Swami Vivekananda/ स्वामी विवेकानंद (1863-1902)
जीवन परिचय-
जन्म-
12 जनवरी 1863 को कलकता के एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में|
इनका जन्मदिन 12 जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है|
मूल नाम- नरेंद्रनाथ दत्त
इनको विवेकानंद नाम खेतड़ी रियासत के सामंत ने दिया था| जब ये विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने शिकागो (अमेरिका) जा रहे थे|
गुरु-
स्वामी रामकृष्ण परमहंस
1891 में विवेकानंद की भेंट रामकृष्ण परमहंस से हुई थी|
बंगाल के इस महान संत का शिष्य बनने के बाद ये स्वामी विवेकानंद हो गये|
1893 में शिकागो (अमेरिका) गये तथा विश्व सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लिया| इस सम्मेलन में विवेकानंद ने अमेरिकावासियों का संबोधन इस शब्द से किया- ‘अमेरिका निवासी भगिनी एवं भ्रातृगण’
इस सम्मेलन के बाद विवेकानंद की ख्याति पूरे विश्व में फैल गयी|
सम्मेलन से पूर्व विवेकानंद की भेंट हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हेनरी राइट से हुई|
हेनरी राइट ने सम्मेलन के सभापति को विवेकानंद का परिचय एक परिचय पत्र के माध्यम से दिया| इस परिचय पत्र में हेनरी राइट ने लिखा है कि “यहां एक ऐसा व्यक्ति है, जो अपने यहां के सारे विद्वान प्रोफ़ेसरो की इकट्ठी विद्वता से भी कहीं अधिक विद्वान है|”
16 दिसंबर 1895 को स्वामी विवेकानंद स्वदेश लौटे|
1897 में विवेकानंद ने कलकता के पास बेलूर में ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की|
1898 में उन्होंने पश्चिमी की दूसरी यात्रा की, सेनफ्रांसिस्को में ‘शांति आश्रम’ और ‘वेदांत सोसाइटी’ की स्थापना की| तथा पेरिस में आयोजित धार्मिक इतिहास परिषद में भाग लिया| तथा नव वेदांत व राजयोग का प्रचार किया|
प्रताप भानुमेहता कहते है कि “यात्रा के अंत तक विवेकानंद भारतीय आध्यात्मिकता, संस्कृति, योग व हमारे देश के ज्ञात आदर्शों के सबसे प्रसिद्ध ब्रांड एम्बेस्टर बन चुके थे|”
4 जुलाई 1902 में 39 वर्ष की आयु में विवेकानंद का देहांत हो गया|
विवेकानंद को ‘भारत का आध्यात्मिक नेपोलियन’ कहा जाता है, जिसने पूरे विश्व में भारतीय धर्म व अध्यात्म की विजय पताका फहरायी|
सुभाष चंद्र बोस, विवेकानंद को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे|
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उन्हें अपना आदर्श मानते हैं|
विवेकानंद को ‘बंगाल क्रांति का रूसो’ तथा ‘भारतीय आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का जनक’ कहा जाता है|
जहा लोकमान्य तिलक ने ‘धर्म को राष्ट्रवाद के उत्थान से जोड़ते’ हुए प्राचीन भारतीय गौरव को पुनर्जागृत किया| गांधी के चिंतन में राजनीति का आध्यात्मकरण है| अरविंदो ने ‘आध्यात्मिक राष्ट्र’ की अवधारणा दी| वीर सावरकर ने ‘हिंदू राष्ट्र’ की अवधारणा दी| वही स्वामी विवेकानंद ने आधुनिक भारतीय चिंतन में धर्म व राष्ट्रवाद की अंतः क्रियाओं के साथ-साथ सार्वभौमिक मानववाद को भी महत्व दिया|
स्वामी विवेकानंद आध्यात्मवादी, मानववादी, देशभक्त थे| भारत में भौतिक व सामाजिक पुनरुत्थान के लिए उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया|
विवेकानंद की रचनाएं-
कर्मयोग/ ज्ञानयोग
पतंजलि के योग सूत्रों पर भाष्य
जाति, संस्कृति और समाजवाद (Cast, Culture, and Socialism)
भारत व उसकी समस्याएं (India and their problem)
आधुनिक भारत (Modern India)
आमजन के प्रति हमारे कर्तव्य (Our Duties to the Masses)
अधिकारवाद की बुराइयां (The Evils of Adhikarvad)
जातिवाद का चक्र (The cycle of cast)
From Colombo to Almora Lecturers
The East and the West
बैलूर मठ से दो समाचार पत्र निकलते थे|
प्रबुद्ध भारत
उद्बोधन
विवेकानंद पर लिखी गयी पुस्तकें-
द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पल- 1944
लेखक- रोम्यां रोलां
स्वामी विवेकानंद एंड द मॉडर्नाइजेशन ऑफ हिन्दुईजम 1998
लेखक- विलियम रैडिक
सुनील खिलनानी ने लिखा है कि “विवेकानंद की छोटी सी जिंदगी बौद्धिक व आध्यात्मिक यात्रा के बवंडर जैसी थी| इसमें सहज सहानुभूति, बौद्ध ध्यान, टॉमस अ केम्पिस के इमिटेशन क्राइस्ट में तल्लीनता, पश्चिमी विज्ञान और तर्कवादी दर्शन का अध्ययन, पश्चिमी तंत्र-मंत्र व गृह्यावाद से सामना व अमेरिकी समाज सुधारको की संगठनात्मक ऊर्जाओ के साथ काम करना शामिल था|”
विवेकानंद के राजनीतिक चिंतन से संबंधित तीन पुस्तकें हैं-
फ्रॉम कोलंबो टू आल्मोडा लेक्चर्स
इंडिया एंड देयर प्रॉब्लम
मॉडर्न इंडिया
विवेकानंद का दार्शनिक एवं धार्मिक चिंतन-
विवेकानंद के दर्शन के प्रेरणा स्रोत-
इसके दर्शन के तीन मुख्य प्रेरणा स्रोत हैं-
वेदों तथा वेदांत की महान परंपरा
रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाएं
जीवन के संचित अनुभव तथा विस्तृत जगत भ्रमण
विवेकानंद के दर्शन से संबंधित विवेकानंद की कृतियाँ-
ज्ञान योग
पतंजलि सूत्रों पर भाष्य
वेदांत दर्शन पर भारत एवं पश्चिम में दिए गए भाषण
वेदांत पर आधारित सार्वदेशिक दर्शन का विकास-
स्वामी विवेकानंद ने ‘नव वेदांतवाद’ का प्रतिपादन करके भारतीय पुनर्जागरण आंदोलन को आगे बढ़ाया|
विवेकानंद अद्वैत वेदांत के मायावादी तथा संदेशवाहक थे, किंतु उनकी बुद्धि समन्वयकारी थी|
विवेकानंद वेदांत के आधार पर ऐसा दर्शन विकसित करना चाहते थे, जो समस्त संघर्षों को दुर करके मानव जाति को बहुमुखी संपूर्णता के उस स्तर पर उठा सके, जो उसका प्राप्य है|
वे वेदांत के निष्णात अद्येता थे| उन्होंने ब्रह्मा को पूर्णसत्य माना तथा उनका सच्चिदानंद ब्रह्मा में पूर्ण विश्वास था|
वे ब्रह्मा को सर्वोच्च सत्ता मानते थे तथा उनके मत में ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था में पूर्ण सत्य का साक्षात्कार ही ब्रह्मा है|
विवेकानंद के मत में वेदांत उस ईश्वर में विश्वास नहीं करता, जो मृत्यु के पश्चात स्वर्ग में सुख दे सकता है, किंतु जीवित व्यक्ति को रोटी नहीं उपलब्ध करा सकता है|
स्वामी विवेकानंद के वेदांत के 3 आधार स्तंभ-
मानव की वास्तविक प्रकृति ईश्वरीय व चेतनामय है|
जीवन का लक्ष्य ईश्वरीय प्रकृति की अनुभूति है|
सभी धर्मों का मूल लक्ष्य समान है|
विवेकानंद के अनुसार एक शब्द में वेदांत का आदर्श है- ‘मनुष्य को सच्चे रूप में जानना|’ और वेदांत का यही संदेश है कि यदि तुम व्यक्त ईश्वर रूप अपने भाई की उपासना नहीं कर सकते, तो तुम उस ईश्वर की उपासना कैसे करोगे जो अव्यक्त है|
उनके मत वेदांत संसार त्यागने का उपदेश नहीं है, किंतु समस्त विश्व को ब्रह्ममय करने का पाठ सिखाता है|
विवेकानंद ईश्वर को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में स्वीकार करते हैं|
उसके मत में सच्चिदानंद की अनुभूति के लिए ज्ञान, भक्ति तथा कर्मयोग तीनों का ही समन्वय आवश्यक है|
उनके मत में ‘योग’ धर्म का मूल आधार है| योग के कई रूप हैं जैसे-
एक साधारण व्यक्ति के लिए योग मानव तथा मानवता का सम्मिलन है|
एक रहस्यवादी के लिए योग उसकी निम्न तथा उच्च सत्ता का मिश्रण है|
एक प्रेमी के लिए योग प्रेमी तथा प्रेमी के देवता का मिलन है|
एक दार्शनिक के लिए योग समस्त अस्तित्व का बोध है
धर्म पर विचार-
विवेकानंद धर्म को व्यक्ति तथा राष्ट्र दोनों को ही शक्ति प्रदान करने वाला माना है|
विवेकानंद के अनुसार “मेरे धर्म का सार शक्ति है| जो धर्म ह्रदय में शक्ति का संचार नहीं करता, वह मेरी दृष्टि में धर्म नहीं है, चाहे वह उपनिषदों का धर्म हो और चाहे गीता अथवा भागवत का| शक्ति धर्म से भी बड़ी वस्तु है, शक्ति से बढ़कर कुछ नहीं है|”
विवेकानंद “प्रत्येक आत्मा ही अव्यक्त ब्रह्मा है|”
विवेकानंद “धर्म आध्यात्मिक जगत के सत्यो से उसी प्रकार संबंधित है, जिस प्रकार रसायनशास्त्र तथा दूसरे भौतिक विज्ञान भौतिक जगत के सत्यो से|”
विवेकानंद “सभी विज्ञानों की विशेष पद्धतियां होती हैं, धर्म विज्ञान की भी है| उसकी पद्धतियों की संख्या तो और भी अधिक है, क्योंकि उसकी विषय सामग्री भी अधिक प्रचुर होती है|”
इनके मत में धर्म तो भारत की नियति से जुड़ा है|
विवेकानंद ने सर्वधर्म समभाव की घोषणा की तथा धार्मिक मामलों में किसी भी संकीर्णता की निंदा की|
शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन 1893 में विवेकानंद ने कहा कि “सब धर्म समान है, क्योंकि सब धर्मों का मर्म व ध्येय एक जैसा ही है| अतः प्रत्येक मनुष्य को स्वधर्म का पालन करते हुए अन्य सब धर्मो व धर्मावलंबियों का आदर करना चाहिए|”
1898 में उन्होंने लिखा कि “हमारी मातृभूमि के लिए दो महान प्रणालियां हिंदू व इस्लाम का संगम ही एकमात्र आशा है|”
लेकिन विवेकानंद ये भी मानते हैं कि ‘जब तक लोगों की गरीबी एवं दुख दर्द को दूर नहीं किया जाता, तब तक उन्हें धर्म का उपदेश देना व्यर्थ है|’
हिंदू धर्म का सार्वभौमिक रूप-
विवेकानंद के मत में हिंदू धर्म नैतिक, मानववाद और आध्यात्मिक आदर्शवाद का एक सार्वभौमिक प्रतिरूप है|
इनके मत में “पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो|
पर विवेकानंद को इस बात का बड़ा दुख था कि पाखंडी पुरोहितों और पंडितों ने अपने स्वार्थ के लिए धर्म को कलंकित कर दिया है तथा उन्होंने कहा कि “पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान गरीबों और निम्न जाति वालों का गला ऐसे क्रूरता से घोटता है|”
उनका मत था कि आध्यात्मिक विद्या के संबंध में पृथ्वी का कोई भी राष्ट्र हिंदुओं का मार्गदर्शन नहीं कर सकता है|
विवेकानंद “जो धर्म विधवाओ के आंसू पूछने में और अनाथ के मुंह में रोटी का टुकड़ा डालने में विश्वास नहीं करता, वह धर्म नहीं है|”
विवेकानंद “मनुष्य बनो| पुजारियों को लात मार दो क्योंकि वे सदैव उन्नति के विरोधी रहे हैं, क्योंकि वे कभी नहीं सुधरेंगे|”
पूर्व पश्चिम का मिलन-
विवेकानंद के अनुसार “अपनी आध्यात्मिक परंपरा की दृष्टि से भारत जितना संपन्न है, भौतिक दृष्टि से उतना ही विपन्न व निर्धन है| अतः भारत, पश्चिम की अदम्य भौतिक लालसा, साम्राज्यवाद, वाणिज्यवाद व हिंसा के विरुद्ध उन्हें आध्यात्म, शांति व त्याग का पाठ पढ़ायेगा, वही अपनी अज्ञानता, जड़ता व निर्धनता से पर उठने के लिए पश्चिम से निम्नलिखित बातें सीखेगा-
जनसाधारण की दशा में सुधार के प्रति गहरा सरोकार
सामाजिक जीवन में स्त्रियों का सम्मान
संगठन क्षमता
भौतिक समृद्धि प्राप्ति के उपाय
बुद्धिवाद का समर्थन-
विवेकानंद के मत में ज्ञान मनुष्य के स्वभाव में निहित है| कोई ज्ञान बाहर से नहीं आता सब अंदर ही है|
समस्त ज्ञान चाहे वह लौकिक हो या आध्यात्मिक हो, मनुष्य के मन में है| वह प्रकाशित न होकर ढका रहता है, जब आवरण धीरे-धीरे हटता है तो हम कहते हैं कि हम सीख रहे हैं|
जिसका आवरण न हटे वह अज्ञानी है, जिसका आवरण पूरा हट जाय वह सर्वज्ञ है|
इस प्रकार विवेकानंद ने लॉक, बर्कले, ह्यूम के अनुभववाद के बजाय देकार्ते, स्पिनोजा व लाइबनिज द्वारा समर्पित बुद्विवाद का समर्थन किया है|
विवेकानंद का राजनीतिक दर्शन-
स्वामी विवेकानंद हॉब्स, लॉक, रूसो, ग्रीन, मार्क्स आदि की तरह दार्शनिक नहीं है, क्योंकि इनकी तरह विवेकानंद ने कोई राजनीतिक चिंतन का संप्रदाय कायम नहीं किया|
विवेकानंद के शब्दों में “मैं न राजनीतिज्ञ हूं, न राजनीतिक आंदोलनकारी| मैं केवल आत्म तत्व की चिंता करता हूं| जब यह ठीक होगा तो सब काम अपने आप ठीक हो जाएंगे|”
डॉ. वी.पी वर्मा ने लिखा है कि “किंतु आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन के इतिहास में उनका स्थान है इसके दो कारण-
प्रथम- उनकी शिक्षाओं तथा व्यक्तित्व का बंगाल में राष्ट्रवादी आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा|
दूसरा- विवेकानंद ने हमें भारतीय समाज के विकास के संबंध में कुछ नए विचार दिए हैं|
उनका राजनीतिक दर्शन निम्न है-
धार्मिक, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद-
हेगेल की भांति विवेकानंद का भी मानना था, कि प्रत्येक राष्ट्र का जीवन किसी एक प्रमुख तत्व की अभिव्यक्ति है| भारत के इतिहास में धर्म महत्वपूर्ण नियामक सिद्धांत रहा है|
विवेकानंद के शब्दों में “जिस प्रकार संगीत में एक प्रमुख स्वर होता है, वैसे ही हर राष्ट्र के जीवन में एक प्रधान तत्व हुआ करता है, अन्य सब तत्व उसी में केंद्रित होते हैं| भारत का तत्व है- धर्म|”
इस प्रकार राष्ट्रवाद के धार्मिक सिद्धांत का प्रतिपादन विवेकानंद ने किया| जिसको बाद में विपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष, तिलक, सावरकर ने परिवर्तित अर्थों में प्रयोग किया|
उनके मत में भारत को अपने अध्यात्म से पश्चिम को विजित करना होगा| विवेकानंद के शब्दों में “एक बार पुन: भारत को विश्व की विजय करनी है, उसे पश्चिम की आध्यात्मिक विजय करनी है|”
विवेकानंद भारतीय राष्ट्रवाद के संदेशवाहक थे| उन्होंने देशवासियों से कहा कि “बंकिमचंद्र को पढ़ो तथा उनके सनातन धर्म और उनकी देशभक्ति को ग्रहण करो|”
विवेकानंद के कथन-
“जन्मभूमि की सेवा को अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझो|”
“हे वीर निर्भिक बनो, साहस धारण करो, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो और गौरव के साथ घोषणा करो कि ‘मैं भारतीय हूं और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है|”
“तुम अपनी कमर में लंगोटी बांध कर गर्व के साथ घोषणा करो कि ‘भारतीय मेरा भाई है, भारतीय मेरा जीवन है, भारत के देवी-देवता मेरे ईश्वर हैं, भारतीय समाज मेरा बाल्यकाल का पालन है, मेरे यौवन का आनंद है, पवित्र स्वर्ग और मेरी वृद्धावस्था की नगरी वाराणसी है|”
“मेरे बंधु बोलो, भारत की भूमि मेरा परम स्वर्ग है, भारत का कल्याण मेरा कल्याण है|”
विवेकानंद ने राष्ट्रवाद को नए स्वरूप में प्रस्तुत किया, उसे अपनी ही धरती पर, अपने ही पैरों पर खड़े होने की प्रेरणा दी, अंधे बनकर यूरोपीयकरण से बचने की सीख दी, धर्म में विश्वास और कर्म में लग्न का मंत्र फूंका|
बंगाल के अनेक राष्ट्रवादियों ने उनकी ‘सन्यासी गीत’ कविता से स्वतंत्रता, देशभक्ति तथा पवित्रता का पाठ सीखा
M.N राय ने अपनी पुस्तक ‘India In Transition’ में लिखा है कि “विवेकानंद का राष्ट्रवाद आध्यात्मिक राष्ट्रवाद था| उन्होंने तरुण भारत को प्रेरित किया कि वह भारत के आध्यात्मिक मिशन में विश्वास रखें| उनके दर्शन के आधार पर आगे चलकर उन तरुण बुद्धिजीवियों में परंपरानिष्ठ राष्ट्रवाद का निर्माण हुआ|
देश की सेवा को आध्यात्मिक आधार प्रदान करने के लिए विवेकानंद ने ‘भारत माता’ की संकल्पना ‘भगवती’ के रूप में की|
उन्होंने अपनी पुस्तक Modern India में लिखा कि “धर्म भारतीय समाज का आधार है एवं धर्म में परिवर्तन से ही अन्य क्षेत्रों में परिवर्तन होगा|”
विवेकानंद ने धर्म को प्राथमिक तथा राजनीति को द्वितीय या गौण माना है|
वे सांसदों को ‘मजाक’ व दलीय राजनीति को ‘सामान्य कट्टरवाद व पंथवाद’ मानते थे|
स्वतंत्रता संबंधी धारणा-
विवेकानंद का स्वतंत्रता विषयक दृष्टिकोण व्यापक है|
उनका कहना था कि “संपूर्ण विश्व अपनी अनवरत गति द्वारा मुख्यतः स्वतंत्रता को खोज रहा है|”
उन्होंने कहा कि “जीवन, सुख और समृद्धि की एकमात्र शर्त है- चिंतन और कार्य में स्वतंत्रता|”
विवेकानंद के शब्दों में “शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वतंत्रता की और अग्रसर होना तथा दूसरों को उसकी ओर अग्रसर होने में सहायता देना मनुष्य का सबसे बड़ा पुरस्कार है|”
विवेकानंद ने स्वतंत्रता को प्राकृतिक अधिकार माना है, जो समाज के सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त होनी चाहिए|
विवेकानंद के शब्दों में “प्राकृतिक अधिकार का अर्थ यह है कि, हमें अपने शरीर, बुद्धि और धन का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करने दिया जाय|”
विचार स्वतंत्रता के बारे में विवेकानंद ने कहा है कि “विचार और कर्म की स्वतंत्रता जीवन, विकास और कल्याण की एकमात्र शर्त है, जहां इसका अभाव होता है, वहां मनुष्य जाति और राष्ट्र अवश्य ही अवनति की ओर जाता है|”
विवेकानंद के मत में स्वतंत्रता उपनिषदों का मुख्य सिद्धांत था|
विवेकानंद की कविता ‘4 जुलाई के प्रति’ में उन्होंने आशा व्यक्त की थी कि, जिस स्वतंत्रता का उदय अमेरिका में 4 जुलाई 1776 में हुआ था, वह किसी दिन समस्त विश्व में प्रतिष्ठित हो जाएगी|
विवेकानंद “स्वतंत्रता आध्यात्मिक प्रगति की एकमात्र शर्त है, पर पराधीन देश की स्वतंत्रता की चिंता छोड़कर आध्यात्मिक स्वतंत्रता की तलाश भी व्यर्थ है|”
शक्ति और निर्भयता का संदेश-
शक्ति और निर्भरता का संदेश राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में विवेकानंद की महत्वपूर्ण देन है|
इसे राजनीतिशास्त्र की शब्दावली में प्रतिरोध का सिद्धांत (Theory of Resistance) भी कह सकते हैं|
विवेकानंद ने भारतीयों को शक्ति और निर्भरता का संदेश दिया तथा कहा कि बिना शक्ति के हम अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकते हैं और न ही अपने अधिकार की रक्षा करने में ही समर्थ हो सकते हैं|
विवेकानंद के मत में भारतवासी शक्ति, निर्भीकता और आत्मबल के आधार पर ही विदेशी सत्ता से लोहा ले सकते हैं और अपनी स्वाधीनता प्राप्त कर सकते हैं|
विवेकानंद ने कहा कि “अगर दुनिया में कोई पाप है तो वह दुर्बलता है, दुर्बलता को दूर करो, दुर्बलता मृत्यु है| अब हमारे देश को आवश्यकता है, वह है लोहे के पुट्ठे, फौलाद की नाडिया और ऐसी प्रबल मनशक्ति जिसको रोका न जा सके|”
व्यक्ति की गरिमा-
विवेकानंद के अनुसार राष्ट्र व्यक्तियों से ही बनता है, अत: व्यक्तियों को अपने में पुरुषत्व, मानव गरिमा तथा सम्मान की भावना आदि श्रेष्ठ गुणों का विकास करना चाहिए|
विवेकानंद के शब्दों में “आवश्यकता इस बात की है, कि व्यक्ति अपने अहं का देश और राष्ट्र की आत्मा के साथ तादाम्य कर दे|”
अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर बल-
विवेकानंद ने अधिकारों के बजाय कर्तव्यों पर अधिक बल दिया है|
उनके मत में सभी व्यक्ति और समूह अपने कर्तव्यो और दायित्वों का इमानदारी से पालन करें|
उन्होंने निष्काम भाव से अपना कर्तव्य करने वाले ग्रहस्थ सर्वोच्च स्थान दिया है|
समाजवाद-
विवेकानंद कहा कि “मैं समाजवादी इसलिए नहीं हूं कि यह मेरी दृष्टि में यह कोई सर्वगुण संपन्न प्रणाली है, बल्कि इसलिए हूं, क्योंकि भूखे रहने से आधी रोटी पा लेना अच्छा है|”
उनके अनुसार “आदर्श समाजवादी व्यवस्था में किसी के आर्थिक शोषण की कोई गुंजाइश नहीं रहती है|”
विवेकानंद का समाजवाद केवल आर्थिक समानता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक व आध्यात्मिक समानता भी उनके समाजवाद में समाहित है|
आम जनता का धनिको, जमीदारों और बुद्धिजीवी अभिजात वर्ग द्वारा होने वाले शोषण के खिलाफ उन्होंने मार्क्स की मिलती-जुलती भाषा में कहा कि “हर एक अभिजात वर्ग का कर्तव्य है कि अपने कुलीनतंत्र की कब्र अपने आप ही खोदे और जितना शीघ्र कर सकें उतना ही अच्छा है| जितनी वह देर करेगा उतनी ही वह सड़ेगी और मृत्यु भी उतनी ही भयंकर होगी|”
आदर्श राज्य की धारणा-
विवेकानंद के अनुसार मानवीय समाज पर चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बारी-बारी से राज्य करते हैं| इसे सामाजिक परिवर्तन का वर्ण चक्रीय सिद्धांत कहा जा सकता है|
चार वर्णो का राज्य क्रमशः निम्न प्रकार होगा-
ब्राह्मण राज्य-
सबसे पहले ब्राह्मण वर्ण का शासन होगा|
गुण/ लाभ- ज्ञान, विज्ञान का विस्तार होगा|
हानि/ अवगुण- ज्ञान, विज्ञान पर विशिष्ट वर्ग का कब्जा होगा|
क्षत्रिय राज्य-
दूसरा राज्य होगा
गुण/ लाभ- कला व सामाजिक शिष्टता का शिखर पर पहुंच जाएगी|
अवगुण/ हानि- क्रूर व अन्यायी राज्य होगा
वैश्य राज्य-
फिर वैश्य राज्य स्थापित होगा|
गुण/ लाभ- धन-संपदा में वृद्धि
अवगुण/ हानि- इसमें कुचलने और खून चूसने की मौन शक्ति अत्यंत भीषण होगी|
शुद्रो/ मजदूरों का राज्य-
गुण/ लाभ- समानता, भौतिक सुखों का समान वितरण, समान शिक्षा का विस्तार
अवगुण/ हानि- सभ्यता के स्तर में गिरावट, असाधारण प्रतिभा की कमी|
विवेकानंद के अनुसार ऐसा राज्य जिसमें ब्राह्मण काल का ज्ञान, क्षत्रिय काल की सभ्यता, वैश्य काल का प्रचार-भाव और शुद्र काल की समानता रखी जा सके तो, वह आदर्श राज्य होगा|
अंतरराष्ट्रीयवाद एवं विश्वबंधुत्व या सार्वभौमिकतावाद-
विवेकानंद उग्र राष्ट्रवाद के बजाय अंतर्राष्ट्रीयवादी थे|
शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में जहां अन्य सब प्रतिनिधियों ने अपने-अपने धर्म की बात की, वहां केवल विवेकानंद ने सबके ईश्वर की बात की|
विवेकानंद ने कहा है कि “निसंदेह मुझे भारत से प्यार है, पर प्रत्येक दिन मेरी दृष्टि अधिक निर्मल होती जा रही है| हमारे लिए भारत या इंग्लैंड या अमेरिका क्या है? हम तो ईश्वर के सेवक हैं, जिसे ब्रह्मा कहते हैं| जड़ में पानी देने वाला क्या सारे वृक्ष को नहीं सीचता|”
कांग्रेस की आलोचना-
विवेकानंद ने कहा कि जनता का उत्थान किए बिना राजनीतिक मुक्तिकरण संभव नहीं है| जब जनता दुखों और विपदाओं में पड़ी करार रही हो और घोर निराशा में डूबी हो, ऐसे समय में राष्ट्र की मुक्ति की बात सोचना निरर्थक है|
उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आलोचना की, क्योंकि उनके मत में वह जनता की बेहतरी हेतु कोई भावात्मक या रचनात्मक कार्यवाही नहीं कर रही थी|
विवेकानंद ने कहा कि “क्या प्रस्ताव पास करने से स्वतंत्रता मिल पाएगी? मेरा उसमें विश्वास नहीं है| सबसे पहले जनता को जगाना होगा| उसे भरपेट भोजन मिलने दीजिए, फिर वह अपना उद्धार स्वयं कर लेगा| यदि कांग्रेस उसके लिए कुछ करती है, तो मेरी सहानुभूति कांग्रेस के साथ है|”
विवेकानंद का सामाजिक दर्शन-
अस्पृश्यता का विरोध-
उन्होंने भारत में व्याप्त अस्पृश्यता एवं रूढ़िवादिता पर कटु प्रहार किया|
विवेकानंद ने अछूतो के लिए कहा कि “हम उनकी जीविका और उन्नति के लिए क्या कर रहे हैं? हम उन्हें छूते भी नहीं है और हम उनकी संगति से दूर भागते हैं| क्या हम मनुष्य हैं?”
विवेकानंद भारतीय वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था की समाप्ति नहीं, बल्कि उसमें सुधार के पक्षधर थे|
वे सामाजिक व्यवस्थाओं को जन्म से नहीं, बल्कि कर्म आधारित करना चाहते थे|
उन्होंने परंपरावादी ब्राह्मणों के पुरातन अधिकारवाद व विशेषाधिकारो का खंडन किया तथा कहा कि पाखंडी ब्राह्मणवाद ने शूद्रों को वैदिक ज्ञान व शिक्षा से वंचित कर दिया|
अस्पृश्यता की आलोचना करते हुए कहा कि “हिंदुओं का धर्म रसोईघर और पतीली कढ़ाई व घड़े की शुद्धता तक सिमट गया है|”
विवेकानंद “यदि निर्धन शिक्षा तक नहीं पहुंच पाते हैं, तो स्वयं शिक्षा को खेत, कारखानों तक पहुंच जाना चाहिए|”
विवेकानंद ने कहा कि “वर्ण व्यवस्था आदर्श रूप में हो तो एक प्रकार का साम्यवाद है|”
विवेकानंद ने अव्ययी ढंग के धीमे सुधारों का समर्थन किया है| उन्होंने कहा कि “जाति समाप्त नहीं होगी, बल्कि उन्हें समायोजित किया जाएगा|”
अस्पृश्यता पर विवेकानंद ने कहा कि “हम में से अधिकांश मनुष्य इस समय न तो वेदांती है, न पौराणिक और न तांत्रिक है, हम तो छुती धर्म है अर्थात हम महापवित्र हैं, हमें मत छुओ|”
उसके मत में अस्पृश्यता की समाप्ति के लिए दो दिशाओं में कार्य करना चाहिए-
साधु-संतो, सन्न्यासियो द्वारा छुआछूत के विरुद्ध प्रचार करना|
दलितों को शिक्षित करना|
बाल विवाह का विरोध-
विवेकानंद ने बाल विवाह का विरोध किया है तथा कहा है कि “बाल-विवाह से असामयिक संतानोत्पत्ति होती है और संतान धारण करने वाली स्त्रियां अल्पायु होती है| और उनकी दुर्बल और रोगी संताने देश में भिखारियों की संख्या बढ़ाने का कारण बनती है|”
आत्मविश्वास पर बल-
विवेकानंद ने स्वयं पर विश्वास करने की प्रेरणा दी है|
विवेकानंद ने कहा कि “लोग कहते हैं, हम पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो, मैं कहता हूं पहले अपने आप पर विश्वास करो और कहो हम सब कुछ कर सकते हैं|”
स्त्री सशक्तिकरण पर बल-
विवेकानंद स्त्री-सशक्तिकरण के प्रबल समर्थक थे|
उन्होंने बाल विवाह रोकने पर बल दिया है, लेकिन विधवा विवाह व अंतरजातीय विवाह के पक्षधर नहीं थे|
विधवा विवाह के विरुद्ध उनका तर्क था कि स्त्री-पुरुष की समान संख्या होने के कारण पुरुष का पहला हक कुंवारी स्त्री का है, विधवा को तो वह हक पहले ही मिल चुका है|
शिक्षा संबंधी विचार-
विवेकानंद के मत में भारत की दयनीय स्थिति का मूल कारण शिक्षा की कमी है|
वे तत्कालीन शिक्षा पद्धति के प्रबल आलोचक थे|
अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को वे क्लर्को का निर्माण करने वाला यंत्र मानते थे|
गुरुकुल शिक्षा पद्धति के समर्थक थे|
शिक्षा पाठ्यक्रम में धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन को अनिवार्य बताया है|
अंग्रेजी के अध्ययन पर उन्होंने बल दिया ताकि वे इस संपर्क भाषा का लाभ उठाकर वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति के बारे में जान सके|
दरिद्रनारायण की अवधारणा या आध्यात्मिक मानववाद-
विवेकानंद के अनुसार यदि कोई ईश्वर की सेवा करना चाहता है, तो उसे मनुष्य की सेवा करनी होगी|
दीन, दुखी, दरिद्र की सेवा ही नारायण सेवा होगी, यहीं आध्यात्मिक मानववाद है| यही वेदांत का दर्शन है|
विवेकानंद ने कहा था कि “स्मरण रखिए कि राष्ट्र झोपड़ियों में रहता है| विश्व में एक ही ईश्वर है, जिसमें मुझे आस्था है, वह ईश्वर सब जाति के दीन तथा दरिद्र लोग हैं|”
नव वेदांत-
नव वेदांत को ‘हिंदू आधुनिकतावाद’, ‘नव हिंदूवाद’ ‘हिंदू सार्वभौमिकतावाद’ या ‘वैश्विक हिंदूवाद’ भी कहा जाता है|
नव वेदांत 19वीं सदी में बंगाल में विकसित हुआ| राजा राममोहन राय व उनके ब्रह्म समाज में इसके प्रारंभिक दर्शन होते हैं|
परंतु इसके प्रमुख उद्घोषक स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष व सर्वपल्ली राधाकृष्णन हैं|
नव वेदांत शब्द पॉल हैकर ने गढ़ा था|
विवेकानंद का नव वेदांत कर्म, दरिद्रनारायण की सेवा, साम्यवाद व आध्यात्मिक राष्ट्रवाद पर आधारित है|
अद्वैत वेदांत का केंद्र आध्यात्मिकता है, नव वेदांत ने इस आध्यात्मिकता में राष्ट्रवाद व मानववाद का मिश्रण कर दिया|
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