध्यम मानते है|
न्याय पूर्ण युद्ध-
माइकल वाल्जर ने न्यायपूर्ण युद्ध (Just War) की संकल्पना का विकास किया|
वाल्जर की रचना- Just and Unjust Wars: A Moral Argument with Historical illustrations 1977
Arguing About War 2004
अन्य तथ्य-
लियो टॉलस्टॉय की रचना- War and Peace 1869
ए.जे कोट्स की रचना- The Ethic of War 1997
कार्ल वान क्लाउजेविटज ने अपनी कृति ‘On War’ 1832 में लिखा है कि युद्ध अन्य मध्यमो के द्वारा संचालित राजनीति है|
मैरी कालडोर की रचना- New and Old Wars: Organised Violence in a Global Era 1999
मार्टिन वेन क्रेवेल्ड की रचना-The Transformation of War 1991
विलियम कोहेन ने “सैन्य क्रियाकलापों से क्रांति को’ युद्ध के रूप में वर्णित किया|”
डेविड जॉन किलकुलेन की रचना - ‘Countering Global Insurgency 2004’
नि: शस्त्रीकरण तथा शस्त्र नियंत्रण-
शस्त्र नियंत्रण का अर्थ है कि हथियारों के प्रसार को सीमित करना|
जहां निशस्त्रीकरण का विचार आदर्शवादी जिसके अनुसार समूचे विश्व में सभी प्रकार के हथियार समाप्त होने चाहिए|
वहां शस्त्र नियंत्रण एक व्यवहारिक विचार है, जिसके द्वारा हथियारों के प्रसार को रोका जाता है|
निशस्त्रीकरण की धारणा में विद्यमान सशस्त्र भंडार को समाप्त करने का निर्णय शामिल है| अतः यह धारणा वर्तमान से संबंधित है, भविष्य नहीं|
शस्त्र नियंत्रण की अवधारणा में शस्त्रों के विस्तार तथा उनके अनुचित प्रयोग के लिए भविष्य में शस्त्रों के उत्पादन को नियंत्रित किए जाने का विचार शामिल है|
मार्गेन्थो “शस्त्र दौड़ को समाप्त करने के उद्देश्य से विशेष या सभी प्रकार के शस्त्रों की समाप्ति या कटौती निशस्त्रीकरण कहलाती है|”
श्लीचर “शाब्दिक रूप से इसका अर्थ है शारीरिक अहिंसा के लिए भौतिक तथा माननीय साधनों की समाप्ति या कटौती| परंतु कुछ वर्षों के पश्चात इसका अर्थ अब दो या दो से अधिक राष्ट्र द्वारा स्वेच्छा से समझौते द्वारा ऐसे सभी उपकरणों को सीमित करना, कटौती करना, उन्मूलन या नियंत्रण करना कुछ भी हो सकता है|”
V.V डाइक “सैन्य शक्ति से संबंधित किसी भी नियंत्रित करने, प्रतिबंध लगाने के कार्य को निशस्त्रीकरण की कार्यवाही समझा जाता है|”
शस्त्र कटौती एवं शस्त्र प्रतिबंध-
शस्त्र नियंत्रण के दो भाग है -
शस्त्रों में कटौती
शस्त्रों पर प्रतिबंध
शस्त्रों में कटौती या आंशिक निशस्त्रीकरण-
इसका अर्थ है, इसमें शामिल राष्ट्र-राज्यों के लिए सर्व स्वीकृत शस्त्रों को रखना|
शस्त्रों में कटौती का फार्मूला या तो विश्व में या क्षेत्रीय स्तर पर लागू हो सकता है|
शस्त्रों पर प्रतिबंध-
कोलिम्बस तथा वुल्फ के अनुसार “शस्त्रों पर प्रतिबंध, जिसे शस्त्र निरोध भी कहा जाता है, में युद्ध के प्रभाव को सीमित करने तथा इसके अचानक छिड़ जाने की संभावनाओं को रोकने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अंतरराष्ट्रीय समझौते शामिल है|
कोलिम्बस एवं वुल्फ “अपने समग्र अर्थ में निशस्त्रीकरण विश्व में हथियारों का विनाश और सभी सशस्त्र सेनाओं की समाप्ति की मांग करता है|"
कोलिम्बस एवं वुल्फ की रचना- Introduction to International Relations: Power and Justice 1985
निशस्त्रीकरण के भेद-
निशस्त्रीकरण शब्द का प्रयोग बड़े व्यापक अर्थ में किया जाता है| इसमें हथियारों की सीमा निश्चित करना या उन पर नियंत्रण करना या उन्हें घटाना शामिल है|
निशस्त्रीकरण के निम्न भेद/ प्रकार है-
गुणात्मक व मात्रात्मक निशस्त्रीकरण-
गुणात्मक निशस्त्रीकरण- यह केवल कुछ खास किस्मो के हथियारों पर सीमा या रोक का निर्देश देता है|
मात्रात्मक निशस्त्रीकरण- यह सब प्रकार/ वर्गों के हथियारों के नियंत्रण पर बल देता है|
सामान्य व व्यापक निशस्त्रीकरण-
सामान्य निशस्त्रीकरण- इसमें सब या अधिकतर महाशक्तियां हिस्सा लेती हैं, पर यह आवश्यक नहीं है कि वे सब प्रकार के हथियारों के त्याग के लिए वचनबद्ध हो|
व्यापक निशस्त्रीकरण- इसके अंतर्गत सभी वर्गों के सब हथियारों का नियंत्रण या निषेध शामिल है| इसको पूर्ण या संपूर्ण निशस्त्रीकरण (Total Disarmament) भी कहा जाता है| पूर्ण या व्यापक निशस्त्रीकरण का अर्थ है अंततः ऐसी विश्व व्यवस्था ले आना, जिसमें युद्ध के सारे मानवीय और भौतिक साधन समाप्त कर दिये गये हो|
इस प्रकार निशस्त्रीकरण का आशय हथियारों पर कोई निश्चित सीमा से लेकर उसके पूर्ण परित्याग तक कुछ भी हो सकता है| निशस्त्रीकरण एकपक्षीय, द्विपक्षीय, सामान्य, स्थानीय, आंशिक, पूर्ण, नियंत्रित या अनियंत्रित हो सकता है|
निशस्त्रीकरण की विशेषताएं एवं मान्यताएं-
निशस्त्रीकरण शांति की स्थापना का एक साधन है|
निशस्त्रीकरण का उद्देश्य राष्ट्रों को लड़ाई के साधनों से वंचित कर देना है|
निशस्त्रीकरण दृष्टिकोण के अनुसार, युद्ध का एकमात्र प्रत्यक्ष कारण शस्त्रों का अस्तित्व है|
आइनिस क्लाड के मत में हथियारों के तुरंत सुलभ होने से युद्ध करना आसान हो जाता है| हथियारों की सुलभता राष्ट्र नेताओं को युद्ध में कूदने का प्रलोभन है|
हैडले बुल (The control of the arms race 1961) मानना है कि हथियारों की होड़ स्वयं ही तनाव की अभिव्यक्ति है, इसलिए निशस्त्रीकरण राजनीतिक समझौते के बाद ही लाया जा सकता है, अर्थात समझौते के माध्यम से तनाव समाप्त करके| इनका मानना है कि हथियारों की दौड़ से तनाव उत्पन्न नहीं होता है| बल्कि तनाव की वजह से हथियारों की दौड़ उत्पन्न होती है|
क्विंसी राइट (A study of war 1965) ने कहा है कि निशस्त्रीकरण से संभवत: युद्ध होने की प्रवृति पैदा होगी| इसका मानना है कि युद्ध होने की संभावना उस समय अधिक रहती है जब राज्यों के पास हथियार कम हो| यदि राज्यों के पास प्रचुर हथियार है तो वे एक दूसरे को नष्ट करने की शक्ति हाथ में होने के कारण एक दूसरे को रोकते रहेंगे|
निशस्त्रीकरण का आर्थिक पक्ष-
निशस्त्रीकरण के पक्ष में एक तर्क आर्थिक भी है| अर्थात निशस्त्रीकरण से बहुत सारे आर्थिक साधन प्राप्त किए जा सकते हैं, जिन्हें युद्ध के अतिरिक्त अन्य रचनात्मक कार्यों में लगाया जा सकता है|
सेमूर मैलमैन ने हथियारों की होड़ की स्थान पर Peace Race अर्थात शांति की होड़ का विचार प्रस्तुत किया है| उसने साधनो को विश्व उद्योग विस्तार और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की दिशा में लगाने का अनुरोध किया है|
सेमूर मैलमैन की रचनाएं-
The Peace Race 1962
World Without war 1958
एमिटाई एटजियोनी (रचना Winning Without war 1964) ने कहा है कि “अमेरिका के लिए सोवियत संघ के साथ हो रहे युद्ध में विजय प्राप्त करने का सबसे उत्तम तरीका यह है कि वह अल्पविकसित देशों के विकास कार्यक्रमों में मदद देने में सोवियत संघ के साथ प्रतियोगिता करें|”
निशस्त्रीकरण के आर्थिक तर्क की आलोचना -
निशस्त्रीकरण से मंदी पैदा होती है, जिसके फलस्वरूप समृद्धि का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है|
निशस्त्रीकरण से आयुद्ध-व्यय कम हो जाने की संभावना है, लेकिन आयुद्ध-व्यय वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी दोनों प्रकार की प्रगति के लिए आवश्यक है|
एमिल बोनोइट निशस्त्रीकरण से तो पूरी सहानुभूति रखते हैं, लेकिन इससे उत्पन्न होने वाली मंदी की चेतावनी भी देते हैं| इन्होंने मंदी से बचने का एकमात्र मार्ग नियोजन को बताया है|
जबकि राष्ट्रपति हर्बट हूवर और उनके प्रतिनिधियों ने 1932 के विश्व निशस्त्रीकरण सम्मेलन में यह विचार दिया कि हथियारों पर होने वाला खर्च मंदी का कारण है|
हैडले बुल ने कहा कि “असैनिक प्रौद्योगिकी के लिए पर्याप्त और स्वतंत्र साधन खोजने की समस्या का संबंध ऐसे विषय से है जिनका अभी पूरी तरह अध्ययन नहीं हुआ है| पर इसका अर्थ यह नहीं है कि निशस्त्रीकरण हो जाने से सारी वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी प्रगति रुक जाएगी|
अर्नाल्ड टायनबी ने कहा है कि यदि निशस्त्रीकरण हो जाता है और यदि सामाजिक परिवर्तन के लिए शांतिपूर्ण तरीके अपनाए जाते हैं तो मानव प्रगति में कोई शिथिलता नहीं आयेगी|
निशस्त्रीकरण के विरुद्ध यह भी आक्षेप है कि प्रत्येक राष्ट्र सुरक्षा पहले चाहता है और समृद्धि बाद में| उदाहरण- 1962 के भारत चीन युद्ध, 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद भारत की आर्थिक योजनाओं में कल्याण से हटकर रक्षा पर अधिक बल दिया जाने लगा|
एडम स्मिथ की धारणा थी कि प्रतिरक्षा समृद्धि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है|
निशस्त्रीकरण और शस्त्र नियंत्रण का नैतिक पक्ष-
निशस्त्रीकरण के पक्ष में एक तर्क नैतिक भी है| इस तर्क का आधार यह है कि युद्ध नैतिक दृष्टि से अनुचित है|
शांतिवादी और अन्य लोग जो युद्ध के नैतिक अनौचित्य में विश्वास रखते हैं, उनका कहना है कि आयुध (हथियार) रखने का अर्थ है युद्ध की मुक्त स्वीकृति|
नैतिक तर्क हथियारों के उपयोग के साथ हथियारों के रखने पर भी चिंतित होता है|
क्वेकर्स और ईसाई संप्रदाय और गांधीजी नैतिक आधार पर निशस्त्रीकरण का समर्थन करते हैं|
निशस्त्रीकरण के नैतिक तर्क में दो बातें महत्वपूर्ण है-
नैतिक भावनाओं की प्रेरणा से किया जाने वाला निशस्त्रीकरण पूर्ण निशस्त्रीकरण होगा|
जो राष्ट्र युद्ध को सर्वथा अनुचित मानता है, उसे एकपक्षीय निशस्त्रीकरण (Unilateral Disarmament) करना होगा|
एकपक्षीय निशस्त्रीकरण धार्मिक, नैतिक और आचार संबंधी विचारों के आधार पर खड़ा होता है|
लुइ मम्फर्ड निशस्त्रीकरण के नैतिक आधार को मानता है, जबकि बर्टेंड रसैल, स्टीफेन किंग हाल, C राइट मिल नैतिक आधार का परमाणु युद्ध व्यवहारिकतावाद के आधार पर विरोध करते हैं|
रसैल (रचना Common Sense and Nuclear Warfare 1959) का मत है कि “सभ्यता पर परमाणु हथियारों की होड के बोझ का बुरा प्रभाव पड़ेगा और उस बोझ को युद्धोत्तर उपायों से हल्का करना चाहिए|”
एकपक्षीय निशस्त्रीकरण का विचार अहिंसक प्रतिरक्षा के विचार से जुड़ा है|
थियोडोर एबर्ट ने आयुधान्तरण (Trans- armament) का सिद्धांत दिया है| इस सिद्धांत का अर्थ यह है कि सैनिक प्रतिरक्षा व्यवस्था के स्थान पर अहिंसक प्रतिरक्षा व्यवस्था लायी जाये| जेने शार्प ने इसे तीसरा दृष्टिकोण कहा है|
निशस्त्रीकरण के पक्ष में तर्क-
निशस्त्रीकरण से अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सुदृढ़ होती है और अंतरराष्ट्रीय तनाव घटता है|
इससे आर्थिक समृद्धि बढ़ती है|
निशस्त्रीकरण नैतिक उद्देश्यों की घोषणा करता है|
निशस्त्रीकरण के लिए किए गये प्रयास-
निशस्त्रीकरण कोई नई घटना नहीं है, लेकिन इसको सर्वव्यापी मान्यता द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मिली है|
इमैनुएल कांट ने कहा है कि “राज्यों के बीच शांति के लिए आवश्यक शर्त यह है कि स्थायी सेनाएं समाप्त कर दी जाय|” अर्थात वास्तव में निशस्त्रीकरण का विचार मनुष्य के मन में 150 वर्ष से अधिक समय से है|
क्वेकर्स (ईसाई शांति संप्रदाय) ने जब 17वीं और 18 वीं सदी में पेंसिलवेनिया कॉलोनी पर शासन किया तो किसी भी प्रकार सेना पर खर्च नहीं किया|
1648 में वेस्टफेलिया की संधि में अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण तथा सैनिक कटौती का विचार दिया गया|
1816 में रूस के जार ने शस्त्रास्त्रो में कटौती का पहला सुव्यवस्थित प्रस्ताव रखा|
1817 में ब्रिटेन और अमेरिका में रश-बेगोट समझौता हुआ| इसके द्वारा कनाडा-अमेरिका सीमांत को निसैन्य कर दिया|
प्रथम हेग सम्मेलन 1899 -
रूस के जार निकोलस द्वितीय की प्रेरणा से पहला हेग सम्मेलन हुआ|
कुल 28 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया|
इस सम्मेलन में शस्त्रास्त्रो में कटौती के उपायों पर विचार-विमर्श किया गया| तथा मानव जाति की भौतिक तथा नैतिक भलाई के कार्यों में वृद्धि करने तथा सैनिक व्यय में कटौती करने का सुझाव दिया गया|
इस सम्मेलन में दो निश्चय किए गए-
हवा में शस्त्रों तथा विस्फोटको को दागने पर प्रतिबंध लगाया गया|
बेहोश करने वाली गैस तथा बड़ी-बड़ी गोलियों के प्रयोग पर रोक लगा दी गयी
द्वितीय हेग सम्मेलन 1907-
कुल 43 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया|
इसमें सैनिक व्यय को सीमित करने की सिफारिश की गयी|
प्रथम हेग सम्मेलन से कम सफल रहा|
तीसरा हेग सम्मेलन 1915 में होना था, लेकिन प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो जाने की कारण नहीं हुआ|
1919 से 1939 तक राष्ट्र संघ के अंतर्गत निशास्त्रीकरण-
8 जनवरी 1918 को अपने 14 सूत्रीय भाषण में अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन ने आंतरिक सुरक्षा के अनुकूल राष्ट्रीय शस्त्रास्त्रो को निम्नतम स्तर तक करने की अपील की|
राष्ट्र संघ के प्रसंविदा में यह स्पष्ट किया गया कि राष्ट्र संघ का मुख्य कार्य अंतरराष्ट्रीय शांति की स्थापना के साधन के रूप में निशस्त्रीकरण पर कोई न कोई समझौता करना है|
राष्ट्र संघ के प्रसंविदा के अनुच्छेद 8 में घोषणा की गई कि “संघ के सदस्य यह स्वीकार करते हैं कि शांति की स्थापना के लिए राष्ट्रीय शस्त्रास्त्रो को राष्ट्रीय सुरक्षा के अनुरूप निम्नतम स्तर तक कम किया जाय तथा अंतरराष्ट्रीय उत्तरदायित्व की साझी कार्यवाही द्वारा लागू किया जाय|”
राष्ट्र संघ की प्रसंविदा के अनुच्छेद 1 में राष्ट्र संघ की सदस्यता की शर्तें हैं -
राष्ट्र शस्त्र नियंत्रण को स्वीकार करने की इच्छा रखें|
राष्ट्र अपनी थल, जल तथा वायु सेना के संबंधों में लीग द्वारा निर्धारित उत्तरदायित्वो को माने|
1919 से 1939 तक राष्ट्र संघ द्वारा निम्न प्रयास किये गये-
अस्थाई मिश्रित आयोग (Temporary mixed Commission, TMC) (1920 - 24)
1920 में लीग की सभा ने विशेषज्ञों की एक विशेष समिति बनाने का प्रस्ताव स्वीकार किया| इस समिति का कार्य हथियारों की संभावित कमी करने से उत्पन्न राजनीतिक व आर्थिक प्रश्नों पर विचार करना था|
इस समिति को अस्थायी मिश्रित आयोग कहा गया|
इसकी पहली बैठक 1921 में हुई|
इसके अधिकतर सदस्य असैनिक थे|
अपने 4 वर्षों के कार्यकाल में TMC ने निशस्त्रीकरण के लिए चार महत्वपूर्ण प्रयास किए, जो निम्न है-
प्रत्येक राष्ट्र की राष्ट्रीय आवश्यकतानुसार स्थल सेना सेना की संख्या निर्धारित करना|
1912 के वाशिंगटन सम्मेलन के सिद्धांतों का विस्तार अहस्ताक्षरित शक्तियों तक करना तथा नौसेना को सीमित करना|
शस्त्रास्त्रो में कटौती के आधार के रूप में सामूहिक सुरक्षा स्थापित करना| 1923 में लीग की सभा ने आक्रमण के शिकार हुए लोगों को अंतरराष्ट्रीय सहायता देने के लिए ‘पारस्परिक सहायता संधि’ (Treaty of Mutual Assistance) का प्रारूप स्वीकार किया|
निशस्त्रीकरण की दिशा में एक सामान्य आचार संहिता स्वीकार की गयी| इसके तहत 1924 में लीग सभा ने जिनेवा प्रोटोकॉल सर्वसहमति से स्वीकार किया|
लेकिन इन चारों प्रयासों को सदस्य देशों ने स्वीकार नहीं किया|
आयोग के ब्रिटिश प्रतिनिधि लार्ड एशर ने एशर योजना प्रस्तुत की| इस योजना के तहत यूरोप की स्थल सेनाओं की सीमा तय करने का प्रयास किया गया|
तैयारी कमीशन (Preparatory Commission) 1925-
1925 में लीग ऑफ़ नेशंस ने निशस्त्रीकरण सम्मेलन के लिए तैयारी करने के लिए तैयारी आयोग की स्थापना की|
तैयारी आयोग की पहली बैठक 1926 में हुई|
तैयारी आयोग को सबसे पहले निम्न प्रश्नों का हल करना था-
आयुध या हथियार (Armaments) शब्द का अर्थ क्या है?
इसकी सीमा तय कैसे की जाय?
इसमें कुछ को आक्रामक तथा कुछ को प्रतिरक्षात्मक माना जाय|
क्या नागरिक उड़यन और सैनिक उड़यन में अंतर किया जा सकता है?
6 वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद कमीशन एक संधि प्रारूप तैयार करने में सफल हो गया, जिसमें निशस्त्रीकरण के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की भूमिका तैयार हो गयी|
जेनेवा सम्मेलन 1932-
शस्त्रास्त्रो में कटौती तथा ‘प्रतिबंध प्रारूप’ पर विचार करने के लिए 3 फरवरी 1922 को जेनेवा में सम्मेलन हुआ|
इसमें 61 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया|
इसकी अध्यक्षता आर्थर हैण्डर्सन ने की |
2 वर्षों के विचार विमर्श के बाद शस्त्र नियंत्रण पर एक समझौता हो गया, जिसमें निम्न में शामिल है-
जहाजों या गुब्बारों द्वारा गिराए जाने वाले बम, जीवाणुओ से युक्त रासायनिक शस्त्रों पर प्रतिबंध लगा दिया गया|
शस्त्रों की समाप्ति की, शस्त्रों के व्यापार के अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण तथा शस्त्रों के बजट मुद्रण की आवश्यकता पर बल दिया गया|
1919 से 1939 के दौरान लीग से बाहर निशस्त्रीकरण के प्रयत्न-
हथियारों का गुणात्मक सीमाबंधन-
ब्रिटिश विदेश मंत्री सर जॉन साइमन ने एक सुझाव रखा जिसे हथियारों के गुणात्मक सीमाबंधन (Qualitative Limitation) का नाम दिया गया|
इसका अभिप्राय है कि सीमाबंधन हथियारों की संख्या के आधार पर न हो, बल्कि उनके ‘प्रहारक’ या ‘आक्रामक’ समझे जाने के आधार पर हो|
वाशिंगटन सम्मेलन 1921-22
इस सम्मेलन में ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जापान तथा इटली ने 5 शक्ति संधि (Five Power Treaty) पर हस्ताक्षर किए|
इस संधि के द्वारा इन पांच शक्तियों की नौसेना की क्षमता को निर्धारित किया गया|
सार्वजनिक नौसेना सम्मेलन 1927-
अमेरिकी राष्ट्रपति केलौग (Coolidge) के प्रयत्नों से 1927 में जेनेवा में सम्मेलन बुलाया गया|
इस सम्मेलन में अमेरिका, इंग्लैंड, जापान ने भाग लिया|
यह सम्मेलन असफल रहा|
केलौग-ब्रियेण्ड पेक्ट 1928-
केलोग- ब्रियेण्ड पेक्ट से ब्रिटेन और अमेरिका के बीच कुछ सद्भावना फिर से कायम हुई|
लंदन नौसेना संधि 1930-
इस संधि के द्वारा ब्रिटेन, अमेरिका तथा जापान के क्रूजरो, विध्वंसकों तथा पनडुब्बियों में भार वाहक क्षमता को सीमित करना स्वीकार किया गया|
इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले देश- ब्रिटेन, अमेरिका, जापान
फ्रांस तथा इटली ने हस्ताक्षर नहीं किए|
मैक्डोनाल्ड योजना 1933-
जनवरी 1933 में जब हिटलर जर्मनी का चांसलर बना, तब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डोनाल्ड ने एक योजना प्रस्तुत की| यह योजना दोनों विरोधी विचारों के बीच मध्यम मार्ग पर आधारित थी, तथा इसमें गतिरोध दूर करने का प्रयास किया गया|
लंदन नौसेना सम्मेलन 1935-36-
यह सम्मेलन नौसेना के शस्त्रास्त्रो को सीमित करने का प्रयत्न था|
इस सम्मेलन में भाग लेने वाले देशों ने यह स्वीकार किया कि वे भविष्य में नौसेना निर्माण संबंधी कार्यक्रमों की सूचना का आदान-प्रदान करेंगे|
एंग्लो- जर्मन नौसेना समझौता 1935-
यह समझौता ब्रिटेन और जर्मनी के मध्य हुआ|
इस संधि द्वारा ब्रिटेन ने विभिन्न प्रकार के युद्ध पोतो में वृद्धि करने के जर्मनी के अधिकार को स्वीकार किया|
1919- 1937 के दौरे में किए गए सभी प्रयास असफलताओं से भरे पड़े थे| इसी कारण शूमैंन ने लिखा है “तीनों महा-नौसैनिक शक्तियों पर परिमाणात्मक प्रतिबंध लगाने वाली सारी संधिया समाप्त हो गयी|”
हैंस जे मार्गेंथाऊ “निशस्त्रीकरण के प्रयासों का इतिहास अधिक असफलताओ और कम सफलताओं का इतिहास है|”
द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में UNO के अंतर्गत निशस्त्रीकरण-
UNO के चार्टर में लगभग 3 अनुच्छेद निशस्त्रीकरण से संबंधित है. जो निम्न है-
अनुच्छेद 11-
इसमें निशस्त्रीकरण के संबंध में महासभा के कर्तव्यों का वर्णन है|
“अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा की स्थापना के लिए सार्वजनिक सहयोग के सिद्धांतों पर भी विचार कर सकती है| इसमें निशस्त्रीकरण का परिचालन करने वाले तथा शस्त्रास्त्रो का नियमन करने वाले सिद्धांत में शामिल है, तथा वह सुरक्षा परिषद को या उनके सदस्यों या दोनों को ही इन सिद्धांतों के संबंध में सुझाव दे सकती है|
अनुच्छेद 25-
इसमें निशस्त्रीकरण के संबंध में सुरक्षा परिषद के कार्यों का उल्लेख है|
“विश्व में के मानवीय तथा आर्थिक साधनों को कम से कम शस्त्रास्त्रो की ओर मोड़ने के प्रयत्नो के साथ अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा की स्थापना करने के लिए तथा इसे बनाए रखने के लिए शस्त्रास्त्रो के नियमन की व्यवस्था के लिए UNO सदस्यों के सामने रखी जाने वाली योजना बनाने के लिए सुरक्षा परिषद उत्तरदायी है|”
अनुच्छेद 47-
यह अनुच्छेद सुरक्षा परिषद की सहायता तथा परामर्श के लिए एक कमेटी का निर्माण करते हुए घोषणा करता है कि यह सुरक्षा परिषद को उन विषयों पर परामर्श तथा सहायता देगी जो उसको सौंपे जाएंगे|
संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतर्गत निशस्त्रीकरण के लिए निम्न प्रयत्न किए गए-
अणु ऊर्जा आयोग (Atomic Energy Commission) 1946
26 जनवरी 1946 को महासभा ने अणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की|
सदस्य- सभी स्थायी सदस्य व कनाडा
अर्थात USA, USSR (रूस) ब्रिटेन, चीन, फ़्रांस व कनाडा
आयोग को विध्वंसक कार्यों के लिए अणु ऊर्जा के दुरुपयोग को रोकने की दिशा में उपाय सुझाना था|
यह आयोग निम्न उद्देश्यों के लिए सिफारिश करेगा-
शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए मूल वैज्ञानिक ज्ञान का सभी देशों के बीच आदान-प्रदान|
केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए अणु शक्ति पर नियंत्रण
राष्ट्रीय शस्त्रास्त्रो से अणु शस्त्रों तथा जन विध्वंस के दूसरे शस्त्रों का बहिष्कार|
निरीक्षण करने के लिए प्रभावशाली सुरक्षात्मक उपाय के साथ राज्य द्वारा किसी भी धारा को भंग करने या संधि मानने में टालमटोल करने से रोकने के उपाय तथा बचाव|
इस आयोग को सुरक्षा परिषद के अधीन रखा गया, और इसको सभी सिफारिशें सुरक्षा परिषद को करनी थी|
आयोग की पहली बैठक 14 जून 1946 को हुई|
लेकिन अमेरिका (जो अणु संपन्न था) और सोवियत संघ (जो अणु शक्ति बनने की दिशा में अग्रसर था) के मध्य मतभेदों के कारण अणु ऊर्जा आयोग अपने उद्देश्य में असफल रहा|
परंपरागत शस्त्र आयोग (Commission on Conventional Armaments) 1947-
महासभा के प्रस्ताव के तहत सुरक्षा परिषद ने फरवरी 1947 को परंपरागत शस्त्र आयोग की स्थापना की|
इस आयोग को 3 महीनो के अंदर ‘शस्त्रास्त्रो तथा सशस्त्र सेनाओ में सार्वजनिक कटौती’ के संबंध सुझाव सुरक्षा परिषद को देना था|
12 अगस्त 1948 को आयोग ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें निम्न सिफारिशें की गयी थी-
सभी राज्यों के शस्त्रास्त्रो में कटौती तथा नियमन की व्यवस्था|
कटौती व नियमन के लिए उपाय|
अणुशक्ति के नियंत्रण के लिए पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना तथा जापान और जर्मनी के साथ शांति प्रबंध करना|
सुरक्षात्मक साधनों की पर्याप्त व्यवस्था तथा इन्हें भंग करने की स्थिति में प्रभावशाली कार्यवाही करना|
USSR ने प्रस्ताव रखा कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य अपनी सैन्य शक्ति के 1/3 भाग तक निशस्त्रीकरण कर दें| इस प्रस्ताव को पश्चिमी शक्तियों ने अस्वीकार कर दिया|
USSR ने इसमें चीन को सदस्यता न देने के विरोध में परंपरागत शस्त्र आयोग (CCA) तथा अणु शक्ति आयोग (AEC) दोनों का बहिष्कार कर दिया|
इस कारण मतभेदों के कारण यह असफल रहा|
निशस्त्रीकरण आयोग (Disarmament Commission) 1952-
महासभा द्वारा अणु ऊर्जा आयोग व परंपरागत शस्त्र आयोग दोनों को मिलाकर जनवरी 1952 में निशस्त्रीकरण आयोग का गठन किया|
शुरुआत में सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य (रूस, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका) व कनाडा को इस आयोग का सदस्य बनाया गया| लेकिन 1958 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्यों को इसका सदस्य बना दिया गया|
आयोग को परंपरागत और अणु दोनों प्रकार के हथियारों के नियमन के संदर्भ में संधि के प्रारूप तैयार करने का दायित्व सौंपा गया|
परंतु दोनों महाशक्तियों में मतभेदों के कारण यह आयोग भी असफल रहा|
शांति के लिए अणु योजना (Atoms For Peace Plan) 1953-
1953 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने अपनी प्रसिद्ध ‘शांति के लिए अणु योजना’ में प्रस्ताव रखा कि विश्वमंडलीय सामग्री का अंतर्राष्ट्रीय कोष स्थापित किया जाय और उसका प्रयोग शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए किया जाय|
इस योजना को सोवियत संघ (USSR) ने अस्वीकार कर दिया|
आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि या मास्को परीक्षण प्रतिबंध संधि 1963 [Partial Test Ban Treaty (PTBT) Or Moscow Test Ban Treaty (MTBT)]-
यह पहली संधि थी जिसे द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर विश्व में में निशस्त्रीकरण की पहली सफल संधि माना जा सकता है|
5 अगस्त 1963 में मास्को में आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि पर हस्ताक्षर किए गये|
इस संधि में मूल सदस्य 3 थे- अमेरिका, ब्रिटेन, USSR
औपचारिक रूप से यह संधि 10 अक्टूबर 1963 को लागू हुई|
1963 के बाद भारत सहित अनेक राष्ट्रों ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए|
चीन और फ्रांस ने इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए, तथा चीन ने 1964 में तथा फ्रांस ने 1966 में प्रथम परमाणु परीक्षण किए| इसके अलावा उत्तर कोरिया, अल्बानिया ने भी हस्ताक्षर नहीं किए|
PTBT में कुल 5 अनुच्छेद है| संधि के प्रमुख प्रावधान निम्न है -
कोई भी हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र वातावरण (वायुमंडल) (Asosphere), बाह्य अंतरिक्ष (Outer Space), जल के नीचे (Underwater ), खुले समुंदर (High Seas) तथा क्षेत्रीय समुद्र (Territorial Waters) में परमाणु परीक्षण नहीं करेगा|
प्रत्येक हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र किसी भी ऐसे राष्ट्र को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में परमाणु परीक्षण के लिए प्रेरित नहीं करेगा, जिसने संधि पर हस्ताक्षर न किए हो|
इस संधि को आंशिक (Partial) इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसमें भूमिगत परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया है|
संधि की कमी-
इस संधि में नियंत्रण चौकियों (Control Posts) तथा अंतर्राष्ट्रीय निरीक्षण की कोई बात नहीं की गयी है|
परमाणु शस्त्रास्त्रो को घटाने का प्रावधान इसमें नहीं किया गया|
बाहरी अंतरिक्ष संधि (Outer Space Treaty) 1967-
1966 में महासभा ने शांतिपूर्ण कार्यों के लिए बाहरी अंतरिक्ष प्रयोग संबंधी एक प्रस्ताव पारित किया|
इसमें बाहरी अंतरिक्ष को मानवता की साझी संपत्ति माना गया तथा बाहरी अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण अन्वेषण तथा साझे प्रयोग के लिए अपील की गयी|
1967 में USA व USSR ने अन्य परमाणु राष्ट्रों के साथ मिलकर बाहरी अंतरिक्ष में शस्त्रों पर प्रतिबंध लगाने वाली एक प्रारूप संधि को अपनी स्वीकृति दे दी| इसमें सभी राष्ट्रों के लिए चांद तथा दूसरे खगोलीय पिंडों पर स्वतंत्र रूप से पहुंचने की भी आज्ञा दे दी गयी|
(परमाणु अस्त्र) अ-प्रसार संधि 1968 {(Nuclear Weapons) Non Proliferation Treaty (NPT) 1968)}-
इस संधि को परमाणु हथियारों के खतरे से विश्व को मुक्त करने की दिशा में मील का पत्थर (Milestone) माना जाता है|
1 जून 1968 को परमाणु अ-प्रसार संधि पर एक साथ लंदन, मास्को और वाशिंगटन में हस्ताक्षर किये गये|
यह संधि 5 मार्च 1970 को प्रभाव में आयी|
संधि के प्रमुख प्रावधान निम्न है-
परमाणु- अस्त्र संपन्न राष्ट्र, परमाणु अस्त्र विहीन राष्ट्रों को परमाणु अस्त्र तथा तकनीकी ज्ञान नहीं देंगे|
परमाणु अस्त्र- विहीन, जो राष्ट्र इस संधि पर हस्ताक्षर करेंगे उनको परमाणु शस्त्र संपन्न राष्ट्र शांतिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु शस्त्र व तकनीकी ज्ञान देंगे|
परमाणु क्षमता संपन्न राष्ट्र, संधि पर हस्ताक्षर करने वाले परमाणु अस्त्र विहीन राष्ट्रों को परमाणु आक्रमण या इसकी धमकी देने की स्थिति में पूर्ण सुरक्षा देंगे|
हस्ताक्षरकर्ता परमाणु अस्त्र विहीन राष्ट्रों के परमाणु संयंत्रों के निरीक्षण का अधिकार अंतर्राष्ट्रीय अणु ऊर्जा आयोग को होगा, ताकि वे परमाणु प्रौद्योगिकी का प्रयोग शांतिपूर्ण के स्थान पर सैनिक उद्देश्य के लिए न करें|
संधि पर प्रतिक्रिया-
अमेरिका, सोवियत संघ और ब्रिटेन द्वारा संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद अनेक गैर-परमाणु राष्ट्रों ने भी संधि पर हस्ताक्षर किये|
भारत, फ़्रांस, चीन, ब्राजील, अर्जेंटीना तथा पाकिस्तान ने इस संधि पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया|
भारत, अर्जेंटीना और ब्राजील की दृष्टि में यह संधि विभेदकारी है तथा इससे परमाणु और गैर परमाणु राष्ट्रों के मध्य खाई बढ़ेगी|
पाकिस्तान ने संधि पर हस्ताक्षर इसलिए नहीं किया, क्योंकि भारत ने हस्ताक्षर नहीं किए|
फ्रांस और चीन ने संधि पर हस्ताक्षर न करके अपने परमाणु कार्यक्रम जारी रखने को प्राथमिकता दी|
चीन ने इस संधि को ‘एक धोखे’ की संज्ञा दी, जिसका निर्माण चीन विरोधी इकाई के रूप में अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा सम्मिलित रूप से किया गया|
चीन का मत था कि संधि पूर्णतया असमान और बड़ी शक्तियों की ‘शक्ति की राजनीति’ की द्योतक थी|
भारत और परमाणु अ-प्रसार संधि-
भारत ने संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए तथा निम्न तर्क दिए-
भारत का मत था कि किसी भी ऐसी परमाणु संधि पर भारत द्वारा हस्ताक्षर का कोई मतलब नहीं है जिस पर चीन ने हस्ताक्षर न किए हो अथवा जिसमें भारत को चीन के किसी संभावित ब्लैकमेल के विरुद्ध ठोस गारंटी न दी गई हो|
दूसरा भारत का तर्क था कि फ्रांस जो सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है और परमाणु संपन्न राष्ट्र भी है, ने स्वयं हस्ताक्षर नहीं किए|
तीसरा तर्क था कि यह संधि परमाणु शक्ति के केवल क्षैतिजाकार प्रसार को रोकने का प्रयास करती है, जबकि ऊर्ध्वाकार प्रसार को रोकने की दिशा में मौन है| अर्थात यह परमाणु शस्त्र संपन्न राष्ट्रों पर प्रतिबंध नहीं लगाती है तथा विश्व को दो भागों में बांट देती है-
परमाणु क्षमता संपन्न राष्ट्र
परमाणु क्षमता विहीन राष्ट्र
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा कि “सहायता मिले न मिले, हम संधि पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे|”
मूल्यांकन-
यह संधि परमाणु संपन्न राष्ट्रों के मध्य शस्त्रों की होड़ को रोकने में पूर्णतया असफल रही है|
BN चक्रवर्ती के शब्दों में “अप्रसार अपने में कोई लक्ष्य नहीं है| यह परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध की भांति मात्र एक सहवर्ती उपाय है| अपने में यह परमाणु निशस्त्रीकरण की वृहत समस्या का हल नहीं है, जिससे प्रकारांतर से सामान्य और पूर्ण निशस्त्रीकरण विकसित हो सके|”
इस संधि की अवधि 1995 तक थी| 1995 में एक प्रस्ताव के द्वारा इसे स्थायी कर दिया गया|
भारत पाकिस्तान, इजरायल ने अभी भी इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए है|
सामरिक अस्त्र परिसीमन संधि (SALT)- 1 एवं 2 [Strategic Arms Limitation Treaty (SALT) 1 and 2]
सत्तर के दशक में दोनों महाशक्तियों के मध्य तनाव- शैथिल्यीकरण (Detente) का युद्ध प्रारंभ हुआ| तथा दो संधिया SALT-1 व SALT- 2 हुई|
SALT-1
सामरिक अस्त्र परिसीमन संधि-1 (SALT-1) पर 26 मई 1972 को हस्ताक्षर किए गए|
उद्देश्य- दोनों महाशक्तियों के मध्य परमाणु अस्त्रों की दौड़ को नियमित करना था|
यह संधि USA व USSR के मध्य हुई|
इस समझौते में दो संधिया शामिल थी-
प्रथम संधि-
एंटी बैलेस्टिक मिसाइल व्यवस्था पर नियंत्रण संधि (Treaty on the Limitation of anti Ballistic Missile system)-
इसकी अवधि असीमित काल की थी|
संधि के प्रावधान-
दोनों महाशक्तियों के पास प्रक्षेपक प्रक्षेपास्त्रो (Ballistic Missile) से सुरक्षा के लिए दो- दो केंद्र होंगे-
एक राजधानी क्षेत्र की सुरक्षा के लिए|
दूसरा अंतर द्वीपीय प्रक्षेपास्त्रो (Inter-continental ballistic missile) वाले क्षेत्र की सुरक्षा के लिए
संधि में दोनों महाशक्तियों द्वारा रखे जाने वाले एंटी बैलेस्टिक मिसाइल सिस्टम [Anti ballistic Missile System (ABM)] के आयामों की विस्तृत चर्चा की गयी|
दोनों महाशक्तियां ऐसे ABM प्रक्षेपक (Launcher) विकसित, परीक्षित, नियोजित नहीं करेगी जो एक समय में एक से अधिक अवरोधक प्रक्षेपास्त्र प्रक्षेपित कर सके|
संधि द्वारा ABM प्रक्षेपको के त्वरित Re-loading के लिए किसी प्रकार के स्वचालित, अर्द्ध स्वचालित अथवा इस प्रकार की अन्य किसी प्रणाली को प्रतिबंधित कर दिया|
दूसरी संधि-
सामरिक आक्रमक हथियारों पर नियंत्रण संधि (Strategic offensive Arms)
इसकी अवधि 5 वर्ष थी|
इसके तहत आक्रमक सामरिक हथियारों को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया|
इसमें भूमि आधारित अंतर द्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल और पनडुब्बी प्रक्षेपित बैलेस्टिक मिसाइल दोनों के बारे में प्रावधान था|
SALT- 2
SALT-1 संधि की अवधि अक्टूबर 1977 को समाप्त हो गयी|
1 जून 1979 को USA व USSR के मध्य वियना में SALT-2 समझौते पर हस्ताक्षर हुए|
इस संधि द्वारा आक्रामक सामरिक हथियारों को 31 दिसंबर 1985 तक परिसीमित करने के संदर्भ में प्रावधान किए गये|
SALT- 2 का उद्देश्य भारी विध्वंस वाले हथियारों को परिसीमित करना था|
लेकिन यह संधि प्रभावी न हो सकी, क्योंकि अमेरिका की सीनेट द्वारा अनुमोदित होने के पहले ही 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत संघ का सैन्य हस्तक्षेप हो गया, जिसके चलते अमेरिकी सीनेट ने इसका अनुमोदन नहीं किया|
सामरिक अस्त्र कटौती संधि (1 और 2) Strategic Arms Reduction Treaty (START- 1 and 2)-
START- 1-
31 जुलाई 1991 को अमेरिका एवं सोवियत संघ ने सामरिक अस्त्र कटौती संधि-1 पर हस्ताक्षर किए|
इस संधि के द्वारा दोनों महाशक्तियां अपने परमाणु हथियारों में लगभग 30% कटौती के लिए सहमत हुई|
अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव ने इसे वास्तविक कटौती (Real Cut) बताया|
संधि की अवधि 15 वर्ष रखी गयी तथा यह भी प्रावधान था कि दोनों राष्ट्र आपसी सहमति से 5 वर्ष के लिए और आगे बढ़ा सकते हैं|
START- 2-
3 जून 1993 को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने START- 2 समझौते पर हस्ताक्षर किए|
स्टार्ट-2 संधि के प्रमुख प्रावधान-
1 जनवरी 2003 तक अमेरिका और रूस प्रत्येक के सामरिक आक्रमक हथियार 3000 से 3500 तक होने चाहिए| अर्थात तत्कालीन परमाणु हथियारों में लगभग 2/3 कटौती प्रस्तावित की गयी|
सभी अन्तर्द्वीपीय बैलेस्टिक प्रक्षेपास्त्र (ICBM) समाप्त कर दिए जाय|
प्रत्येक महाशक्ति अपनी पनडुब्बियों पर नियोजित प्रक्षेपास्त्रो के परमाणु Warhead को 1700 से 1750 तक सीमित रखेंगी|
दोनों देशों के भारी बमवर्षक विमानों द्वारा प्रयुक्त परमाणु Warhead की संख्या 750 से 1250 के मध्य होनी चाहिए|
संधि लागू होने के बाद के पहले 7 वर्षों में, प्रत्येक महाशक्ति अपने आक्रमक सामरिक हथियारों में कटौती करें|
संधि के तहत दोनों महाशक्तियां गैर-परमाणु कार्य के लिए 100 भारी बमवर्षक को पुनः सुसज्जित कर सकती है|
समग्र परमाणु परीक्षण- प्रतिबंध संधि 1996 [Comprehensive Nuclear test Ban Treaty (CTBT)]-
इस संधि का प्रारूप मई 1996 में नीदरलैंड के राजनयिक जैथ रेमेकर ने प्रस्तुत किया, जिसे अमेरिका ने आगे की बातचीत के आधार के रूप में स्वीकार कर लिया|
10 सितंबर 1996 को ऑस्ट्रेलिया के प्रतिनिधि रिचर्ड बटलर ने CTBT के मसौदे को महासभा के सम्मुख प्रस्तुत किया|
महासभा ने इस मसौदे को तीन के मुकाबले 158 मतों से पारित कर दिया|
केवल भारत, भूटान और लीबिया ने विपक्ष में मत दिया|
5 देशों लेबनान, सीरिया, क्यूबा, मॉरीशस, तंजानिया ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया|
मार्च 1977 में महासभा द्वारा पारित संधि के प्रारूप को व्यवहारिक रूप देने के उद्देश्य से वियना में ‘CTBT संगठन’ की स्थापना की गयी|
संधि के मुख्य प्रावधान-
संधि किसी भी प्रकार के विस्फोटक अस्त्र परीक्षण को प्रतिबंधित करती है|
संधि में संधि के उल्लंघन पर अंतर्राष्ट्रीय निरीक्षण प्रणाली की स्थापना का प्रावधान है|
कोई भी देश निरीक्षण का अनुरोध करने के लिए सक्षम होगा|
CTBT संधि का क्रियान्वयन-
संधि में यह प्रावधान है कि संधि उन 44 राष्ट्रों की स्वीकृति के 180 दिनों बाद लागू होगी जिनके पास या तो परमाणु शक्ति है अथवा जिनके अपने भू-क्षेत्र में परमाणु अनुसंधान रिएक्टर (Nuclear Research Reactor) है|
इन 44 देशों में सभी परमाणु शक्तियां अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ़्रांस, चीन तथा सीमांत देश अर्थात जो परमाणु शक्ति बनने के कगार पर है, जैसे भारत, इजराइल, पाकिस्तान सम्मिलित है|
यदि इन 44 देशों में से एक भी देश इस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर देता है तो संधि का क्रियान्वयन नहीं हो पाएगा|
CTBT व भारत का दृष्टिकोण-
भारत ने CTBT संधि के वर्तमान मसौदे पर गंभीर आपत्तियां जाहिर की|
जेनेवा निशस्त्रीकरण सम्मेलन में बोलते हुए भारतीय प्रतिनिधि अरुधंति घोष ने कहा कि “भारत अपनी परमाणु क्षमता पर किसी प्रकार का अंकुश स्वीकार नहीं करेगा और अपने विकल्प सर्वदा खुले रखेगा|”
भारत का मत है कि संधि मूलत: विभेदकारी है| यह विश्व को दो भागों में बांटती है- एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र तथा दूसरी तरफ वे राष्ट्र है जो परमाणु क्षमता संपन्न नहीं है और संधि स्वीकार कर लेने के उपरांत परमाणु विस्फोटक भी नहीं कर पाएंगे|
भारत का मत है कि यह केवल परमाणु विस्फोट पर प्रतिबंध लगाती हैं, ताकि परमाणु शस्त्र विहीन राष्ट्र परमाणु क्षमता से संपन्न नहीं हो पाये| परंतु प्रयोगशाला में कंप्यूटरों के माध्यम से नाभिकीय परीक्षण इस संधि के दायरे में नहीं आते| अतः परमाणु संपन्न राष्ट्र इन विधियों के द्वारा अपने भंडार को उन्नत करते रहेंगे|
भारत का मत है कि परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की नीति से भारत पूरी तरह सहमत है, किंतु इसे परमाणु हथियारों को समाप्त करने की प्रक्रिया से जोड़ा जाना चाहिए| और यह तभी हो सकता है जब परमाणु संपन्न राष्ट्र स्वीकार करें कि एक निश्चित अवधि के भीतर वह अपने परमाणु भंडारों को नष्ट कर देंगे|
परमाणु ऊर्जा प्रसार [Proliferation of Nuclear Energy (PNE)]
परमाणु प्रसार शब्द का प्रयोग उन राष्ट्रों के पास परमाणु अस्त्र, विस्फोटक सामग्री और परमाणु अस्त्रों के निर्माण की तकनीक और सूचना अर्जित करने के लिए किया जाता है, जिन्हें परमाणु अ-प्रसार संधि 1968 द्वारा परमाणु राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं दी गयी|
परमाणु हथियारों के विकास में शोध द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान तथा पूर्व सोवियत संघ द्वारा किया गया|
अमेरिका ने सबसे पहले 1945 में परमाणु क्षमता हासिल की थी|
अब तक एकमात्र अमेरिका ने ही 1945 में जापान के विरुद्ध परमाणु अस्त्रों का प्रयोग किया|
अगस्त 1949 में USSR ने परमाणु क्षमता अर्जित की|
ब्रिटेन ने अक्टूबर 1952 में परमाणु क्षमता अर्जित की|
फ्रांस ने 1960 में परमाणु अस्त्रों का निर्माण किया|
चीन ने 1964 में परमाणु अस्त्र क्षमता अर्जित की|
भारत में सन 1974 में और 1998 में परमाणु विस्फोट किये|
पाकिस्तान ने 1998 में परमाणु परीक्षण किया|
उत्तरी कोरिया ने 2006 में परमाणु क्षमता अर्जित की|
ऐसा माना जाता है कि 5 मान्यता प्राप्त परमाणु शक्तियों (अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस तथा चीन) के अतिरिक्त चार ऐसे राष्ट्र हैं (भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया, इजराइल) जिनके पास परमाणु अस्त्रों के निर्माण की प्रौद्योगिकी है|
बरुश कार्यक्रम 1946-
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रमैन ने बरुश कार्यक्रम (Baruch Plan) प्रस्तुत किया|
इसके तहत दो शर्तों पर अमेरिकी परमाणु भंडार को नष्ट करने की बात कही गयी-
यदि राष्ट्र एक अंतर्राष्ट्रीय अणु विकास अभिकरण के निर्माण पर सहमत हो|
ऐसे प्रतिबंध निर्मित किए जाये जो परमाणु हथियारों के निर्माण का प्रयास करने वाले राष्ट्रों को दंडित करें|
लेकिन यह योजना असफल रही, क्योंकि USSR ने प्रस्ताव को सुरक्षा परिषद में वीटो करने की धमकी दी|
अंतर्राष्ट्रीय अणु ऊर्जा अभिकरण-
स्थापना- 29 जुलाई 1957
अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर के ‘Atoms For Peace’ 1953 प्रयास के चलते ‘अंतर्राष्ट्रीय अणु ऊर्जा अभिकरण’ की स्थापना हुई
मुख्य उद्देश्य- राष्ट्रों को परमाणु ऊर्जा का प्रयोग शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए करने के लिए प्रेरित करना|
यह अभिकरण अपनी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद एवं महासभा दोनों को भेजता है|
यह अभिकरण नागरिक परमाणु संस्थानों का निरीक्षण करता है|
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