रूसो (ROUSSEAU) 1712 -1779 ई.
जीवन परिचय-
जन्म-
28 जून 1712 ई.
स्वीटजरलैंड के गणतंत्रीय नगर जेनेवा में हुआ|
पिता- आइजक रूसो था, जो एक निर्धन घड़ी-साज था|
माता का देहांत जन्म के समय ही हो गया था|
प्रारंभिक जीवन रूसो ने आवारागर्दी में बिताया था| दांते जमीनों ने रूसो को ‘एकांत आवारा’ की संज्ञा दी है|
रूसो को वेनिस में फ्रेंच दुतालय में नौकरी भी मिली, लेकिन खराब मिजाज के कारण नौकरी से हाथ धोना पड़ा|
1743- 44 में रूसो वेनिस में फ्रांसीसी राजदूत के सचिव बने|
1745 में रूसो पेरिस में सिरेसा लिवासियर नामक महिला के संपर्क में आए तथा 26 वर्ष तक साथ रहने के बाद वृद्धावस्था में रूसो ने उनके साथ विवाह कर लिया|
रूसो का भाग्य 1749 में तब पलटता है जब उसने “Has The Revival of the Sciences And The Arts Helped to Purify Or To Corrupt Morals” (विज्ञान तथा कला की प्रगति ने नैतिकता को भ्रष्ट करने में योग दिया है अथवा उसकी विशुद्धि में) प्रतियोगिता में भाग लिया|
यह निबंध प्रतियोगिता थी, जो Academy Of De jon के द्वारा करवाई जा रही थी| रूसो ने निबंध में लिखा कि विज्ञान तथा कला की प्रगति से ही सभ्यता का हास, नैतिकता का विनाश और चरित्र का पतन हुआ है| यदि मनुष्य को अपना सरल, सुखी और सद्गुणी जीवन प्राप्त करना है तो उसे प्राकृतिक जीवन अपनाना चाहिए| इस निबंध में एक स्थान पर रूसो लिखता है कि “हमें फिर से अज्ञान, भोलापन और निर्धनता दे दो, केवल वे ही हमें सुखी बना सकते हैं|”
इसके बाद रूसो प्रसिद्ध हो गया तथा पेरिस के साहित्यिक क्षेत्रों में उसे सम्मान मिला|
1754 में रूसो ने Academy Of De jon की अन्य निबंध प्रतियोगिता में भाग लिया जिसका विषय था “मनुष्यों में विषमता उत्पन्न होने का क्या कारण है? क्या प्राकृतिक कानून इसका समर्थन करता है|”
2 जुलाई 1779 को 66 वर्ष की आयु में रूसो की मृत्यु हो गयी|
यूलिच ने लिखा है कि “विचारों के इतिहास में ऐसे व्यक्ति की खोज कर पाना कठिन है, जिसने इतने अर्द्ध- सत्यो के बावजूद मानव जाति पर इतना गहरा प्रभाव डाला हो जितना कि रूसो ने|”
रूसो एक प्रसिद्ध दार्शनिक एवं क्रांतिकारी विचारों का प्रणेता, शिक्षाशास्त्री, आदर्शवादी, मानवतावादी और युग का निर्माता साहित्यकार था|
रूसो ने प्रत्यक्ष प्रजातंत्र का समर्थन किया है|
राजनीति विज्ञान में रूसो ने पहली बार ‘समानता की संकल्पना’ को स्थान दिया|
रूसो को फ्रांसीसी क्रांति (1789) का आध्यात्मिक पिता कहा जाता है|
रचनाएं-
A discourse On the moral effects of the Art and Science- 1749
(कलाओ और विज्ञानो के नैतिकता पर प्रभाव पर एक निबंध)
इस निबंध में कला व विज्ञान के विकास को सभ्यता के हास, नैतिकता के विनाश, चरित्र के पतन का कारण बताया है|
संक्षेप- A discourse On Art and Science
यह निबंध Academy on De jon द्वारा पुरस्कृत किया गया था|
Discourses on the Origin of Inequality Among Men 1755
(व्यक्तियों के बीच असमानता के उद्भव एवं आधार पर निबंध या विषमता पर वार्ता)
इसमें रूसो ने असमानता का कारण निजी संपत्ति को बताया|
इसमें रूसो ने राज्य और फ्रेंच राजतंत्र की भी आलोचना की थी|
यह जिनेवा निवासियों को समर्पित है|
An Introduction to Political Economy- 1758
इस ग्रंथ में आदर्श राज्य के सिद्धांतों का वर्णन है|
The Social Contract 1762- इसमें रूसो के राजदर्शन का वर्णन है|
The Emile- 1762
शिक्षा पर लिखी गई प्रसिद्ध कृति है|
अन्य नाम- On education या Treatise on Education
The Emile ग्रंथ के कारण रूसो को ‘Progressive Education’,का जनक माना जाता है|
इसमें रूसो ने धार्मिक शिक्षा का विरोध किया है तथा इसी में ‘प्रकृति की ओर लौटो’ का नारा दिया है|
Letters de la Montagne 1764
The Confessions- यह रूसो की आत्मकथा है| 1789 में प्रकाशन हुआ|
The Dialogues
The Reveries- इस पुस्तक का प्रकाशन रूसो की मृत्यु के बाद हुआ|
रूसो की अध्ययन पद्धति व रूसो पर प्रभाव-
रूसो ने ऐतिहासिक व अनुभूतिमुलक अध्ययन पद्धति का प्रयोग किया है| यह मनोविज्ञान युक्त थी|
रूसो जिनेवा में प्रचलित प्रजातांत्रिक व्यवस्था से बहुत प्रभावित था|
यूनानी और रोमन साहित्य तथा काल्विन के धार्मिक विचारों से भी वह प्रभावित था|
मैक्यावली, हॉब्स, लॉक, बोदा, मांटेस्क्यू ,वाल्टेयर आदि का प्रभाव भी रूसो पर पड़ा है|
मानव स्वभाव पर रूसो का विचार-
रूसो मनुष्य को स्वभाव से भोला, अच्छा, सुखी, सीधा, चिंतारहित, शांतिप्रेमी, निष्पाप, निर्दोष और एकांत प्रिय मानता है|
मनुष्य नैतिकता के विचारों से रहित और सहज भावना से काम करने वाला बुद्धिहीन प्राणी है|
W T जोन्स “मानव स्वभाव के संबंध में रूसो की धारणा प्लेटो और अरस्तु की धारणा से मेल खाती है|”
Note- रूसो के शब्दों में मनुष्य एक आदर्श बर्बर (Noble savage) था| अर्थात रूसो ने प्राकृतिक अवस्था के मनुष्य के लिए आदर्श बर्बर (Noble savage) शब्द का प्रयोग किया है|
मनुष्य स्वभाव से बुरा नहीं होता है, बल्कि भ्रष्ट कला के कारण बुरा बन जाता है| संसार में पाए जाने वाले पाप, भ्रष्टाचार, दुष्टता आदि भ्रष्ट सामाजिक संस्थाओं की उत्पत्ति है|
भ्रष्ट सामाजिक संस्थाओं की वजह से मानव का पतन होता है|
रूसो मानव स्वभाव की दो प्रमुख नियामक प्रवृतियां बताता है-
आत्मप्रेम अथवा आत्मरक्षा की भावना
सहानुभूति या परस्पर सहायता की भावना
यह दोनों भावनाएं शुभ हैं, इसलिए मनुष्य भी स्वभाव से अच्छा है|
रूसो का कहना है कि इन दोनों भावनाओं में कभी-कभी संघर्ष होना स्वभाविक है, अतः इन दोनों भावनाओं में सामंजस्य स्थापित करने का कार्य एक नई भावना अंतःकरण करती है, जो दोनों भावनाओं में समझौते या सामंजस्य के कारण उत्पन्न होती है| अंतःकरण एक नैतिक शक्ति है, जिसका मार्गदर्शन विवेक नामक शक्ति करती है|
इस तरह रूसो बतलाता है कि आत्मरक्षा एवं सहानुभूति इन दो भावनाओं में सामंजस्य और अन्य भावनाओं का विकास करने में अंतःकरण एवं विवेक दोनों का योगदान होता है|
रूसो ने विवेक की अपेक्षा अंतःकरण पर अधिक बल दिया है| अंतःकरण पर अधिक बल देने के कारण रूसो को विवेक विरोधी या रोमांचकारी भी कह दिया जाता है|
रूसो के अनुसार “बुद्धि भयानक है, क्योंकि श्रद्धा को कम करती है, विज्ञान विनाशक है क्योंकि विश्वास को नष्ट करता है और विवेक बुरा है, क्योंकि वह नैतिक सहज ज्ञान के विरोध में तर्क-वितर्क को प्रधानता देता है|”
वैसे रूसो पूर्ण रूप से विवेक का विरोध नहीं करता है, वह मानव व्यक्तित्व के विकास में विवेक को उचित स्थान तो प्रदान करता है, लेकिन उसे असीम अधिकार नहीं देता है|
रूसो के अनुसार जब आत्मप्रेम, दंभ (vanity) में बदल जाता है तो व्यक्ति पथभ्रष्ट हो जाता है|
रूसो ने तर्क का भी विरोध किया है| रूसो ने लिखा है कि “चिंतनशील या तर्कशील मानव एक पतित दुराचारी पशु के समान है|”
रूसो “तर्क आत्मकेंद्रीयता पैदा करता है और चिंतन इसे मजबूत करता है| तर्क मनुष्य को खुद के खिलाफ खड़ा कर देता है|”
प्राकृतिक अवस्था पर रूसो के विचार-
रूसो अपने लेख Discourse on the Origin of Inequality में प्राकृतिक अवस्था के मानव का वर्णन करता है|
रूसो की प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य प्रकृति की गोद में स्वछंदतापूर्वक जीवन यापन करता था| प्राकृतिक अवस्था भय व चिंता से मुक्त थी|
प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य भोला, असभ्य, संतुष्ट, स्वस्थ एवं निर्भय था तथा पशु के समान अकेला जीवन बिताता था|
प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य के पास न भाषा थी, न कला, न विज्ञान था, न मनुष्य सुखी था न दुखी था|
गूच के शब्दों में “रूसो द्वारा चित्रित अवस्था न तो हॉब्स के सदृश्य सभी का सभी के विरुद्ध युद्ध की थी, न ही लॉक की शांति व सदिच्छा की अवस्था जैसे थी, वह एक ऐसी दशा थी जिसमें व्यक्ति पशु जैसा अकेला जीवन बिताता था|”
रूसो की प्राकृतिक अवस्था समाज पूर्व व राज्य पूर्व दोनों है|
रूसो की दृष्टि में स्पार्टा प्राकृतिक सरलता का सर्वोपरि उदाहरण है|
रूसो ने प्राकृतिक अवस्था के तीन चरण बताएं हैं-
आदिम प्राकृतिक अवस्था-
इस अवस्था में गुण-अवगुण, ऊंच-नीच, तेरे-मेरे का अभाव था| व्यक्तिगत संपत्ति का उदय नहीं हुआ था| ज्ञान, विज्ञान, कला, विद्या का भी विकास नहीं हुआ था|
इस अवस्था के व्यक्ति को रूसो भद्र पशु या आदर्श बर्बर या उत्कृष्ट बर्बर (Noble savage) कहा है|
मध्यवर्ती प्राकृतिक अवस्था (पितृसत्तात्मक चरण)-
इस अवस्था में असमानता का प्रारंभ हुआ और संचयवृति बढ़ गयी, जिसका कारण जनसंख्या की वृद्धि और तर्क का उदय था| व्यक्तिगत संपत्ति व परिवार का उदय होता है| स्थायी आवास बनाए जाते हैं| निर्धन व धनी के मध्य असमानता बढ़ जाती है|
संपत्ति के प्रादुर्भाव से मनुष्य की स्वतंत्रता परतंत्रता में बदल गई, जिसके संबंध में रूसो कहता है कि “मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न होता है, किंतु वह सर्वत्र बेड़ियों में जकड़ा हुआ है|”
रूसो “जिस क्षण से एक व्यक्ति के पास दो व्यक्तियों के लायक सामान इकट्ठा होने लगा, समानता समाप्त हो गई, संपत्ति पैदा हो गई, कार्य आवश्यक हो गया, विशाल जंगल उपजाऊ खेत बन गए, जहां गुलामी व दुख, फसल के साथ पैदा हुए|”
तृतीय चरण- यह दमन तथा अत्याचार की अवस्था थी, जो असहनीय अवस्था थी, जिसमें मनुष्य की गति बुरे से सर्वनाश की ओर की थी|
रूसो प्राकृतिक अवस्था को काल्पनिक मानता है|
आगे चलकर रूसो ने अपने विचारों में संशोधन भी किया था| जिससे कई असंगतियाँ पैदा हो गई थी, इसी कारण रूसो ने कहा कि “मैं पक्षपात या पूर्वाग्रह के बजाय विरोधाभास का प्रेमी हूं|”
रूसो का सामाजिक समझौता-
रूसो ने सोशल कॉन्ट्रैक्ट पुस्तक में भ्रष्टाचार से मुक्त वैकल्पिक समाज या वैकल्पिकआदर्श राज्य की संभावना खोजी है|
रूसों “मैं यह पता करना चाहता हूं कि क्या कोई टिकाऊ और वैध प्रशासन हो सकता है, जिसमें मनुष्य जैसे हैं वैसे ही रहे|”
रूसो ने भी हॉब्स तथा लॉक की तरह राज्य की उत्पत्ति सामाजिक समझौते से मानी है|
समझौते का कारण-
प्राकृतिक अवस्था का तृतीय चरण असहनीय था| इस अराजकता से दुखी होकर समझौता किया गया|
रूसो के अनुसार “वह प्रथम व्यक्ति ही नागरिक समाज का वास्तविक संस्थापक था, जिसने भूमि के एक टुकड़े को घेर लेने के बाद यह कहा था कि यह मेरा है और उसी समय समाज का निर्माण हुआ था, जब अन्य लोगों ने उसकी देखा-देखी स्थानों और वस्तुओं को अपना समझना प्रारंभ किया|”
इस समय मनुष्य ने प्रकृति की ओर वापस चलने (back to nature) का नारा दिया|
राइट महोदय के अनुसार इस नारे का अर्थ था- “हम दंभ का परित्याग कर सकते हैं, हम दूसरों के साथ तुलना करना छोड़कर केवल अपने ही कार्य में लगे रह सकते हैं, बहुत सी कल्पनात्मक इच्छाओं का परित्याग करके अपने स्वरूप को पुनः प्राप्त कर सकते हैं, हम विनम्र हो सकते हैं और अपनी आत्मा को प्राप्त कर सकते हैं| एक शब्द में हम प्रकृति की ओर लौट सकते हैं| इस प्रसिद्ध वाक्य का यही अर्थ है|”
समझौते की प्रक्रिया-
रूसो के शब्दों में “हम में से प्रत्येक अपने शरीर को और समूची शक्ति को अन्य सब के साथ संयुक्त सामान्य इच्छा के सर्वोच्च निर्देशन में रखते हैं और सामूहिक स्वरूप में हम प्रत्येक सदस्य को समष्टि (समुदाय) के अविभाज्य अंश के रूप में स्वीकार करते हैं|”
अर्थात समझौता इस शर्त पर किया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना शरीर, सारे अधिकार, शक्तियां समुदाय (राज्य) को सोपते हैं तथा प्रत्येक सदस्य इस समुदाय का अंश होगा|
यह समझौता दो पक्षों में किया जाता है| एक पक्ष में मनुष्य अपने व्यक्तिक रूप में होते हैं, दूसरे पक्ष में मनुष्य अपने सामूहिक रूप में होते हैं|
समझौते से एक नैतिक तथा सामूहिक निकाय का जन्म होता है जिसकी अपनी एकता, अपनी सामान्य सत्ता, अपना जीवन तथा अपनी इच्छा होती है|
रूसो के अनुसार समझौते से बने समुदाय को पहले नगर राज्य कहते थे, अब उसे गणराज्य अथवा राजनीतिक समाज कहते हैं| जब यह निष्क्रिय रहता है तो राज्य कहते हैं और जब सक्रिय होता है तो संप्रभु कहते हैं| जब ऐसे ही अन्य निकायों से इसकी तुलना करने में इसे शक्ति कहते हैं|
रूसो के समझौते की विशेषताएं-
अराजकता को समाप्त करने तथा पुनः स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए सभी व्यक्ति एक समझौता करते हैं|
समझौते के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने संपूर्ण अधिकार व शक्तियां राज्य को समर्पित कर देता है| इस हस्तांतरण की शर्त समानता है अर्थात सभी के साथ एक सी शर्त|
समझौते द्वारा निर्मित राज्य को सामान्य इच्छा कहा जाता है|
समझौते से उत्पन्न राज्य कभी भी दमनकारी एवं स्वतंत्रता विरोधी नहीं हो सकता|
समझौते के बाद समाज/ राज्य की सामान्य इच्छा सभी व्यक्तियों के लिए सर्वोच्च हो जाती है|
राज्य में किसी को भी विशेषाधिकार नहीं है, सब समान हैं अर्थात नागरिक स्वतंत्रता व समानता दोनों प्राप्त करते हैं|
समझौता निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, व्यक्ति सामान्य इच्छा में निरंतर भाग लेता रहता है|
संविदा के कारण मनुष्य अपने शरीर को और अपने अधिकारों और शक्तियों को जिस सार्वजनिक सत्ता को समर्पित करता है, वह सब व्यक्तियों से मिलकर ही निर्मित होती है इसी को प्राचीन काल में नगर राज्य कहते थे और अब गणराज्य या राज्य संस्था या राजनीतिक समाज कहते हैं| इसका निर्माण जिन व्यक्तियों से मिलकर होता है उन्हीं को सामूहिक रूप से जनता कहते हैं| जब उन्हें राज्यशक्ति की अभिव्यक्ति में भाग लेते हुए देखते हैं तब हम उन्हें नागरिक कहते हैं और जब कानून पालको के रूप में देखते हैं तो उन्हें हम प्रजा कहते हैं| इस प्रकार रूसो के अनुसार सामूहिक एकता; राज्य, संप्रभु, शक्ति, जनता, नागरिक, प्रजा सब कुछ है|
समझौते में व्यक्ति निष्क्रिय रूप में प्रजाजन व क्रियाशील रूप में संप्रभु है|
समझौते के फलस्वरुप समाज अथवा राज्य का रूप जैविक या सावयिक (organic) होता है| प्रत्येक व्यक्ति राज्य का अविभाज्य अंग होता है वह ना तो राज्य से अलग हो सकता है और न ही राज्य के विरुद्ध आचरण कर सकता है|
समझौते से एक नैतिक व सामूहिक प्राणी का जन्म होता है, जिसे रूसो ‘सार्वजनिक व्यक्ति’ कहता है|
राज्य का सावयिक स्वरूप बताते हुए रूसो लिखता है कि “विधि-निर्माण शक्ति सिर के समान, कार्यकारणी बाहु के समान, न्यायपालिका मस्तिष्क के समान, कृषि, उद्योग तथा वाणिज्य पेट के समान और राजस्व रक्त संचार के समान है|”
समझौते के बाद व्यक्ति के स्थान पर समष्टि और व्यक्ति इच्छा के स्थान पर सामान्य इच्छा आ जाती है|
समझौते से उत्पन्न होने वाला समाज/ राज्य प्रभुता संपन्न होता है, जो सामान्य इच्छा पर आधारित होता है|
समझौते से किसी सरकार की स्थापना नहीं होती है और सरकार इस ‘प्रभुत्व या राज्य शक्ति’ द्वारा नियुक्त यंत्रमात्र होती है|
समझौते से पूर्ण एकता की स्थापना होती है|
Note- हर्नशा ने रूसो के सिद्धांत प्राकृतिक मानव से राज्य निर्माण को स्वर्ग का लोप और स्वर्ग की पुनप्राप्ति के ईसाई सिद्धांत का एक सेकुलर संस्करण बताया है|
प्राकृतिक अवस्था और सामाजिक समझौते की आलोचना-
रूसो की प्राकृतिक अवस्था निराधार एवं काल्पनिक है, क्योंकि मनुष्य ने कभी शांतिमय, सुखमय, आदर्श जीवन यापन किया हो, ऐसे प्रमाण इतिहास में नहीं मिलते हैं|
रूसो विज्ञान व सभ्यता को मानव का पतन बताता है, यह गलत है|
रूसो के अनुसार समझौता व्यक्ति एवं समाज में होता है, किंतु दूसरी ओर समाज समझौते का परिणाम है, यह असंगत है|
रूसो कभी समझौते को ऐतिहासिक घटना तो, कभी निरंतर चलने वाला क्रम बताता है, यह भी असंगत है|
रूसो सामान्य इच्छा की आड़ में राज्य को निरकुंश बना देता है| इसलिए आलोचक रूसो के राज्य को ‘शिशकटा लेवियाथन’ कहते हैं|
वॉल्टियर रूसो को ‘असभ्यता का विचारक’ कहता है|
S. R. लॉर्ड “रूसो एक ही क्षण में हॉब्स के समान निरकुंशवादी है और लॉक से भी अधिक प्रजातंत्रवादी है|”
सर हेनरी मैन “समाज तथा सरकार की उत्पत्ति के इस वर्णन से बढ़कर व्यर्थ की वस्तु ओर क्या हो सकती है|”
रूसो की सामान्य इच्छा संबंधी धारणा-
रूसो के सामाजिक संविदा सिद्धांत में ‘सामान्य इच्छा’ की धारणा का बहुत अधिक महत्व है| सामान्य इच्छा का सिद्धांत राजनीतिक चिंतन के लिए रूसो की अमर देन है|
सामान्य इच्छा की अवधारणा पहले रूसो की पुस्तक इंट्रोडक्शन ऑन पॉलिटिकल इकोनॉमी में प्रस्तावित की गई बाद में इसको सोशल कॉन्ट्रैक्ट पुस्तक में विकसित किया गया|
‘सामान्य इच्छा’ को समझने के लिए व्यक्ति की इच्छा को समझना जरूरी है| रूसो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की दो इच्छाएं होती हैं-
यथार्थ इच्छा (Actual will)
आदर्श इच्छा या असली इच्छा (Real will)
यथार्थ इच्छा- यह इच्छा व्यक्ति के ‘निम्न स्व’ पर आधारित है| यह इच्छा स्वार्थगत, संकीर्ण एवं परिवर्तनशील है| यह भावना प्रधान एवं विवेकहीन इच्छा है| इसमें व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगा रहता है|
डॉ. आशीर्वादम के शब्दों में “यह व्यक्ति की समाज विरोधी इच्छा है, क्षणिक एवं तुच्छ इच्छा है| यह संकुचित तथा स्वविरोधी है|”
आदर्श इच्छा या असली इच्छा- यह ‘श्रेष्ठ स्व’ पर आधारित इच्छा है| यह स्वार्थहीन, सूसंस्कृतम्, कल्याणकारी तथा सामाजिक हित, विवेक, ज्ञान पर आधारित इच्छा है| रूसो के अनुसार यह सर्वश्रेष्ठ इच्छा है एवं स्वतंत्रता की द्योतक है तथा व्यक्ति में स्थायी रूप से निवास करती है|
मनुष्य की इस इच्छा का अभिव्यक्तिकरण व्यक्ति और समाज के मध्य होता है|
डॉ. आशीर्वादम के शब्दों में “यह जीवन के समस्त पहलुओं पर व्यापक रूप से दृष्टिपात करती है| यह विवेकपूर्ण इच्छा है| यह व्यक्ति तथा समाज के सामंजस्य में प्रकट होती है|”
सामान्य इच्छा-
सामान्य इच्छा समाज के सभी व्यक्तियों की आदर्श इच्छाओं का जोड़ है| समझौते के बाद सभी व्यक्ति अपना सर्वस्व राज्य को सौंप देते है अतः सामान्य इच्छा सर्वसाधारण की पूर्णप्रभुत्व संपन्न इच्छा ही है|
सामान्य इच्छा विवेक पर आधारित विवेकशील इच्छा है, जो गुणात्मक है, न कि मात्रात्मक अर्थात सामान्य इच्छा का तात्पर्य बहुमत की इच्छा नहीं है यह एक या कुछ व्यक्तियों की भी इच्छा हो सकती है|
डॉ. आशीर्वादम “सामान्य इच्छा की परिभाषा एक समाज के सदस्यों की आदर्श इच्छाओं के योग अथवा इससे भी अधिक उत्तम शब्दों में उनके एकीकरण के रूप में दी जा सकती है|”
ग्रीन “सामान्य आदर्शों की सामान्य चेतना ही सामान्य इच्छा है|”
बोसांके “सामान्य इच्छा संपूर्ण समाज की सामूहिक अथवा सभी व्यक्तियों की ऐसी इच्छाओं का समूह है जिसका लक्ष्य सामान्य हित की पुष्टि हो|”
जर्मीनों दांते “सामान्य इच्छा समुदाय की श्रेष्ठ भावना है|”
यह प्रत्येक व्यक्ति की सर्वश्रेष्ठ इच्छा है, अतः इस इच्छा का पालन प्रत्येक नागरिक को करना चाहिए| यदि कोई स्वार्थवश इस इच्छा का पालन नहीं करता है तो समाज की सामान्य इच्छा, पालन के लिए दबाव डाल सकती है|
रूसो के अनुसार सामान्य इच्छा न तो बट सकती है न ही दूर जा सकती है| संसदीय शासन प्रणाली में सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व संभव नहीं है|
सामान्य इच्छा व्यक्ति का भी विशिष्ट रूप है, साथ में राज्य का भी विशिष्ट रूप है|
इस प्रकार सामान्य इच्छा संपूर्ण समाज (राज्य) की इच्छा है, जिसका मुख्य लक्षण- सार्वजनिक हित, लोक कल्याण, रक्षा आदि|
सामान्य इच्छा, जनमत की इच्छा और समस्त की इच्छा में अंतर-
रूसो सामान्य इच्छा, जनमत की इच्छा और समस्त की इच्छा में अंतर करता है|
सामान्य इच्छा से केवल सामान्य हित पर बल दिया जाता है लेकिन जनमत में बहुसंख्या के हित पर|
सामान्य इच्छा का मतलब समाज के समस्त व्यक्तियों की आदर्श इच्छाओं का योग है, लेकिन समस्त इच्छा का मतलब सभी व्यक्तियों की सभी इच्छाएं|
सामान्य इच्छा की विशेषताएं-
एकता- रूसो “सामान्य इच्छा राष्ट्रीय चरित्र में एकता पैदा करती है|” सामान्य इच्छा विभिन्नता में एकता स्थापित करती है|
अदेयता- सामान्य इच्छा को किन्ही व्यक्तियों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है| रूसो प्रत्यक्ष प्रजातंत्र का समर्थक था, जिसमें व्यक्ति स्वयं अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं| रूसो के अनुसार प्रतिनिधियों के माध्यम से इसे व्यक्त करना व्यक्तियों के बहुमूल्य अधिकारों का हनन तथा लोकतंत्र की हत्या है|
स्थायित्व- सामान्य इच्छा स्थायी एवं शाश्वत है| रूसो के शब्दों में “इसका कभी अंत नहीं होता, यह कभी भ्रष्ट नहीं होती| यह अनित्य, अपरिवर्तनशील तथा पवित्र होती है|”
औचित्य- सामान्य इच्छा हमेशा शुभ, उचित तथा कल्याणकारी होती है| रूसो के शब्दों में “सामान्य इच्छा सदैव ही विवेकपूर्ण एवं न्यायसंगत होती हैं क्योंकि जनता की वाणी वास्तव में ईश्वर की वाणी है|”
संप्रभुताधारी- सामान्य इच्छा संप्रभुताधारी है| यह अविभाज्य व अदेय है| इसे सरकार के विभिन्न अंगों- कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका में विभक्त नहीं किया जा सकता है|
अप्रतिनिधित्वकारी- इसका प्रतिनिधित्व भी इसके अलावा कोई नहीं कर सकता है|
सामान्य इच्छा राज्य का अधिकार है अतः राज्य शक्ति से नहीं, सहमति से संचालित होता है|
कानून का स्रोत- विधि-निर्माण एकमात्र सामान्य इच्छा का कार्य है| विधि सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति है| प्रत्येक मनुष्य के लिए विधि का पालन करना जरूरी है| विधि न्यायपूर्ण होती है| विधि निर्माण के लिए रूसो विधि निर्माता या विधायक की भी व्यवस्था करता है| विधायक को अद्वितीय प्रतिभा-संपन्न और उचित विधियों एवं संस्थाओं की व्यवस्था करने में समर्थ होना चाहिए|
लोक कल्याणकारी- सामान्य इच्छा व्यक्तियों की आदर्श इच्छाओं का योग होती है और व्यक्तियों की ये आदर्श इच्छाएं जनकल्याण से प्रेरित होती हैं|
सामान्य इच्छा सिद्धांत की आलोचना-
अस्पष्ट-
मैक्सी “रूसो की सामान्य इच्छा का सिद्धांत बड़ा अस्पष्ट और जटिल है|”
यह बताना कठिन है कि सामान्य इच्छा का निवास कहां है|
वेपर “जब सामान्य इच्छा का पता ही हमको रूसो नहीं दे सकता तो इस सिद्धांत के प्रतिपादन का लाभ ही क्या हुआ?”
सामान्य हित को जानना कठिन- सामान्य इच्छा जिस सार्वजनिक हित पर कार्य करती है उसे जानना कठिन है| सामान्य हित की व्याख्या संभव न हो पाने के कारण ही सामान इच्छा के संबंध में मार्ले ने कहा है कि तो “रूसो ने कोरी बहस में अपना समय नष्ट कर दिया है|”
इच्छा का विभाजन संभव नहीं- मानवीय इच्छा को यथार्थ और आदर्श इच्छा में बांटना संभव नहीं है|
भयावह- इसमें निरकुंश व अत्याचारी राज्य की स्थापना का भय है|
जॉन्स “सामान्य इच्छा की धारणा के प्रयोग में मनुष्य को भय यह है कि राज्य में तानाशाही प्रवृत्ति का उदय हो जाता है|”
आधुनिक विशाल राज्यों में यह सिद्धांत असफल- सामान्य इच्छा का सिद्धांत छोटे राज्यों में ही सफल हो सकता है, आधुनिक बड़े राज्यों में नहीं, क्योंकि बड़े राज्य में सामान्य हित का निर्धारण करना कठिन है|
अप्रत्यक्ष लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त- रूसो सामान्य इच्छा के निर्धारण के लिए राजनीतिक दलों व प्रतिनिधि शासन का विरोध करता है, जबकि राजनीतिक दल व प्रतिनिधि शासन आधुनिक लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है|
निरंकुश तथा अत्याचारी राज्य का पोषक- A डाइड के अनुसार “रूसो सामान्य इच्छा की आड़ में बहुमत की निरंकुशता का प्रतिपादन तथा समर्थन करता है| वाहन, बट्रेंड रसैल, आइवर ब्राउन तथा मरे ने भी रूसो की विचारधारा पर निरंकुशवाद तथा अधिनायकवाद के पोषण का आरोप लगाया है|
वाहन “रूसो ने अपनी समग्रतावादी अवधारणा के द्वारा व्यक्ति की हैसियत को शून्य में बदल दिया है|”
हर्नशा “लेवियाथन का कटा सिर ही रूसो की सामान्य इच्छा है|”
वेपर “यदि सामान्य इच्छा सर्वोच्च है तो सामाजिक समझौता अनावश्यक है और यदि सामाजिक समझौता महत्वपूर्ण है तो सामान्य इच्छा सर्वोच्च नहीं हो सकती है|”
सामान्य इच्छा सिद्धांत का महत्व-
T.H ग्रीन ने इसी के आधार पर राज्य का मुख्य आधार बल (शक्ति) न मानकर इच्छा को माना है|
सेबाइन और ओसबर्न ने रूसो की सामान्य इच्छा की धारणा को राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में ‘एक महत्वपूर्ण योगदान’ माना है|
ओसबर्न “रूसो द्वारा प्रतिपादित सामान्य इच्छा का सिद्धांत राजनीतिक दर्शन के लिए उसका सबसे मौलिक ही नहीं, वरन सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान है|”
W.T जोन्स “रूसो की सामान्य इच्छा की अवधारणा केवल उसके राजनीतिक सिद्धांत का ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग नहीं है, अपितु यह रूसो की राजनीतिक विज्ञान को एक अत्यंत रुचिकर भेंट है और राजनीतिक विज्ञान के इतिहास में इसका अनुपम स्थान है|”
मैकाइवर “सामान्य इच्छा का प्रयोग मात्र, शासन को सुशासन में परिणत कर देता है|”
रूसो का सामान्य इच्छा का विचार प्रजातंत्र का प्रतिष्ठापक है|
इस सिद्धांत के अनुसार राज्य एक स्वभाविक और अनिवार्य संस्था है| जी डी एच कॉल के शब्दों में “यह हमें सिखाता है कि राज्य मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं और इच्छाओं पर आधारित है| राज्य के प्रति हमें इसलिए आज्ञाकारी होना चाहिए, क्योंकि यह हमारे व्यक्तित्व का ही प्राकृतिक विस्तृत रूप है|”
इसने यह प्रतिपादित किया है कि राज्य का उद्देश्य किसी वर्ग विशेष का हित नहीं, अपितु समूचे समाज का कल्याण और जनता का हित है|
इसने यह प्रतिपादित किया है कि शक्ति नहीं वरन इच्छा राज्य का आधार है|
सामान्य इच्छा के प्रतिपादन के कारण ही रूसो को प्रत्यक्ष लोकतंत्र व लोकप्रिय प्रभुसत्ता का प्रणेता माना जाता है|
रूसो के राज्य की प्रकृति-
रूसो का राज्य प्राकृतिक एवं जैविक (आंगिक) संस्था है|
राज्य एक नैतिक संगठन है|
राज्य में व्यक्ति को नैतिकता व स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है|
रूसो का राज्य असीमित, अदेय, अविभाज्य, सर्वोच्च शक्तिशाली है|
बार्कर “रूसो ने सामान्य इच्छा और विधायक के बहाने अधिनायकतंत्र तथा सर्वाधिकारवादी राज्य व्यवस्था का समर्थन किया है|”
W.T जोन्स “रूसो की सामान्य इच्छा की अवधारणा में कुछ ऐसे तत्व हैं, जो उन्हें लोकतांत्रिक शासन की जगह निरकुंश शासन की ओर ले जाते हैं|”
रूसो की संप्रभुता संबंधी धारणा (अप्रतिनिधित्वकारी संप्रभुता)-
रूसो लोकप्रिय संप्रभुता का प्रतिपादन करता है|
रूसो ने संप्रभुता को सामान्य इच्छा केंद्रित माना है, जो असीम, अविभाज्य, अदेय, अप्रतिनिधित्वकारी सार्वभौमिक है|
हॉब्स की तरह रूसो भी निरकुंश संप्रभुता का समर्थन करता है| रूसो के शब्दों में “जिस प्रकार प्रकृति मनुष्य को अपने अंगों पर निरकुंश सत्ता देती है, उसी प्रकार सामाजिक समझौता भी राज्य को अपने अंगों पर संपूर्ण निरकुंश सत्ता प्रदान करता है|” किंतु हॉब्स की निरकुंशता शासक के संबंध में है, जबकि रूसो की जनता के संबंध में|
रूसो की संप्रभुता समाज अथवा राज्य अर्थात जनता में निवास करती है| रूसो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति संप्रभुता का भागीदार होता है|
रूसो की संप्रभुता का कोई प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है| रूसो के शब्दों में “जिस क्षण वहां कोई स्वामी होगा, वहां कोई संप्रभुता नहीं रह जाएगी|”
असीमित, सर्वोच्च होते हुए भी संप्रभुता सामान्य हित के विरुद्ध कार्य नहीं कर सकती है| इस प्रकार रूसो लोकप्रिय संप्रभुता का प्रतिपादन करता है|
रूसो की पुस्तक सोशल कॉन्ट्रैक्ट के मुख्य पृष्ठ पर शीश कटे लेवियाथन का चित्र है, जिसका अर्थ है संप्रभुता एक व्यक्ति या अंग विशेष में नहीं, बल्कि समस्त समुदाय या जनता में है|
अर्नेस्ट रीज “रूसो हॉब्स की निरंकुश प्रभुसत्ता के विचार को लॉक के जन सहमति के विचार से समन्वित करके जंनप्रभुसत्ता के दार्शनिक सिद्धांत का निर्माण करता है|”
मैक्सी “रूसो ने राजनीतिक विचारों के क्षेत्र में एक अति महत्वपूर्ण कार्य किया है और वह है लोकप्रिय प्रभुसत्ता के सिद्धांत का समर्थन|”
गैटेल “रूसो का विश्वास है की संप्रभुता सदैव संपूर्ण जनता में नियत रहती है|”
प्रो.वाहन “निसंदेह उनकी सामान्य इच्छा हॉब्स का लेवियाथन है, जिसका सिर काट दिया गया है|”
निस्बेट “रूसो के लिए संप्रभुता मात्र कानूनी चीज नहीं है, बल्कि सभी गुणों और स्वतंत्रताओं का कुल योग है|”
शासन संबंधी रूसो के विचार-
रूसो राज्य और शासन या सरकार में अंतर स्पष्ट करता है|
समझौते द्वारा निर्मित निकाय राज्य होता है, जो संपूर्ण समुदाय है जबकि शासन या सरकार वह व्यक्ति या व्यक्ति समूह जिसको राज्य द्वारा शासन संचालन का अधिकार दिया जाता है|
समझौते से केवल राज्य का जन्म होता है सरकार या शासन का नहीं|
जनता अपनी इच्छानुसार सरकार की शक्ति को सीमित कर सकती है, शक्ति वापस भी ले सकती है|
रूसो ने सरकार को न्याय रक्षक मंडल अथवा राजा कहा है|
शासन का वर्गीकरण- सरकार की बागडोर के आधार पर रूसो ने चार प्रकार के शासन बताये हैं-
राजतंत्र- सरकार की बागडोर एक व्यक्ति के हाथ में|
कुलीन तंत्र- सरकार की बागडोर कुछ व्यक्तियों के हाथ में|
जनतंत्र- बागडोर संपूर्ण जनता या बहुमत के हाथ में|
मिश्रित
रूसो के अनुसार परिस्थिति व देशकाल के अनुसार कोई सा भी शासन सर्वोत्तम या निकृष्टतम हो सकता है|
रूसो के मत में शासन की प्रगति का निश्चित चिन्ह जनसंख्या है, जिस राज्य की जनसंख्या बढ़ती जाएगी, समझना चाहिए वह राज्य प्रगति की ओर बढ़ता जाएगा|
रूसो की राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दल व दबाव समूह नहीं होंगे, क्योंकि ये समाज में वैमनस्य व विभाजन पैदा करते हैं|
कानून संबंधी रूसो के विचार-
रूसो अपने निबंध Political Economy (1758) में कानून का महत्व दर्शाता है| कानून का लोगों द्वारा पालन किया जाना चाहिए| यदि मनुष्य कानून का पालन नहीं करेगा तो नागरिक समाज की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी और मनुष्य को पुनः प्राकृतिक अवस्था में लौट जाना पड़ेगा|
Social contract (1762) ग्रंथ में रूसो ने कानून के चार प्रकार बताएं-
राजनीतिक या आधारभूत कानून- इन कानूनों के द्वारा संप्रभुता का राज्य के साथ संबंध का निर्धारण होता है|
दीवानी कानून- इसके द्वारा नागरिकों के पारस्परिक संबंध निर्धारित होते हैं|
फौजदारी कानून- यह कानून, कानून की आज्ञा के उल्लंघन का दंड निश्चित करते हैं|
जनमत, नैतिकता तथा रीति-रिवाज- रूसो के मतानुसार ये राज्य के वास्तविक संविधान है और नागरिकों के हृदय पटल पर अंकित है|
कानून सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति है| सामान्य इच्छा सदैव जनता के कल्याण की कामना करती है अतः यह कभी भी कानून द्वारा अन्याय करने की इच्छा नहीं कर सकती है|
सरकार किसी भी अर्थ में कानून से ऊपर नहीं हो सकती है|
कानून राज्य में समानता की स्थापना करते हैं|
कोई भी राज्य तभी तक वैध है, जब तक वह कानून के अनुसार कार्य करता है|
गुरु विधायक-
यह कानून निर्माण का कार्य करेगा| सामान्य इच्छा की सहमति से कानून बनाएगा| अर्थात रूसो कानून निर्माण के लिए गुरु विधायक की व्यवस्था करता है|
रूसो भी प्लेटो के दार्शनिक राजा के समान किसी आदर्श (गुरु) विधायक की खोज में है, जो सामान्य इच्छा के अनुसार कानून का निर्माण कर सकें|
स्वतंत्रता संबंधी रूसो के विचार-
रूसो स्वतंत्रता को राज्य प्रदत नागरिक अधिकार मानता है|
रूसो स्वतंत्रता को अत्यंत आवश्यक मानते हुए कहते हैं कि “आजादी का त्याग मनुष्य होने के दावे का त्याग है, मानवता के अधिकारों का समर्पण है तथा कर्तव्यो का भी समर्पण है|”
अपने ग्रंथ Social contract में रूसो ने लिखा है कि “स्वतंत्रता मानव का परम आंतरिक तत्व है| स्वतंत्रता नैतिकता का आधार है|”
रूसो “स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता या मनमाना कार्य करना नहीं है, बल्कि सामान्य हित की दृष्टि से बनाए गए नियम व कानूनों की पालना करने में स्वतंत्रता है|” अर्थात रूसो के मत में स्वतंत्रता सामान्य इच्छा के प्रति समर्पण है|”
इस प्रकार रूसो ने स्वतंत्रता का सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है|
रूसो के दर्शन में स्वतंत्रता का विशिष्ट महत्व है| ‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट’ का आरंभ इस प्रसिद्ध वाक्य के साथ होता है “मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न होता है, लेकिन वह सर्वत्र बेड़ियों में जकड़ा हुआ है|”
स्वतंत्रता का उपासक होने के कारण ही रूसो ने दास प्रथा की आलोचना की तथा स्वतंत्र राष्ट्रों को यह संदेश दिया कि “स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है, परंतु दुबारा हस्तगत कभी नहीं की जा सकती|”
हॉब्स ने जीवन रक्षा और शांति के लिए मनुष्य के सारे अधिकार और स्वतंत्रताए लेवियाथन को सौंप दी तो इसकी आलोचना में रूसो ने कहा कि “शांति तो कारागृह में भी पाई जाती है, तो क्या वह रहने लायक जगह होती हैं?”
बाध्यकारिता द्वारा स्वतंत्रता का सिद्धांत-
रूसो का तर्क है कि समझौता एक खोखला फार्मूला नहीं है| यदि कोई व्यक्ति सामान्य इच्छा की आज्ञा मानने से मना करता है, तो उसको सामान्य इच्छा के पालन के लिए बाध्य किया जा सकता है| रूसो के मत में स्वतंत्रता सामान्य इच्छा का पालन करने में है, अतः व्यक्ति को स्वतंत्र होने के लिए बाध्य किया जा सकता है|
Social Contract पुस्तक की अंतिम पंक्ति है “मनुष्य को स्वतंत्र होने के लिए बाध्य किया जा सकता है|’
आरोपण द्वारा स्वतंत्रता का सिद्धांत-
रूसो के मत में स्वतंत्रता शक्ति या बल के द्वारा लोगों पर आरोपित की जा सकती है|
रूसो के मत में कानून तोड़ने वाले को फांसी दी जाती है| यह स्वतंत्रता है, न कि स्वतंत्रता को सीमित करती है|
एक सरकार जो सामान्य इच्छा पर आधारित है, एक व्यक्ति को मारकर भी उसे आजाद या स्वतंत्र कर सकती है|
स्वतंत्रता का विरोधाभास (Paradox of Freedom)-
रूसो ने अपनी पुस्तक सोशल कॉन्ट्रैक्ट में लिखा है कि मनुष्य को स्वतंत्र होने के लिए बाध्य किया जा सकता है| रूसो के अनुसार स्वतंत्रता सामान्य इच्छा का पालन करने में है| अतः रूसो यहां निरंकुशतावादी बन जाता है| सेबाइन ने इसको स्वतंत्रता का विरोधाभास कहा है|
इसी सिद्धांत के कारण रूसो को फासीवाद का दार्शनिक पिता कहा जाता है|
समानता विषयक रूसो के विचार-
रूसो का मत है कि समानता के अभाव में स्वतंत्रता नहीं रह सकती है|
प्रकृति में सर्वत्र असमानता पाई जाती है, रूसो इस प्राकृतिक असमानता के बदले सामाजिक अनुबंध जनित नैतिक समानता की स्थापना करता है|
कानूनी दृष्टि से रूसो सभी को समान बनाता है| रूसो आर्थिक समानता की भी स्थापना करना चाहता है|
रूसो ने असमानता को दो भागों में बांटा है-
प्राकृतिक असमानता- प्रकृति प्रदत
परंपरागत असमानता या नैतिक असमानता- समाज द्वारा उत्पन्न, इस असमानता को दूर करने की मांग ही मानव करता है|
धर्म संबंधी विचार-
रूसो धर्म को राज्याधीन मानता है| रूसो ने धर्म के तीन प्रकार बताए हैं-
वैयक्तिक धर्म
नागरिक धर्म
पुरोहित धर्म
वैयक्तिक धर्म- यह धर्म मनुष्य की अपनी संस्थाओं और अपने आंतरिक विश्वासों पर आधारित है| यह धर्म सर्वश्रेष्ठ है, किंतु सांसारिक दृष्टि से अव्यावहारिक है| वैयक्तिक धर्म ईश्वरीय नियमों पर आधारित आडंबरहीन सहज धर्म है|
नागरिक धर्म- यह धर्म राष्ट्रीय तथा बाह्य है| यह धर्म संस्कारों, रूढ़ियों तथा विधियों पर आधारित है| रूसो ने इस धर्म के पांच विधेयात्मक सूत्र बताए है-
ईश्वर की सत्ता में विश्वास करना और यह मानना कि वह परमज्ञानी, दूरदर्शी और दयालु है|
पुनर्जन्मवाद में विश्वास
पुण्यात्मा सुख पाएंगे
पापात्मा दंड भोगेगे
सामाजिक अनुबंध और विधियों की पवित्रता की रक्षा करना महत्वपूर्ण कर्तव्य है|
नागरिक धर्म का एक निषेधात्मक सूत्र है, वह है असहिष्णुता अर्थात असहिष्णु व्यक्ति का राज्य में कोई स्थान नहीं है|
रूसो के मत में नागरिक धर्म के विरुद्ध आचरण करने वाले व्यक्ति को मार देना चाहिए|
पुरोहित धर्म- यह वह धर्म है, जो पुरोहित-पादरियों द्वारा दिया जाता है| यह धर्म सबसे निकृष्ट है| जो दो तरह की सत्ताओ को जन्म देता है| राज्य में संघर्ष का वातावरण पैदा करता है तथा राज्य की प्रगति में बाधा पहुंचाता है|
शिक्षा संबंधी विचार-
रूसो के शिक्षा संबंधी विचार उसके ग्रंथ Emile में हैं| इसमें शिक्षा का उद्देश्य ‘मनुष्य की निर्वासित प्रकृति की पुनर्स्थापना’ बतलाया गया है| इस ग्रंथ के कारण रूसो को ‘प्रगतिवादी शिक्षा (Progressive Education)’ का जनक माना जाता है|
रूसो ने एमिल नामक व्यक्ति के माध्यम से अपना शिक्षा दर्शन व्यक्त किया है| एमिल को पठन, लेखन, गायन, गणित, राष्ट्रीय इतिहास की शिक्षा तथा शारीरिक एवं तकनीकी शिक्षा दी जाती है| रूसो अपने समय की शिक्षा का विरोधी था|
बाल- शिक्षा को पादरियों के हाथों से निकाल लेना तथा किशोरावस्था तक धर्म शिक्षा का निषेध करने के कारण पादरी वर्ग रूसो से नाराज हो गया| Emile को अग्नि में जला दिया और फ्रांस की संसद तथा जेनेवा की सरकार ने रूसो की निंदा की|
तर्क के प्रति विद्रोह-
डिसकोर्सेज ऑन आर्ट एंड साइंस लेख में रूसो की तर्क के प्रति विद्रोह की भावना झलकती है| यह लेख इतिहास की व्याख्या करता है|
कला व विज्ञान ने व्यक्ति का पतन किया है, क्योंकि इससे व्यक्ति विचारशील व तर्कशील होता है| तर्कशील व्यक्ति भ्रष्ट प्राणी होता है| इसके संबंध में रूसो ने लिखा है कि “तर्कशील व विवेकशील मानव पतित दुराचारी पशु के समान होता है|”
रूसो ने लिखा है कि “विज्ञान एक निष्क्रिय उत्सुकता का परिणाम है, दर्शन शास्त्र केवल बौद्धिक आडंबर है तथा शिष्ट जीवन की सुख सुविधाएं चमकीले रंगीन फीते हैं|”
इसके संबंध में रूसो ने एथेंस व रोमन साम्राज्य का उदाहरण दिया है| एथेंस इसलिए बर्बाद हुआ, क्योंकि वहां शोभा, वैभव, संपत्ति, कला व विज्ञान की प्रचुरता थी| जब तक रोमन निर्धन व सीधे थे तब तक वे अन्य साम्राज्यो पर विजय प्राप्त कर रहे थे, लेकिन जैसे ही वैभव, विलासिता, धन आया रोमन साम्राज्य बर्बाद हो गया|
पुनर्जागरण काल में तर्क, विज्ञान, विवेक का जो विकास हुआ, रूसो उसे सरल मानव सभ्यता के लिए घातक बताया है| इस प्रकार इस लेख में रूसो प्रबोधनकाल (Enlightenment) की समालोचना करता है|
स्त्री और परिवार संबंधी रूसो के विचार-
रूसो ने पितृसत्तात्मक परिवार का समर्थन किया है| परिवार प्राकृतिक प्रेम पर आधारित सबसे पुरानी संस्था थी, जिसका स्रोत प्रजनन था| परिवार में युवाओं पर बुजुर्गों और स्त्रियों पर पुरुषों का स्वाभाविक अधिकार था|
रूसो स्त्री को राजनीतिक व्यवस्था में विखंडनकारी शक्ति मानते थे| एक अच्छी स्त्री को सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा न लेकर परिवार में ही रहना चाहिए|
रूसो ने समाज में स्त्री को निम्नतर स्थान दिया है|
रूसो ने पुरुष और स्त्री के गुणों में अंतर किया है| पुरुष का गुण उसकी विचार बुद्धि होती है, जबकि स्त्री का गुण उसके स्त्रियोंचित गुण हैं| जैसे- चरित्र शुद्धता, कोमलता, आदेश पालन|
पुरुष को स्त्री पर शासन करना चाहिए, ताकि वह चरित्रवान बनी रहे|
रूसो स्त्रियों को दार्शनिक चिंतन और वैज्ञानिक अध्ययन के उपयुक्त नहीं समझते थे|
रूसो के अनुसार स्त्री जीवन का यह रूप स्वयं प्रकृति और तर्क ने तय किया है|
रूसो अरस्तु के समान परिवार को समाज का प्रथम स्वरूप मानते थे|
महिलाओं की स्थिति के संदर्भ में रूसों ने एथेंस का उदाहरण देते हुए कहा कि “वहां स्त्रियां घर में रहकर पत्नी, माता और घर की संरक्षिका की भूमिका अदा करती थी|” जब यूनानी स्त्रियां विवाह करती थी तो सार्वजनिक जीवन से हट जाती थी और घर की चारदीवारी के अंदर वे स्वयं को परिवार की देखभाल में समर्पित कर लेती थी|”
उदारवादी नारीवादी मेरी वोलस्टोनक्राफ्ट ने अपनी कृति A Vindication of the Rights of women 1792 में रूसों के नारी संबंधी विचारों की आलोचना की है|
रूसो का मूल्यांकन
महत्व व राजनीति विज्ञान को देन-
G.D.H कोल ने रूसो को राजदर्शन का पिता कहा है और उसके सोशियल कॉन्ट्रैक्ट को राजदर्शन के ऊपर महानतम ग्रंथ बताया है|
वेपर “तर्क का उत्साही धर्मदूत, जिसने अविवेक के काल में राह प्रशस्त करने हेतु औरो से अधिक किया|”
स्ट्रास “रूसो राजनीतिक दर्शन में आधुनिकता की दूसरी लहर के प्रवर्तक हैं|”
रूसो के विचार का प्रभाव फ्रांस की क्रांति, अमेरिका की क्रांति, मानव अधिकारों की घोषणा में दिखता है| नेपोलियन ने कहा है कि “यदि रूसो न हुआ होता तो फ्रांस में क्रांति भी नहीं होती|”
रूसो प्रथम विचारक है, जिसने प्रभुसत्ता का निवास मात्र जनता में बताया है| रूसो की प्रभुसत्ता की धारणा को ‘लोकप्रिय प्रभुसत्ता’ कहा जाता है|
रूसो को ‘प्रत्यक्ष लोकतंत्र’ का प्रणेता माना जाता है|
रूसो स्वतंत्रता पर बल देता है| हीगल के अनुसार “रूसो के ग्रंथों में स्वतंत्रता की बुद्धिपूर्वक अभिव्यक्ति हुई है|”
रूसो के विचार का जर्मन विज्ञानवाद पर भी प्रभाव पड़ा है|
कांट के अनुसार “सरल मानव की नैतिक वृतियों का महत्व उसे रूसो के ग्रंथ से विदित हुआ|”
कोल के अनुसार “रूसो वास्तव में जर्मन व ब्रिटिश आदर्शवाद का अग्रदूत है|”
समुदायवाद’ के प्रणेता के रूप में-
सामान्य इच्छा सिद्धांत के कारण रूसो को ‘समुदायवाद’ का प्रणेता माना जाता है|
जहां हॉब्स व लॉक व्यक्तिवादी है, वहीं रूसो समुदायवादी है|
वाहन ने रूसो को सामूहिकतावादी कहा है तथा कार्ल पॉपर ने रूसो को रोमांटिक सामूहिकतावादी कहा है|
वाहन “रूसों के साहित्य के पहले चरण में विद्रोही व्यक्तिवाद दिखाई देता है तो बाद के चरण में विद्रोही समष्टिवाद या समूहवाद|”
आधुनिक समाजवाद के आध्यात्मिक प्रणेता के रूप में-
रूसो व्यक्तिगत संपत्ति को गरीबी, शोषण व असमानता का मूल कारण मानते थे| इस अर्थ में वे आधुनिक समाजवाद के आध्यात्मिक प्रणेता थे|
पर रूसो ने संपत्ति का विरोध प्लेटो की तरह नैतिक आधार पर किया है, न कि मार्क्स की तरह आर्थिक शोषण के आधार पर|
रूसो समाजवादियों की तरह सामूहिक संपत्ति के भी समर्थक नहीं थे, उन्होंने संपत्ति के अधिकार को पवित्र अधिकार माना है|
आधुनिक राष्ट्रवाद के बौद्धिक पितामह के रूप में-
सामान्य इच्छा सिद्धांत व समुदायवाद पर बल देने के कारण रूसो को आधुनिक राष्ट्रवाद का बौद्धिक पितामह भी कहा जाता है|
रूसो के अनुसार शिक्षा राष्ट्रीय भावना पैदा करती है|
राष्ट्रवाद के विकास पर रूसो का प्रभाव पड़ा है| रूसो प्राचीन स्पार्टा व रोमन गणराज्य की तरह देशभक्ति व नागरिक गुणों’ से प्रेरित एकीकृत नागरिकता चाहता था, जहां नागरिक बिना बहस के स्वत: ही कानून पर मतदान करेंगे| इस विचार का राष्ट्रवाद के विकास पर प्रभाव पड़ा है|
सेबाइन के अनुसार “स्वयं एक राष्ट्रवादी न होते हुए भी रूसो ने नागरिकता के ऐसे प्राचीन आदर्श को स्वीकारा है, जिसने राष्ट्रीय भावना के विकास में मदद की है|”
रूडोल्फ रोकर के अनुसार रूसो संयुक्तकारी चरम राष्ट्रवाद का बौद्धिक पूर्वज है|
आलोचना-
सामान्य इच्छा सिद्धांत के कारण डयूगिट, टालमोन, अल्फ्रेड कोबान ने रूसो को आधुनिक निरंकुशवाद का संस्थापक कहते हैं|
डयूगिट “रूसो जैकोबियन निरकुंशतंत्र व सीजेरीयन तानाशाही का जनक है, जिसने कॉट व हीगल के निरपेक्ष सिद्धांतों को प्रेरित किया है|”
टालमोन (Talmon) ने अपनी कृति The origin of Totalitarian Democracy 1960 में लिखा है कि “रूसो बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिकारवाद का बौद्धिक अग्रदूत है|”
अल्फ्रेड कोबान “तानाशाही, सामान्य इच्छा के लोकतंत्रीय सिद्धांत का तार्किक एवं ऐतिहासिक परिणाम है|”
कॉन्स्टेंट ने रूसो को प्रत्येक प्रकार के अधिनायकवाद का सबसे भयानक मित्र कहा है|
लुसिओ कोलेटी ने अपनी पुस्तक From Rousseau to Lenin 1972 में लिखा है कि “रूसो का चिंतन पूंजीवाद व पूंजीवादी समाज का विवरण है|
नीत्शे ने अपनी महामानव (Superman) की अवधारणा में महामानव को सामान्य इच्छा का प्रतिनिधि बताया है|
वाहन “रूसो ने अपनी समग्रतावादी अवधारणा द्वारा व्यक्ति की हैसियत को शून्य में बदल दिया है|”
वाल्टेयर ने रूसो की आलोचना करते हुए कहा है कि “रूसो हमें चारों पैरों पर चलवाना चाहता है|”
रूसो से संबंधित कुछ तथ्य-
रूसो ने एक आदर्श राज्य की जनसंख्या 10000 बताई है|
जॉन्स के अनुसार मानव स्वभाव के संबंध में रूसो की धारणा प्लेटो और अरस्तू की धारणा से मेल खाती है|
डेनिंग के अनुसार डिसकोर्सेज का चित्रण तो ऐतिहासिक है, पर इमाइल का चित्रण दार्शनिक है|
पैटमेन के अनुसार रूसो कपटपूर्ण उदार सामाजिक अनुबंध का आलोचक है|
बर्क ने रूसो को राष्ट्रीय असेंबली का पागल सुकरात कहा है|
रूसो ने अपने लेख A Lasting Peace through the Federation of Europe 1974 में स्थाई शांति की स्थापना व युद्धों की रोकथाम के लिए यूरोपीय राष्टों को एक संघ के रूप में संगठित करने की सलाह दी थी|
सिबली का मत है कि रूसो को बहुआयामी राजनीतिक विविधताओ व अभिव्यक्तियों का पितामह कहा जा सकता है|”
वाहन “रूसो लोकवादी विचारों का विरोधी था, क्योंकि राज्य के खिलाफ वह व्यक्ति की कोई रक्षा नहीं करता है|”
रूसो की सामान्य इच्छा के उत्साह का महात्मा गांधी ने समर्थन किया है|
कर्टिस के अनुसार रूसो का दर्शन बहुत ही व्यक्तिवादी है|
चैपमेन व रॉबर्ट देराथे रूसो को व्यक्तिवाद का महान चैंपियन बताते हैं|
अल्फ्रेड कोबान “रूसो का राजनीतिक विचार पूरी तरह व्यक्तिवादी नहीं था, साथ ही व्यक्तिवादियों से अलग किसी समाज का अतिवादी चित्रण भी नहीं था|”
निस्बेट “वास्तव में रूसो में एक ओर तो मूलवादी व्यक्तिवाद था और दूसरी ओर समझौताहीन प्रभुत्ववाद|"
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