Ad Code

U K की न्याय व्यवस्था || UK Kee Nyaay Vyavastha || UK judicial system || BY Nirban PK Sir || In hindi

    U K की न्याय व्यवस्था 


    ब्रिटिश न्याय व्यवस्था की विशेषताएँ-

    • कानून एवं न्याय-व्यवस्था की दृष्टि से सम्पूर्ण देश में एकरूपता का अभाव है। 

    • ब्रिटेन में न्यायालयों की समान कार्य-प्रणाली और समान संगठन नहीं है। 

    • इंग्लैण्ड, वेल्स तथा उत्तरी आयरलैंड की कानून और न्याय-व्यवस्था में ये अन्तर देखा जा सकता है|


    ब्रिटेन की न्याय-व्यवस्था की विशेषताओं को निम्नानुसार विश्लेषित किया जा सकता है-

    1. असंहिताबद्ध रूप-

    • ब्रिटेन में अधिकांश कानून संहिताबद्ध (Codified) नहीं हैं, अपितु उस रूप में है जिसे सामान्य कानून की संज्ञा दी जाती है और जिसे हम न्यायालयों के विभिन्न निर्णयों में देख सकते हैं। 

    • इसके अतिरिक्त असंहिताबद्ध कानून का बहुत बड़ा अंश औचित्यपूर्ण निर्णयों (Equity) में प्राप्य है| 


    1. साधारण कानून और साधारण न्यायालयों की सर्वोपरिता-

    • ब्रिटेन में साधारण कानून और प्रशासनिक कानून तथा साधारण न्यायालयों व प्रशासनिक न्यायालयों में प्रभुता साधारणा कानून एवं साधारण न्यायालयों की है। 

    • अधिकांशतः कानून का शासन प्रशासनिक अधिकारियों और सामान्य नागरिकों में कोई भेद नहीं मानता। सभी को उन्हीं सामान्य न्यायालयों में उपस्थित होना पड़ता है और सबके ऊपर एक ही सामान्य विधि लागू होती है। 


    1. फौजदारी व दीवानी कानून का अन्तर-

    • ब्रिटिश कानून व न्याय-व्यवस्था में फौजदारी और दीवानी कानून के अन्तर को स्वीकार किया गया है। 

    • फौजदारी कानून का सम्बन्ध पूरे समाज तथा राज्य के विरुद्ध किए गए अपराधों से होता है, जबकि दीवानी कानूनों का सम्बन्ध व्यक्तियों के अधिकारों, उनके कर्तव्यों और दायित्वों से सम्बन्धित विवादों से होता है। 

    • फौजदारी कानून के अन्तर्गत अभियोग का संचालन राज्य द्वारा किया जाता है, जबकि दीवानी कानून के अन्तर्गत अभियोग व्यक्तियों की ओर से चलाए जाते हैं। 

    • फौजदारी न्यायालयों में काम का तरीका अन्वेषण-सम्बन्धी होने की अपेक्षा प्रायः दोष सम्बन्धी है। 


    1. न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था का न होना-

    • ब्रिटेन में संसदीय सर्वोच्चता के सिद्धान्त को मान्यता दी गई है। उसके द्वारा पारित अधिनियमों को वैधानिक अथवा अवैधानिक ठहराना ब्रिटिश न्यायालयों के अधिकार-क्षेत्र में नहीं है। 

    • ब्रिटिश न्यायालयों का कार्य संसद् के कानूनों के अनुसार न्याय-कार्य करना है। 


    1. जूरी-प्रथा (Jury System)-

    • जूरी-प्रथा ब्रिटिश न्याय-व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। 

    • ब्रिटेन की न्याय-व्यवस्था का इतिहास बताता है कि जूरी नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए देश के संकुचित और कठोर कानूनों पर अंकुश लगाते रहे हैं। 

    • उन्होंने अपनी निष्पक्षता, निर्भीकता और समझदारी के लिए विशेष ख्याति प्राप्त की है। ब्रिटेन में फौजदारी व दीवानी दोनों में जूरियों के प्रयोग की व्यवस्था पाई जाती है, पर दीवानी मुकदमों में प्रायः जूरी का प्रयोग कम होता है। 


    1. न्यायाधीशों की स्वतंत्रता व निष्पक्षता-

    • ब्रिटिश कानून एवं न्याय-व्यवस्था में न्यायाधीशों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता सराहनीय है। 

    • न्यायाधीशों पर कार्यपालिका का किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता और न ही वह उनके काम में किसी प्रकार का हस्तक्षेप कर सकती है। परिणामस्वरूप सबके साथ एक-सा न्याय होता है। 

    • ब्रिटेन में न्यायाधीशों को वेतन और पद की सुरक्षा प्राप्त है। 

    • संसद् के दोनों सदनों की पार्थना पर ही वे राजा द्वारा हटाए जा सकते हैं। 


    1. न्याय की शीघता और प्रवीणता-

    • ब्रिटेन में न्यायिक कार्यवाही शीघ्र या त्वरित होती है। 

    • इसके कुछ कारण हैं

    1. प्रथम, उन आवश्यक सिद्धान्तों का अनुसरण किया जाता है जो न्याय-व्यवस्था की कुशलता के लिए अनिवार्य है, जैसे—जूरी-प्रथा, खुला न्यायालय, वकील रखने की प्रथा आदि। 

    2. द्वितीय, न्यायिक कार्य-प्रणाली के नियम एक विशिष्ट न्यायिक नियम समिति द्वारा तैयार किये जाते हैं।


    1. वकीलों की दोहरी प्रणाली-

    • ब्रिटेन के वकील दो भागों में विभाजित हैं-

    1. प्रथम वर्ग में बैरिस्टर (Barrister) सम्मिलित हैं, जिनका कार्य केवल न्यायालयों में मुकदमों के पक्ष अथवा विपक्ष में बहस करना है। 

    2. द्वितीय वर्ग के वकील सोलिसिटर (Solicitors) कहलाते हैं, जो न्याय चाहने वाले व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित कर उनके मुकदमे तैयार करते हैं। 


    1. निःशुल्क कानूनी सहायता-

    • जो व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से निर्बल होते हैं, उन्हें दीवानी मामलों में उच्च न्यायालय (High Court) तथा अपीलीय न्यायालयों (Court of Appeal) के मामलों में इंग्लैण्ड और वेल्स में तथा दौरा न्यायालय (Courts of Sessions) व शैरिफ न्यायालयों (Sheriff Courts) के मामलों में स्काटलैण्ड में निःशुल्क कानूनी सहायता मिल सकती है|

    • इसके अतिरिक्त कुछ विशिष्ट प्रकार के दीवानी मामलों में काउण्टी न्यायालयों व दौरा न्यायालयों में निःशुल्क कानुनी सहायता की व्यवस्था है। 


    1. विकेन्द्रित न्याय-व्यवस्था-

    • ब्रिटिश न्यायिक पद्धति की एक विशेषता उसके 'सर्किट न्यायालय' (Circuit Courts) हैं, जो स्थान-स्थान पर जाकर मुकदमो की सुनवाई करते हैं। 

    • इससे न्याय व्यवस्था विकेंद्रीकृत हो गई है|



    ब्रिटिश न्यायालयों का संगठन-

    • ब्रिटिश न्याय-व्यवस्था में कुल तीन प्रकार के न्यायालय हैं-

    1. दीवानी न्यायालय (Civil Courts) 

    2. फौजदारी न्यायालय (Criminal Courts)

    3. विशेष न्यायालय (Special Court)


    1. दीवानी न्यायालयों की संरचना या गठन-

    • दीवानी न्यायालयों की संरचना इस प्रकार है-


    1. लॉर्ड-सभा (House of Lords)-

    • लॉर्ड-सभा दीवानी और फौजदारी मामलों में अपील का सर्वोच्च न्यायालय था।

    • दीवानी मामलों में यह अपील न्यायालय (सिविल डिवीजन), कोर्ट ऑफ सैशन इन स्कॉटलैण्ड एवं कोर्ट ऑफ अपील इन नार्दन आयरलैण्ड से अपीलें सुनता है। ‘


    1. अपील न्यायालय (दीवानी विभाग))- 

    • यह न्यायालय काउण्टी न्यायालयों और उच्च न्यायालय की अपीलें सुनता है। 

    • यह पदेन न्यायाधीशों (Ex-Officio Judges) तथा अन्य न्यायाधीशों से मिलकर गठित होता है। 

    • पदेन न्यायाधीशों में लॉर्ड चांसलर, लार्ड चीफ जस्टिस, फैमिली डिवीजन का प्रेसीडेंट, साधारण अपील लॉर्ड्स तथा मास्टर ऑफ दी रॉल्स सम्मिलित होते हैं। 

    • व्यवहार में मास्टर आफ दी रॉल्स इसका अध्यक्ष होता है। उसकी सहायता के लिए 8 से 11 तक अपील के लॉर्ड जस्टिस होते हैं। 

    • लॉर्ड चांसलर उच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को अपील न्यायालय में बैठने के लिए कह सकता है| 

    • न्यायालय की गणपूर्ति (Quorum) संख्या तीन है|

    • न्यायालय को अधिकार है, कि वह निचले न्यायालय के निर्णय को पूर्ववत् रखे, संशोधित कर दे या विपरीत कर दे तथा नई सुनवाई का आदेश दे।


    1. उच्च न्यायालय (The High Court of Justice)-

    • यह न्याय के न्यायालय (The Supreme Court of Judicature) का ही एक भाग है। 

    • इसका न्याय-क्षेत्र प्रारम्भिक व अपील सम्बन्धी दोनों ही प्रकार का होता है और इसके अन्तर्गत दीवानी के समस्त तथा फौजदारी के कुछ अभियोग समाविष्ट होते हैं। 


    • इस न्यायालय के तीन विभाग हैं-

    1. क्वींस बैंच डिवीजन- क्वींस बैंच में लार्ड चीफ जस्टिस तथा लगभग 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। यह विभाग साधारण दीवानी मामलों की सुनवाई करता है। इसका क्षेत्राधिकार तीन प्रकार का है- (अ) प्रारम्भिक, (ब) अपीलीय, एवं (स) निरीक्षणात्मक 

    2. चांसरी डिवीजन- चांसरी डिवीजन मुख्यतः उन मामलों की सुनवाई करता है जो सन् 1873 से पहले पुराने कोर्ट आफ चांसरी के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत थे। अब कुछ और भी अभियोग इसे सौंप दिए गए हैं, जैसे-दिवालियापन, कम्पनी सम्बन्धी मामले, दावे (Claims) आदि ।  

    3. फैमिली डिवीजन- फैमिली डिवीजन मुख्यतः इन मामलों से सम्बन्धित है- (अ) विवाह-विच्छेद, (ब) नाबालिगों का विवाह, (स) मजिस्ट्रेट्स न्यायालयों से वैवाहिक मामलों की अपीलें एवं (द) वसीयत सम्बन्धी मामले। 

    • ये तीनों विभाग मिलकर उच्च न्यायालय कहलाते हैं। 


    1. काउण्टी न्यायालय (County Courts)-

    • ये न्यायालय दीवानी मामलों के निम्नतम स्तर के न्यायालय हैं। 

    • इनकी स्थापना सर्वप्रथम 1846 के काउण्टी कोर्ट्स एक्ट द्वारा हुई थी। 

    • काउण्टी न्यायालय में जो न्यायाधीश बैठता है उसे सर्किट न्यायाधीश कहा जाता है | 

    • सर्किट न्यायाधीशों की नियुक्ति लार्ड चांसलर द्वारा होती है। 

    • काउण्टी न्यायालय किसी निश्चित स्थान पर नहीं रहता, वरन् भ्रमणशील होता है| 


    1. फौजदारी न्यायालय की संरचना या गठन-

    • फौजदारी न्यायालयों में उन अभियोगों की सुनवाई होती है, जो सार्वजनिक कानून के उल्लंघन से सम्बन्धित होते हैं| उदाहरणार्थ- हत्या, चोरी, डकैती, लड़ाई आदि। 


    • फौजदारी न्यायालयों की संरचना इस प्रकार है-


    1. हाउस ऑफ लॉर्ड्स (House of Lords)

    • यह ब्रिटिश न्याय-व्यवस्था के सर्वोच्च शिखर पर था और दीवानी तथा फौजदारी मामलों में अपील का अन्तिम न्यायालय था|

    • वह अपीली न्यायालय, क्रिमिनल डिवीजन तथा डिवीजनल कोर्ट ऑफ क्वींस बैच की अपीलें सुनता है। 

    • अपील न्यायालय के रूप में लॉर्ड-सभा का गठन लॉर्ड चांसलर, साधारण अपील लॉर्ड्स पदों पर आसीन अन्य पीयरों द्वारा होता है|

    • गणपूर्ति (Quorum) के लिए तीन सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक है|

    • निर्णय बहुमत से होता है| 

    • जब लॉर्ड-सभा न्यायालय के रूप में बैठती है, तो मुकदमों की सुनवाई व्यवस्थापिका भवन के एक समिति कक्ष में होती है और लॉर्ड चांसलर उसका अध्यक्ष होता है|


    1. अपील न्यायालय (क्रिमिनल डिवीजन) (Court of Appeal : Criminal Division)-

    • 1966 के क्रिमिनल अपील एक्ट के अनुसार अपील न्यायालय दो विभागों (Divisions) में विभक्त हैं-(i) दीवानी क्षेत्र का अपील न्यायालय और (ii) फौजदारी क्षेत्र का | 

    • फौजदारी क्षेत्र के अपील न्यायालय में निचले न्यायालयों से अपीलें सुनी जाती हैं। 

    • अपील न्यायालय लॉर्ड चीफ जस्टिस (Lord Chief Justice) तथा लॉर्ड जस्टिसेज ऑफ अपील (Lord Justices of Appeal) से मिलकर गठित होता है|


    1. क्राउन न्यायालय (Crown Courts)-

    • क्राउन न्यायालय, उच्च (Superior) न्यायालय होता है और प्रारम्भिक फौजदारी क्षेत्राधिकार का उपभोग करता है| 

    • दोषी व्यक्ति जूरी द्वारा सुनवाई की माँग कर सकता है, जो क्राउन कोर्ट में होती है। 


    1. मजिस्ट्रेट्स कोर्ट (Magistrates Courts)-

    • इन्हें पैटी सैशंस कोर्ट्स (Courts of Petty Sessions) भी कहा जाता है| 

    • ये न्यायालय सबसे छोटे न्यायालय हैं और इनके स्थानीय मजिस्ट्रेट, जो ‘शान्ति न्यायाधीश' (Justices of the Peace) कहलाते है, न्याय करते हैं। 

    • ये शान्ति न्यायाधीश तीन प्रकार के हैं- (i) काउण्टी न्यायाधीश (County Justice), (ii) बरो न्यायाधीश (Borough Justices), एवं (ii) वैतनिक मजिस्ट्रेट (Stipendiary Magistrate) | 

    • इन सभी न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ लॉर्ड चांसलर द्वारा की जाती है| 

    • काउण्टी न्यायाधीश का क्षेत्राधिकार अपनी काउण्टी तक होता है और इस प्रकार बरो न्यायाधीश का क्षेत्राधिकार उस बरो तक होता है जिसमें उसकी नियुक्ति की गई है । काउण्टी और बरो न्यायाधीशों के बारे में उल्लेखनीय बात यह है कि वे अवैतनिक होते हैं (यद्यपि उन्हें अधिनिर्णय करते समय कुछ जेबखर्च मिल सकता है)। 

    • वैतनिक मजिस्ट्रेट पूर्णकालिक मजिस्ट्रेट होते हैं और यह अपेक्षित है कि वे कम से कम सात वर्ष के अनुभव प्राप्त बैरिस्टर या सोलिसिटर हों। 


    1. विशेष न्यायालय (Special Courts)-

    • इनमें प्रिवी कौंशिल की न्यायिक समिति, सेन्ट्रल क्रिमिलन कोर्ट, रेस्ट्रिक्टिव प्रेक्टिसेज कोर्ट तथा कोरोनर्स कोर्ट मुख्य हैं। 

    • विशेष न्यायालयों की संरचना इस प्रकार है-


    1. प्रिवी कौंसिल की न्यायिक समिति-

    • इस न्यायिक समिति में वे सभी प्रिवी कौंसिलर्स सम्मिलित होते हैं जो यूनाइटेड किंगडम में उच्च न्यायिक पदों पर पदासीन हों या पदासीन रहे हों। 

    • इनके अतिरिक्त लॉर्ड चांसलर, भूतपूर्व सभी लॉर्ड चांसलर और वे राष्ट्रमण्डलीय जज, जो प्रिवी कौंसिलर्स में सम्मिलित होते हैं। 

    • न्यायालय की गणपूर्ति संख्या तीन है, लेकिन महत्वपूर्ण मामलों में साधारणतया पाँच सदस्य उपस्थित रहते हैं| 

    • यह न्यायिक समिति उन राष्ट्रमण्डलीय देशों से अपीलों की सुनवाई करती है, जिन्होंने अपील का अधिकार (Right of Appeal) स्वीकार किया है। 

    • इस समिति में औपनिवेशिक क्षेत्रों से अपीलों की भी सुनवाई होती है। 


    • इस न्यायिक समिति में निम्नलिखित न्यायालयों और न्यायाधिकरणों से अपील की सुनवाई होती है-

    1. प्राइज कोर्ट्स (Prize Courts)

    2. धार्मिक न्यायालय (Ecclesiastical Courts) 

    3. कोर्ट्स ऑफ दी आइसल ऑफ मैन, चैनल द्वीप समूह, ब्रिटिश उपनिवेश, ब्रिटिश सरक्षित प्रदेश और अपील का अधिकार रखने वाले राष्ट्रमण्डलीय देश

    4. चिकित्सा सम्बन्धी, दाँत सम्बन्धी व्यवसायों के न्यायाधिकरण 


    • प्रिवी कौंसिल की न्यायिक समिति एक परामर्शदाता बोर्ड के रूप में बैठती है| 

    • समिति सम्राट् को परामर्श देती है और सम्बन्धित प्रश्न को निपटाने के लिए सपरिषद् आदेश (Order in Council) सम्राट द्वारा निकाल दिया जाता है। 

    • न्यायिक समिति के निर्णय स्वयं पर अथवा यूनाइटेड किंगडम में निचले कानूनी न्यायालयों पर बन्धकारी (Binding) नहीं होते, लेकिन किसी उपनिवेश की अपील पर दिया गया निर्णय उस क्षेत्र के औपनिवेशिक न्यायालयों (Colonial Courts) पर बन्धनकारी होता है। 


    1. सैन्ट्रल क्रिमिनल कोर्ट (Central Criminal Court)-

    • वह विख्यात न्यायालय, जो आमतौर पर 'ओल्ड बैली' (Old Bailey) के नाम से जाना जाता है, 1834 के सैण्ट्रल क्रिमिनल कोर्ट एक्ट द्वारा स्थापित किया गया था। 

    • यह एक क्राउन कोर्ट के फौजदारी क्षेत्राधिकार का उपभोग करता है और लन्दन सिटी तथा ग्रेटर लन्दन क्षेत्र के अपराध सम्बन्धी मामलों की सुनवाई करता है। 

    • यह न्यायालय वर्ष में कम से कम बारह बार बैठता है और बहुत कार्य-व्यस्त रहता है। 


    1. रैस्ट्रिक्टिव प्रेक्टिसेज कोर्ट (Restrictive Practices Court)-

    • इसकी स्थापना सन् 1956 के रैस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रेक्टिसेज एक्ट द्वारा हुई थी और अब यह एक नया उच्चतर अभिलेख न्यायालय है। 

    • इसकी स्थिति उच्च न्यायालय के समकक्ष है। 


    1. कोरोनर्स कोर्ट (Coroner's Court)-

    • यह न्यायालय वास्तव में न्यायालय नहीं है। 

    • इसमें एक कोरोनर (Coroner) होता है, जो प्रायः डाक्टर या वकील होता है। 

    • यह काउण्टी अथवा बरो परिषद द्वारा नियुक्त किया जाता है। 

    • यह जूरी की सहायता से अथवा उसके बिना भी अपना कार्य करता है। 

    • उसका कार्य किसी रहस्यमय, आकस्मिक अथवा अप्राकृतिक मृत्यु के कारणों का पता लगाना है। 

    • इसकी नियुक्ति जीवन भर के लिए की जाती है। 




    संवैधानिक सुधार अधिनियम 2005 और सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना 


    अधिनियम की पृष्ठभूमि-

    • संवैधानिक सुधार अधिनियम, 2005 द्वारा ब्रिटिश न्यायिक व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन करते हुए एक  सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है।

    • 2003 के मध्य से विधिवत् रूप से यह प्रस्ताव ससद के समक्ष रखा गया, किन्तु यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया गया। 

    • यही प्रस्ताव कुछ संशोधनों सहित 2005 में संसद में लाया गया, जिसे संसद ने पारित कर दिया और 24 मार्च, 2005 को उसे साम्राज्ञी की अनुमति प्राप्त हो गई। 

    • सवधानिक सुधार अधिनियम का सर्व प्रमुख लक्षण- व्यवस्थापिका और कार्यपालिका से पृथक् अस्तित्व वाली न्यायपालिका (प्रमुखतया सर्वोच्च न्यायालय) की स्थापना और न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हेतु संवैधानिक व्यवस्था| 


    • 'संवैधानिक सुधार कानून, 2005’ के पूर्व ब्रिटेन में न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका से सिद्धान्ततः पृथक नहीं थी। 

    • ब्रिटिश संसद के द्वितीय सदन लॉर्ड सभा का अध्यक्ष 'लॉर्ड चांसलर' (जो मंत्री पद पर भी आसीन होता था) और 'न्यायिक लॉर्ड' ब्रिटेन के सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय के रूप में कार्य करते थे। 

    • इस प्रकार ‘लॉर्ड चांसलर' व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों अंगों का सदस्य होता था|

    • लेकिन 'Constitutional Reform Act 2005' के द्वारा औपचारिक और सारभूत, दोनों ही रूपों में न्यायपालिका या समस्त न्यायिक ढांचे को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका दोनों से मुक्त कर दिया गया है। 

    • अब एक सर्वोच्च न्यायालय और अन्य न्यायालयों की स्थापना की गई है, जो व्यवस्थापिका और कार्यपालिका से पूर्णतया मुक्त होगे। 


    • व्यवहार के अन्तर्गत तो ब्रिटिश न्यायपालिका 2005 के पूर्व भी स्वतंत्र थी| न्यायपालिका की यह स्वतंत्रता ब्रिटिश जनता की राजनीतिक जागरूकता और सुस्थापित परम्पराओं पर आधारित थी, लेकिन न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने हेतु संवैधानिक प्रावधान नहीं थे| अब संवैधानिक सुधार कानून 2005 के द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये संवैधानिक व्यवस्था कर दी गई है। 

    • लॉर्ड चांसलर अब कोई न्यायाधीश नहीं है, लॉर्ड चांसलर की न्यायिक भूमिका समाप्त कर दी गई है तथा सुधार कानून में कहा गया है- लॉर्ड चांसलर या अन्य कोई मन्त्री किसी विशेष न्यायिक निर्णय या न्यायपालिका के कार्यों को प्रभावित करने की चेष्टा नहीं करेंगे। 


    • विधि के शासन के प्रति सम्मान' और 'न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा' लॉर्ड चांसलर का सबसे प्रमुख कर्तव्य है तथा उसे इस बात की शपथ लेनी होती है। ब्रिटेन में लॉर्ड चांसलर की स्थिति अब लगभग वही है, जो अन्य देशों में विधि और न्यायमंत्री को प्राप्त होती है। 



    सर्वोच्च न्यायालय का गठन 

    • संवैधानिक सुधार अधिनियम, 2005  की धारा 23 में यह प्रावधान किया गया है कि 'यूनाइटेड किंगडम' और उत्तरी आयरलैण्ड) का एक सर्वोच्च न्यायालय होगा, जिसमें मुख्य न्यायाधीश सहित 12 न्यायाधीश होंगे। 

    • इन न्यायाधीशों की नियुक्ति साम्राज्ञी द्वारा जारी किये गये पत्र से होगी।

    • साम्राज्ञी को भविष्य में या समय-समय पर न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने का अधिकार है, किन्तु साम्राज्ञी ऐसा तभी कर सकती हैं, जबकि संसद के दोनों सदनों में ऐसा संकल्प लाया गया हो तथा उन्होंने उसे पारित कर दिया हो। 

    • सम्राज्ञी 12 न्यायाधीशों में से ही एक न्यायाधीश को अध्यक्ष तथा एक न्यायाधीश को न्यायालय का उपाध्यक्ष नियुक्त करेगी। 


    विधिवत रूप से सर्वोच्च न्यायालय का गठन- 

    • 1 अक्टूबर, 2009 से ब्रिटेन में सर्वोच्च न्यायालय का विधिवत् गठन हो गया है।

    • सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश सहित 12 न्यायाधीश हैं। 

    • निकोलस फिलिप्स ब्रिटेन के प्रथम मुख्य न्यायाधीश थे। 


    न्यायाधीशों की नियुक्ति- आवश्यक योग्यताएं 

    • ब्रिटेन में सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश वही व्यक्ति हो सकता है, जो निम्न योग्यता रखता हो-

    • उसे किसी उच्च न्यायिक पद पर कम-से-कम दो वर्ष तक कार्य करने का अनुभव प्राप्त हो। 

    या 

    • वरिष्ठ न्यायालयों में कम-से-कम 15 वर्ष की अवधि के लिये योग्य अधिवक्ता रहा हो। 

    • किंतु वह व्यक्ति न्यायाधीश पद के लिये, अयोग्य समझा जायेगा, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्बन्धी आयोग का सदस्य हो। 


    चयन प्रक्रिया-

    • यद्यपि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये प्रधानमंत्री, साम्राज्ञी से अनुशंसा (सिफारिश) करते हैं, किन्तु वे उसी व्यक्ति के लिये ऐसी सिफारिश कर सकते हैं, जिसकी नियुक्ति हेतु लॉर्ड चांसलर ने ऐसा अनुरोध किया हो। 

    • लेकिन लॉर्ड चांसलर को भी इस चयन प्रक्रिया में एक निर्धारित प्रक्रिया से गुजरते हुए ही अनुरोध करने का अधिकार है|

    • लॉर्ड चांसलर को सर्वोच्च न्यायालय में चयन हेतु एक 'चयन आयोग' (Selection Commission) स्थापित करना होता है। इस आयोग में निम्न सदस्य होते हैं-

    1. उच्चतम न्यायालय का अध्यक्ष, 

    2. उच्चतम न्यायालय का उपाध्यक्ष,  

    3. निम्न आयोगों में से प्रत्येक से एक सदस्य, जिसे 'लॉर्ड चांसलर' मनोनीत करें-

    1. न्यायिक नियुक्ति आयोग

    2. स्कॉटलैण्ड न्यायिक नियुक्ति बोर्ड

    3. उत्तरी आयरलैण्ड न्यायिक नियुक्ति आयोग। 


    • इस ‘चयन आयोग की अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय का अध्यक्ष, और उसके अभाव में उपाध्यक्ष तथा उसकी अनुपस्थिति में क्षेत्रीय आयोगों में से वरिष्ठतम सदस्य करते हैं। 

    • किन्तु वह व्यक्ति इस आयोग का सदस्य बनने के लिये अपात्र होगा, जो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के किसी पद के लिये दावेदार हो। 


    • चयन आयोग अपने गठन के पश्चात न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये निर्धारित योग्यताओं को ध्यान में रखते हुए, योग्यता के आधार पर किसी एक या किन्ही व्यक्तियो के नाम की सिफारिश लॉर्ड चांसलर से करता है, किन्त आयोग को चयन प्रक्रिया के दौरान निम्न पदधारियों से अवश्य ही परामर्श लेना होता है- 

    1. वे वरिष्ठतम न्यायाधीश, जो न तो आयोग के सदस्य है और न ही नियुक्ति की अपेक्षा रखते हैं

    2. लॉर्ड चांसलर, 

    3. स्कॉटलैण्ड का प्रथम मंत्री

    4. वेल्स में ‘परिषद प्रथम सचिव’

    5. उत्तरी आयरलैण्ड के लिये ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट'। 


    • इस चयन प्रक्रिया के पूर्ण होने पर आयोग अपनी रिपोर्ट 'लॉर्ड चांसलर’ को प्रेषित करता है| इस रिपोर्ट में  नियुक्ति हेतु अनुशंसित (Recommended) व्यक्ति का नाम तथा उन वरिष्ठतम न्यायाधीशों के नाम, जिनसे चर्चा की गई है, का उल्लेख होता है। 


    • जब लॉर्ड चांसलर को रिपोर्ट प्राप्त हो जाती है, तो वह निम्न से विचार-विमर्श करता है-

    1. उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों से, 

    2. क्षेत्रीय न्यायालयों के किसी न्यायाधीश से, 

    3. स्कॉटलैण्ड के प्रथम मंत्री से, 

    4. वेल्स में ‘परिषद प्रथम सचिव' (Assembly's First Secy. in Wales) से, 

    5. उत्तरी आयरलैण्ड के लिये ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट' से। 


    • लॉर्ड चांसलर चयन आयोग द्वारा अनुशंसित व्यक्ति की नियुक्ति पर स्वीकृति अथवा अस्वीकृति देता है अथवा ऐसी अनुशंसा को पुनर्विचार के लिये लौटा सकता है। 

    • यदि लॉर्ड चांसलर द्वारा आयोग को पुनर्विचार के लिये अनुशंसा लौटायी जाती है तथा आयोग द्वारा पुनः उसी व्यक्ति के लिये अनुशंसा की जाती है, तब भी लॉर्ड चासलर को अधिकार है कि वह अनुशंसा अस्वीकत कर दें। 

    • आयोग की अनुशंसा स्वीकृत किये जाने पर लॉर्ड चांसलर यह अनुशंसा प्रधानमन्त्री को प्रेषित करता है तथा प्रधानमन्त्री ऐसे व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाने हेतु साम्राज्ञी से अनुशंसा करता है। 


    कार्यकारी न्यायाधीश-

    • नवीन ‘संवैधानिक सुधार अधिनियम' के अन्तर्गत कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति का भी प्रावधान किया गया है। 

    • सर्वोच्च न्यायालय के अध्यक्ष अथवा अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष द्वारा आग्रह किये जाने पर कार्यकारी न्यायाधीश या न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा सकती है| 

    • किन्तु कार्यकारी न्यायाधीश उसे ही बनाया जा सकता है, जो क्षेत्रीय न्यायालयों में से किसी में भी वरिष्ठ न्यायाधीश हो अथवा 'न्यायाधीशों के पूरक पैनल' में उसका नाम हो। 


    कार्यकाल-

    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का कार्यकाल उनकी 70 वर्ष की आयु तक होता है|

    • किन्तु इसके पूर्व भी वे त्यागपत्र दे सकते हैं। 

    • ऐसा त्यागपत्र उन्हें लॉर्ड चांसलर को लिखित रूप में देना होता है। 


    पदच्युति-

    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सद व्यवहार के आधार पर अपने पद पर सेवा निवृत्ति की आयु तक बने रहते हैं 

    • किन्तु उन्हें ‘कदाचार' (Misbehaviour) के आधार पर संसद के दोनों सदनों द्वारा प्रस्ताव पारित करके हटाया जा सकता है। 

    • संवैधानिक सुधार अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत शारीरिक अक्षमताओं के आधार पर न्यायाधीशों को सेवा निवृत्त करने का अधिकार लॉर्ड चांसलर को है। 

    • यदि लॉर्ड चांसलर को 'चिकित्सकीय प्रमाण-पत्र' के आधार पर यह संतुष्टि हो जाय कि न्यायाधीश अपनी शारीरिक अक्षमताओं के कारण पद के दायित्वों का निर्वाह करने में अक्षम है, तो लॉर्ड चांसलर अपने लिखित आदेश द्वारा ऐसे पद के रिक्त होने की घोषणा कर सकता है|

    • किन्तु ऐसा करने के पूर्व उसे निम्न शर्तों का पालन करना होता है-

    1. किसी न्यायाधीश को हटाते समय अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष की सहमति लेनी होगी। 

    2. अध्यक्ष को हटाते समय उपाध्यक्ष और वरिष्ठतम् न्यायाधीश की सहमति लेनी होगी। 

    3. उपाध्यक्ष को हटाते समय अध्यक्ष और वरिष्ठतम न्यायाधीश की सहमति लेनी होगी। 


    वेतन-भत्ते-

    • न्यायाधीशों के वेतन-भत्तों का निर्धारण लॉर्ड चांसलर द्वारा 'ट्रेजरी' की सहमति के पश्चात् किया जाता है| 

    • तथा उन्हें यह वेतन ‘यूनाइटेड किंगडम की संचित निधि' से दिया जायेगा। 

    • लॉर्ड चांसलर इन वेतन-भत्तों में वृद्धि का प्रावधान कर सकता है, कोई कमी नहीं कर सकता। 

    • सेवा निवृत्ति के पश्चात् न्यायाधीशों के लिये पेन्शन का भी प्रावधान है। 


    सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार-

    • यूनाइटेड किंगडम के सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार निम्न प्रकार है-

    1. सर्वोच्च न्यायालय उन सभी विषयों एवं विधियों पर अपील सुनता है, जिन्हें जन-सामान्य के हितो की दृष्टि से महत्वपूर्ण समझा जाता है। 

    2. यह न्यायालय इग्लेण्ड, वेल्स और उत्तरी आयरलैण्ड (युनाइटेड किंगडम) में अन्तिम अपीलीय न्यायालय के रूप में कार्य करता है। 

    3. यह इंग्लैण्ड, वेल्स, उत्तरी आयरलैण्ड, स्कॉटलैण्ड में दीवानी (पारिवारिक) वादों में अन्तिम अपीलीय न्यायालय का कार्य करता है। 

    4. वह इंग्लैण्ड, वेल्स और उत्तरी आयरलैण्ड में फौजदारी वादों में ‘अन्तिम अपीलीय न्यायालय के रूप में सुनवाई करता है। 

    5. ‘प्रिवी कौंसिल की न्यायिक समिति' के राष्ट्रमण्डलीय क्षेत्राधिकार के अतिरिक्त शेष सारे क्षेत्राधिकार अब इस सर्वोच्च न्यायालय को हस्तान्तरित कर दिये गये हैं। 

    6. अभिलेख न्यायालय (Court of Record)- उपर्युक्त क्षेत्राधिकार के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय 'ब्रिटेन का सर्वोच्च अभिलेख न्यायालय' है। अभिलेख न्यायालय का आशय यह है कि इस न्यायालय के अभिलेख सभी जगह साक्षी के रूप में प्रस्तुत किये जायेंगे तथा यूनाइटेड किंगडम के किसी भी न्यायालय में प्रस्तुत किये जाने पर उनकी प्रामाणिकता के विषय में किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता। 

    7. लॉर्ड सभा को प्राप्त समस्त न्यायिक अधिकार अब सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त होंगे। 



    लॉर्ड चीफ जस्टिस की विशेष शक्ति और कार्य-

    • इंग्लैण्ड और वेल्स के न्यायालयों के अध्यक्ष के रूप में लॉर्ड चीफ जस्टिस को प्रमुख रूप से निम्न दो शक्तियां प्राप्त हैं 

    1. लॉर्ड चीफ जस्टिस ‘इंग्लैण्ड और वेल्स के न्यायालयों के अध्यक्ष' के रूप में सभी न्यायालयों का अध्यक्ष है। वह इनमें से किसी भी न्यायालय में बैठ सकता है, यह देख सकता है कि न्यायालय नियमानुसार कार्य कर रहा है अथवा नहीं तथा किसी भी न्यायालय को आवश्यक निर्देश दे सकता है। वह वस्तुतः इंग्लैण्ड और वेल्स की समस्त न्याय व्यवस्था का प्रधान है। 


    1. इंग्लैण्ड और वेल्स के न्यायालयों के अध्यक्ष के रूप में 'लॉर्ड चीफ जस्टिस' इंग्लैण्ड और वेल्स के न्यायालयों के विचारों और न्याय व्यवस्था से सम्बन्धित समस्त स्थितियों को संसद, लॉर्ड चांसलर और मंत्रीमण्डल के सम्मुख प्रस्तुत करेगा। उसका यह भी दायित्व है कि लॉर्ड चांसलर द्वारा प्रदान किये गये साधनों की सीमा में, इंग्लैण्ड और वेल्स के सभी न्यायालयों की समस्त व्यवस्था को सूचारु रूप से संचालित करवाने की व्यवस्था करे तथा इसके लिये न्यायालयों को आवश्यक निर्देश दे। समितियों, बोर्डों और तत्सम्बन्धी इकाइयों एवं संस्थाओं में 'न्यायिक पदधारियों' की नियुक्ति में भी उसकी भूमिका होगी।



    न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Proceedings)-

    • सर्वोच्च न्यायालय में किसी मामले की सुनवाई तभी हो सकती है, जबकि सुनवाई के लिये ‘बैंच' (Bench) या पीठ का गठन निम्न प्रकार हो-

    1. बैंच में न्यायाधीशों की संख्या 'विषम संख्या' (3, 5 या 7) में हो, 

    2. बैंच में कम-से-कम तीन न्यायाधीश हों, 

    3. उसमें से आधे स्थायी न्यायाधीश हों, 


    • यदि सम्भव हो पाया, तो न्यायालय अपना निर्णय सर्वसम्मति से, नहीं हो बहुमत से देगा। 

    • सर्वोच्च न्यायालय यदि यह सोचता है कि किसी विषय पर विशेष योग्य परामर्शदाताओं के सहयोग की आवश्यकता है, तो वह एक या एक से अधिक विशेष परामर्शदाताओं को नियुक्त कर सकता है। 



    सर्वोच्च न्यायालय का स्टाफ एवं कार्यालय-

    • सर्वोच्च न्यायालय का अपना कार्यालय एवं स्टाफ होता है। 

    • लॉर्ड चांसलर सर्वोच्च न्यायालय के अध्यक्ष से परामर्श के पश्चात् एक 'मुख्य कार्यपालक' की नियुक्ति करता है, जो अध्यक्ष के आधीन रहते हुए कार्यालय के दायित्वों का निर्वहन करता है तथा 'स्टाफ एवं कर्मचारियों' पर नियंत्रण रखता है। 

    • सर्वोच्च न्यायालय का भवन लन्दन के 'मिडिलसेक्स गिल्डहाल' (Middlesex Guildhall) में निर्मित किया जाना है। 



    न्यायिक नियुक्ति आयोग-

    • 'संवैधानिक सुधार अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत एक न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना का प्रावधान किया गया है। 

    • इस आयोग में एक सभापति व 14 अन्य आयुक्त होंगे। 

    • 14 आयुक्तों में से वरिष्ठतम् को उप-सभापति की स्थिति प्राप्त होगी। 

    • आयोग के सदस्यों की नियुक्ति साम्राज्ञी द्वारा लॉर्ड चांसलर की अनुशंसा पर की जाती है। 

    • कोई भी आयुक्त एक समय में 5 वर्ष से ज्यादा और कुल 10 वर्ष से ज्यादा अपने पद पर बना नहीं रह सकता है। 

    • आयुक्त इसके पूर्व साम्राज्ञी को त्यागपत्र दे सकते है| 

    • केवल कुछ विशेष स्थितियों में लॉर्ड चांसलर की अनुशंसा पर साम्राज्ञी द्वारा पदच्युत भी किया जा सकता है। 


    आयोग की शक्तियां-

    • 3 अप्रैल, 2006 से अस्तित्व में आये इस 'गैर-विभागीय लोक निकाय' का सबसे प्रमुख कार्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के सम्बन्ध में अनुशंसा करना है। आयोग इस सम्बन्ध में निम्न तीन बातो को ध्यान में रखता है- 

    1. योग्यता को परिभाषित करना, जो एक अच्छे न्यायाधीश में अपेक्षित हो। 

    2. योग्यता का मूल्यांकन करने हेतु प्रभावशाली तथा स्वच्छ पद्धतियों का विकास करना।

    3. नियुक्तियों में श्रेष्ठ व व्यापक सीमाओं का निर्धारण करना। 


    • आयोग लॉर्ड चांसलर की अनुमति के बिना किसी से धन उधार नहीं ले सकता है। 

    • आयोग अपने दायित्वों के निर्वाह के लिये समिति या उप-समितियां बना सकता है अथवा अपनी शक्तियां अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को प्रत्यायोजित कर सकता है। 

    • आयोग को प्रत्येक वित्तीय वर्ष के अन्त में लॉर्ड चांसलर को प्रतिवेदन देना होता है, जिसे लॉर्ड चांसलर संसद के दोनों सदनों के पटल पर रखवाता है। 



    न्यायिक नियुक्ति एवं आचरण ओम्बुड्समैन 

    • ’संवैधानिक सुधार अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया तथा न्यायिक आचरण या अनुशासन' सम्बन्धी शिकायतों पर विचार करने और उन्हें दूर करने के लिये 'न्यायिक नियुक्ति एवं आचरण ओम्बूड्समैन' की स्थापना की गई है। 

    • ओम्बडसमैन ने 3 अप्रैल, 2006 से कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है। 

    • न्यायाधीशों की नियुक्ति और न्यायाधीशो के आचरण पर निगरानी रखने वाली यह संस्था सरकार और न्यायपालिका से स्वतंत्र, किन्तु ‘संवैधानिक मामलों के विभाग से संबद्ध है। 

    • साम्राज्ञी लॉर्ड चांसलर द्वारा अनुशंसित व्यक्ति को ओम्बुड्समैन के पद पर नियुक्त करती है। 

    • ओम्बुड्समैन को निश्चित कार्यकाल के लिये नियुक्त किया जाता है, किन्तु वह एक समय में 5 वर्ष से अधिक और कुल 10 वर्ष से अधिक इस पद पर नहीं रह सकता है। 

    • वह समय पूर्व साम्राज्ञी को त्यागपत्र दे सकता है|

    • विशेष स्थितियों में लॉर्ड चांसलर उसे उसके पद से पदच्यत कर सकता है। 

    • जब ओम्बुड्समैन पद रिक्त हो तो लॉर्ड चांसलर ‘कार्यकारी ओम्बुड्समैन' की नियक्ति कर सकता है। 

    • ओम्बुड्समैन के पास धन उधार लेने, सम्पत्ति बनाने एवं कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार नहीं है|


    ओम्बुड्समैन की कार्य प्रक्रिया-

    • ओम्बुड्समैन न्यायिक नियुक्तियों के विरुद्ध शिकायत तभी सुनता है, जबकि शिकायतकर्ता स्वयं एक प्रतियोगी रहा हो अथवा वह इस नियुक्ति या नियुक्तियों से विपरीत रूप में प्रभावित हुआ हो। 

    • इसी प्रकार ओम्बुड्समैन न्यायिक आचरण सम्बन्धी शिकायतों की जांच तभी करता है, जबकि ऐसी शिकायत पहले से ‘न्यायिक शिकायतें कार्यालय' (Judicial Complaints Office) के पास विचाराधीन हो अथवा अनुचित आचरण के 28 दिन पश्चात् तक ऐसी शिकायत भेजी गई हो। 

    • ओम्बुड्समैन शिकायतों के सही पाये जाने पर दोषी को स्वयं दण्डित करने का अधिकार नहीं रखता है, अपितु लॉर्ड चासलर और न्यायिक नियुक्ति आयोग को कार्यवाही की अनुशंसा कर सकता है। 

    • ओम्बुड्समैन की अनुशंसाओं के विरुद्ध अपील का कोई प्रावधान नहीं है, किन्तु ‘न्यायिक आचरण सम्बन्धी शिकायतों' में ओम्बुड्समैन चाहे तो पुर्नविचार हेतु एक 'पुर्नविचार निकाय' गठित कर सकता है, जो शिकायत पर सभी पहलुओं से विचार करने में सक्षम होता है तथा इस निकाय की अनुशंसा लॉर्ड चांसलर और लॉर्ड चीफ जस्टिस को भेजता है।

    Close Menu