Concept of Right | अधिकार की अवधारणा | Adhikar ki Avadharana in Hindi
अर्थ-
अधिकार अंग्रेजी शब्द Right का हिंदी रूपांतरण है|
Right का अर्थ उचित है| अर्थात अधिकार नैतिक और वैधानिक रूप से आवश्यक कार्य व परिस्थितियां हैं|
अधिकार समाज व राज्य द्वारा व्यक्ति को दी गई ऐसी सुविधाएं, परिस्थितियां या अवसर हैं, जो व्यक्ति के सर्वागीण विकास, जीवन रक्षा के लिए आवश्यक व अनिवार्य हैं|
केवल वे सुविधाएं ही अधिकार कहलाती हैं, जो समाज और राज्य द्वारा स्वीकृत हैं|
अधिकार मनुष्य द्वारा अपने संपूर्ण विकास के लिए समाज से की गई वे मांगे या दावे हैं, जिनको समाज स्वीकार कर लेता है, तथा राज्य उन्हें प्रदान कर देता है| यह मांगे उचित होनी चाहिए|
अधिकार का अस्तित्व केवल समाज में होता है|
अधिकार का उद्देश्य व्यक्ति या समाज के कल्याण में वृद्धि करना है|
केवल वे सुविधाएं ही अधिकार कहलाती हैं, जो समाज और राज्य द्वारा स्वीकृत हैं|
अधिकार समाज में जन्म लेते हैं, पहले समाज और बाद में राज्य सरकारे मान्यता देती हैं|
अधिकार की परिभाषा-
हेराल्ड J लास्की “अधिकार सामाजिक जीवन की वे आवश्यक परिस्थितियां हैं, जिसके अभाव में कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता है|”
हेराल्ड J लास्की “अधिकारों के बिना स्वतंत्रता का कोई अस्तित्व नहीं है और प्रत्येक राज्य उन अधिकारों के आधार पर पहचाना जाता है, जिन्हें वह सुरक्षित रखता है|”
बोसांके “अधिकार वह मांग है, जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है|”
वाइल्ड “अधिकार कुछ विशेष कार्यों को करने की स्वतंत्रता की उचित मांग है|”
बार्कर “अधिकार व्यक्ति की क्षमताओं का अधिकतम संभव विकास के लिए आवश्यक बाध्य दशाएं हैं|”
बार्कर “एक ओर सरकार के कार्य व्यक्ति के अधिकारों की दशाएं हैं, दूसरी ओर व्यक्तियों के अधिकार सरकार के कार्यों की शर्तें हैं|”
जॉन ऑस्टिन “एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों में कुछ विशेष प्रकार का कार्य करने की क्षमता का नाम अधिकार है|”
मेकन “अधिकार सामाजिक हितार्थ की कुछ लाभदायक परिस्थितियां हैं, जो नागरिकों के विकास के लिए अनिवार्य हैं|”
जोएल फेनबर्ग “अधिकार व्यक्ति की पात्रता को रेखांकित करते हैं|
अधिकारों की विशेषताएं-
सामान्यतः अधिकार राज्य के विरुद्ध व्यक्ति के दावे हैं|
अधिकारों का जन्म समाज में होता है|
राज्य अधिकारों का सृष्टा नहीं है, बल्कि केवल मान्यता प्रदान करता है|
अधिकारों का कर्तव्यो के साथ घनिष्ठ संबंध होता है|
अधिकार स्वार्थमय मांगे नहीं है |
अधिकार निश्चित होने चाहिए|
इनकी निश्चित व स्पष्ट व्याख्या होनी चाहिए|
ये वर्द्धनशील होते हैं, आवश्यकता अनुसार बढ़ते रहते हैं|
अधिकारों के तत्व-
लेस्ले होयफिल्ड ने अधिकारों के चार तत्व बताएं-
विशेषाधिकार
दावा
शक्ति
प्रतिरक्षा
अधिकारों के प्रकार-
प्राकृतिक अधिकार-
ये अधिकार प्रकृति या ईश्वर प्रदत होते हैं तथा जन्म से प्राप्त होते हैं|
इनका निर्माण राज्य नहीं करता है, जबकि राज्य का जन्म ही इनकी रक्षा के लिए होता है|
17-18 वीं सदी के सामाजिक समझौतावादी या अनुबंधनवादी सिद्धांत के प्रवर्तको ने प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त अधिकारों को प्राकृतिक अधिकार कहा|
जैसे- थॉमस हॉब्स ने आत्म सुरक्षा तथा जॉन लॉक ने संपत्ति, जीवन, स्वतंत्रता को प्राकृतिक अधिकार माना है|
नैतिक अधिकार-
वे अधिकार जिनका संबंध मनुष्य की नैतिकता से होता है|
इन अधिकारों को कानूनी शक्ति प्राप्त नहीं होती है, केवल सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती हैं|
जैसे- माता पिता की सेवा, बड़ों का सम्मान करना आदि|
मौलिक अधिकार-
ऐसे अधिकार जो व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिए आवश्यक होते हैं तथा इनका उल्लेख संविधान में कर दिया जाता है और राज्य इनकी के रक्षा की गारंटी देता है|
जैसे- भारत के संविधान में भाग-3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का उल्लेख है|
मौलिक अधिकार दो प्रकार के होते हैं-
सकारात्मक मौलिक अधिकार
नकारात्मक मौलिक अधिकार
सकारात्मक मौलिक अधिकार-
ये अधिकार कल्याणकारी राज्य की स्थापना करते हैं|
तथा राज्य के द्वारा समाज के पिछड़े वर्ग, निम्न वर्ग, महिलाओं, बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किए जाते हैं|
नकारात्मक मौलिक अधिकार-
ये अधिकार राज्य की शक्ति पर कुछ प्रतिबंध लगाते हैं|
Note- पूंजीवादी राज्यों में नकारात्मक अधिकारों पर, समाजवादी राज्यों में सकारात्मक अधिकारों पर, कल्याणकारी राज्यों के अंतर्गत नकारात्मक अधिकारों के साथ साथ सकारात्मक अधिकारों पर भी बल दिया जाता है|
सामाजिक-आर्थिक अधिकार-
समाजवादी व्यवस्था व कल्याणकारी राज्य-व्यवस्थाओं में यह अधिकार पाए जाते हैं|
जैसे- रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य का अधिकार आदि|
पर्यावरणीय अधिकार-
समर्थक- अर्नेनेस, जेम्स लवलॉक, वंदना शिवा
यह अधिकार वर्तमान का ज्वलंत मुद्दा है|
जैसे- शुद्ध हवा, शुद्ध पर्यावरण, परमाणु मुक्त विश्व, शुद्ध जल का अधिकार आदि|
कानूनी या वैधानिक अधिकार-
वे अधिकार जो व्यक्ति को राज्य द्वारा प्रदान किए जाते हैं तथा इनके उल्लंघन पर दंड देने की शक्ति राज्य को होती है|
कानूनी अधिकार भी दो प्रकार के होते हैं-
राजनीतिक अधिकार
सामाजिक व नागरिक अधिकार
राजनीतिक अधिकार-
जनता द्वारा शासन कार्यों में भाग लेने के लिए अधिकार, राजनीतिक अधिकार कहलाते हैं|
यह अधिकार सामान्यतः सभी नागरिकों को प्राप्त होता है|
जैसे- वोट देने का अधिकार, निर्वाचित होने का अधिकार
सामाजिक व नागरिक अधिकार-
ये सामान्यतः सभी व्यक्तियों (नागरिक व विदेशी) को प्राप्त होते हैं| इनका संबंध व्यक्ति के संपूर्ण विकास से होता है|
जैसे- जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार आदि|
अधिकारों के सिद्धांत
प्राकृतिक (नैसर्गिक) सिद्धांत-
प्राकृतिक अधिकार का वास्तविक जनक- जॉन लॉक
समर्थक- सिसरो, पॉलीबियस, थॉमस हॉब्स, जॉन लॉक, रूसो, मिल्टन, वाल्टेयर, ग्रोशियस, टॉमस पेन, ब्लैक स्टोन, प्रिस्टले, हुकर आदि|
यह अधिकारों का सबसे प्राचीनतम सिद्धांत है| यह सिद्धांत 17वीं-18वीं सदी में सामाजिक अनुबंधनवादियों के समय प्रचलित रहा था|
सामाजिक अनुबंधन सिद्धांत के प्रवर्तको के अनुसार राज्य की उत्पत्ति से पहले अर्थात प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति को कुछ अधिकार प्राप्त थे, जिन्हें प्राकृतिक अधिकार कहा जाता है|
इन अधिकारों का सृजन राज्य नहीं करता है, जबकि इन अधिकारों की रक्षा करने के लिए राज्य का जन्म होता है|
राज्य का कर्तव्य इन अधिकारों को विधिवत कानूनी मान्यता देना है|
समझौतावादियों के अनुसार प्राकृतिक अधिकार अहस्तांतरणीय, अलोप्य होते हैं|
प्राकृतिक अधिकार सर्वव्यापक, सभी परिस्थितियों, देश, काल में सर्वत्र एक जैसे होते हैं|
सिसरो के अनुसार “व्यक्ति के अधिकार प्रकृति की देन है, इन्हें सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है|”
टॉमस पेन प्राकृतिक अधिकारों को ही मनुष्य के अधिकार की संज्ञा दी है|
थॉमस पेन की पुस्तकें- Right of man 1791, Common Sense 1776
जॉन लॉक ने अपनी पुस्तक ‘टू ट्राइटिज ऑन गवर्नमेंट 1689’ में जीवन, स्वतंत्रता, संपत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार कहा है|
हॉब्स ने अपनी पुस्तक लेवियाथन 1651में जीवन के अधिकार या आत्मसुरक्षा के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार कहा है|
आर्थिक क्षेत्र में प्राकृतिक अधिकार के समर्थक- एडम स्मिथ, रिकार्डो, माल्थस
तीन क्रांतियां प्राकृतिक अधिकारों पर आधारित है-
इंग्लैंड की गौरवपूर्ण क्रांति 1688
अमेरिकन क्रांति 1776
फ्रांसीसी क्रांति 1789
अमेरिकी स्वतंत्रता की क्रांति- इसमें कहा गया कि मनुष्य जन्म से समान है और विधाता ने कुछ ऐसे अधिकार दिए हैं, जो उनसे छीने नहीं जा सकते हैं जो हैं जीवन, स्वतंत्रता, सुख की साधना के अधिकार|
फ्रांसीसी क्रांति 1789 की घोषणा में स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व पर बल दिया गया|
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 10 दिसंबर 1948 भी प्राकृतिक अधिकार सिद्धांत की समर्थक है|
आलोचना-
प्रमुख आलोचक- बेंथम, एडमंड बर्क, हेगेल, ग्रीन आदि|
प्राकृतिक अधिकार काल्पनिक है-
प्राकृतिक अधिकार कल्पना पर आधारित प्रकृति द्वारा प्रदत माने जाते हैं, जबकि वास्तविक अधिकार तो समाज द्वारा प्रदान किए जाते हैं|
बेंथम द्वारा आलोचना “प्राकृतिक अधिकार बैसाखियो के सहारे खड़ा बकवास या अलंकारिक अर्थहीनता. अराजकतापूर्ण भ्रांतियां है|
ग्रीन व बोसांके ने प्राकृतिक अधिकारों को काल्पनिक कहा है|
लॉस्की के अनुसार प्राकृतिक अधिकार मिथ्या कल्पनाओं पर आधारित है|
एडमंड बर्क प्राकृतिक अधिकारों को अराजकता का पाचन कहते हैं| “प्राकृतिक अधिकार अराजकतावादी धारणा है| रूसो की सोशल कॉन्ट्रैक्ट पुस्तक में मानव अधिकार चोकर, चिथड़ा व छोटा गंदा टुकड़ा मात्र है|”
Note- रिची का मानना है कि प्राकृतिक अधिकारों के जन्मदाता प्रोटेस्टेंट क्रांति है|”
राज्य कृत्रिम संस्था नहीं है-
प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए मानता है, अर्थात राज्य को कृत्रिम संस्था मानता है, जबकि अरस्तू ने राज्य को प्राकृतिक संस्था कहा है|
प्राकृतिक अधिकार शब्द भ्रामक व अस्पष्ट है-
प्रत्येक समाज, क्षेत्र, काल में प्राकृतिक अधिकारों का अलग-अलग अर्थ निकाला गया है|
ग्रीन “प्राकृतिक अधिकार ऐसा अधिकार है, जो समाज की प्राकृतिक अवस्था में पाया जाता है, इसमें शब्दों का पारस्परिक विरोध है|”
प्राकृतिक अधिकारों की एक निश्चित सूची बनाना असंभव है
अधिकारों का कानूनी सिद्धांत-
समर्थक- बेंथम, थॉमस हॉब्स, हेगेल, जॉन ऑस्टिन, बोदा, होलेंड, रिची
यह सिद्धांत संप्रभुता के एकलवादी दृष्टिकोण का परिणाम है|
ये अधिकार कृत्रिम होते हैं|
इनका सृजन राज्य कानून बनाकर करता है, अर्थात यह राज्य की देन है|
ये देश, काल के अनुसार बदल जाते हैं|
बेंथम “अधिकार, कानून और संगठित समाज के सृष्टि हैं तथा राज्य प्रभु का आदेश है|”
थॉमस हॉब्स “अधिकारों की उत्पत्ति राज्य के बाद हुई है, क्योंकि राज्य विहीन अवस्था में उचित, अनुचित, न्यायपूर्ण व अन्यायपूर्ण खोखले शब्द है|”
जॉन ऑस्टिन “प्रत्येक अधिकार चाहे वह देवीय हो या प्राकृतिक हो या नैतिक हो, सापेक्ष कर्तव्य पर आधारित होते हैं|”
बेंथम “अधिकार विधि और केवल विधि के फल हैं, बिना विधि के कोई अधिकार नहीं है और विधि के विरुद्ध व इसके पूर्व भी कोई अधिकार नहीं है|”
आलोचना-
राज्य अधिकारों का निर्माता नहीं, रक्षक है-
वाइल्ड के अनुसार “राज्य हमारे अधिकारों को उत्पन्न नहीं करता है, जबकि उन्हें मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है|”
कानूनी अधिकार राज्य को निरंकुश बना देता है, क्योंकि इन अधिकारों का जन्मदाता राज्य होता है|
कानून ही अधिकारों का एकमात्र स्रोत नहीं है-
कानून के अलावा सामाजिक सरोकार, नैतिक औचित्य, सामाजिक स्वीकृति आदि भी अधिकारों के स्रोत हैं|
अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत या रूढ़ीवादी सिद्धांत-
प्रवर्तक- एडमंड बर्क
एडमंड बर्क ने परंपराओं को ही संविधान, अधिकार, कानून तथा अन्य सभी राजनीतिक संस्थाओं का मूल आधार माना है|
इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार इतिहास की देन है| जब लंबे समय से चलने वाले रीति रिवाज स्थिर हो जाते हैं तो अधिकारों का रुप ले लेते हैं|
मैकाइवर “आज का कानून चिरपुरातन रीति-रिवाजों की कानूनी स्वीकृति के रूप में स्पष्टीकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, जिसे राज्य लागू करता है|”
बर्क “लोग किसी ऐसी चीज पर अधिकार रखते हैं, जिसका व्यवहार अथवा भोग वे लंबे समय से निर्बाध रूप से कर रहे हैं| इसलिए इसे चिरकाल भोग जनित सिद्धांत भी कहते हैं|
आलोचना-
रूढ़िवादिता को प्रश्रय देता है-
यह दास प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह जैसी कुप्रथा को भी अधिकार मान लेता है, क्योंकि ये प्रथाएं चिरकाल से चली आ रही है
केवल परंपराएं ही अधिकार के आधार नहीं है|
- अधिकारों का बर्क-पेन विवाद-
वर्णन- युवान लेविन की पुस्तक The Great Debate- Edmund burke, Thomas Pan and the Birth of Right and Left 2014
इस विवाद का मुख्य बिंदु- अधिकारों का स्रोत
एडमंड बर्क ने अधिकारों का स्त्रोत इतिहास को माना है, वही थॉमस पेन ने अधिकारों का स्रोत प्रकृति को माना है|
एडमंड बर्क ने अपनी पुस्तक Reflection on the Revolution in France 1790 में फ्रांसीसी क्रांति की आलोचना करते हुए लिखा कि “फ्रांस की राज्य क्रांति का आधार काल्पनिक अधिकार थे, जबकि ब्रिटिश की रक्तहीन क्रांति ऐतिहासिक अधिकारों पर आधारित थी|”
एडमंड बर्क ने प्राकृतिक अधिकारों को ‘अराजकता का पाचन’ में ‘अराजकतावादी धारणा’ कहा है|
थॉमस पेन ने बर्क की पुस्तक के विरोध में 1791 में Right of Man लिखी|
थॉमस पेन ने एडमंड बर्क के तर्कों का खंडन करते हुए प्राकृतिक अधिकारों व व्यक्तिगत अधिकारों का समर्थन किया|
थॉमस पेन “बर्क मृतक के अधिकारों को, जीवित लोगों की स्वतंत्रता व अधिकारों पर स्थान देना चाहते है|” अर्थात पेन ऐतिहासिक अधिकारों को मृतकों का अधिकार कहता हैं|
अधिकारों का सामाजिक-कल्याण या सामाजिक उपयोगिता सिद्धांत-
प्रमुख समर्थक- बेंथम, मिल, लॉस्की,
समकालीन समर्थक- रास्को पाउंड, शैफी, न्यूमैन
सामाजिक उपयोगिता सिद्धांत- बेंथम मिल
सामाजिक कल्याण सिद्धांत- लॉस्की
इस सिद्धांत के अनुसार समाज कल्याण के लिए आवश्यक शर्त ही अधिकार है|
अधिकार समाज की देन है|
इसके अनुसार केवल वे ही अधिकार हैं, जो समाज के लिए उपयोगी हैं|
उपयोगितावादियो (अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख) ने इस अधिकार का समर्थन किया है|
बेंथम “अधिकार समाज की ही रचना है| अधिकार ही समाज कल्याण की शर्त है|”
लॉस्की “लोक कल्याण के विरुद्ध कोई अधिकार नहीं है|”
लॉस्की “किसी भी राज्य की पहचान उन अधिकारों से होती है, जिन्हें वह कायम रखता है|”
मिल “व्यक्ति के विकास और समाज कल्याण में कोई मौलिक विरोध नहीं है, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं|”
आलोचना
लोक कल्याण के नाम पर व्यक्ति के हितों की बलि चढ़ा दी जाती है|
लोक कल्याण शब्द अत्यंत विशद और अस्पष्ट है|
अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धांत या व्यक्तिवादी सिद्धांत या नैतिक सिद्धांत-
प्रवर्तक- इमानुएल कांट, ग्रीन, हेगेल
इस सिद्धांत को नैतिक सिद्धांत भी कहते हैं|
इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार ऐसी बाहरी भौतिक परिस्थितियां हैं, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए जरूरी है|
ये जीवन के लिए आवश्यक बाहरी परिस्थितियां हैं|
अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धांत नैतिक पक्ष को महत्वपूर्ण मानता है|
इस सिद्धांत के अनुसार कानूनी मान्यता मिलने से पहले नैतिक मान्यता मिलना जरूरी है|
कांट “राज्य व्यक्ति की नैतिकता के अनुरूप उचित वातावरण प्रदान करता है, यह उचित वातावरण ही अधिकार है|”
ग्रीन “जब मानव चेतना, शाश्वत चेतना से अनुप्रमाणित हो जाती है, तब मानव चेतना स्वतंत्र हो जाती है, स्वतंत्रता में अधिकार निहित हैं और अधिकार राज्य की मांग करते हैं|”
बोसांके “अधिकार राज्य के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समाज द्वारा मान्यता प्राप्त दावे हैं|”
क्रोसमैन “अधिकार समस्त बाहरी अवस्था है, जो बौद्धिक जीवन के लिए आवश्यक है|”
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि-
अधिकार का अस्तित्व समाज में निहित है|
अधिकार व्यक्ति के स्वभाव में निहित हैं|
प्रत्येक अधिकार में कर्तव्य निहित है|
अधिकार व्यक्ति की एक मांग है. जो व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिए आवश्यक है| इस मांग को समाज स्वीकार करता है|
व्यक्ति तथा समाज के आदर्श में कोई अंतर नहीं है|
आलोचना
यह अधिकारों के कानूनी पक्ष की अवहेलना करता है|
समाज के सामान्य हित तथा व्यक्ति के हित में विरोध हो सकता है|
अधिकारों का तात्विक सिद्धांत-
प्रवर्तक- टी एच ग्रीन
ग्रीन के अनुसार अधिकारों का संबंध उन दशाओं से है, जो व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक हैं| इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का हित सार्वजनिक हित है|
अधिकारों का व्यक्तिवादी- उदारवादी सिद्धांत-
समर्थक- थॉमस हॉब्स, जॉन लॉक, रूसो
हॉब्स “प्रत्येक व्यक्ति विवेकशील व तार्किक है, जो अपने हितों की पूर्ति के लिए सदैव प्रयास करता रहता है|”
जॉन लॉक सीमित व संवैधानिक शासन का समर्थन करता है, इसलिए जॉन लॉक को उदारवाद का जनक कहा जाता है|
इस सिद्धांत का आरंभ मध्यकालीन सामंतवादी, राजतंत्रीय, पोपशाही के विरोध में आलोचना स्वरूप हुआ|
यह व्यक्ति की स्वतंत्रता पर बल देता है तथा राज्य की निरंकुश शक्ति पर प्रतिबंध लगाता है|
जॉन लॉक अहस्तक्षेपवादी राज्य का समर्थन करता है| व्यक्ति की स्वतंत्रता को अधिक महत्व देता है|
लॉक प्रहरी राज्य का समर्थन करता है तथा कहता है कि राज्य एक आवश्यक बुराई है|
रॉबर्ट नॉजिक -
राज्य का कार्य केवल पुलिस व सुरक्षा होना चाहिए|
न्यूनतम करारोपण का समर्थन करता है|
प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप में साध्य मानता है|
न्यूनतम राज्य, मुक्त बाजार, उदारीकरण, स्व-स्वामित्व का समर्थन करता है|
अधिकारों का समाज-वैज्ञानिक सिद्धांत-
समर्थक- मैकाइवर
वे रीति-रिवाज, जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हो तथा जिन्हें राज्य कानून में बदल दे, अधिकार बन जाते हैं|
अधिकारों का बहु-सांस्कृतिक सिद्धांत-
समर्थक- भीखू पारीख, विम किमलिका
अधिकारों के संबंध में भीखू पारीख के विचार-
भीखू पारीख “बहु-सांस्कृतिक समाजों में व्यक्ति नहीं, बल्कि समुदाय या समूह अपनी पहचान की सुरक्षा के लिए अधिकारों की मांग करता है|”
बहुसांस्कृतिकवादी विचारक भीखू पारीख का कहना है कि सामान्यतः बहु सांस्कृतिक समाजों में सांस्कृतिक समुदाय ऐसे अधिकारों की मांग करते हैं, जिन्हें वे अपनी पहचान को कायम रखने के लिए जरूरी मानते हैं|
इन अधिकारों को समूह, सामूहिक या सामुदायिक अधिकार कहा जाता है|
इन्होंने व्यक्तिगत अधिकारों के स्थान पर सामूहिक अधिकारों का समर्थन किया है|
इनके अनुसार सामूहिक अधिकार वे अधिकार हैं जिन्हें मनुष्यों की सामूहिकताओं द्वारा धारण किया जाता है|
मनुष्यों की सामूहिकताओं में अल्पकालिक या दीर्घकालिक सामान्य हितों के आधार पर जुड़े समूहों को शामिल किया जाता है, इसके अलावा ऐसे ऐतिहासिक समुदाय भी इसमें शामिल हो सकते हैं जिनकी साझी जीवन शैली है|
अधिकारों के संबंध में विम किमलिका के विचार-
बहु सांस्कृतिक विचारक विम किमलिका ने अल्पसंख्यकों के अधिकारों का समर्थन किया है|
इनका मत है कि बहुसंख्यको द्वारा लिए गए आर्थिक और राजनीतिक फैसलों के कारण राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की सामाजिक संस्कृति की उपेक्षा हो सकती है|
अल्पसंख्यकों की सामाजिक संस्कृति को बनाए रखने के लिए अधिकारों के किसी भी सुसंगत सिद्धांत को अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को मान्यता देनी चाहिए|
अल्पसंख्यक सदस्यों को अल्पसंख्यक अधिकार देकर उनके नुकसान को खत्म किया जा सकता है|
विम किमलिका ने तीन प्रकार के अधिकारों का वर्णन किया है-
स्वशासन का अधिकार
बहुसंजातीय अधिकार
विशेष प्रतिनिधित्व संबंधी अधिकार
समुदायवादी- बहुलवादी अधिकार सिद्धांत
समर्थक- माइकल वाल्जर
पुस्तक- Spheres of Justice 1983
अधिकारों के संबंध में माइकल वाल्जर के विचार-
समुदायवादी विचारक माइकल वाल्जर का मानना है कि अधिकारों के सार्वभौमिक सिद्धांतों की खोज एक भ्रमित खोज है, क्योंकि प्रत्येक समुदाय की जरूरतों के अनुसार अधिकार भी अलग-अलग होते हैं|
अधिकारों और जरूरतों को पहचानने का एकमात्र तरीका यह देखना है कि हर विशिष्ट समुदाय किस तरह से सामाजिक वस्तुओं के मूल्य को समझता है|
माइकल वाल्जर के मत में अधिकार और न्याय सिद्धांतों को तय करना दर्शन से जुड़े तर्क की जगह सांस्कृतिक व्याख्या (साझी समझ) का मसला ज्यादा है|
साझी समझ जटिल समानता की मांग करती है| जटिल समानता का तात्पर्य वितरण की ऐसी व्यवस्था जो सभी वस्तुओं को बराबर करने की कोशिश नहीं करती|
उदार- समतावादी सिद्धांत-
समर्थक- ड्वॉर्किन
पुस्तक- Taking right seriously 1977
व्यक्तिगत अधिकार व्यक्ति के पास ‘राजनीतिक इक्के’ (Political Trumps) की तरह होते हैं|
इनके अनुसार अधिकार तुरुप का पत्ता (Right as Trumps) है|
नैतिकता के स्तर पर दो ही न्यायोचित अधिकार है-
समता का अधिकार
गरिमा का अधिकार
अधिकारों का स्वातंत्र्यवादी सिद्धांत या स्वेच्छा तंत्रवादी सिद्धांत-
समर्थक- रॉबर्ट नॉजिक
रॉबर्ट नॉजिक की पुस्तक Anarchy, State and Utopia 1974
रॉबर्ट नॉजिक की इस पुस्तक का प्रथम वाक्य है “व्यक्तियों के पास अधिकार हैं और कुछ ऐसी वस्तुएं हैं, जिनको कोई व्यक्ति या समूह छीन नहीं सकता, बिना उसके अधिकारों का उल्लंघन किए|”
नॉजिक के अनुसार संपत्ति का अधिकार असीमित व सर्वप्रमुख मानव अधिकार है|
नॉजिक ने अपने इस सिद्धांत को हकदारी सिद्धांत की संज्ञा दी है तथा नॉजिक के अनुसार अधिकारों का प्रमुख स्रोत आत्म-स्वामित्व का प्राकृतिक अधिकार है|
व्यक्ति के अधिकार ही नैतिकता का एकमात्र आधार है, जब तक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होता, प्रत्येक कार्य नैतिक दृष्टि से उचित है|
अधिकारों का मार्क्सवादी सिद्धांत-
मार्क्सवाद के अनुसार किसी भी राज्य में, किसी भी युग में प्रचलित अधिकार वहां के शासक वर्ग या प्रभुत्वशाली वर्ग के अधिकार होते हैं तथा अधिकारों का आधार आर्थिक होता है|
मार्क्सवाद अधिकारों को वर्ग चरित्र से जुड़ा मानता है, अतः पूंजीवादी व्यवस्था व साम्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत अधिकारों का स्वरूप अलग-अलग होता है|
पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत अधिकारों का स्वरूप-
यह व्यवस्था मुक्त प्रतिस्पर्धा पर आधारित होती है|
यह व्यवस्था संपत्ति के अधिकार को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करती है|
इस व्यवस्था में सभी व्यक्तियों को समान नागरिक अधिकार प्राप्त होते हैं|
लेकिन मार्क्सवाद के अनुसार वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति वर्ग/ प्रभावशाली वर्ग के पास सारे अधिकार होते हैं, जो पराधीन वर्ग का दमन करके स्थापित किए जाते है|
साम्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत अधिकार-
इस व्यवस्था में पहले अधिकार कामगार वर्ग (सर्वहारा वर्ग) के पास होते हैं, बाद में वर्ग विहीन, राज्य विहीन समाज की स्थापना होती है तथा आर्थिक समानता की स्थापना हो जाती है|
मार्क्सवादी राज्य को शोषण का यंत्र मानते हैं|
आलोचना- यह केवल एक आधार (आर्थिक आधार) पर बल देता है|
नारीवादी दृष्टिकोण-
नारीवादी दृष्टिकोण के अनुसार अधिकार केवल पुरुषों के होते हैं, महिलाओं का कोई अधिकार नहीं होता है|
अमेरिका की National Woman Suffrage Association की संस्थापक एलिजाबेथ कैंडी स्टेनन और सुजैन बी एंथनी ने लिखा है कि “पुरुष, उनके अधिकार और इससे अधिक कुछ नहीं, महिलाएं, उनके अधिकार और उससे कम कुछ नहीं|”
सुमेर मोलन ओकिन ने अपनी पुस्तक Justice, Gender and family 1989 में रॉल्स के सिद्धांत की आलोचना करते हुए लिखा कि “अज्ञान के परदे के पीछे परिवार के मुखिया की तरह अनुबंध करेंगे वे पुरुष ही होंगे|”
अधिकारों पर लॉस्की के विचार-
इंग्लिश लेबर पार्टी के सिद्धांतकार और बीसवीं सदी के प्रमुख राजनीतिक वैज्ञानिक लॉस्की ने अपनी पुस्तक A Grammar of Politics 1925 में अधिकारों के बारे में विचार दिया है|
लॉस्की के अधिकार संबंधित सिद्धांत में उदारवादी और मार्क्सवादी विचारों का सम्मिश्रण है|
लॉस्की अधिकारों को सामाजिक व्यवस्था से जोड़ता है और कहता है कि “जो सामाजिक व्यवस्था व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकारों को नहीं मानती, वह बालू की दीवार की तरह है|”
लॉस्की अधिकारों को जनहित व कर्तव्य से जोड़ता है तथा कहता है कि “मेरे लिए अधिकार की मांग इसलिए खड़ी होती है, कि मैं जनहित के लिए दूसरों के साथ योगदान करना चाहता हूं|”
लॉस्की अधिकारों की समानता व उपयोगिता पर बल देता है|
लॉस्की बहुलवादी विचारक था| लॉस्की कहता है कि “बहुलवादी राज्य में ही मानव अधिकारों को सुरक्षित रखा जा सकता है|”
लॉस्की सर्वप्रथम आर्थिक अधिकार प्रदान करता है और कहता है कि “आर्थिक अधिकार प्रदान किए बिना कोई भी व्यक्ति अपने राजनीतिक अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकता|”
लॉस्की व्यक्ति के विकास के लिए कुछ विशेष अधिकार प्रदान करने का समर्थन करता है, जो निम्न है-
काम का अधिकार
उचित वेतन का अधिकार
काम के उचित घंटो का अधिकार
शिक्षा का अधिकार
अपना शासक चुनने का अधिकार या मतदान का अधिकार
विचार एवं अभिव्यक्ति का अधिकार
संपत्ति का अधिकार
न्यायिक सुरक्षा का अधिकार
उद्योगों के प्रबंध का अधिकार
अधिकारों के संबंध में टॉमस पेन के विचार-
टॉमस पेन ने अपनी पुस्तक राइट्स ऑफ मैन 1791 में प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का समर्थन किया है तथा प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए क्रांति की आवश्यकता पर बल दिया है|
टॉम पेन ने सामाजिक कल्याण को भी प्राकृतिक अधिकारों के साथ जोड़ा है|
अधिकारों के संबंध में स्पेंसर के विचार-
स्पेंसर ने प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन किया है|
इनके अनुसार “अधिकार क्षमताओं के प्रयोग करने के सामान्य दावों का कृत्रिम विभाजन है|”
इन अधिकारों का अस्तित्व समाज के निर्माण से पूर्व था|
ये अधिकार दो प्रकार के हैं-
सार्वजनिक अधिकार
व्यक्तिगत अधिकार
अधिकारों के संबंध में जॉन रॉल्स के विचार-
समकालीन दौर में जॉन रॉल्स की पुस्तक A Theory Of Justice 1971 को अधिकारों से संबंधित सबसे प्रभावशाली पुस्तक माना जाता है|
जॉन रॉल्स काल्पनिक सामाजिक समझौते के द्वारा ऐसे न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करते हैं, जो बहुत गहरे रूप से समतावादी हो|
जॉन रॉल्स कहते हैं कि “हमें यह कल्पना करनी चाहिए कि हम एक ऐसी मूल स्थिति में है, जहां हमें समाज के दूसरे लोगों से मिलकर न्याय के ऐसे सिद्धांतों के बारे में सहमत होना है, जिनसे हमारा समाज शासित होगा|”
जॉन रॉल्स न्याय सिद्धांत के संबंध में ही अधिकारों पर चर्चा करता है| इसमें दो सिद्धांत शामिल है-
प्रथम सिद्धांत- प्रत्येक व्यक्ति को विस्तृत स्वतंत्रता का ऐसा समान अधिकार प्राप्त होना चाहिए, जो दूसरे की वैसे ही स्वतंत्रता के साथ निभ सकता हो|
दूसरा सिद्धांत- सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाए कि-
इससे हीनतम स्थिति वाले लोगों को अधिकतम लाभ हो|
ये विषमताए उन पदों और स्थितियों के साथ जुड़ी हो, जो सभी को अवसर की उचित समानता की उपलब्धता कराए|
अधिकारों का विकास-
अधिकारों का क्रमिक विकास-
नैतिक अधिकार- नागरिक अधिकार- राजनीतिक अधिकार- सामाजिक व आर्थिक अधिकार- सांस्कृतिक अधिकार- पर्यावरणीय अधिकार
अधिकारों का ऐतिहासिक विकास-
मैग्नाकार्टा 1215-
मैग्नाकार्टा अथवा महान्-परिपत्र 15 जून 1215 को, थेम्स नदी के किनारे स्थित रनीमीड स्थान पर राजा जॉन ने इंग्लैंड के सामंतों को प्रदान किया था।
यह इंग्लैंड के राजा जॉन तथा सामंतों के मध्य सहमति पत्र था, जिसके द्वारा राजा जॉन ने सामंतों को अधिक अधिकार प्रदान किए|
इसके द्वारा पहली बार यह तय हुआ कि कानून ही सर्वोच्च है, राजा भी कानून के अधीन है|
बाद में मैग्नाकार्टा मानव अधिकारों की प्रेरणा बना|
अधिकारों का घोषणा पत्र 1689-
इंग्लैंड की गौरवपूर्ण क्रांति 1688 के परिणामस्वरूप जेम्स द्वितीय को गद्दी छोड़नी पड़ी, तथा मैरी और उसके पति विलियम ऑफ ऑरेंज को सिंहासन पर बैठाया गया|
इसके बाद ब्रिटेन की संसद ने वहां के नागरिकों के लिए अधिकारों के महान घोषणा पत्र के द्वारा कुछ अधिकारों की घोषणा की|
19 फरवरी 1689 को महारानी मैरी उसके पति विलियम ऑफ़ ऑरेंज ने इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए|
अमेरिकी क्रांति 1776-
यह क्रांति ब्रिटेन तथा उसके 13 उत्तरी अमेरिकी उपनिवेशो के मध्य संघर्ष था|
क्रांति के परिणाम स्वरुप ये 13 उपनिवेश स्वतंत्र संयुक्त राज्य अमेरिका बने|
इस क्रांति का प्रमुख नारा था- प्रतिनिधित्व नहीं तो, कर नहीं
इस क्रांति में जीवन, स्वतंत्रता, सुख की साधना के अधिकार पर बल दिया गया|
अमेरिकी क्रांति पर जॉन लॉक का प्रभाव था|
फ्रांसीसी क्रांति1789-
यह क्रांति फ्रांस के शासक लुइ-16वे के विरुद्ध हुई थी| इसके परिणामस्वरूप राजा को गद्दी से हटा दिया गया तथा फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना हुई|
इस क्रांति का प्रमुख नारा था- स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व
फ्रांसीसी क्रांति पर रूसो का प्रभाव था|
Note- अमेरिकी क्रांति में नकारात्मक अधिकारों पर बल दिया था, वहीं फ्रांस की क्रांति में सकारात्मक अधिकारों पर बल दिया था|
एडमंड बर्क “फ्रांस की क्रांति व्यक्ति के अमूर्त प्राकृतिक अधिकारों पर आधारित थी, जबकि अंग्रेजी क्रांति (इंग्लैंड की गौरवपूर्ण क्रांति) अंग्रेजों के परंपरागत अधिकारों पर आधारित थी|”
मानवाधिकारो की सार्वभौमिक घोषणा-
1946 में UNO के सामाजिक व आर्थिक परिषद द्वारा एलेनोर रुजवेल्ट की अध्यक्षता में एक मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया| इस आयोग का कार्य मानवाधिकारों की संरचना प्रस्तुत करना था|
आयोग द्वारा जून 1948 में तैयार प्रारूप में 30 अनुच्छेद व 6 भाग थे|
इस प्रारूप को 10 दिसंबर 1948 को UNO महासभा द्वारा मानव अधिकारों के विश्वव्यापी घोषणा पत्र के रूप में पारित किया गया|
घोषणा की प्रस्तावना में ‘मानव जाति की जन्मजात गरिमा और सम्मान तथा अधिकारों’ पर बल दिया गया|
मानव अधिकारों के व्यापक प्रचार की दृष्टि से प्रतिवर्ष 10 दिसंबर को मानव अधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है
2006 में मानवाधिकार आयोग के स्थान पर एक शक्तिशाली मानवाधिकार परिषद का गठन किया गया जिसमें 47 सदस्य हैं तथा यह सीधे महासभा के अधीन है|
मानव अधिकारों से जुड़े प्रमुख संगठन-
रेड क्रॉस सोसाइटी
एमनेस्टी इंटरनेशनल
क्राई
OXFAM
डॉक्टर्स डिजायर्स
नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रंसविदा 1966-
नागरिक व राजनीतिक अधिकारों की अन्तराष्ट्रीय प्रसंविदा 1966 को महासभा ने 16 दिसम्बर 1966 को अंगीकृत किया था।
नागरिक व राजनीतिक अधिकारों की अन्तराष्ट्रीय प्रसंविदा 1966 (ICCPR) 23 मार्च 1976 को प्रभाव में आयी|
आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रंसविदा 1966-
6 दिसम्बर 1966 को महासभा ने आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की प्रसंविदा को अंगीकृत किया था।
आर्थिक, सामाजिक एंव सांस्कृतिक आधिकारों की प्रसंविदा (ICESCR) 23 जनवरी, 1976 को प्रभाव में आयी।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की विरोधी अवधारणाएं-
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की दो अवधारणाएं विरोधी है-
एशियाई मूल्यों की बहस-
एशियाई मूल्यों के समर्थक-
महाथिर मोहम्मद (मलेशिया)
ली कुआन यू (सिंगापुर)
एशियाई मूल्यों की बहस के अनुसार-
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा पश्चिमी मूल्यों से प्रभावित है|
मानव अधिकारों के रूप में व्यक्तिवाद को समाज व समुदाय पर वरीयता दी गई है|
कर्त्तव्यों की तुलना अधिकारों को वरीयता दी गई है|
सामाजिक व आर्थिक अधिकारों के बजाय नागरिक व राजनीतिक अधिकारों को वरीयता दी गई है|
बहुसंस्कृतिवाद-
बहुसंस्कृतिवादी विचारधारा भी मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की विरोधी है क्योंकि बहुसंस्कृतिवादी विचारधारा समाज के विभिन्न समूहों के मध्य अंतरों के समायोजन पर बल देती है, जबकि मानव अधिकार सभी को समान रूप से प्राप्त होते हैं|
बहुसंस्कृतिवाद के अनुसार सार्वभौमिक नागरिकता का विचार विभेद अंधता पर आधारित होता है, वास्तविक समानता के लिए एक जैसा व्यवहार आवश्यक नहीं है|
बहुसंस्कृतिवाद का लक्ष्य अप्रवासियों, अल्पसंख्यकों, समाज के हाशियाकरण वाले समुदायों को संरक्षण देना है|
मानवाधिकारों की पीढ़ियां-
चेक विद्वान कारेल वसाक ने मानवाधिकारों की तीन पीढ़ियां बतायी है-
प्रथम पीढ़ी-
इसमें नागरिक और राजनीतिक अधिकार आते हैं|
मार्टिन गोल्डविन ने इन्हें चुनाव आधारित अधिकारों की संज्ञा दी है|
इन अधिकारों का मुख्य विषय स्वतंत्रता है|
इसका संबंध नकारात्मक अधिकारों से है| नकारात्मक अधिकार फ्रांस और अमेरिकी क्रांतियों की उपज है|
प्रमुख अधिकार-
जीवन, स्वतंत्रता, संपत्ति का अधिकार
गैर-भेदभाव का अधिकार
मनमानी गिरफ्तारी से मुक्ति का अधिकार
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
आत्मसम्मान का अधिकार, आदि
प्रथम पीढ़ी के अधिकारों के मुख्य दस्तावेज- नागरिक तथा राजनीतिक अधिकार पर अंतरराष्ट्रीय प्रंसविदा 1966
द्वितीय पीढ़ी-
आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार द्वितीय पीढ़ी के अंतर्गत आते हैं|
इन अधिकारों का मुख्य विषय समानता है|
इनका संबंध सकारात्मक अधिकारों से है| ये कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित अधिकार है|
प्रमुख अधिकार-
काम का अधिकार
सामाजिक सुरक्षा का अधिकार
स्वास्थ्य का अधिकार
शिक्षा का अधिकार
रोटी, कपड़ा, मकान का अधिकार, आदि
द्वितीय पीढ़ी के अधिकारों के मुख्य दस्तावेज- आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय प्रंसविदा, 1966
तृतीय पीढ़ी-
एकजुटता का अधिकार (Solidarity Right) तृतीय पीढ़ी के अंतर्गत आता है|
मुख्य विषय- बंधुता
तृतीय पीढ़ी के अधिकारों में इस बात पर बल दिया जाता है कि समस्या का समाधान वैश्विक स्तर पर होना जरूरी है|
प्रमुख अधिकार-
सामूहिक विकासात्मक अधिकार
आत्म निर्णय का अधिकार
शांति व पर्यावरण का अधिकार
लैंगिक अधिकार
बहु सांस्कृतिक अधिकार
तृतीय पीढ़ी के अधिकारों के मुख्य दस्तावेज- स्टॉकहोम कन्वेंशन 1972, रियो अर्थ सम्मिट 1992
प्रथम व द्वितीय पीढ़ी के अधिकार राज्य के विरुद्ध व्यक्ति के अधिकार है, जबकि तृतीय पीढ़ी के अधिकार राज्य के विरुद्ध समुदायों के अधिकार है|
तीन दुनिया: तीन अधिकार-
नागरिक व राजनीतिक अधिकार- पहली दुनिया
सामाजिक व आर्थिक अधिकार- दूसरी दुनिया
सांस्कृतिक व विकासात्मक अधिकार- तीसरी दुनिया
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