भारतीय संविधान का निर्माण
प्रो बिपिन चंद्र ने औपनिवेशिक शासन की चार विशेषताएं निम्न बतायी है-
उपनिवेशवाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था को संसार की पूंजीवादी व्यवस्था के साथ जोड़ दिया| 1750 के बाद के वर्षों से भारतीय अर्थव्यवस्था ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के अनुरूप तथा उसके अधीन रही|
ब्रिटिश उद्योगों की जरूरतों को पूरा करने हेतु भारत में उत्पादन की संरचना कुछ इस प्रकार गठित की जाने लगी कि भारत इंग्लैंड को कच्चा माल व खाद्यान्न ही निर्यात करता था तथा ब्रिटेन से बिस्कुट, जूते तथा मशीनरी आयात करता था|
भारत की आय का कुल 5% से 10% भाग देश से बाहर निर्यात होता था|
भारत में अंग्रेजी सरकार औपनिवेशक संरचना का निर्माण तथा उसे बनाए रखने पर धनराशि की बड़ी मात्रा खर्च करती थी| भारत की आर्थिक नीतियां ब्रिटेन में ब्रिटिश साम्राज्यवादी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बनाई जाती थी|
औपनिवेशक विरासत या ब्रिटिश शासन के अंतर्गत संवैधानिक विकास को दो भागों में बांटा गया है-
कंपनी का शासन (1773- 1858)
ताज का शासन (1858- 1947 तक)
कंपनी का शासन-
1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट-
यह अधिनियम भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियमित और नियंत्रित करने की दिशा में ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाया गया पहला प्रयास था|
इसके द्वारा पहली कंपनी के प्रशासनिक और राजनीतिक कार्यों को मान्यता मिली|
इसके द्वारा भारत में केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी गयी||
इस एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर को ‘बंगाल का गवर्नर जनरल पद’ नाम दिया तथा उसकी सहायता के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन किया गया|
Note- बंगाल के पहले गवर्नर जनरल लार्ड वारेन हेस्टिगंज थे|
इसके द्वारा बम्बई व मद्रास प्रेसिडेंसियो के गवर्नर बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन हो गए|
इसमें उच्चतम न्यायालय की स्थापना का प्रावधान किया गया| जिसके तहत 1774 में कोलकाता में उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई| जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे|
इसके तहत कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने तथा भारतीय लोगों से उपहार व रिश्वत लेने पर प्रतिबंध लगा दिया|
इस अधिनियम के तहत बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की स्थापना की गई| जिसके माध्यम से ब्रिटिश सरकार कंपनी पर नियंत्रण स्थापित करती थी|
इस अधिनियम से बंगाल में दोहरे शासन (1765- 1772) का अंत हो गया|
एक्ट ऑफ सेटलमेंट 1781-
1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद ने एक संशोधित अधिनियम 1781 में पारित किया, जिसे ‘एक्ट ऑफ सेटलमेंट’ कहा जाता है| इसे Declaratory Act के नाम से भी जाना जाता है|
1784 का पिट्स इंडिया एक्ट-
1784 के पिट्स इंडिया एक्ट की विशेषताएं-
इसके द्वारा एक 6 सदस्यीय ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ की स्थापना की गई|
कंपनी के राजनीतिक और वाणिज्यक कार्यों को अलग-अलग किया गया|
व्यापारिक कार्य के अधीक्षण का कार्य ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स’ को दिया गया|
राजनीतिक मामलों के प्रबंधन का कार्य ‘बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ को दिया गया|
इस प्रकार भारत बाद में फिर से द्वैध शासन व्यवस्था का प्रारंभ हुआ|
इस एक्ट में पहली बार कंपनी के अधीन क्षेत्र को ‘ब्रिटिश अधिपत्य क्षेत्र’ कहा गया|
ब्रिटिश सरकार को भारत में कंपनी के कार्यों और इसके प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया|
1813 का चार्टर एक्ट-
कंपनी का चीन पर एकाधिकार कायम रहा तथा भारत में चाय को छोड़कर अन्य पर से एकाधिकार समाप्त हो गया|
भारत में ईसाई धर्म के प्रचार की अनुमति दे दी गई|
कंपनी भारत में शिक्षा साहित्य पर ₹1 लाख खर्च करेगी|
1833 का चार्टर एक्ट-
इसके द्वारा ब्रिटिश भारत में शासन का केंद्रीकरण किया गया|
इसके द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया, जिसको सभी सैन्य व नागरिक शक्तियां दी गयी|
Note- लॉर्ड विलियम बैटिंग भारत के प्रथम गवर्नर जनरल था|
इस एक्ट के द्वारा मद्रास और बम्बई के गवर्नरो को विधायिका संबंधी शक्ति से वंचित कर दिया गया| तथा भारत के गवर्नर जनरल को पूरे ब्रिटिश भारत में विधायिका के असीमित अधिकार दे दिए गए|
इस एक्ट के अंतर्गत इस एक्ट से पहले बनाए गए कानूनों को नियामक कानून कहा गया तथा नए कानूनों को एक्ट या अधिनियम कहा गया|
कंपनी के व्यापारिक कार्यों को समाप्त कर दिया गया तथा कंपनी को विशुद्ध प्रशासनिक निकाय बना दिया गया|
इस एक्ट के द्वारा सिविल सेवकों के चयन के लिए खुली प्रतियोगिता शुरू करने का प्रयास किया गया, लेकिन ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स’ के विरोध के कारण इस प्रावधान को समाप्त कर दिया|
इस एक्ट के द्वारा गवर्नर जनरल की परिषद में एक विधि सदस्य ‘लार्ड मैकाले’ की नियुक्ति हुई|
1853 का चार्टर एक्ट-
यह कंपनी के शासन के अधीन ब्रिटिश संसद द्वारा पारित अंतिम अधिनियम था|
इसके द्वारा पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी और प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया|
केंद्रीय विधान परिषद का गठन किया गया, जिसमें 6 नए विधानपार्षद शामिल किए गए|
इसने सिविल सेवकों की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगी व्यवस्था का शुभारंभ किया| इसके लिए 1854 में सिविल सेवकों के संदर्भ में मैकाले सीमित की नियुक्ति की गई|
इसने कंपनी के शासन को विस्तारित कर दिया और भारतीय क्षेत्र को इंग्लैंड राजशाही के विश्वास के तहत कब्जे में रखने का अधिकार दिया, लेकिन किसी निश्चित समय का निर्धारण नहीं किया गया था| इससे स्पष्ट था कि संसद द्वारा कंपनी का शासन किसी भी समय समाप्त किया जा सकता है|
प्रथम बार भारतीय केंद्रीय विधानपरिषद में स्थानीय प्रतिनिधित्व प्रारंभ किया| 6 सदस्यों में से 4 सदस्यों का चुनाव बंगाल, मद्रास, बम्बई, आगरा की स्थानीय सरकारों द्वारा किया गया|
ताज का शासन( 1858- 1947 तक)-
1858 का भारत शासन अधिनियम-
इसको भारत के शासन को अच्छा बनाने वाला अधिनियम भी कहा जाता है|
इस अधिनियम ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया तथा गवर्नरो, क्षेत्रों और राजस्व संबंधी शक्तियां ब्रिटिश राजशाही को हस्तांतरित कर दी|
इसके तहत भारत का शासन सीधे महारानी विक्टोरिया के अधीन चला गया|
इसके तहत गवर्नर जनरल का पद नाम बदलकर भारत का वायसराय कर दिया, जो ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन गया|
Note- लॉर्ड कैनिंग भारत के प्रथम वायसराय थे|
इस अधिनियम ने नियंत्रण बोर्ड (Board Of Control) और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को समाप्त करके भारत में द्वैध शासन प्रणाली समाप्त कर दी|
एक नया पद भारत का राज्य सचिव का सृजन किया गया, जिसमें भारतीय प्रशासन की संपूर्ण नियंत्रण शक्ति निहित थी| यह सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था और अंतिम रूप से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था |
भारत सचिव की सहायता के लिए एक 15 सदस्यीय परिषद का गठन किया गया| इसके अध्यक्ष भारत सचिव थे| यह एक सलाहकार परिषद थी|
इस परिषद के कार्यालय को ‘भारत कार्यालय’ कहा जाने लगा|
Note- इस एक्ट का प्रमुख उद्देश्य प्रशासनिक मशीनरी में सुधार करना था, जिसके माध्यम से ब्रिटिश संसद, भारत सरकार का अधिक्षण और नियंत्रण कर सकती थी|
1861 का भारत परिषद अधिनियम-
इसके तहत पहली बार विधान परिषद में गैर सरकारी सदस्यों के रूप में भारतीयों को शामिल किया गया| 1862 में लॉर्ड कैनिंग ने तीन भारतीयों को विधान परिषद में शामिल किया-
बनारस के राजा
पटियाला के महाराजा
सर दिनकर राव
इसमें मद्रास और बम्बई प्रेंसीडेसीयो को विधायी शक्तियां पुन: देखकर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत की|
बंगाल (1862), उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत (1866) और पंजाब (1897) में विधान परिषद का गठन हुआ|
इस एक्ट ने वायसराय को परिषद में कार्य संचालन के लिए अधिक आदेश और नियम बनाने की शक्ति प्रदान की|
इसने लॉर्ड कैनिंग द्वारा 1859 में प्रारंभ की गई पोर्टफोलियो प्रणाली को भी मान्यता दी| इस प्रणाली के तहत, वायसराय की परिषद के एक सदस्य को सरकार के एक या एक से अधिक विभागों का प्रभारी बनाया गया था|
वायसराय को आपातकाल में अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया|
विधि निर्माण हेतु वायसराय की कार्यकारी परिषद में न्यूनतम 6 व अधिकतम 12 सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया|
1892 का भारत परिषद अधिनियम-
इस एक्ट के द्वारा केंद्रीय व प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ायी गयी |
विधान परिषद के सदस्यों को बजट पर बहस करने और कार्यपालिका के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिकृत किया|
इस एक्ट में केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषद दोनों में गैर सरकारी सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक सीमित और परोक्ष रूप से चुनाव का प्रावधान किया|
Note- लेकिन चुनाव शब्द का प्रयोग इस अधिनियम में नहीं हुआ था|
1909 का भारत परिषद अधिनियम-
इस एक्ट को मार्ले-मिंटो सुधार के नाम से भी जाना जाता है| क्योंकि उस समय मार्ले भारत का राज्य सचिव व लॉर्ड मिंटो भारत का वायसराय थे|
इस अधिनियम में निम्न प्रावधान थे-
केंद्रीय विधान परिषद के आकार में वृद्धि की गई| केंद्रीय विधान परिषद में सदस्य संख्या 16 से 60 हो गई|
केंद्रीय विधान परिषद में सरकारी सदस्यों का बहुमत बनाए रखा लेकिन प्रांतीय विधान परिषदों में गैर सरकारी सदस्यों के बहुमत की अनुमति थी|
केंद्रीय व प्रांतीय विधान परिषद के चर्चा कार्यों का विस्तार किया गया| जैसे- अनुपूरक प्रश्न पूछना, बजट पर संकल्प रखना आदि|
इस एक्ट के तहत वायसराय की कार्यकारी परिषद में प्रथम भारतीय सदस्य सत्येंद्र प्रसाद सिंहा को बनाया| उन्हें विधि सदस्य बनाया गया|
इस एक्ट में मुस्लिमों को पृथक निर्वाचन के आधार सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व दिया गया|
Note- लॉर्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचन के जनक के रूप में जाना जाता है|
इस एक्ट में प्रेसीडेंसी कॉरपोरेशन, चैंबर्स ऑफ कॉमर्स, विश्वविद्यालयों और जमीदारों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान भी किया गया|
भारत शासन अधिनियम 1919-
20 अगस्त 1917 को ब्रिटिश सरकार ने पहली बार घोषित किया कि, उसका उद्देश्य भारत में क्रमिक रूप से उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना है|
इसी घोषणा के रूप में 1919 में भारत शासन अधिनियम ब्रिटिश संसद ने बनाया, जो 1921 में लागू हुआ|
इस एक्ट को मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है| क्योकि इस समय मांटेग्यू भारत के सचिव व चेम्सफोर्ड भारत के वायसराय थे|
एक्ट की विशेषताएं-
इस एक्ट का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था|
केंद्रीय व प्रांतीयो विषयों की सूची तैयारी की गई तथा दोनों को अपनी-अपनी सूची पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया|
लेकिन सरकार का ढांचा केंद्रीय व एकात्मक बना रहा|
प्रांतीय विषयों को पुन दो भागों में बांटा गया-
हस्तांतरित विषय- इन पर गवर्नर, मंत्रीयो की सहायता से शासन करता था तथा मंत्री, विधानसभा के प्रति उत्तरदायी थे|
आरक्षित विषय- इन पर गवर्नर, कार्यपालिका की सहायता से शासन करता था तथा कार्यपालिका, विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थी|
इस अधिनियम में पहली बार द्विसदनीय व्यवस्था और प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था प्रारंभ की| द्विसदनीय व्यवस्था में केंद्रीय विधान परिषद की जगह लोकसभा और राज्यसभा का गठन किया गया| दोनों सदनों के अधिकतर सदस्यों का प्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से निर्वाचन किया जाता था|
इस एक्ट में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को और बढ़ा दिया गया तथा सिक्खो, भारतीय ईसाइयों और यूरोपियों, एंग्लो इंडियन के लिए भी पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गई|
इस एक्ट ने संपत्ति, कर, शिक्षा के आधार पर सीमित संख्या में लोगों को मताधिकार दिया गया|
इस एक्ट के तहत लंदन में भारत के उच्चायुक्त के कार्यालय का सृजन किया गया तथा भारत सचिव के कुछ कार्य उच्चायुक्त को स्थानांतरित कर दिए|
इस एक्ट में लोक सेवा आयोग के गठन का प्रावधान किया गया| तथा इसके तहत 1926 में केंद्रीय लोक सेवा आयोग का गठन किया गया|
इस एक्ट में पहली बार केंद्रीय बजट व प्रांतीय बजट को अलग-अलग किया गया| तथा राज्य विधानसभाओं को अपना बजट स्वयं बनाने का अधिकार दिया गया|
इस एक्ट में 10 वर्षों के बाद ही इस एक्ट की जांच कर रिपोर्ट देने के लिए एक वैधानिक आयोग के गठन का प्रावधान किया गया|
Note- 1926 में लोक सेवा आयोग का गठन ली कमीशन की सिफारिश पर किया गया था तथा इसके प्रथम अध्यक्ष E M व्हाइट थे|
Note- इस एक्ट में पहली बार प्रांतों में द्वैध शासन की स्थापना की गई|
भारत शासन अधिनियम 1935-
विशेषताएं-
यह एक लंबा और विस्तृत दस्तावेज था, जिसमें 321 धाराएं व 10 अनुसूचियां थी|
इस एक्ट ने भारत में संघीय व्यवस्था की स्थापना की, जिसके तहत अखिल भारतीय संघ की स्थापना की तथा राज्यों और रियासतों को इकाई की तरह माना गया|
केंद्र व इकाईयों के मध्य शक्तियों का विभाजन किया गया तथा तीन सूचियों का निर्माण किया गया-
संघीय सूची (59 विषय)
राज्य सूची (54 विषय)
समवर्ती सूची (36 विषय)
अवशिष्ट शक्तियां वायसराय को दे दी गई|
Note- लेकिन यह संघीय व्यवस्था कभी अस्तित्व में नहीं आ सकी, क्योंकि देशी रियासतों ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया|
प्रांतों में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया तथा प्रांतीय स्वायत्तता का शुभारंभ किया गया|
इस एक्ट ने केंद्र में द्वैध शासन की शुरुआत की अर्थात संघीय विषयों को आरक्षित व हस्तांतरित विषयों में बांटा गया|
Note- लेकिन यह प्रावधान भी लागू नहीं हो सका|
11 प्रांतों में से 6 प्रांतों में द्विसदनीय व्यवस्था प्रारंभ की| ये दो सदन विधान परिषद तथा विधानसभा थे तथा 6 राज्य निम्न थे- बंगाल, बम्बई, मद्रास, बिहार, संयुक्त प्रांत, असम|
सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का और विस्तार किया गया| दलित जातियों, महिलाओं और मजदूर वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन की व्यवस्था की गई|
इस एक्ट ने भारत शासन अधिनियम 1858 द्वारा स्थापित भारत परिषद को समाप्त कर दिया|
इस एक्ट ने मताधिकार का विस्तार किया| लगभग 10% जनसंख्या को मताधिकार दिया गया|
भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना का प्रावधान किया गया| इसके तहत 1 अप्रैल 1935 को RBI की स्थापना हुई|
इसमें संघ लोक सेवा आयोग के साथ-साथ प्रांतीय लोक सेवा आयोग और दो या दो से अधिक राज्यों के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग की स्थापना की|
इसमें संघीय न्यायालय की स्थापना का प्रावधान किया गया| 1937 में संघीय न्यायलय की स्थापना हुई|
भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947-
4 जुलाई 1947 को भारतीय स्वतंत्रता विधेयक पेश किया गया, तथा 18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद ने विधेयक पारित कर दिया|
विशेषताएं-
इस एक्ट ने 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया|
इसने भारत का विभाजन कर दो स्वतंत्र डोमिनियनो का सृजन किया-
संप्रभु राष्ट्र भारत
संप्रभु पाकिस्तान
इन दोनों को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से अलग होने की स्वतंत्रता थी|
वायसराय का पद समाप्त कर दिया तथा उसके स्थान पर दोनों डोमिनियनो में गवर्नर जनरल पद का सृजन किया गया, जिसकी नियुक्ति नए राष्ट्र की कैबिनेट की सिफारिश पर ब्रिटेन के ताज को करनी थी|
दोनों डोमिनियन देशों की संविधान सभाओं को अपना देश का संविधान बनाने का अधिकार रहेगा |
इस एक्ट ने ब्रिटेन में भारत सचिव का पद समाप्त कर दिया तथा इसकी सभी शक्तियां राष्ट्रमंडल मामलों के राज्य सचिव को स्थानांतरित कर दी गई|
इस एक्ट ने भारतीय रियासतों पर भी ब्रिटिश संसद की संप्रभुता समाप्ति की घोषणा की| ये रियासतें चाहे तो भारत या पाकिस्तान में मिल सकती हैं या स्वतंत्र रह सकती है|
नए संविधान के निर्माण तक 1935 के भारत शासन अधिनियम द्वारा शासन चलाया जाएगा|
भारत के गवर्नर जनरल एवं प्रांतीय गवर्नरो को राज्यों का संवैधानिक प्रमुख नियुक्त किया गया| इन्हें सभी मामलों में राज्य की मंत्रिपरिषद की परामर्श पर कार्य करना था|
शाही उपाधि से ‘भारत सम्राट’ शब्द समाप्त कर दिया|
इस प्रकार 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया तथा लॉर्ड माउंटबेटन भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने| उन्होंने J.L नेहरू को भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलायी|
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का संगठित विकास 19वीं सदी के अंतिम दशक में आरंभ हुआ, किंतु 19 वी सदी के आरंभ से ही इसके लक्षण दिखाई देने लगे थे| जिसका सबसे पहले विस्फोट1857 में हुआ|
राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के कारण-
भारत का आर्थिक एवं प्रशासनिक एकीकरण
ब्रिटिश शासन की क्रुर नीतियां व विदेशी प्रकृति
सामाजिक व आर्थिक आंदोलन
पाश्चात्य विचारो का प्रभाव
पत्र-पत्रिकाओं का योगदान- जैसे- बंगाल में हिंदू पैट्रियाट, इंडियन मिरर, अमृत बाजार पत्रिका, बंगाली, सोम प्रकाश, संजीविनी| महाराष्ट्र में रोस्त गोफ़्तर, मराठा (अंग्रेजी), केसरी (मराठी), इंदु प्रकाश, नेटिव ओपिनियन, संयुक्त प्रांत में एडवोकेट, हिंदुस्तानी और आजाद
राष्ट्रीय आंदोलन से संबंधित संस्थाएं-
कांग्रेस से पूर्व की संस्थाएं-
लैंडहोल्डर्स सोसाइटी (1838)-
यह संस्था बिहार, बंगाल, उड़ीसा के जमीदारों की थी|
इसका प्रमुख उद्देश्य अपने वर्ग के हितों की रक्षा करना था|
बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसाइटी (1839- 43)-
यह बुद्धि के अभिजात तंत्र का प्रतिनिधित्व करती थी|
इस संस्था के उद्देश्य- आम जनता के हितों की रक्षा करना एवं उन्हें बढ़ावा देना|
ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन-
वर्ष 1851 में इन दोनों (लैंडहोल्डर्स सोसाइटी व बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसाइटी) का विलय हो गया और ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना हुई|
1852 में मद्रास नेटिव सोसाइटी और बॉम्बे एसोसिएशन की स्थापना हुई|
ईस्ट इंडिया एसोसिएशन (1866)-
इंग्लैंड में राजनीतिक प्रचार करने के उद्देश्य से भारतीय छात्रों फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैयबजी, दादा भाई नौरोजी तथा मनमोहन घोष ने इस संस्था की स्थापना की|
पूना सार्वजनिक सभा (1870)-
स्थापना- जस्टिस महादेव रानाडे, G.V.जोशी, S.H.चिपलांकर तथा अन्य सहयोगी
इंडियन नेशनल एसोसिएशन (1876)-
स्थापना- सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा आनंद मोहन बोस
Note- इंडियन नेशनल एसोसिएशन को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्वगामी संस्था कहा गया है|
इंडियन लीग (1875)-
स्थापना- शिशिर कुमार घोष
मद्रास महाजन सभा-
स्थापना- 1884 में, M.वीर राघवाचारी, जी सुब्रमण्यम अय्यर और आनंद चार्लू
बम्बई प्रेसीडेंसी एसोसिएशन-
स्थापना- 1885 में, फिरोजशाह मेहता, K.T. तैलंग, बदरुद्दीन तैयबजी द्वारा
कांग्रेस-
स्थापना-
28 दिसंबर 1885
ब्रिटिश अधिकारी A O हयूम के द्वारा
स्थापना के पीछे हयूम का उद्देश्य-
उद्देश्य के विषय में मतभेद है, निम्न मत है-
हयूम का यह कार्य भारतीयों के प्रति उदारता की एकमात्र भावना से प्रेरित था|
हयूम ब्रिटिश कार्यों के प्रति फैले भारतीय असंतोष को कांग्रेस के माध्यम से संवैधानिक रूप में लाना चाहते थे| अर्थात कांग्रेस को एक निकास नली के रूप में प्रयोग करना चाहते थे|
एण्ड्रूस और मुखर्जी का कहना है कि “भारत में कांग्रेस के जन्म से पूर्व के वर्ष बहुत ही भयंकर थे| अंग्रेज अधिकारियों में केवल मि.हयूम ने इस खतरे को समझा तथा उसे रोकने की चेष्टा की|
प्रथम अधिवेशन-
कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन पूना में आयोजित किया जाना था| परंतु पूना में प्लेग फैल जाने के कारण बम्बई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में 28 दिसंबर 1885 को हुआ|
काग्रेस के प्रथम अध्यक्ष व्योमेश चंद्र बनर्जी थे|
कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में कुल 72 प्रतिनिधि थे|
दादा भाई नौरोजी ने इस संस्था का नाम कांग्रेस दिया|
कांग्रेस (लोगों का समूह) शब्द की उत्पत्ति उत्तरी अमेरिका के इतिहास से हुई|
भारतीय राष्ट्रीय संघ (कांग्रेस की पूर्वगामी संस्था) की स्थापना का विचार सर्वप्रथम डफरिन के दिमाग में आया|
सुरेंद्रनाथ बनर्जी की भारतीय राष्ट्रीय संघ का वर्ष 1886 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विलय हो गया| ध्यान रखना है कि प्रथम अधिवेशन में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने हिस्सा नहीं लिया था|
कांग्रेस के बारे में कथन-
डफरिन “वह जनता के उस अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, जिसकी संख्या सूक्ष्म है|”
वायसराय लार्ड कर्जन “कांग्रेस अपनी मौत की घड़ियां गिन रही है, भारत में रहते हुए मेरी एक सबसे बड़ी इच्छा है कि मैं कांग्रेस के शांतिपूर्वक मरने में मदद कर सकूं|” तथा कर्जन ने कांग्रेस को ‘गंदी चीज’ और ‘देशद्रोही संगठन’ कहा|
तिलक “यदि वर्ष में हम एक बार मेंढक की तरह टर्राए, तो हमें कुछ नहीं मिलेगा|”
लाला लाजपत राय ने कांग्रेस सम्मेलनों को ‘शिक्षित भारतीयों के वार्षिक राष्ट्रीय मेले’ की संज्ञा दी|
अश्विनी कुमार दत्त ने कांग्रेस सम्मेलनों को ‘तीन दिन का तमाशा’ कहा|
विपिन चंद्र पाल ने कांग्रेस को ‘याचना संस्था’ कहा|
कांग्रेस के कार्यक्रम-
राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना और बनते हुए राष्ट्र की भावना को मूर्त रूप देना|
सामान्य कार्यक्रमों के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों की जनता को एकत्रित करना|
जनता को राजनीतिक प्रशिक्षण देना|
औपनिवेशिक अर्थतंत्र की मीमांसा करना|
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास-
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास को निम्न चरणों में बांटा जा सकता है-
प्रथम चरण- 1885- 1905 ई तक
द्वितीय चरण- 1905-1918
तीसरा चरण- 1918- 1935 तक
चौथा चरण- 1935- 1947 तक|
प्रथम चरण (1885- 1905 तक)-
प्रथम चरण में कांग्रेस पर उदार बुद्धिजीवियों का अधिकार रहा और उन्होंने ही राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया|
इस काल में शिक्षित मध्यम वर्ग एवं व्यापारी वर्ग भी इसमें भाग लेने लगा|
उदारवादी नेताओं के निम्नलिखित सिद्धांत है-
उदारवादी नेता ब्रिटिश संस्थाओं और सभ्यता से पूरी तरह प्रभावित थे| तथा ब्रिटिश शासन को भारत के लिए लाभकर मानते थे| अतः उदारवादी नेता ब्रिटिश सरकार के प्रति स्वामीभक्त थे|
प्रमुख उदारवादी नेता- दादा भाई नौरोजी, डी.ई. वाचा, व्योमेश चंद्र बनर्जी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले आदि|
इनकी नीति को ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ कहा जाता है, क्योंकि इनका वैधानिक तरीकों में पूर्ण विश्वास था| ये प्रार्थनाओ, प्रार्थना-पत्रो, स्मरण पत्रो और प्रतिनिधि मंडलों द्वारा सरकार से अपनी न्याय युक्त मांगो को मनवाने का आग्रह करते थे|
उदारवादी नेता क्रमिक सुधार में विश्वास करते थे| तथा क्रांतिकारी परिवर्तनों को उचित नहीं मानते थे|
इनको अंग्रेजो की सत्यता एवं न्यायप्रियता में पूर्ण विश्वास था| उनका यकीन था कि अंग्रेज स्वयं स्वतंत्रता प्रेमी है और जिस दिन उनको विश्वास हो जायेगा कि भारतीय स्वयं अपना शासन चला सकते हैं तो वे बिना हिचक के भारतीयों को शासन सौंप देंगे|
इस प्रकार उदारवादी (1905 तक) ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत के हित में समझते थे और ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग करके भारत में प्रशासनिक व अन्य सुधार लाना चाहते थे|
दूसरा चरण (1905 से 1918 तक)-
इस चरण में राष्ट्रीय आंदोलन में दो विचारधाराओं का जन्म हुआ-
उग्रवादी विचारधारा
क्रांतिकारी विचारधारा
द्वितीय चरण 1905 में उग्रवादी चरण का उदय होता है, जिसके कारण निम्न है-
कांग्रेस की मांगों की ब्रिटिश सरकार द्वारा उपेक्षा करना
आर्थिक अव्यवस्था और अंग्रेजी साम्राज्यवादी आर्थिक नीति
1876 से 1900 के मध्य 18 बार अकाल पड़ना तथा सरकार का इस ओर ध्यान न देना
एल्गिन की दमन नीति से असंतोष
लॉर्ड कर्जन के काल में पारित किए गए- कलकता एक्ट, यूनिवर्सिटी एक्ट, ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट आदि|
लार्ड कर्जन की विदेश नीति भारत के हित में नहीं थी|
भारतीयों को उच्च पदों पर नियुक्त नहीं करना
बंगाल का विभाजन (1905)
ब्रिटिश उपनिवेशों में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार तथा उनके खिलाफ महात्मा गांधी का दक्षिण अफ्रीका में आंदोलन|
उग्रदल का कांग्रेस की नीति पर प्रभाव-
प्रमुख उग्रवादी नेता- बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपतराय|
इस समय कांग्रेस दो गुटों में बट गयी-
नरम दल (उदारवादी)
गरम दल (उग्रवादी)
1905 के बनारस अधिवेशन में दोनों गुटों का खुला संघर्ष हुआ|
1906 के कलकता अधिवेशन में दोनों गुटों की खाई और और अधिक बढ़ गयी|
दादा भाई नौरोजी को इंग्लैंड से बुलाकर इस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया तथा इस अधिवेशन में कांग्रेस ने अपना लक्ष्य स्वराज्य रखा|
1907 के सूरत अधिवेशन में उग्रवादियों और उदारवादियों में सभापति को लेकर मतभेद गहरा हो गया और इस वजह से उग्रवादी गुट कांग्रेस से बाहर हो गया|
सूरत अधिवेशन की इस फूट को एनीबेसेंट ने कांग्रेस के इतिहास की सबसे शोकपूर्ण घटना कहा|
महाराष्ट्र में तिलक तथा बंगाल में बिपिन चंद्र पाल के नेतृत्व में उग्रवादी आंदोलन का विकास हुआ|
भारतीयों में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की भावना जगाने के लिए महाराष्ट्र में तिलक ने गणपति उत्सव और शिवाजी उत्सव प्रारंभ किए तथा बंगाल में बिपिन चंद्र पाल ने काली पूजा और दुर्गा पूजा आरंभ की|
स्वदेशी आंदोलन तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार-
स्वदेशी आंदोलन के जनक उग्रवादी माने जाते हैं|
लाला लाजपत राय ने स्वदेशी आंदोलन के विषय में कहा कि “इसी के द्वारा भारत का उद्धार संभव है| यह आंदोलन हमें स्वाभिमानी तथा आत्मनिर्भर बनायेगा| इसी से हमें मनुष्यत्व प्राप्त होगा|”
विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का अर्थ- विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के साथ-साथ सरकारी पदों, उपाधियों, परिषदों की सदस्यता तथा शिक्षण संस्थानों का बहिष्कार भी करना था|
क्रांतिकारी आंदोलन-
क्रांतिकारी आंदोलन के समर्थको का क्रांतिकारी साधनों में मुख्यतः बम, पिस्तौल द्वारा आतंक फैलाने में विश्वास था|
ये राजनीतिक हत्याएं, राजनीतिक डकैतियों, पुलिस अधिकारियों, मजिस्ट्रेटो तथा मुखाबिरों की हत्याओं को उचित मानते थे|
ये भारतीयों के मस्तिष्क में दासता के प्रति घृणा उत्पन्न करना चाहते थे|
बंगाल, पंजाब, मद्रास, महाराष्ट्र आदि में इसके केंद्र थे तथा विदेशों में भी इसकी संस्थाओं की स्थापना की गई|
मुस्लिम लीग की स्थापना-
1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना की गई|
1906 में सर आगा खां के नेतृत्व में एक शिष्ट मंडल तत्कालीन वायसराय लार्ड हॉर्डिंग से मिला| वायसराय ने मुस्लिमों के संप्रदायिक निर्वाचन की मांग को स्वीकार कर लिया|
इस सफलता से कराची में उच्च कोटि के मुस्लिम एकत्रित हुए और मुस्लिम लीग की स्थापना की|
होमरूल आंदोलन-
23 अप्रैल 1916 को तिलक ने पुना में होमरूल लीग की स्थापना की तथा 6 महीने बाद श्रीमती एनीबेसेंट ने अखिल भारतीय होमरूल लीग की स्थापना की|
सन 1916 में श्रीमती एनीबेसेंट के प्रयासों से कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन 1916 में उग्रवादी भी कांग्रेस में शामिल हो गये|
बाद में तिलक व एनीबेसेंट ने मिलकर होमरूल आंदोलन चलाया तथा इस आंदोलन का उद्देश्य घोषित किया कि भारत के लिए स्वशासन की मांग कोई भीख नहीं है, अपितु स्वशासन के प्राप्ति भारतीयों का जन्म सिद्ध अधिकार है|
तिलक ने कहा कि “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूंगा|
कांग्रेस-लीग पैक्ट-
कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग में समझौता हुआ, जिसे कांग्रेस लीग पैक्ट कहा जाता है|
इसी लखनऊ पैक्ट भी कहा जाता है|
लखनऊ अधिवेशन के अध्यक्ष अंबिका चरण मजूमदार थे|
गदर आंदोलन 1913-
गदर आंदोलन के क्रांतिकारियों ने सैन फ्रांसिस्को में गदर संस्था की स्थापना की| लाला हरदयाल इसके संस्थापक थे| रामचंद्र, बरकतुल्ला खां, भगवान सिंह, भाई परमानंद इसके अन्य सदस्य थे|
कामागाटामारू प्रकरण 1914-
कामागाटामारू एक जहाज का नाम था, जिसे गुरुदत्त सिंह कनाडा लेकर जा रहे थे| परंतु उसे कनाडाई सरकार ने बंदरगाह पर आने से रोक दिया| कनाडा में अंग्रेजी सरकार ने सिर्फ 24 को उतारा तथा बाकि को जबरदस्ती वापस भेज दिया|
फिर जहाज जब कलकता के बजबज घाट पहुंचा तो 27 दिसंबर 1914 को अंग्रेजों ने फायरिंग कर दी| जिसमें 19 लोगों की मौत हो गयी
Note- 2014 में भारत सरकार ने इस घटना की याद में ₹100 का एक सिक्का जारी किया|
राष्ट्रीय आंदोलन का तीसरा चरण (1918 से 1935)-
इस चरण के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं-
इस चरण में राष्ट्रीय आंदोलन आम जनता तक पहुंच गया, जो अभी तक उच्च और मध्यम वर्ग तक सीमित था|
प्रथम विश्वयुद्ध और उसके बाद की घटनाओं ने राष्ट्रीय जागृति को पैदा किया तथा लोगो को ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष करने को तैयार किया| जैसे- आर्थिक संकट, सेना में छटनी से बेरोजगारी|
सरकार दमनकारी कानूनों का निर्माण कर रही थी जैसे- प्रेस एक्ट, सेडिशन एक्ट, एक्सप्लेसिव सब्सटेंस एक्ट, क्रिमिनल लॉ एमेंडमेंट एक्ट|
युद्धकाल में भारतीय उद्योगो के प्रचार से भारतीय पूंजीपति आर्थिक रूप से मजबूत हो गये थे|
आंदोलन के इस काल में समाजवादी एवं साम्यवादी संगठनों का उदय हुआ|
इसी काल में अनेक प्रतिक्रियावादी और संप्रदायवादी संगठनों का उदय हुआ|
इसी चरण में कांग्रेस ने औपनिवेशिक स्वराज्य से अपना लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य घोषित किया|
रॉलेट एक्ट (1919)-
केंद्रीय विधान परिषद ने 17 मार्च 1919 रॉलेट एक्ट पारित किया|
रॉलेट एक्ट द्वारा अंग्रेजी सरकार किसी भी व्यक्ति को बगैर बताए गिरफ्तार कर सकती थी|
भारतीय जनता ने इसे काला कानून बताकर इसकी आलोचना की|
गांधीजी ने इसके विरुद्ध सत्याग्रह करने के लिए सत्याग्रह सभा की स्थापना की|
गांधीजी के अनुरोध पर 6 अप्रैल 1919 को देशभर में हड़तालो का आयोजन किया गया|
जलियांवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919)-
13 अप्रैल 1919 बैसाखी के दिन सरकार की नीतियों का विरोध करने के लिए अमृतसर की जनता ने जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा की, जिसमें स्त्री और बच्चे भी शामिल थे|
यह शांतिपूर्वक सभा थी, जिसमें जनरल डायर ने 150 सिपाहियों के साथ गोलियां चला दी| जिसमें कई लोग मारे गए|
इस घटना की जांच के लिए हंटर कमेटी की नियुक्ति की गई|
खिलाफत आंदोलन-
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद सेवरेज की संधि द्वारा टर्की साम्राज्य का विघटन कर दिया गया तथा तुर्की के खलीफा को सत्ता से हटा दिया| जिसका मुसलमानों ने विरोध किया तथा खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की|
सितंबर 1919 में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी का गठन किया गया|
17 अक्टूबर 1919 में अखिल भारतीय स्तर पर खिलाफत दिवस मनाया गया|
24 नवंबर 1919 में होने वाले खिलाफत कमेटी के सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की|
असहयोग आंदोलन- 1920
कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को मंजूरी प्रदान की गई|
असहयोग आंदोलन प्रारंभ करने के कारण-
जलियांवाला बाग कांड तथा हंटर आयोग द्वारा इसकी सही जांच न करना
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद महंगाई में वृद्धि
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की के खलीफा को सत्ता से हटा देना, भारतीय मुसलमान तुर्की के खलीफा को अपना धार्मिक नेता मानते थे|
असहयोग आंदोलन के दो पहलू थे-
प्रथम श्रेणी में रचनात्मक कार्यक्रम शामिल किए गए| जैसे- शिक्षा का राष्ट्रीयकरण, स्वदेशी का सम्मान ,चरखे और खादी को लोकप्रिय बनाना, स्वयंसेवक सैनिकों की तैनाती|
द्वितीय श्रेणी में बहिष्कार कार्यक्रम अपनाए गए| जैसे- अदालत का बहिष्कार, शैक्षणिक संस्थाओं का बहिष्कार, विधायिकाओ के चुनाव का बहिष्कार, संस्कारी काम-काज का बहिष्कार, ब्रिटिश सरकार द्वारा दिए गए सम्मान और उपाधियों को वापस करना|
बिहार में राजेंद्र प्रसाद और गुजरात में सरदार पटेल ने इस आंदोलन का व्यापक समर्थन किया|
विद्यार्थी, महिला, किसान, मजदूर भी इस आंदोलन में सम्मिलित हुए|
गांधीजी ने इस आंदोलन में अहिंसा का निरपेक्ष समर्थन किया| लेकिन 5 फरवरी 1922 को चोरा-चोरी कांड के फलस्वरूप 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया|
स्वराज्य पार्टी की स्थापना 1923-
असहयोग आंदोलन की समाप्ति से कांग्रेस पार्टी में फूट पड़ गई| कुछ लोगों का मत था कि आगामी चुनावों में भाग लेकर परिषदों में शामिल होकर उन्हें अंदर से तोड़ा जाय|
इस मत के समर्थक C.R दास, मोतीलाल नेहरू, B.J पटेल थे|
इस तरह कांग्रेस के खिलाफ इस पार्टी की स्थापना की गई|
स्थापना- 1 जनवरी 1923
अध्यक्ष- चितरंजन (CR) दास
सचिव- पंडित मोतीलाल नेहरू
उद्देश्य- अतिशीघ्र डोमिनियन स्टेट्स प्राप्त करना
अन्य सदस्य- विट्ठल भाई पटेल, मदन मोहन मालवीय, जयकर|
इन सभी सदस्यों ने मिलकर 1 जनवरी 1923 में इलाहाबाद में स्वराज्य पार्टी की स्थापना की|
कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन- (1929)-
अध्यक्ष- J.L नेहरू
इस अधिवेशन में पहली बार पूर्ण स्वराज्य की मांग की गई|
इसी अधिवेशन में 26 जनवरी 1930 के दिन पूरे भारत में ‘प्रथम स्वराज्य दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की|
लाहौर अधिवेशन में 31 दिसंबर 1929 को भारतीय स्वतंत्रता का प्रतीक तिरंगा झंडा फहराया गया|
सविनय अवज्ञा आंदोलन- (1930)
गांधीजी ने लाहौर अधिवेशन के परिप्रेक्ष्य में ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी ‘11 सूत्रीय मांगे’ प्रस्तुत की तथा इन मांगों को स्वीकार करने के लिए गांधीजी ने सरकार को 31 जनवरी 1930 तक का समय दिया|
नियत समय तक सरकार द्वारा मांगों के संदर्भ में कोई उत्तर न दिए जाने पर गांधीजी ने दांडी यात्रा के माध्यम से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया|
दांडी यात्रा-
12 मार्च 1930 को साबरमती से यात्रा प्रारंभ की दांडी के लिए 78 समर्थकों के साथ
6 अप्रैल 1930 को समुद्र तट के एक गांव दांडी में एक मुट्ठी नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा
सविनय अवज्ञा आंदोलन के कार्यक्रम- 9 अप्रैल 1930 को गांधीजी ने निम्न कार्यक्रम रखे-
महिलाएं शराब की दुकाने, अफीम के अड्डो, विदेशी वस्त्रों की दुकानों के सामने धरना देंगी|
विदेशी वस्त्र जलाए जाय
हिंदू छुआछूत छोड़ें
छात्र सरकारी स्कूल छोड़े तथा सरकारी नौकर नौकरिया छोड़ें|
लोग करो की अदायगी न करें|
लोग न्यायालयों का बहिष्कार करें |
प्रत्येक घर में लोग चरखा काते और सूत बनाएं
गांधी-इरविन पैक्ट-
5 मार्च 1931 को महात्मा गांधी और तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन के बीच एक राजनीतिक समझौता हुआ जिसे गांधी-इरविन पैक्ट या समझौता कहते हैं|
कराची अधिवेशन 1931 में कांग्रेस ने इस समझौते को स्वीकार कर लिया|
पैक्ट के प्रमुख बिंदु-
सविनय अवज्ञा आंदोलन को समाप्त करने के लिए कांग्रेस तैयार
कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी|
हिंसा के आरोपियों को छोड़कर सभी राजनीतिक बंदी रिहा किए जाएंगे|
भारतीयों को समुद्र के किनारे नमक बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया|
गोलमेज सम्मेलन-
लंदन में तीन गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन हुआ-
प्रथम 1930
द्वितीय 1931
तृतीय 1932
कांग्रेस ने केवल द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था तथा कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में गांधीजी शामिल हुए|
कराची सम्मेलन- 26 से 29 मार्च 1931
अध्यक्ष- सरदार पटेल
इस सम्मेलन में सामाजिक आर्थिक अधिकारों की रूपरेखा प्रस्तुत की|
गांधी इरविन पैक्ट को स्वीकार किया|
सांप्रदायिक पंचाट और पूना समझौता-
16 अगस्त 1932 ई को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ‘रैम्जे मैकडोनाल्ड’ ने एक पंचाट जारी किया जिसे सांप्रदायिक पंचाट या कम्युनल अवार्ड कहा जाता है|
इस पंचाट ने पृथक निर्वाचन पद्धति को दलित वर्ग पर भी लागू कर दिया|
इसके विरोध में गांधीजी ने 20 सितंबर 1932 को जेल में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया|
26 सितंबर 1932 ई को मदन मोहन मालवीय, डॉ राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास, सी. राजगोपालाचारी आदि के प्रयत्नों से गांधीजी और दलित नेता अंबेडकर के मध्य पूना समझौता हुआ|
पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया तथा केंद्रीय विधान मंडल में 18% सीटें आरक्षित कर दी तथा विभिन्न प्रांतीय विधान मंडलों में 148 सीटें आरक्षित कर दी गयी|
राष्ट्रीय आंदोलन का अंतिम चरण (1935 से 1947)-
भारत छोड़ो आंदोलन 1942-
इसको ‘अगस्त क्रांति’ भी कहा जाता है|
14 जुलाई 1942 को वर्धा में आयोजित कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित किया गया|
7 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक बम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान में हुई| इस बैठक में भारत छोड़ो आंदोलन प्रस्ताव की पुष्टि कर दी गयी|
9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हो गया|
गांधीजी ने इस आंदोलन में पहली बार कहा कि “संपूर्ण आजादी से कम किसी भी चीज की मांग नहीं है|”
इस आंदोलन में गांधीजी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया|
यह लोगों द्वारा निर्देशित आंदोलन हो गया था, क्योंकि गांधीजी व सभी नेताओं को बंदी बना लिया गया था|
बलियां, सतारा, मिदनापुर आदि में ब्रिटिश सरकार के समांतर सरकारों की स्थापना की गई|
उषा मेहता तथा राम मनोहर लोहिया ने बम्बई में ‘भूमिगत कांग्रेस रेडियो’ का संचालन किया|
6 मई 1944 को गांधीजी को जेल से रिहा कर दिया गया|
वेवेल प्रस्ताव जून 1945-
25 जून 1945 को शिमला में एक सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें वायसराय ने एक प्रस्ताव रखा, जिसे वेवेल योजना या प्रस्ताव कहा जाता है|
25 जून 1945 में शिमला सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें ब्रिटिश शासन ने सत्ता हस्तांतरण के लिए और भविष्य में संविधान निर्माण के लिए भारतीयों से विचार-विमर्श किया|
आजाद हिंद फौज- प्रथम चरण
आजाद हिंद फौज का सबसे पहले विचार कैप्टन मोहन सिंह के मन में आया|
वे ब्रिटेन की भारतीय सेना के अफसर थे|
11 सितंबर 1942 को मोहन सिंह के अधीन आजाद हिंद फौज के प्रथम डिवीजन का गठन 16300 सैनिकों को लेकर किया गया| यह गठन जापान में किया गया था|
जापानी चाहते थे कि भारतीय फौज 2000 सैनिकों की हो, लेकिन मोहन सिंह उसे 2 लाख तक करना चाहते थे|
इस कारण से मोहन सिंह व निरंजन गिल को गिरफ्तार कर लिया गया|
मार्च 1942 में टोक्यो में भारतीयों की एक कांफ्रेंस बुलाई गई, जिसमें इंडियन लीग की स्थापना की गई|
बैंकॉक में जून 1942 में एक कांफ्रेंस बुलाई गई, जिसमें रास बिहारी बोस को इंडियन लीग का अध्यक्ष चुना गया|
आजाद हिंद फौज-दूसरा चरण
द्वितीय चरण तब प्रारंभ हुआ जब सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर गये|
बोस ने वर्ष 1941 में बर्लिन में ‘फ्री इंडिया लीजन’ की स्थापना की|
जुलाई 1943 में बोस पनडु्बी द्वारा जर्मनी से जापान द्वारा नियंत्रित सिंगापुर में पहुंचे| सिंगापुर में बोस ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया|
21 अक्टूबर 1943 को बोस ने आजाद हिंद सरकार एवं आजाद हिंद फौज की स्थापना की घोषणा|
आजाद हिंद फौज ने कुछ ही दिनों में 3 लड़ाकू ब्रिगेड बना ली| जिनके नाम में निम्न थे- गांधी, आजाद, नेहरू
कुछ दिन बाद सुभाष ब्रिगेड, रानी झांसी ब्रिगेड बना ली| रानी झांसी ब्रिगेड महिलाओं से निर्मित थी|
बोस के अलावा अन्य कमांडर- शाहनवाज खान, गुरबख्श सिंह ढिल्लो एवं प्रेम कुमार सहगल|
6 जुलाई 1944 को आजाद हिंद के रेडियो के प्रसारण में महात्मा गांधी को संबोधित करते हुए सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि “भारत की स्वतंत्रता के लिए अंतिम युद्ध शुरू हो चुका है| राष्ट्रपिता भारतीय स्वतंत्रता के इस पवित्र युद्ध में हमें आपका आशीर्वाद चाहिए|”
सुभाष चंद्र बोस का प्रसिद्ध कथन “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा|”
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