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Rabindranath Tagore/ रविंद्रनाथ टैगोर (1861- 1941)

 Rabindranath Tagore/ रविंद्रनाथ टैगोर (1861- 1941)


जीवन परिचय- 

  • जन्म- 7 मई 1861 को कलकाता 

  • इसके दादा द्वारकानाथ व पिता देवेंद्रनाथ ब्रह्म समाज के अग्रणी थे|

  • वे प्रसिद्ध कवि, लेखक, संगीतकार, चित्रकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, देशभक्त, आध्यात्मिक मानववावादी व संश्लेषणात्मक अंतरराष्ट्रीयवादी थे|

  • टैगोर की शिक्षा निजी शिक्षकों द्वारा घर पर हुई थी|

  • टैगोर ने 1905 के बंग-भंग आंदोलन में भाग लिया|

  • 1919 में जलियांवाला हत्याकांड के बाद 27 मई 1919 को विरोधस्वरूप ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी| यह उपाधि जॉर्ज पंचम ने 1915 में दी थी|

  • 1921 में टैगोर ने शांतिनिकेतन में ‘विश्व भारती’ नामक शिक्षण संस्थान की स्थापना की| 1951 में ‘विश्व भारती’ को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया|

  • वर्तमान में ‘विश्व भारती’ केंद्रीय विश्वविद्यालय है, जिसके कुलाधिपति भारतीय राष्ट्रपति के बजाय प्रधानमंत्री होता है|

  • जवाहरलाल नेहरू, टैगोर को अपना बौद्धिक गुरु मानते हैं|

  • टैगोर को गुरुदेव महात्मा गांधी ने तथा गांधी को महात्मा का नाम टैगोर ने दिया|

  • टैगोर को सांस्कृतिक समन्वय तथा अंतरराष्ट्रीय एकता में विश्वास था|

  • रविंद्र नाथ टैगोर को बंगला साहित्य का गैटे भी कहा जाता है|

  • रविंद्र नाथ टैगोर ने भारत के साथ-साथ बांग्लादेश का भी राष्ट्रीय गान ‘आमार- सोनार बांग्ला’ की रचना की|

  • नव मार्क्सवादी विद्वान जार्ज ल्युकॉच ने टैगोर की आलोचना की तथा कहा कि “रविंद्र नाथ यूरोपीय पूंजीपतियों के प्रतिनिधि हैं| वह ऐसे कलम घसीट हैं, जिन के चरित्र ‘पेल स्टीरियोटाइप्स’ यानी घिसे- पिटे ढंग से धुंधले हैं|”


रचनाएं-

  1. गीतांजलि 1910-

  • इसमें उसका ईश्वर के प्रति समर्पण मिलता है|

  • इसस काव्य रचना के लिए 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला था|


  1. गोरा 1910- यह उपन्यास है|

  2. जन गण मन- 1911

  3. घर और बाहर 1916 (The Home and World)- इसमें स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में जीवन का गहन अर्थ वर्णित है|

  4. The Spirit of Japan 1916

  5. Stray Birds 1916

  6. Nationalism 1917

  7. Sadhna- The Realization of life 1920

  8. Creative 1922

  9. The Religion of man 1931 

  10. The Gardner


  • The Essential Tagore 2011-

  • वर्ष 2011 में हावर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने विश्वभारती विश्वविद्यालय के साथ मिलकर टैगोर के साहित्यक कार्यों का सबसे बड़ा संकलन The Essential Tagore का प्रकाशन किया है| यह संकलन फकराल आलम व राधा चक्रवर्ती द्वारा टैगोर के जन्मदिन की 150वीं वर्षगांठ पर संपादित किया गया|



टैगोर के राजनीतिक चिंतन का दार्शनिक आधार- रहस्यमूलक प्रकृति- शिवाद्वैतवाद–

  • रविंद्रनाथ टैगोर मांडूक्य उपनिषद के ‘सत्यम शिवम और अद्वैतम’ की धारणा के अनुयायी थे| वे एकेश्वरवादी थे|

  • उन्हे अपने पिता तथा ब्रह्म समाज से एकेश्वरवादी आस्था विरासत में मिली थी|

  • कुछ अंशो में वे सौंदर्यात्मक अखंडात्मक एकत्ववादी थे और उन्हें परमात्मा की उच्चतम सृजनशीलता में विश्वास था|

  • उसके मत में परमात्मा ‘प्रेम की पूर्णता’ है

  • उन्होंने परमात्मा को परम पुरुष माना है|

  • उन्होंने एक शाश्वत परम आध्यात्मिक सत्ता की सर्वोच्चता को स्वीकार किया|

  • टैगोर पृथ्वी पर देवी प्रेम के संदेशवाह थे| गीतांजलि में उन्होंने ईश्वरीय प्रेम की व्यापकता का गान किया है|

  • दांते की भांति टैगोर का भी विश्वास है, कि “पाप, दुष्कर्म और अपराध इसलिए होते है, कि हम ईश्वरीय प्रेम के रहस्य को पहचानने में भूल करते हैं|”

  • रविंद्रनाथ ने कभी-कभी ईश्वर को संपूर्ण विश्व सृजनहार माना है, किंतु साथ ही साथ उन्हें नैतिक पुरुष के रूप में अपनी आत्मा की सत्ता में भी विश्वास है|

  • अपनी पुस्तक The Religion of Man में टैगोर लिखते है कि “परमात्मा समग्र वस्तुओं में व्याप्त है, वहीं मानव विश्व का ईश्वर है|”

  • अल्बर्ट श्वाइटजर ने अपनी पुस्तक ‘Indian Thought and its Development’ में लिखा है कि “टैगोर एकत्ववाद और द्वैतवाद के बीच विचरण करते हैं, मानों दोनों के बीच कोई खाई न हो|”

  • पेनेटियस तथा सिसरो की भांति रविंद्रनाथ का विश्वास था कि ब्रह्मांड की प्रक्रिया दैवी सत्ता से व्याप्त है| विश्व परमात्मा की लीला है| सरसराती हुई पत्तियां, वेगवती सरिताएं, तारादीप्त रात्रि और मध्याह्न का झुलसाने वाला ताप सब ईश्वर की विद्यमानता को प्रकट करते हैं| 

  • रविंद्र सार्वभौम सामंजस्य के कवि थे| उनका दैवी सामंजस्य में विश्वास था|

  • अल्बर्ट श्वाइटजर का कथन है कि ‘टैगोर का वस्तुओं में आत्मा’ का सिद्धांत उपनिषदों की शिक्षाओं से नहीं मिलता है, अपितु उस पर आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान का प्रभाव है| 


  • दयानंद तथा गांधी की भांति टैगोर का भी विश्वास था कि विश्व में नैतिक शासन के सर्वव्यापी ब्रह्मांडीय नियम है| इसलिए संसार की तुच्छ वस्तु अथवा प्राणी को चोट पहुंचाना ईश्वर की कल्याणकारी अनुकंपा के विरुद्ध अपराध है|

  • टैगोर पूंजीवाद व मार्क्सवाद दोनों के आलोचक थे, क्योंकि ये आध्यात्म व नैतिकता के बजाय भौतिकवाद, हिंसा तथा सामाजिक संघर्ष को बढ़ावा देते हैं| पाश्चात्य विचार प्रक्रिया प्रकृति से सहयोग, सामंजस्य व प्रेम करने के बजाय उस पर विजय प्राप्त करना चाहती है|

  • प्रकृतिवादी होने के साथ साथ देकार्ते, स्पिनोजा व लाइबनिज की तरह ‘बुद्धिवाद’ के प्रति आस्थावान के|


टैगोर का आध्यात्मिक मानववाद-

  • विवेकानंद की भांति टैगोर भी आध्यात्मिक मानववादी थे, क्योंकि वे प्रेम, साहचर्य तथा सहयोग के संदेशवाहक थे|

  • टैगोर ने अपनी पुस्तक ‘The Religion of Man’ में रज्जब व रैदास को मानव धर्म के आदर्श प्रवर्तक माना है|

  • टैगोर पुनर्जागरण काल के मानववादियों की भांति ईश्वर में विश्वास करते हैं| टैगोर को महायान संप्रदाय की धर्मकाय धारणा में आध्यात्मिक मानववाद का बीज उपलब्ध हुआ था| धर्मकाय सिद्धांत के अनुसार बुद्ध का व्यक्तित्व असीम ज्ञान तथा करुणामूलक प्रेम का मूर्त रूप है|

  • टैगोर ने Stray Birds में लिखा है कि “ईश्वर मनुष्यों के हाथों से अपने ही पुष्पों को भेंट में वापस पाने की प्रतिक्षा करता है|”

  • टैगोर ने Stray Birds में लिखा है कि “ईश्वर मनुष्य के दीपको को अपने तारों से अधिक प्यार करता है|”

  • कभी-कभी कहा जाता है कि रविंद्र नाथ ‘अनुभवातीत मानववाद’ के प्रवर्तक हैं| अपनी पुस्तक Religion of Man में उन्होंने लिखा है कि “मनुष्य के असीम व्यक्तित्व में विश्व समाविष्ट है|”

  • रविंद्रनाथ की सार्वभौमिक मानववाद संबंधी धारणा तथा अरविंद घोष द्वारा प्रतिपादित ‘अतिमानव’ की धारणा में कुछ अंतर है| टैगोर के मानववाद में अनुभवगम्य तथा स्थूल तत्वों यथा प्रेम, सामंजस्य, शांति आदि पर बल है, जबकि अरबिंदो का आग्रह है कि मनुष्य को, मनुष्य मूल्यों से भी परे पहुंचकर ‘दैवी मूल्यों’ का साक्षात्कार करना चाहिए|

  • ब्रह्म समाज के प्रभाव के कारण ये सामाजिक कर्तव्यों को प्राथमिकता देते थे| The Gardner नामक रचना में उन्होंने लिखा है कि “मैं अपना घर-बार छोड़कर वन की शरण कभी नहीं लूंगा”

  • वे दार्शनिक चिंतन व भक्तिपूर्ण आराधना का, रचनात्मक कर्म के साथ समन्वय चाहते थे|

  • उन्होंने राजा राममोहन राय से सीखा की आधारभूत स्तर पर समस्त मतभेदों में एक आध्यात्मिक एकता विद्यमान है|

  • रवीन्द्रनाथ सार्वभौम मानववाद के संदेशवाहक थे| वह अनंत सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं|

  • रवीन्द्रनाथ टैगोर ने The Religion of man में लिखा है कि “मनुष्य का बहुकोशिकायुक्त शरीर नाशवान है, किंतु बहुव्यक्तित्वपूर्ण मानवता अमर है|”

  • इस तरह मनुष्य के व्यक्तित्व के संबंध टैगोर की धारणा आध्यात्मिक है|

  • टैगोर का कहना है कि सरल ग्रामीण जानता है कि वास्तविक स्वतंत्रता क्या है| वास्तविक स्वतंत्रता आत्मा के एकाकीपन से स्वतंत्रता तथा वस्तुओं के एकाकीपन से स्वतंत्रता है|

  • टैगोर का व्यक्तित्व संबंधित सिद्धांत व्यक्तिगत प्राणी को बहुत ऊंचा उठा देता है| टैगोर ने Fruit Gathering में लिखा है कि “मुझे अनेक के जुए के नीचे अपना ह्रदय कभी नहीं झुकाना चाहिए|”


इतिहास की सामाजिक व्याख्या-

  • टैगोर के अनुसार मनुष्य सामाजिक, संवेदनशील तथा कल्पनाशील प्राणी है, न कि यांत्रिक वस्तु अथवा राजनीतिक प्राणी|

  • काम्टे, दुर्खाइम तथा लारेत्स वान स्टाइन की भांति टैगोर ने भी समाज को ही प्राथमिकता दी है| उनका कहना था कि राजनीति, समाज का केवल एक विशेषीकृत तथा व्यवसायिक पक्ष है|

  • इस तरह टैगोर समाज व राज्य की वैध सत्ता मानते हैं|

  • उनका मानना है कि प्राचीन भारत में राजनीतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों को एक दूसरे से पृथक रखा गया| घर तथा आश्रम मनुष्य की शक्तियों के संगठन में दो मुख्य केंद्र थे|

  • उन्होंने स्वदेशी समाज में लिखा कि “हमारे देश में राजा था, जो अपेक्षाकृत स्वतंत्र हुआ करता था और नागरिक दायित्व का भार जनता पर था|

  • टैगोर को प्राचीन भारत के निम्नलिखित आदर्शों की स्थापना से ही देश का कल्याण दिखाई देता है- सरल जीवन, सरल तथा शुद्ध दृष्टि, आध्यात्मिक अनन्त के आदेशों का अनुगमन|

  • टैगोर ने सामाजिक एकता और सुदृढ़ता पर बल दिया|

  • टैगोर राज्य को शोषणकारी व मानव समाज की सृजनात्मक स्वतंत्रता का हनन करने वाला यंत्र मानते थे, लेकिन वे मैक्स स्टर्नर, माइकल बाकुनिन, गॉडविन व प्रौंधा जैसे अराजकतावादियों की भांति राज्य की सत्ता का पूर्ण उन्मूलन नहीं चाहते थे|


भारतीय इतिहास का दर्शन-

  • टैगोर ने भारतीय इतिहास के दर्शन पर भी विचार प्रकट किये हैं|

  • उनके मत में भारतीय सभ्यता का दृष्टिकोण उदार तथा विशद है, क्योंकि उनका पोषण वनों में वायु की स्वच्छंद क्रीड़ा के बीच हुआ था| आश्रम भारतीय संस्कृति की सर्वव्यापी भावना के प्रतिनिधि थे|

  • प्राचीन भारत में जीवन के सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्रों को एक दूसरे से अलग रखा जाता था| जनसाधारण समाज की रीति-रिवाजो, परंपराओं के अनुसार अपना जीवन बिताते थे|

  • टैगोर के  मत में ‘भारत सभ्य विश्व के समक्ष अनेकता में एकता के आदर्शों का मूर्तरूप बनकर खड़ा हुआ है|


पाश्चात्य सभ्यता का वर्णन-

  • टैगोर ने भारत की आध्यात्मिक विरासत के महत्व को स्वीकार किया है तथा पश्चिमी के अंधानुकरण में निहित विराष्ट्रीयकरण की प्रवृत्तियों का विरोध किया है|

  • टैगोर ने ऐतिहासिक प्रगति के लिए नैतिक नियम का समर्थन किया है| पश्चिम राष्ट्रों में नैतिक मूल्यों के प्रति जो संदेह कि प्रवृत्ति बढ़ रही है, उस पर उन्हें बड़ा दुख था| इसलिए प्रथम विश्वयुद्ध को वे दंडात्मक युद्ध कहा करते थे|

  • इनके मत में यूरोपीय सभ्यता ने आंतरिक व बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा के लिए ‘राज्य की सत्ता’ को सुदृढ़ किया|

  • अपने आरंभिक दिनों में वे पश्चिम तथा ईसायत से प्रभावित हुए थे|

  • प्रारंभिक जीवन में टैगोर ने लिखा था कि “यूरोप का दीपक अभी भी जल रहा है, हमें चाहिए कि अपना पुराना बुझा हुआ दीपक उसकी ज्योति से जला लें और काल के मार्ग पर चलना प्रारंभ कर दें|

  • इसके विपरीत पश्चिमी मानव समाज की असीम साम्राज्यवादी उग्रता और हिंसात्मक क्रूरता का टैगोर ने विरोध किया है|

  • अपनी 80 वी जन्मगांठ पर भाषण में उन्होंने कहा कि “एक दिन मैंने अंग्रेजों को यौवन की शक्ति से पूर्ण, जरूरतमंदों की सहायता करने के लिए सदैव उद्यत राष्ट्र के रूप में  देखा था, किंतु आज मैं देख रहा हूं कि वे समय से पहले ही वृद्ध हो चुके हैं|

  • टैगोर मार्क्सवादियों की तरह यह आशा नहीं करते कि एक दिन ‘राज्य लुप्त हो जायेगा’ बल्कि वे राज्य के पास ‘कार्यों’ व ‘शक्ति के जमाव’ के बजाय राज्य शक्ति में कमी व फैलाव चाहते हैं|

  • ब्रिटिश आदर्शवादी विचारक TH ग्रीन की तरह विश्वास करते हैं कि राज्य लोगों को नैतिक बनाने का ठेका ना ले, बल्कि उनके नैतिक जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर करें|

  • टैगोर के अनुसार “लोकतंत्र तभी सार्थक हो सकता है, जब शासक वर्गों को समाप्त कर दिया जाय और शक्ति का संघर्ष लुप्त हो जाय| इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए वे भारतीय गावों में ‘प्रत्यक्ष लोकतंत्र’ का पुनरुत्थान चाहते हैं| 


सृजनात्मक स्वतंत्रता की संकल्पना-

  • टैगोर ने व्यक्ति की सृजनात्मक व सकारात्मक स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया है|

  • उनके मत में वास्तविक स्वतंत्रता पूर्ण जागरण व पूर्ण स्व-अभिव्यक्त का रूप है|

  • मनुष्य प्रकृति के सौंदर्य को पहचानकर उसका आनंद लेते हुए ही अपनी स्वतंत्रता का उपयोग कर सकता है, उसका अंधाधुंध उपयोग करके नहीं|

  • सकारात्मक स्वतंत्रता का आधार सृजनशील चेतना, सामंजस्य तथा नैतिकता होती है|

  • टैगोर ने अपनी रचना ‘साधना’ में कानून व स्वतंत्रता की समस्या का विस्तृत विवेचन करते हुए व्यक्ति के अस्तित्व के दो रूप बताये हैं

  1. भौतिक अस्तित्व

  2. आध्यात्मिक अस्तित्व


  1. भौतिक अस्तित्व-

  • यह प्रकृति का अंश है|

  • यह भौतिक जगत के नियमों में से बंधा है|

  • इसमें व्यक्ति एक समुदाय के अंशों के रूप में जीने को बाध्य होता है|

  • यह बंधन का स्रोत है|


  1. आध्यात्मिक अस्तित्व-

  • यह दिव्य सता का अंश है|

  • यह दिव्य व आध्यात्मिक प्रेरणा पर अवलंबित होता है|

  • व्यक्ति इसमें स्वाधीन जीवन जीता है, बाह्य शक्तियां उसे दबा नहीं सकती हैं|

  • यही वास्तविक स्वतंत्रता का स्रोत है|


  • मनुष्य अपनी सकारात्मक स्वतंत्रता प्रथक- प्रथक व्यक्तियों के रूप में प्राप्त नहीं करते बल्कि समाज के परस्पर आश्रित अंगों के रूप में प्राप्त करते हैं|

  • टैगोर “समाज का निर्माण मनुष्य की आवश्यकता पूर्ण के लिए नहीं हुआ है, बल्कि वह उसके सृजनात्मक आनंद की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है|”

  • इनके मत में समाज व्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा देते हैं, वहीं राष्ट्र उसका दमन करता है|

  • उन्होंने ने अपने कृति ‘The Religion of Man’ में लिखा है कि “स्वतंत्रता के विकास का इतिहास मानव संबंधों के उन्नय का इतिहास है|”


  • टैगोर ने पूर्ण स्वतंत्रता के साक्षात्कार की चार अवस्थाएं बतायी है-

  1. व्यक्तित्व की पूर्णता

  2. व्यक्ति से ऊपर उठकर समाज से एकात्म्य 

  3. समाज से ऊपर उठकर विश्व के साथ एकात्म्य

  4. विश्व से परे अंत में विलीन होना|


  • टैगोर स्वतंत्रता को ‘राजनीतिक स्वतंत्रता’ तक सीमित करने के विरोधी थे| उनका सुप्रसिद्ध उदघोष था “हमें आज के दिन भी यह नहीं भूलना चाहिए कि वे लोग जिन्हें राजनीतिक रूप से स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी है, वे सच्चे रूप में स्वतंत्र नहीं है, वे सिर्फ शक्तिशाली है|”


जाति प्रथा पर विचार- 

  • उनके मत में भारत में जाति का विचार समष्टि का विचार है| यदि हम किसी ऐसे व्यक्ति से मिले जो इस समष्टि के विचार के प्रभाव में है, तो वह एक शुद्ध व्यक्ति नहीं है|

  • जाति का विचार सृजनात्मक नहीं है, यह केवल संस्थात्मक है|

  • जाति व्यक्ति के निषेधात्मक पक्ष अर्थात उसकी प्रथकता को महत्व देता है|

  • टैगोर ने अपनी ‘सत्यकाम जाबाल’ कविता में वंशानुगत अधिकारों के विरुद्ध उपदेश दिया तथा इस बात का समर्थन किया कि समाज के निम्नतम वर्गों को शिक्षा की समान सुविधाएं दी जानी चाहिए|

  • उनके मत में जाति प्रथा वंशानुक्रम के नियम को अतिशय महत्व देती है, और उत्परिवर्तन (Mutation) तथा सामाजिक तरलता के नियम की अवहेलना करती है|

  • इस तरह उन्होंने जाति प्रथा के उन्मूलन का समर्थन किया|

  • जब 1932 में रैम्जे मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा की तो टैगोर ने देशवासियों को सलाह दी कि वे उसकी उपेक्षा करे और अपनी सारी शक्तियों को विवेक शून्य सांप्रदायिकता और वर्गगत भेदभाव का उन्मूलन करने में केंद्रित कर दे|


अधिकारों का सिद्धांत-

  • रविंद्र नाथ टैगोर ने The Call of Truth पुस्तक में लिखा कि “मनुष्य को अपने अधिकारों के संबंध में भीख नहीं मांगनी हैं, उसे चाहिए कि वह अपने लिए उनका स्वयं सर्जन करें|

  • उनके विचार में अधिकार किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति नहीं है, वे सामाजिक कल्याण की वृद्धि में निष्काम योगदान देने से उत्पन्न होते है|

  • विवेकानंद की भांति रविंद्र नाथ ने इस पर बल दिया कि अधिकारों की प्राप्ति के लिए व्यक्ति तथा समूह दोनों को ही शक्ति का अर्जन करनी चाहिए|

  • दासता जनित अपमान को स्वीकार कर लेने से मनुष्य के ह्रदय में विराजमान दैवी प्रकाश की ज्योति क्षीण हो जाती है|

  • वे भारत के राजनीतिक स्वतंत्रता के अधिकार के समर्थक थे, क्योंकि इसके अभाव में जनता का नैतिक बल क्षीण हो जाता है तथा आत्मा संकुचित को जाती है| अतः टैगोर ने ‘भारत के आत्मनिर्णय के अधिकार’ का समर्थन किया|

  • 1904 अल्बर्ट हॉल कलकाता में उन्होंने इस बात पर बल दिया कि समाज का पुनर्निर्माण पुराने आदर्शों और नमूनों के आधार पर किया जाय|


राष्ट्रवाद की समालोचना-

  • रविंद्रनाथ को मनुष्य के आध्यात्मिक साहचर्य में विश्वास था| उन्होंने ‘मानव जाति के महान संघ’ की कल्पना की थी| इसलिए वे राष्ट्रीय राज्य के आदेशों का पालन करने के लिए तैयार नहीं थे|

  • उनके मत में राष्ट्रवाद पृथकतत्व का पोषण करता है और आक्रामक उग्रता विश्व की सभ्यता के लिए खतरा है|

  • राष्ट्रवाद अलगाव, संकीर्णता व अहंकार का पोषण करता है तथा उग्र राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व युद्धो को बढ़ावा देता है|

  • उन्होंने राष्ट्रवाद की तुलना ‘हाइड्रोलिक प्रेस’ से की है, जिसका अवैयक्तिक होने के कारण पूर्ण प्रभावी होता है|

  • राष्ट्रवाद आधुनिक पूंजीवादी साम्राज्यवादी राज्यों का उदघोष है| 

  • टैगोर ने राष्ट्र को देवता मानकर पूजने का विरोध किया है तथा राष्ट्रवाद को संगठित सामुदायिकता और यांत्रिक लोलुपता बताया है, जो मनुष्य की सृजनात्मक व आध्यात्मिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात करती है|

  • राष्ट्रवाद के कारण टैगोर ने पाश्चात्य सभ्यता को मनुष्य के लिए सबसे घातक बताया है|

  • उन्होंने अपनी कृति Creative Unity 1925 के अंतर्गत लिखा है कि “विभिन्न राष्ट्र, शक्ति के संघ हैं|”

  • उनके मत में आधुनिक राष्ट्र भीड़ मनोविज्ञान का प्रयोग कर जनमानस में आतंक, जातीय गर्व व दूसरों के प्रति घृणा का संचार करते हैं| जनमानस भी इस मानसिक दासता को सहर्ष स्वीकार कर अपनी उदात आकांक्षाओ व सकारात्मक स्वतंत्रताओ का परित्याग देते हैं|

  • टैगोर ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘राष्ट्रवाद’ में लिखा कि “राष्ट्रवाद की प्रवृत्ति यूरोपिय साम्राज्यवाद का मूल कारण है| पश्चिम के राष्ट्र ऐसे हिंसक जीव जंतुओं के दल थे, जिन्हें अपने शिकार की तलाश थी|”

  • इनके मत में एशिया व अफ्रीका के लोग ‘राष्ट्रों’ के रूप में संगठित नहीं थे| अतः वे शांतिप्रिय व अनाक्रमक थे| इसलिए वे पश्चिम के रक्त पिपासु राष्ट्रों की गिद्ध दृष्टि के शिकार हो गये|


संश्लेषणात्मक सार्वभौमिकवाद की संकल्पना-

  • संश्लेषणात्मक सार्वभौमिकवाद की संकल्पना संकीर्ण व उग्र राष्ट्रवाद के बजाय अंतरराष्ट्रीयवाद, मानववाद व वसुधैव कुटुंबकम को बढ़ावा देती है|

  • इसमें प्रत्येक मनुष्य अपनी सृजनात्मक प्रतिभा व स्वतंत्रता का विकास कर संकीर्ण राष्ट्रवादी की मानसिक गुलामी से ऊपर उठ, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक स्तर पर संपूर्ण मानव समाज से अपने को जोड़ लेता है|

  • टैगोर के अनुसार “राष्ट्रवाद के अभिशाप से मानवता की मुक्ति का उपाय यह होगा कि राष्ट्रीय भेदभाव की दीवार गिरा दी जाय और मानवीय संबंधों को विश्व स्तर पर परस्पर सद्भावना और सहयोग के आधार पर फिर से जोड़ा जाय, यही संश्लेषणात्मक सार्वभौमिकवाद व अंतरराष्ट्रीयवाद है|


अंतरराष्ट्रीयवाद- 

  • रविंद्रनाथ अंतरराष्ट्रीयवादी थे| जब विश्व में राष्ट्रीय अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष चल रहा था, उस समय उन्होंने राष्ट्रों की पारस्परिक मैत्री व एकता का समर्थन किया|

  • ये अंतरराष्ट्रीयवादी थे पर अरविंदो की भांति मानव जाति की यांत्रिक एकता के समर्थक नहीं थे| वे सद्भावना, राष्ट्रीय मैत्री, भ्रातत्व व जातियों तथा संस्कृतियों के हार्दिक मेल मिलाप को स्थापित करना चाहते थे|

  • अपनी पुस्तक Nationalism में टैगोर ने लिखा है कि “मैत्री का आदर्श जापानी संस्कृति का मूल है|”


इटालियन फासीवाद पर विचार-

  • 1926 में रविंद्र नाथ टैगोर इटली चले गये|

  •  इटली में उन्होंने उदार, प्रत्ययवादी, नव हेगलवादी दार्शनिक क्रोचे से भेंट की|

  •  उन पर मूसोलिन के कार्यकलाप का प्रभाव पड़ा| उन्होंने मूसोलिनी तथा उनके उत्साहपूर्ण आथित्य की सराहना की, किंतु उन्होंने फासीवाद के राजनीतिक तथा आर्थिक दर्शन को न तो स्वीकार किया और न ही कभी प्रशंसा की|


सोवियत साम्यवाद पर विचार-

  • टैगोर ने 1930 में इंग्लैंड में ‘हिबर्ट व्याख्यान माला’ के अंतर्गत व्याख्यान देने के बाद सोवियत संघ की यात्रा की|

  • जहां टैगोर को शैक्षणिक पुनर्निर्माण की विशाल योजनाएं, अज्ञान व धार्मिक अंधविश्वासों का विरोध, नस्ल, रंग व आर्थिक वर्ग विभेद समाप्ति के कार्यक्रम बड़े पसंद आये| पर उन्हें रूसी नेतृत्व का अधिनायकवाद, समष्टिवाद तथा क्रूरता पसंद नहीं आयी|

  • रूसी दार्शनिक बर्डीएव की भांति टैगोर ने भी स्वीकार किया कि आधुनिक पूंजीवाद की शोषण, विषमता और संग्रह की प्रवृत्तियां ही साम्यवाद की वृद्धि के लिए मुख्य उत्तरदायी हैं| बोल्शेविक का जन्म आधुनिक सभ्यता की इस मानवीय पृष्ठभूमि में होता है|

  • पर बोल्शेविक व साम्यवाद उसी प्रकार का उपचार है, जैसे तट पर ज्वालामुखी के ताप से बचने के लिए कोई व्यक्ति अथाह समुद्र को ही एकमात्र मित्र मान लेता है|

  • अक्टूबर 1930 में रविंद्र नाथ ने मास्को में घोषणा की थी कि मनुष्य जाति की सभी समस्याएं शिक्षा द्वारा हल की जा सकती है| उनका कहना था कि भारत में शिक्षा की दयनीय दशा ही मनुष्य जाति की दरिद्रता, महामारियो, औद्योगिक पिछड़ेपन तथा पारस्परिक झगड़ों के लिए जिम्मेदार है|


संपत्ति विषयक विचार- 

  • रविंद्रनाथ ने संपत्ति के विषय में समाविष्टवादी सिद्धांत को कभी अंगीकार नहीं किया|

  • वे संपत्ति के केंद्रीयकरण के विरोधी थे|

  • फिर भी हेगेल तथा ग्रीन की भांति टैगोर ने स्वीकार किया कि “संपत्ति मानव व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का माध्यम है|”

  • टैगोर चाहते थे कि संपत्ति मनुष्य में अंतर्निहित सार्वभौम अहं की अभिव्यक्त बने न कि हमारी लोलुपतापूर्ण संग्रहवृत्ति की| अतः उन्होंने मनोवैज्ञानिक सौंदर्यात्मक आधार पर निजी संपत्ति का समर्थन किया है|

  • उन्होंने राज्य पर अत्याधिक निर्भर होने का विरोध किया है|



टैगोर एवं महात्मा गांधी- 

  • रविंद्रनाथ टैगोर व मोहनदास करमचंद गांधी दोनों एक दूसरे का आदर व सम्मान करते थे, आपसी संबंध सौहार्दपूर्ण थे, पर निम्नलिखित मुद्दों पर उनमें वैचारिक मतभेद थे-


  1. आध्यात्मिक दर्शन-

  • टैगोर उपनिषदों व कबीर की रचनाओ में प्रतिपादित सर्वेश्वरवादी, सर्वव्यापकता में विश्वास करते थे, जबकि गांधीजी गीता व तुलसीदास द्वारा उल्लेखित आस्तिकवाद में|


  1. जीवन दृष्टिकोण- 

  • टैगोर का दृष्टिकोण सौंदर्यात्मक था| गांधी नैतिक शुद्धाचारवादी थे|

  • अंबेडकर की भांति टैगोर को भी गांधी की ओड़ी हुई दरिद्रता पसंद नहीं थी|


  1. वर्ण व्यवस्था तथा जाति व्यवस्था-

  • गांधीजी परंपरागत वर्णाश्रम व्यवस्था की समर्थक थे पर टैगोर का मत था कि वर्णाश्रम जाति व्यवस्था के रूप में विकृत हो जाने के कारण समाज के कार्यात्मक विभेदीकरण के लिए वैज्ञानिक पद्धति नहीं रह गयी है, बल्कि यह समाज में बहिष्कार, अस्पृश्यता व जाति आधारित भेदभाव का साधन बन गयी|

  • 1934 में बिहार में आये भूकंप को गांधीजी ने ‘अस्पृश्यता के पाप’ के लिए ‘दिव्य दंड’ कहा तो टैगोर ने कहा कि गांधी एक प्राकृतिक व वैज्ञानिक घटना का इस्तेमाल अंधविश्वास व अविवेक बढ़ाने के लिए कर रहे हैं|

  • लेकिन गांधी व टैगोर दोनों ही अस्पृश्यता के विरोधी थे|  


  1. आर्थिक कार्यक्रम-

  • टैगोर को गांधीजी का ‘चरखा कार्यक्रम’ पसंद नहीं था, बल्कि उन्हें सहकारी खेती जैसे रचनात्मक कार्यक्रम पसंद थे|


  1. राजनीतिक कार्यक्रम-

  • टैगोर को गांधी के असहयोग, सविनय अवज्ञा, बहिष्कार व स्वदेशी आंदोलन पसंद नहीं थे| टैगोर को गांधीजी के इन कार्यक्रमों में संकुचित राष्ट्रवाद, परंपरागत अहंकार व अराजकतावाद दिखायी देता था|

  • जबकि गांधी का दृढ़ मत था कि “बुराई के साथ असहयोग उतना ही आवश्यक कर्तव्य है, जितना ईश्वर का सहयोग|”

  • गांधी “भारतीय राष्ट्रवाद सीमित नहीं है, यह न आक्रामक है, न विंध्वंसात्मक| यह स्वास्थ्यवर्धक, धार्मिक तथा मानवीय है| भारत को मानवता के लिए मरने की इच्छा करने से पहले जीना सीखना होगा| चूहे, जो बिल्ली के दांतो के बीच स्वयं को विवश पाते हैं, अपने आरोपित त्याग के लिए कोई प्रशंसा नहीं कर पाते|”

  • गांधी के असहयोग आंदोलन के विरोधस्वरूप टैगोर ने लिखा कि “इस आंदोलन के पीछे सर्वनाश की एक डरावनी प्रसन्नता है, जो अपने श्रेष्ठतम रूप में सन्न्यास है एवं अपने निकृष्ट रूप में भयानक विलासोत्सव है, जिसमें मानव स्वभाव जीवन की मूलभूत वास्तविकता में विश्वास खोकर एक अर्थहीन विनाश में निष्काम प्रसन्नता प्राप्त करता है|”


अन्य तथ्य- 

  • टैगोर ने The Religion of man में लिखा की “गहराई में हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान से परे शाश्वत आत्मा निवास करती हैं|”

  • टैगोर ने The Call of Truth तथा The Striving For Swaraj में गांधीजी के असहयोग आंदोलन और खादी पर सर्वाधिक बल देने का विरोध किया है|


  • टैगोर के मानवतावाद की आधारभूत धारणाएं निम्न है-

  1. मानवधर्म

  2. सत्य तथा विश्व का मानववाद निरूपण

  3. व्यक्ति की विशिष्टता पर आग्रह

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