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अंतरराष्ट्रीय राजनीति अध्ययन के उपागम || Antarraashtreey Raajaneeti Adhyayan Ke Upaagam // Approaches to the study of international politics || In Hindi || By Nirba PK Sir

    अंतरराष्ट्रीय राजनीति अध्ययन के उपागम


    • मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दो उपागम है-

    1. परंपरागत उपागम|

    2. आधुनिक/ व्यवहारिक/ वैज्ञानिक उपागम|


    • परंपरागत उपागम के अंतर्गत आदर्शवाद, यथार्थवाद, नव यथार्थवाद तथा समन्वयवादी दृष्टिकोण का अध्ययन किया जाता है|

    • आधुनिक उपागम में खेल सिद्धांत, सौदेबाजी सिद्धांत, मार्क्सवादी सिद्धांत, नव मार्क्सवादी सिद्धांत, नीति निर्धारण सिद्धांत आदि को शामिल करते हैं| 


    परंपरागत उपागम

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति के परंपरावादी दृष्टिकोण का आधार दर्शन, इतिहास और कानून है|

    • इस उपागम के अनुसार अंतरराष्ट्रीय संबंधों में परिवर्तन राज्यो के विकास और परिवर्तन के साथ ही होता है| अतः अंतरराष्ट्रीय संबंधों का समकालीन रूप एक क्रमिक तथा दीर्घ विकास का फल है|

    • डेविड वाइटल के शब्दों में “परंपरावादी दृष्टिकोण के दो प्रमुख तत्व हैं- प्रणाली और विषय वस्तु| प्रणाली के मामले में परंपरावादी उपागम इतिहास, विधिशास्त्र, दर्शन से सीखने, विवेक बुद्धि पर भरोसा करने को आवश्यक मानता है, और विषय वस्तु के मामले में वह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बल प्रयोग की भूमिका और राजनय के महत्व जैसे व्यापक संबंधों को विचारणीय मानता है|”


    प्रमुख परंपरागत उपागम-


    • आदर्शवादी उपागम-

    • आदर्शवाद का संबंध अंतरराष्ट्रीय संबंध में ‘क्या होना चाहिए’ से है| आदर्शवादी चिंतक इन प्रश्नों पर विचार करते हैं कि विश्व में न्याय और शांति कैसे स्थापित की जा सकती है, युद्धों का उन्मूलन कैसे किया जा सकता है, अंतरराष्ट्रीय सहयोग किस प्रकार विकसित हो सकता है, शक्तिशाली राज्यों द्वारा शक्तिहीन राज्यों का शोषण को किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है आदि|

    • आदर्शवाद का जन्म 18 वीं शताब्दी में हुआ और यह माना जाता है कि अमेरिकी और फ्रेंच क्रांतियों का मुख्य प्रेरणास्रोत आदर्शवाद ही था|

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वर्तमान काल में आदर्शवाद प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वुड्रो विल्सन के नेतृत्व में पुनर्जीवित हुआ| 

    • अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन आदर्शवाद के बड़े प्रवक्ता रहे हैं|

    • 1795 में कौंडरसैट ने एक ऐसी विश्व व्यवस्था की कल्पना कि जिसमें युद्ध, विषमता और अत्याचार के लिए कोई स्थान नहीं था| उसने एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय समाज की कल्पना की जिसमें तर्क. शिक्षा और विज्ञान का उपयोग करके मानव कल्याण के क्षेत्र में निरंतर प्रगति होती रहती हो|

    • कौंडरसैट ने यह विश्वास प्रकट किया कि मनुष्य अपनी बुद्धि, शिक्षा और विज्ञान के उपयोग से इतनी उन्नति कर लेगा कि भावी समाज में हिंसा, हत्या, अनैतिकता, सत्ता लोलुपता और शक्ति के लिए संघर्ष की भावना सर्वथा लुप्त हो जाएगी|

    • अंतरराष्ट्रीय संबंधों में आदर्शवाद की सैद्धांतिक स्थिति कौंडरसैट के इस उदार दृष्टिकोण की देन है|

    • आदर्शवादी दृष्टिकोण संस्थावादी तथा विधिवादी अध्यन की ओर प्रवृत्त है| सर अल्फ्रेड जिमर्न का राष्ट्र संघ पर किया गया अनुसंधान, फिलिप नोएल बेकर का विश्व निशस्त्रीकरण पर किया गया शोध, जेम्स शॉटवेल का युद्ध को अवैध घोषित करने संबंधी विचार इस युग के प्रमुख शोध कार्य माने जाते हैं| 

    • आदर्शवादी अंतरराष्ट्रीय राजनीति को साध्य न मानकर केवल साधन मानते हैं, जिसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय न्याय का विकास करना है|

    • आदर्शवादी दृष्टिकोण के अनुसार अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के पुराने, प्रभावहीन तथा हानिकारक तरीकों जैसे- युद्ध, शक्ति प्रयोग आदि को छोड़ देना चाहिए तथा इसके स्थान पर ज्ञान, तर्क, संवेदनशील तथा आत्म संयम के नए तरीकों तथा साधनों को अपनाना चाहिए|

    • यह उपागम अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शक्ति राजनीति को अनुचित तथा अनैतिक तौर पर अस्वाभाविक मानकर इसको अनुचित ठहराता है|

    • आदर्शवाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों को सुधारने के लिए राजनीति से युद्ध, भूख, असमानता, तानाशाही, शक्ति, दबाव तथा हिंसा को समाप्त करने के पक्ष में है|

    • यह तर्क, शिक्षा तथा विज्ञान के द्वारा इन बुराइयों से मुक्त विश्व की स्थापना की संभावना को मानता है|

    • यह दृष्टिकोण विश्व को एक आदर्श विश्व बनाने का लक्ष्य रखता है तथा इसके लिए साधन के रूप में नैतिकता की वकालत करता है|

    • कोलिम्बस तथा वुल्फ “आदर्शवादियों के लिए राजनीति एक अच्छी सरकार की कला है, न कि संभावित सरकार की कला| एक अच्छा राजनीतिक व्यक्ति वह नहीं करता जो संभव होता है, बल्कि वह करता है जो अच्छा है| वह अपने सह-मानवो को आंतरिक तथा अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर अच्छा जीवन तथा सम्मान प्रदान करवाता है|”


    • आदर्शवाद की प्रमुख विशेषताएं-

    1. यह भविष्य के ऐसे अंतर्राष्ट्रीय समाज की कल्पना करता है, जो शक्ति राजनीति, अनैतिकता और हिंसा से सर्वथा मुक्त हो|

    2. यह उपागम समाज की विकासात्मक पद्धति पर आधारित है|

    3. इस उपागम की मान्यता है कि वर्तमान समय में अंतरराष्ट्रीय संघर्षों का निवारण शिक्षा और सुधार के प्रयोग से हो सकता है|

    4. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में लोकतंत्र के प्रसार व अंतर्राष्ट्रीय विधि के द्वारा संघर्षों को समाप्त किया जा सकता है|

    5. मानव स्वभाव से अच्छा तथा परोपकारी है|

    6. मानव कल्याण तथा सभ्यता का विकास सभी व्यक्ति करना चाहते हैं|

    7. बुरा मानव स्वभाव, बुरे वातावरण तथा बुरी संस्थाओं की उपज होता है| 

    8. युद्ध अंतरराष्ट्रीय संबंधों की सबसे बुरी विशेषता है, जिसको समाप्त किया जा सकता है|

    9. यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति को नैतिकता से प्रेरित व संचालित मानता है|

    10. यह सिद्धांत अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं व कानून के विकास पर बल देता है, जिससे कि विश्व में शांति, सुरक्षा, समृद्धि और विकास हो|



    • आदर्शवाद की वर्तमान में 2 शाखाएं हैं

    1. शांति अनुसंधान दृष्टिकोण 

    2. विश्व व्यवस्था दृष्टिकोण 


    1. शांति-अनुसंधान दृष्टिकोण- यह दृष्टिकोण शांति संबंधी ज्ञान के संचय व अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सहयोग के तत्वों की खोज पर बल देता है| समर्थक- कौंडरसैट 

    2. विश्व व्यवस्था दृष्टिकोण- शांति व सहयोग संबंधी ज्ञान के संचय के साथ-साथ उसके क्रियान्वयन पर भी बल देता है|


    • आदर्शवादी दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय संबंधों की समस्याओं या पुराने ढर्रे की शक्ति राजनीति की दुनिया में अस्तित्व कायम रखने की समस्या के समाधान के लिए तीन उपाय सुझाता है-

    1. राष्ट्रों को अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार में नैतिक सिद्धांतों पर चलना चाहिए|

    2. सर्वाधिकारवादी दलो का अस्तित्व समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि आज तक संघर्ष लोकतंत्रीय और सर्वाधिकारवादी राज्यों के बीच हुए हैं|

    3. विश्व सरकार की स्थापना करके शक्ति राजनीति को समाप्त कर देना|


    • आदर्शवादी सिद्धांत के प्रमुख समर्थक- मार्गरेट रीड, अल्डस हक्सले, वुडरो विल्सन, डेविड हैल्ड, ग्रीन, कौंडरसैट, बट्रेंड रसैल, विलियम लैंड, रिचर्ड काबडन, नेहरू, टैगोर, महात्मा गांधी आदि|


    • संक्षेप में अंतरराष्ट्रीय संबंधों का आदर्शवादी दृष्टिकोण राजनीतिक नैतिकता, अंतर्राष्ट्रीय लोकमत, विश्व  संघवाद, विश्व सरकार के आदर्श पर चलता है| इसकी मान्यता है कि सबल अंतरराष्ट्रीय संस्था की स्थापना से विवादों का समाधान हो सकता है|


    • आदर्शवादी उपागम की आलोचना-

    1. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शक्ति संघर्ष की अवहेलना करता है|

    2. मोर्गेंथाऊ ने लिखा है कि “इस विश्व में परस्पर विरोधी स्वार्थ और संघर्ष इतने अधिक प्रबल है, कि इनके होते हुए नैतिक सिद्धांतों को पूर्ण रूप से क्रियान्वित नहीं किया जा सकता है|” 

    3. विश्व सरकार की स्थापना काल्पनिक है|

    4. यह अतिवादी एवं काल्पनिक है|

    5. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह विचारधारा विफल हो गयी|


    यथार्थवादी सिद्धांत/ उपागम-

    • चीनी सैन्य रणनीतिकार सुन झु (Sun Tzu) की कृति ‘Art Of War’ कौटिल्य की रचना ‘अर्थशास्त्र’, थूसिडाइस की रचना ‘History of The Peloponnesian war’ तथा  मैकियावली की रचना ‘The Prince’, हॉब्स की रचना ‘लेवियाथन’ में यथार्थवाद की झलक मिलती है|

    • थूसिडाइस एक प्रारंभिक यथार्थवादी विचारक माना जाता है|

    • मैकियावली “मनुष्य, शस्त्र, धन एवं रोटी युद्ध की शक्ति है, परंतु इन चारों में प्रथम दो अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य एवं शस्त्र, धन एवं रोटी प्राप्त कर सकते हैं, परंतु रोटी तथा धन, मनुष्य एवं शस्त्र प्राप्त नहीं कर सकते|”

    • यथार्थवादी दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष मानता है तथा राष्ट्रों के हितो के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शक्ति प्रयोग को स्वाभाविक मानता है| 

    • डॉ महेंद्र कुमार “यथार्थवादी दृष्टिकोण की मूल परिकल्पना यह है कि राष्ट्रों के मध्य किसी न किसी रूप में प्रतिद्वंदिता तथा कलह रहती ही है, जो मात्र दुर्घटना ही नहीं बल्कि स्वभाविक होती है|”

    • राजनीतिक यथार्थवाद विवेक को राजनीति का मार्गदर्शक मानता है| कोलिम्बस तथा वुल्फ “यथार्थवाद यह मानता है कि तर्कसंगत कार्य वह है जो अपने हित में किया जाता है तथा जिसका उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना होता है|”

    • यथार्थवादी दृष्टिकोण ‘राष्ट्रीय हित’ को सर्वाधिक महत्व देता है|

    • यह सिद्धांत राष्ट्रीय हित की पूर्ति के लिए शक्ति व संघर्ष पर बल देता है|

    • हेंस मोर्गेंथाऊ यथार्थवादी सिद्धांत के प्रमुख प्रवक्ता है| ये शिकागो विश्वविद्यालय में राजनीति विभाग में आचार्य थे| 

    • यथार्थवादी सिद्धांत को सर्वप्रथम वैज्ञानिक व सैद्धांतिक रूप मोर्गेंथाऊ ने अपनी पुस्तक ‘Politics Among Nation’ में दिया| 

    • डॉ महेंद्र कुमारमोर्गेंथाऊ केवल यथार्थवादी लेखक ही नहीं, बल्कि पहले सिद्धांतकारी है, जिन्होंने यथार्थवादी सांचे को वैज्ञानिक ढंग से विकसित किया|”

    • मोर्गेंथाऊ ने अपने मॉडल में शक्ति पर मुख्य बल दिया है, इसलिए इसे शक्तिवादी दृष्टिकोण भी कहा जाता है|

    • मोर्गेंथाऊ “उनका सिद्धांत यथार्थवादी इसलिए होता है, कि वह मानव स्वभाव को उसके यथार्थ में देखते हैं  जो इतिहास में अनादि काल से बार-बार परिलक्षित होता रहा है|”

    • यह उपागम आदर्शवादी उपागम की प्रतिक्रिया का परिणाम था, क्योंकि आदर्शवाद द्वितीय विश्व युद्ध को रोकने में असफल रहा| 


    यथार्थवाद के आधारभूत सिद्धांत-

    1. इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव स्वभाव से जंगली तथा स्वार्थी है|

    2. शक्ति की लालसा मानव प्रकृति का सबसे प्रमुख महत्वपूर्ण तत्व है|

    3. शक्ति के लिए मानवीय लालसा समाप्त नहीं की जा सकती है|

    4. शक्ति के लिए संघर्ष अंतरराष्ट्रीय राजनीति की अटल तथा अमर विशेषता है|

    5. प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हित के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए शक्ति का प्रयोग करता है तथा राष्ट्रीय हितों को सदैव शक्ति के रूप में परिभाषित करता है|

    6. आत्म परीक्षण वह नियम है, जो सभी राज्यों के सभी कार्यों पर सदैव लागू होता है|

    7. राष्ट्र सदैव शक्ति चाहते हैं, शक्ति का प्रदर्शन करते हैं तथा शक्ति का प्रयोग करते हैं|

    8. शांति की सुरक्षा केवल शक्ति प्रबंधन के साधनों जैसे शक्ति संतुलन, कूटनीति, संधियों, समझोतो आदि के द्वारा ही स्थापित हो सकती है| 


    यथार्थवाद की तीन मान्यताएं-

    1. राज्य नियंत्रणवाद या सांख्यवाद- यथार्थवादियों का मानना है कि राष्ट्र-राज्य अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मुख्य अभिनेता होते हैं|


    1. जीवन रक्षा या अस्तित्व- यथार्थवादियों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय प्रणाली अराजकता के द्वारा संचालित है, जिसका अर्थ है कि वहां कोई केंद्रीय सत्ता नहीं है, जो राष्ट्रीय-राज्यों में सामंजस्य रख सके, इसलिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति स्वार्थी राज्यों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष है|


    1. स्वयं सहायता- यथार्थवादियों का मानना है कि राज्य के अस्तित्व की गारंटी के लिए अन्य राज्यों की मदद पर भरोसा नहीं किया जा सकता है, इसलिए राज्य को अपनी सुरक्षा स्वयं के बल पर ही करनी चाहिए|


    यथार्थवादी सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं-

    1. यह मानव स्वभाव का निराशावादी दृष्टिकोण है| 

    2. यह राष्ट्रीय हित को सर्वाधिक महत्व देता है|

    3. यह राज्य केंद्रित विचारधारा है|

    4. यथार्थवाद में शक्ति, शक्ति संतुलन, राष्ट्रीय हित, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसी संकल्पनाओं पर बल दिया जाता है|

    5. यह सिद्धांत मानव स्वभाव को वास्तविक एवं यथार्थ रूप में देखता है|

    6. इसके अनुसार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की प्रकृति अराजकतावादी है|

    7. अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में प्रमुख सक्रिय कार्यकर्ता संप्रभु राज्य होते हैं|

    8. अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और संस्थाओं का, संप्रभु राज्य कर्ताओ पर कोई प्रभाव, नियंत्रण और वर्चस्व नहीं होता है|

    9. राष्ट्रवाद, प्रभावी और राज्यों के व्यवहार को संचालित करने वाली प्रमुख विचारधारा होती है|

    10. राज्य अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए संघर्षरत रहते हैं|

    11. राज्यों में दीर्घकालीन आपसी सहयोग अथवा मैत्री संभव नहीं है|

    12. राज्य का सर्वोपरि लक्ष्य अपनी सुरक्षा और अपने अस्तित्व की रक्षा है|


    यथार्थवादी दृष्टिकोण के प्रमुख समर्थक विद्वान-

    • मैक्स वेबर, फ्रेडरिक शुमैन, जार्ज केनन, राइनोल्ड नेबूर, डॉ हेनरी किसिंजर, E.H कार, जॉर्ज श्वाजनबर्गर, निकोलस स्पाइकमैन, एरिक कॉपमान, क्विंसी राइट, मार्टिन वाइट, हेंस मोर्गेंथाऊ, अर्नाल्ड वुल्फर्स तथा केन्निथ थाम्पसन|

    • मोर्गेंथाऊ के अनुसार शक्ति का अर्थ- “मनुष्यों का अन्य मनुष्यों के मस्तिष्क और क्रियाकलापों पर नियंत्रण|”


    • एरिक कॉपमान ने राज्य के तीन मुख्य लक्षण बताएं है-

    1. शक्ति संचय

    2. शक्ति प्रसार

    3. शक्ति प्रदर्शन


    • हैराल्ड लॉसवैल ने अपनी पुस्तक ‘Who Gets What When How’ मे कहा है कि “राजनीति का अध्ययन प्रभाव और प्रभावशाली का अध्ययन है|”

    • फ्रेडरिक वाटकिंस (पुस्तक-The State as a Concept of Political Science 1934) “राजनीति शास्त्र का संबंध केवल उन्हीं बातों से है, जिनके अध्ययन से शक्ति की समस्या को समझा जा सके|”


    यथार्थवादी दृष्टिकोण की आलोचना-

    1. केवल शक्ति और सत्ता ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों का निर्णायक तत्व नहीं है|

    2. शक्ति और सत्ता को परिभाषित करना अत्यंत कठिन है|

    3. यथार्थवादी का उद्देश्य केवल राष्ट्रीय शक्ति का प्रसार मात्र माना जाता था, इसलिए उनकी नीतियां शांति विरोधी समझी जाने लगी|

    4. रोजनेवर्ग “यथार्थवादी सिद्धांत एक प्रतिक्रियावादी विचारधारा है, जो अनुदार चिंतन एवं व्यवस्था को मजबूत करने की कोशिश करती है|”


    आदर्शवाद बनाम यथार्थवाद: समन्वयवादी दृष्टिकोण या उपागम-

    • अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन के लिए आदर्शवाद का दृष्टिकोण उपयुक्त है अथवा यथार्थवाद का यह एक विवादास्पद प्रश्न है|

    • राजनीतिक यथार्थवाद और राजनीतिक आदर्शवाद में मुख्य विरोध शक्ति की समस्या है|

    • दोनों में विरोध इस बात को लेकर है कि हमारी विदेश नीति और संबंधों का निर्णय राष्ट्रहित के आधार पर होना चाहिए या नैतिक सिद्धांतों के आधार पर?

    • आदर्शवाद उन आदर्शों पर खड़ा है जो दार्शनिक दृष्टि से पुष्ट है, जबकि यथार्थवाद शक्ति की प्रधानता मानकर चलता है|

    • यथार्थवाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शक्ति संघर्ष को महत्व देता है तथा साधनों व उद्देश्यों जैसे प्रश्नों के प्रति उदासीन है, वही आदर्शवाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों को शक्ति राजनीति, अनैतिकता और हिंसा से पूर्ण मुक्त करना चाहता है|

    • यथार्थवाद के आधार पर बनी नीतियां राष्ट्रवादी और शांति विरोधी होती हैं, जबकि आदर्शवाद के आधार पर बनी नीतियां अंतरराष्ट्रीय और शांति की पोषक होती हैं|

    • E H कार ने अपनी पुस्तक The Twenty Years Crisis 1919-1939 (1949) में दोनों विश्वयुद्धों के बीच के काल में आदर्शवाद के खोखलेपन का पर्दाफाश किया है|

    • क्विंसी राइट (Realism and Idealism International Politics) का कहना है कि “यथार्थवाद और आदर्शवाद दोनों शब्दों का अर्थ पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया जा सकता है, इसलिए उनका प्रयोग अल्पकालिक और दीर्घकालिक नीतियों का अंतर दिखाने के लिए किया जा सकता है|”

    • अर्थात यथार्थवाद उन अल्पकालीन राष्ट्रीय नीतियों का सूचक है, जिनका उद्देश्य तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति करना है तथा आदर्शवाद उन दीर्घकालीन नीतियों का सूचक है, जिनका उद्देश्य भविष्य में पूरे किए जाने वाले उद्देश्य की सिद्धि करना है|

    • अंतरराष्ट्रीय संबंधों में द्वंद और सहयोग दोनों के तत्व विद्यमान होते हैं| इसलिए आदर्शवादी के लिए द्वंद की वास्तविकता को पहचानना आवश्यक है तथा यथार्थवादियों को सहयोग का महत्व महसूस करना आवश्यक है|

    • E H कार ने अपनी पुस्तक The Twenty Years Crisis 1919-1939 (1949) में लिखा है कि “द्वंद की वास्तविकता को खुलकर स्वीकार किया जाए, इसे ‘दुष्ट आंदोलन कर्ता के दिमाग में बसा भ्रम’ कहकर न उड़ा दिया जाए|”

    • आदर्शवाद और यथार्थवाद के अतिवादी दृष्टिकोण के बीच का मार्ग समन्वयवादी दृष्टिकोण है| 

    • यह यथार्थवादियों के निराशावाद और आदर्शवादियों के आशावाद के बीच समन्वय का प्रयास है|

    • समन्वयवाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखता है|

    • समन्वयवाद के अनुसार अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विद्यार्थी को कोई पूर्वाग्रह न रखते हुए विश्व की राजनीतिक गतिविधियों का तटस्थ भाव से परीक्षण करके तथ्यों का संग्रहण व विश्लेषण करना चाहिए| 

    • जार्ज हर्ज ने इस दर्शन को यथार्थवादी उदारवाद कहा है|

    • यह दर्शन हमें यथार्थवाद और आदर्शवाद की त्रुटियों से बचाता है| 


    मोर्गेंथाऊ के अनुसार यथार्थवादी सिद्धांत का विश्लेषण: राजनीतिक यथार्थवाद-

    • मोर्गेंथाऊ परंपरावादी यथार्थवादी विचारक है| 

    • मोर्गेंथाऊ शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर थे|

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यथार्थवाद के मुख्य समर्थक मोर्गेंथाऊ रहे हैं|

    • कैनेथ थॉम्सन “अंतरराष्ट्रीय राजनीति का बहुत-सा साहित्य मोर्गेंथाऊ तथा उसके आलोचकों के मध्य स्पष्ट तथा अस्पष्ट संवाद मात्र ही है|”

    • गाजी एलगोसाबी “यथार्थवाद व मोर्गेंथाऊ पर्यायवाची है|”

    • गाजी एलगोसाबी की पुस्तक- The Theory of International Relation Hans Morgenthau and his Critics

    • मोर्गेंथाऊ “अंतरराष्ट्रीय राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष है और राष्ट्रहितों को शक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है| यथार्थवादी शक्ति व राष्ट्रहितों को ही विदेश नीति के उच्चतम मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैं| यथार्थवादियों के अनुसार शक्ति साधन और साध्य दोनों है|”

    • मोर्गेंथाऊ “वर्तमान परमाणु यूग शक्ति संतुलन का स्वर्णयुग है|”

    • मोर्गेंथाऊ “अंतरराष्ट्रीय राजनीति अन्य सभी राजनीतियो की तरह शक्ति के लिए संघर्ष है| अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अंतिम उद्देश्य चाहे कुछ भी हो, इसका तात्कालिक उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना है|”

    • मोर्गेंथाऊवाद के अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनीति की मुख्य कुंजी राष्ट्रहित है| 

    • मोर्गेंथाऊ का मत है कि “हमारा विश्व मानव प्रकृति का ही प्रतिबिंब है|” अर्थात इनके मत में राजनीति का स्वरूप मानव प्रकृति से उद्भूत होता है|

    • मोर्गेंथाऊ “यह संसार विरोधी हितों और उनके बीच होने वाले अविराम संघर्ष का रणक्षेत्र है|”

    • मोर्गेंथाऊ “मनुष्य की प्रभुत्व की लालसा पूर्ण रूप से तभी संतुष्ट होगी, जब संसार का प्रत्येक अन्य मनुष्य उसके आधिपत्य में आ जाएगा|”

    • मोर्गेंथाऊ “शक्ति ही वह वस्तु है, जिसके द्वारा एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर प्रभुत्व स्थापित करता है|” 


    • मोर्गेंथाऊ ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक यथार्थवाद के 6 मूल सिद्धांत बताए हैं, जो निम्न है-

    1. राजनीति पर प्रभाव डालने वाले सभी नियमों की जड़ मानव प्रकृति में होती है|

    2. राष्ट्रीय हितों को शक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है|

    3. राष्ट्रहित का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता है, क्योंकि राष्ट्रीय हित सदैव परिवर्तनीय होते हैं| 

    4. विवेक राजनीति का उच्चतम मूल्य है, तथा अमूर्त शुद्ध नैतिक नियम या सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत राजनीति पर लागू नहीं किए जा सकते हैं|

    5. राष्ट्रों के नैतिक मूल्य, सार्वभौमिक मूल्यों से पृथक होते हैं|

    6. राजनीतिक क्षेत्र आर्थिक, कानूनी, सांस्कृतिक, विचारात्मक क्षेत्रों से स्वायत्त व स्वतंत्र होता है| 


    • मोर्गेंथाऊ ने यथार्थवाद की 3 मूलभूत मान्यताएं बताई है-

    1. प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रहित की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है|

    2. प्रत्येक राष्ट्र का हित उसके भौगोलिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक प्रभाव के विस्तार में निहित है|

    3. प्रत्येक राष्ट्र अपनी शक्ति और प्रभाव का उपयोग अपने हितों की रक्षा के लिए करता है||


    • मोर्गेंथाऊ के अनुसार राष्ट्रीय हित के दो प्रकार-

    1. स्थिर हित/ स्थायी/ आवश्यक हित- भौगोलिक सुरक्षा

    2. अस्थिर/ अस्थायी/ अनित्य हित- आर्थिक, सामाजिक हित


    • मोर्गेंथाऊ के अनुसार विदेश नीति के तीन प्रकार-

    1. यथास्थितिवादी- संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति|

    2. साम्राज्यवादी- चीन

    3. प्रदर्शनकारी/ परिवर्तनवादी- कोरिया


    • मोर्गेंथाऊ के अनुसार शांति स्थापना की तीन विधियां

    1. कूटनीति

    2. शक्ति संतुलन

    3. अंतरराष्ट्रीय कानून, अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता व जनमत के बंधन


    • मोर्गेंथाऊ के अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दो प्रमुख उद्देश्य है-

    1. उन शक्तियों एवं प्रभावों की खोज करना तथा उन्हें समझना, जो अंतरराष्ट्रीय संबंधों को निर्धारित करते हैं|

    2. वे शक्तियों एवं प्रभाव किस प्रकार कार्य करते हैं तथा किस प्रकार अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक संबंधों एवं संस्थाओं पर प्रभाव डालते हैं, को समझना|


    मोर्गेंथाऊ के यथार्थवादी सिद्धांत की आलोचना-

    • बैनो वासरमैन “मोर्गेंथाऊ का सिद्धांत निरपेक्ष एवं अप्रमाणिक आवश्यकतावादी नियमों पर आधारित है|”

    • राबर्ट टकर तथा केनेथ वाल्ट्ज ने मोर्गेंथाऊ को यथार्थवादी नहीं माना है|

    • स्टेनली हॉफमैन “मोर्गेंथाऊ का यथार्थवाद शक्ति अद्वैतवाद (power monism) का विचार है|”

    • रिचर्ड स्नाइडर “मोर्गेंथाऊ की रचनाओं से हमें यह ठीक-ठाक पता नहीं चलता है, कि आधिपत्य से उनका मतलब अधीन लोगों की स्वतंत्रता की मांग स्वीकार कर लेने से है या कमजोर देशों की घरेलू और विदेश नीति पर नियंत्रण रखने से|”

    • केनेथ वाल्ट्ज “मोर्गेंथाऊ के सिद्धांत में निश्चयात्मकता और अनिश्चयात्मकता का खींचतान कर मिलान किया गया है|” 

    • हेराल्ड स्प्राउट मोर्गेंथाऊ के सिद्धांत को इसलिए अपूर्ण मानता है, कि इसमें राष्ट्रीय नीति के उद्देश्यों को कोई जगह नहीं दी गई है|

    • क्विंसी राइट मोर्गेंथाऊ के सिद्धांत को इसलिए अपूर्ण मानता है, कि इसमें राष्ट्रीय नीति पर प्रभाव डालने वाले तत्वों की कोई चर्चा नहीं की गई है|

    • मायर्स मैकडूगल ने मोर्गेंथाऊ के सिद्धांत को सीमित माना है, क्योंकि मोर्गेंथाऊ की कानून संबंधित धारणा अत्यधिक स्थिरात्मक है|


    परंपरागत यथार्थवाद व समकालीन यथार्थवाद-

    • परंपरागत यथार्थवाद 1950 एवं 1960 के दशकों की व्यवहारवादी क्रांति से पूर्व का परंपरागत उपागम है तथा समकालीन यथार्थवाद उत्तर-व्यवहारवादी उपागम है, यह एक नवीन सिद्धांत है|

    • परंपरागत यथार्थवाद प्राचीन यूनान से लेकर व्यवहारवादी क्रांति तक अपने दृष्टिकोण में आदर्शपरक मानपरक है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा एवं राज्य के अस्तित्व जैसे मूल्यों पर केंद्रित है|

    • समकालीन यथार्थवाद वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है, जो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तथा उसकी संरचना पर केंद्रित है|

    • समकालीन यथार्थवाद अपने उद्भव में व्यापक रूप से अमेरिकी है|

    • प्राचीन यूनानी इतिहासकार थूसिडाइस, पुनर्जागरण युग के इतालवी विचारक मेकियावेली, 17 वी सदी के अंग्रेज राजनीतिक एवं कानूनी दार्शनिक हॉब्स परंपरागत यथार्थवादी है| 


    • परंपरागत यथार्थवाद की प्रमुख मान्यताएं-

    1. मानवीय अवस्था, असुरक्षा एवं संघर्ष की अवस्था है|

    2. असुरक्षा की समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक रूप से विवेकशील निकाय अथवा एक तर्कपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए|

    3. इस मानवीय स्थिति से बचने का कोई अंतिम मार्ग नहीं है और यह मानव जीवन की एक स्थाई विशेषता है|


    समकालीन यथार्थवाद के प्रमुख सिद्धांत-


    रणनीतिक यथार्थवाद-

    • प्रतिपादक- थॉमस शैलिंग 

    • थॉमस शैलिंग की पुस्तक- A Strategy of Conflicts, 1960


    • विदेश नीति निर्माण प्रक्रिया रणनीतिक यथार्थवाद का केंद्रीय विषय है|

    • शैलिंग कूटनीति एवं विदेश नीति को एक तर्कपूर्ण यांत्रिक क्रिया के रूप में देखते हैं|

    • इस सिद्धांत के अनुसार राजनेताओं को यदि महत्वपूर्ण कूटनीतिक एवं सैनिक विषयो के मामलों में सफल होना है, तो उन्हें रणनीतिक रूप से सोचना होगा|

    • कूटनीति एक प्रकार की सौदेबाजी हैं और सौदेबाजी के अनेक रूप हो सकते हैं जैसे- भय, लोभ, धमकी  तथा यथापूर्व स्थिति के पूर्वानुमान|

    • भय या धमकी शैलिंग के विश्लेषण की केंद्रीय धारणा है|

    • शैलिंग के अनुसार विदेश नीति की प्रक्रिया तकनीकी रूप से यांत्रिक है और वह नैतिक चयन से मुक्त है| अर्थात क्या अच्छा है या बुरा है यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि एक नीति की सफलता के लिए क्या आवश्यक है यह बात महत्वपूर्ण है|

    • विदेश नीति में सशस्त्र सेना का प्रयोग रणनीतिक यथार्थवाद की प्रमुख विशेषता है|


    नव यथार्थवाद- 

    • नव यथार्थवाद का उदय 1980 के दशक में हुआ|

    • नव यथार्थवादी अंतरराष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बिंदु शक्ति के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना को मानते हैं| 

    • कैनेथ वाल्टज के शब्दों में “राज्य के ऊपर किसी अन्य सत्ता का न होना राज्यों के मध्य क्षमताओं के वितरण की व्यवस्था में राज्य की स्थिति का निर्धारण करता है| अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था स्वत: एक बल है, यह राज्य के व्यवहार को बनाए रखती है तथा राज्य उसे प्रतिबंधित नहीं कर सकते हैं| व्यक्तिगत राज्य की विशेषताएं नहीं वरन अंतर्राष्ट्रीय ढांचा उत्पादों का निर्धारण करता है|” 

    • नव यथार्थवाद को आधुनिक यथार्थवाद अथवा संरचनात्मक यथार्थवाद भी कहा जाता है|

    • नव यथार्थवाद के प्रवर्तक ‘कैनेथ वाल्टज’ है|

    • कैनेथ वाल्टज की पुस्तक

    • Man the State and War 1959

    • Theory of International Politics 1979


    • कैनेथ वाल्टज की इन दोनों पुस्तकों में में विश्व राजनीति से संबंधित विचारों का प्रतिपादन किया गया है| बाद में इन्हीं विचारों को समन्वित रूप से नव यथार्थवाद कहा गया| 

    • कैनेथ वाल्टज, मोर्गेंथाऊ की तरह मानव स्वभाव की कोई चर्चा नहीं करता है| वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की वैज्ञानिक व्याख्या देने का प्रयास करता है तथा उसका मानना है कि राज्य शक्ति के लिए निरंतर संघर्षरत रहते हुए शक्ति के कारको से नहीं वरन अंतरराष्ट्रीय संरचना से भी प्रभावित होते हैं|

    • कैनेथ वाल्टज का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कर्ता अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण होते हैं तथा कार्य, संरचना के द्वारा निर्धारित होते हैं|

    • कैनेथ वाल्टज के नव यथार्थवादी सिद्धांत में राष्ट्रों के मध्य विकेंद्रित अराजक व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय संबंधों की एक प्रमुख विशेषता है| अराजक व्यवस्था का मतलब यह है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संप्रभु राज्यों को नियंत्रित करने के लिए कोई उच्चतर शक्ति नहीं है|

    • कैनेथ वाल्टज का मानना है कि अराजक व्यवस्था में राष्ट्रों के मध्य शक्ति संतुलन स्थापित हो सकता है परंतु युद्ध की संभावना हमेशा विद्यमान रहती है| उनके विचार में बहु ध्रुवीय व्यवस्था की तुलना में द्विध्रुवीय व्यवस्था में शांति और स्थिरता अधिक होती है|

    • कैनेथ वाल्टज के अनुसार अंतरराष्ट्रीय संबंधों का सर्वोत्तम सिद्धांत नव यथार्थवाद व्यवस्था सिद्धांत है, जो व्यवस्था की संरचना, उसकी संप्रेषक इकाइयों तथा व्यवस्था की निरंतरता व परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करता है|

    • कैनेथ वाल्टज ने Globalization and American power in National interest spring 2000 पुस्तक में लिखा है कि “एक ध्रुवीयता सबसे खराब स्थिति है, क्योंकि ऐसी स्थिति में एक राष्ट्र विश्व के अन्य राष्ट्रों पर अपनी इच्छा और शर्तें आरोपित कर सकता है|” 


    • अन्य नव यथार्थवादी विचारक- जोजेफ ग्राइसो, बैरी बुझान, रिचर्ड लिटिल, चार्ल्स जॉन्स, रेमंड आरो, रॉबर्ट जर्विस, स्टीफेन वॉल्ट, जॉन मैशिमिर (मर्श हाइमर), रॉबर्ट गिलयिन, स्वेनली हॉफमैन|


    • जोजेफ ग्राइसो “राष्ट्र हमेशा अपने लाभ में ही रुचि नहीं रखते हैं ,बल्कि राष्ट्र इस बारे में भी रुचि रखते हैं कि यह लाभ किस प्रकार से अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में वितरित होते हैं|” 

    • बैरी बुझान, रिचर्ड लिटिल, चार्ल्स जॉन्स का मानना है कि उभरते हुए विश्व समाज में अराजकता पूर्ण अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की समीक्षा की जानी चाहिए| 


    • जहां परंपरागत यथार्थवाद राष्ट्र या राष्ट्रहित को केंद्र बिंदु मानता है, वहां नव यथार्थवाद अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था या अंतरराष्ट्रीय संरचना को केंद्र बिंदु मानता है|

    • नव यथार्थवाद राज्य के अध्ययन के बजाय, अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना पर अधिक बल देता है|

    • परंपरागत यथार्थवाद के अनुसार युद्ध का कारण मानव प्रकृति है, जो कि हिंसक व शक्तिलोलुप होती है जबकि नव यथार्थवाद के अनुसार युद्ध का कारण अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की अराजक संरचना है| 

    • नव यथार्थवाद के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा हेतु वैश्विक केंद्रीय सत्ता का होना आवश्यक है, इस केंद्रीय सत्ता के अभाव में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था अराजकतावादी है| 

    • नव यथार्थवादी राष्ट्र के वैयक्तिक हितों को ही नहीं वरन, अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में राष्ट्रों की सापेक्ष शक्ति को भी महत्व देते हैं|

    • नव यथार्थवादी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में राष्ट्रों के मध्य सहयोग की संभावनाओं को भी स्वीकार करते हैं| 


    नव यथार्थवाद के दो मॉडल- 

    1. आक्रामक नव यथार्थवाद- शक्ति और युद्ध अंतरराष्ट्रीय राजनीति का आधार| प्रतिपादक- मर्श हाइमर पुस्तक Tragedy of great power politics

    2. सुरक्षात्मक नव यथार्थवाद- इनके मत में युद्ध सदा ही समाज के तर्क विहीन वर्गों की गतिविधियों और उनकी सोच का परिणाम है| ये सहयोग पर बल देते हैं| प्रतिपादक- चालर्स ग्रेसर


    जॉन मर्श हाइमर का नव यथार्थवादी स्थायित्व का सिद्धांत (John Mearsheimer's Neorealist Stability Theory)-

    • जॉन मर्श हाइमर, कैनेथ वाल्टज के नव यथार्थवादी तर्क को आगे बढ़ाते हैं और उसे भूत एवं भविष्य दोनों पर लागू करते हैं|

    • जॉन मर्श हाइमर के अनुसार “अंतरराष्ट्रीय संबंधों के स्पष्टीकरण के लिए नव यथार्थवाद की निरंतर प्रासंगिकता बनी रही है तथा नव यथार्थवाद एक सामान्य सिद्धांत है, जो शीत युद्ध के अतिरिक्त अन्य ऐतिहासिक स्थितियों पर भी लागू होता है|”

    • जॉन मर्श हाइमर का मत है कि द्विध्रुवीय व्यवस्था में ज्यादा स्थायित्व होता है, जबकि बहुध्रुवीय व्यवस्था में विश्व अस्थिरता की ओर प्रवृत हो सकता है|


    सिद्धांत

    प्रतिपादक

    रणनीतिक यथार्थवादी

    थॉमस शैलिंग 

    तार्किक वैकल्पिक यथार्थवादी

    जोजेफ ग्रीचो

    नव परंपरावादी यथार्थवादी

    फरीद जकारिया (पुस्तक Wealth of power)



    आधुनिक उपागम/ व्यवहारवादी उपागम-

    • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद व्यवहारवादी क्रांति हुई|

    • यह उपागम अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन को अधिकाधिक वैज्ञानिक रूप देने का प्रयास है|

    • इस उपागम का मुख्य उद्देश्य व्यवस्थित और अनुभववादी सिद्धांतों का निर्माण करना है|

    • व्यवहारवादी उपागम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रतिमान निर्माण और अन्य तकनीकों पर बल देते हैं|

    • डेविड ट्रूमैन “व्यवहारवादी उपागम से अभिप्राय है, कि अनुसंधान क्रमबद्ध हो तथा अनुभवात्मक तरीके का प्रयोग किया जाय|”

    • किर्क पैट्रिक के अनुसार व्यवहारवाद चार तत्वों का मिश्रण है-

    1. विश्लेषण की इकाई के रूप में संस्थाओं की अपेक्षा व्यक्ति तथा समूह के आचरण का अध्ययन|

    2. सामाजिक विज्ञानों की एकता पर बल तथा अंत: अनुशासनात्मक अध्ययन पर बल|

    3. तथ्यों के पर्यवेक्षण हेतु सांख्यिकीय तथा परिमाणात्मक तकनीकों पर बल

    4. अंतरराष्ट्रीय राजनीति को एक व्यवस्थित आनुभविक सिद्धांत के रूप में परिभाषित करना|


    • आलोचकों के अनुसार व्यवहारवादी वैज्ञानिकों ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों को जो स्वरूप प्रदान किया उसने इसकी विषय सामग्री को पृष्ठभूमि में धकेल दिया| अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन पद्धति प्रधान और तकनीकी प्रधान बनता जा रहा है|

    • माइकल हैंस ने व्यवहारवादी उपागम को अति तथ्यवाद कहा है|


    परंपरावाद बनाम विज्ञानवाद या व्यवहारवाद- 

    • यथार्थवादियों और आदर्शवादियों की आपसी बहस दोनों विश्व युद्धों के बीच के काल में विद्वानों पर हावी रहा|

    • 1965 के बाद इसका स्थान एक नई बहस परंपरावाद बनाम विज्ञानवाद या व्यवहारवाद ने ले लिया|

    • मार्टन केप्लान ने इसको ‘नयी महान बहस’ कहा| यह नयी बहस विज्ञान और परंपरावाद के बीच है|

    • डेविड सिंगर ने इस बहस को ‘दो भिन्न बौद्धिक शैलियां या सांस्कृतियां’ कहा है|

    • इस बहस में एक ओर वैज्ञानिक या व्यवहारवादी है और दूसरी ओर परंपरावादी है|

    • इसका प्रमुख विवाद ये प्रश्न है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति  के अध्ययन का अधिक अच्छा तरीका दोनों में से कौन सा है|

    • विज्ञान और परंपरावाद का विवाद तो विषय वस्तु के विश्लेषण की रीति के बारे में है और यथार्थवाद तथा आदर्शवाद का विवाद अंतरराष्ट्रीय राजनीति की विषय वस्तु के बारे में है|

    • 1966 में World Politics में हेडले बुल के प्रकाशित लेख ‘International Theory: The Case For a Classical Approach’ से परंपरावाद और विज्ञान के विवाद का श्री गणेश हुआ|

    • EH कार, अल्फ्रेड जिमर्न, जार्ज श्वार्जनबर्गर, हेन्स मार्गेंथाऊ, मार्टिन वाइट, रेमो आरो आदि ने परंपरावादी दृष्टिकोण के आधार पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन किया|

    • हेड़ले बुल के अनुसार परंपरावादी दृष्टिकोण का आधार दर्शन, इतिहास और कानून है|

    • बुल के मत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण/ व्यवहारवादी दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं है|


    • हेड़ले बुल ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विरोध करने के 7 कारण  बताए हैं-

    • उसने ये कारण प्रतिज्ञप्तियों (Propositions) के रूप में पेश किए है|

    1. प्रथम प्रतिज्ञप्ति-

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति की विषय वस्तु का परीक्षण केवल आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से नहीं किया जा सकता है|

    • बुल के मत में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विद्यार्थी को प्रभुत्वसंपन्न राज्यों की संरचना और उद्देश्य, अंतर्राष्ट्रीय समाज में युद्ध के स्थान, बल प्रयोग के औचित्य या अनौचित्य और अंतर्राष्ट्रीय समाज में व्यक्ति का स्थान के अध्ययन पर बल देना चाहिए| आज के वैज्ञानिक सिद्धांतों में इन प्रश्नों पर विचार सीधे रूप में नहीं किया जाता है|


    1. दूसरी प्रतिज्ञप्ति

    • वैज्ञानिक पद्धति के समर्थकों ने बुनियादी प्रश्नों के बजाय तुच्छ बातों पर समय लगाया है, जिसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों के सिद्धांत के विकास में वास्तविक योगदान नहीं कर सकें|


    1. तीसरी प्रतिज्ञप्ति

    • बुल का मत है कि व्यवहारवादी सिद्धांतकार अपने अध्ययन के लिए आधार सामग्री संग्रह करने पर अधिक बल देते हैं| आधार सामग्री की अधिकता के कारण राज्य के व्यवहार के बारे में सामान्य नियम निकालना संभव नहीं है|


    1. चौथी प्रतिज्ञप्ति

    • वैज्ञानिक सिद्धांतकारो ने प्रतिमानो की प्रणाली लाकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में सिद्धांत रचना की संभावना को भारी हानि पहुंचायी है|


    1. पांचवी प्रतिज्ञप्ति

    • व्यवहारवाद के समर्थक वैज्ञानिक उपकरणों के इतने ज्यादा समर्थक हैं, कि उन्होंने इन्हें देवता बना डाला|


    1. छठी प्रतिज्ञप्ति

    • हैडले बुल का मत है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत में परिशुद्धता की बड़ी आवश्यकता है, लेकिन उनकी परिशुद्धता की दृष्टि वैज्ञानिक सिद्धांतकार की दृष्टि से भिन्न है|

    • उनकी वैज्ञानिकता का आधार एक सुसंबंध, परिशुद्ध, और व्यवस्थित ज्ञानराशि है, जो  आधुनिक विज्ञान की दार्शनिक बुनियादो से मेल खाती हैं|

     

    1. सातवीं प्रतिज्ञप्ति- 

    • वैज्ञानिक प्रणाली ने इतिहास व दर्शन से संबंध विच्छेद कर लिया है|

    • हेडले बुल का मत है कि इतिहास और दर्शन से ही आत्मलोचन के साधन प्राप्त हो सकते हैं|


    • मार्टन ए. केप्लान ने 1966 में ‘वर्ल्ड पॉलिटिक्स’ में प्रकाशित अपने लेख ‘The New Great Debate : Traditionalism Vs. Science in International Relation’ में परंपरावाद पर प्रहार किया है|

    • केप्लान ने लिखा है कि “परंपरावादियों की आलोचना पढ़ लेने के उपरांत मैं संतुष्ट हूं कि वे न तो नवीन  विधियों द्वारा प्रयुक्त अधिक परिष्कृत तकनीकों को और न ही उनके समर्थकों के साधारण कथनों को ही समझते हैं|”


    • केप्लान ने परंपरावादियों के निम्न विचारों का खंडन किया है-

    1. मानवीय उद्देश्यों को विज्ञान की प्रणाली से भिन्न प्रणालियों द्वारा ही समझा जा सकता है- 

    • परंपरावादियों के इस विचार पर केप्लान का कहना है कि “यह सच है कि मानवीय प्रयोजनों का वास्ता अभिप्रेरकों से है, पर इन अभिप्रेरकों की संपुष्टि लोगों के व्यवहार प्रतिमानो के सावधानी से प्रेक्षण और विश्लेषण से होती है|

    1. केप्लान परंपरावादियों के इस मत को अस्वीकार करते हैं कि परिशुद्धता और परिमापन वैज्ञानिक प्रणालियों से प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं|

    2. केप्लान का मत है कि प्रतिमानो की वास्तविकता समझने की भूल का आरोप व्यवहारवादियों की अपेक्षा परंपरावादियों पर ज्यादा लागू होता है|

    3. केप्लान के मत में परंपरावादी अंतर्राष्ट्रीय जगत में तथ्यों के महत्व की जान-बूझकर उपेक्षा करते हैं|

    4. केप्लान परंपरावादियों पर यह आरोप लगाते हैं कि रेमो आरो के अलावा अन्य किसी भी परंपरावादी लेखक के विचार पढ़ने से यह नहीं लगता कि दर्शन का कोई अच्छा और व्यवस्थित ज्ञान है|

    5. केप्लान के मत में परंपरावादियों ने ‘दर्शन’ शब्द का प्रयोग ‘अनुशासन रहित परिकल्पना’ के अर्थ में किया है|

    6. केप्लान के मत में बहुत से प्रश्न बुनियादी रूप से दार्शनिक होते हैं और उनके साथ व्यवस्था सिद्धांत का संबंध होता है, जो वैज्ञानिक प्रणाली का अभिन्न अंग है|


    • व्यवहारवादियों का प्रेरणास्रोत यह है कि कभी न कभी एक ऐसा ‘व्यापक या सामान्य सिद्धांत’ बना सकेंगे, जो मनुष्य के सारे व्यवहार की व्याख्या कर सकेगा|

    • माइकेल बैंक्स (रचना- Two meaning of Theory in the Study of International Relation 1966) के शब्दों में यह सिद्धांत अंतराविज्ञानीय (Interdisciplinary) न होकर गैर विज्ञानीय (Non- Disciplinary) होगा|

    • लेकिन परंपरावादियों का कहना है कि व्यवहारवादी विचारक मानवीय व्यवहार का व्यापक सिद्धांत बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह कभी कामयाब नहीं हो सकती है|

    • रिचर्ड ब्रोडी “व्यवहारवादी आंदोलन का मुख्य संदेश यह है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषय वस्तु की जटिलता के कारण अंतरराष्ट्रीय राजनीति के एक नये विज्ञान का विकास आवश्यक हो गया है, जिसका आधार श्रम का विभाजन है|”


    • जॉन बर्टन (रचना- System States Diplomacy and Rules 1968) के अनुसार-

    1. व्यवहारवाद अंतरराष्ट्रीय समाज का संक्रमणात्मक स्वरूप पहचानने और उसके अनुसार हमारी अध्ययन प्रणाली की दिशा मोड़ने की आवश्यकता पर बल देता है|

    2. व्यवहारवादी सिद्धांत परंपरागत विचार पद्धति का विकल्प है|

    3. समाज बल प्रयोग द्वारा जीवित नहीं रह सकता है| सत्ता एवं शक्ति के प्रयोग की वैधता के लिए लोगों के हितों की व्यापक पूर्ति की जाय|

    4. अनुभव के कारण ही व्यवहारवादी दृष्टिकोण का समकालीन स्थिति से सीधा संबंध जुड़ गया|


    उत्तर व्यवहारवादी क्रांति

    • हैडले बुल ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उत्तर व्यवहारवादी सिद्धांत की तीन प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है

    1. अध्ययन पद्धति की ओर सुझाव एवं आग्रह में कमी आयी है| अब तात्विक तथा विषय सामग्री को पुन: प्राथमिकता दी जाने लगी है|

    2. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांतों में आदर्शों तथा मूल्यों के महत्व की पुनर्स्थापना की जाने लगी है|

    3. उत्तर व्यवहारवादी, अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांत में न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था के निर्माण पर बल देने लगे हैं|


    प्रमुख आधुनिक उपागम-


    • संतुलन और व्यवस्था सिद्धांत

    • अधिमान्य व्यवहार के सभी सिद्धांत (जैसे- खेल सिद्धांत, सौदेबाजी का सिद्धांत, निर्णय निर्माण का सिद्धांत, संचार का सिद्धांत) आंशिक सिद्धांत है, अर्थात इनसे कोई भी ऐसा केंद्रीय और एकीकारक संप्रत्यय प्राप्त नहीं होता है, जिसके चारों ओर अंतरराष्ट्रीय राजनीति की सभी घटनाओं को बांधा जा सके|

    • वही संतुलन और व्यवस्था दो ऐसे संप्रत्यय हैं, जो अंतरराष्ट्रीय राजनीति के संपूर्ण क्षेत्र को समेटने के लिए प्रयोग में लाए गए है|


    संतुलन सिद्धांत-

    अर्थ एवं परिभाषाएं-

    • क्विंसी राइट (रचना-The study of International Relation) “संतुलन किसी एक सत्ता या सत्ताओ के समूह पर या उनके अंदर कार्य कर रहे बलों का वह आपसी संबंध है, जिससे संपूर्ण  सत्ता या सत्ताओ के समूह में कुछ मात्रा में एक प्रकार का स्थायित्व दिखाई देता है|”


    • संतुलन संप्रत्य के दो अर्थ-

    1. वैधानिक संतुलन- इसका तात्पर्य विभिन्न शक्ति समूहों में उपस्थित पारस्परिक संयम या कानून द्वारा संतुलन

    2. सामान्य संतुलन- यह संतुलन संप्रत्यय के विश्लेषण के तरीकों को इंगित करता है| इसमें दो बातें निहित है-

    1. राजनीतिक व्यवस्था के सभी अवयव संक्रिया की दृष्टि से परस्पर आश्रित होते हैं|

    2. ये अवयव क्रिया और प्रतिक्रिया के रूप में परस्पर संबंधित होते हैं, जिससे अंत में स्थायित्व की सिद्धि होती है|


    • H L चाइल्ड “सारे समूह, चाहे वे अपना उद्देश्य जानते हो या नहीं जानते हो, राजनीतिक संतुलन का वर्तमान रूप निर्धारित करने में भाग लेते हैं|”

    • कार्ल फ्रेडरिक “ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो शक्तियों के निर्णय से अनेक विरोधी समूहों और दावों के बीच संतुलन कायम रखने में सुविधा हुई है|”

    • पी हैरिंगसंघर्षरत बलों की परिवर्ती विशेषताओं की परस्पर क्रिया से तत्कालीन उत्पन्न वस्तु   समस्थिति है और लोकनीति परस्पर विरोधी हितो के बीच समायोजन का परिणाम है|”

    • हेराल्ड लासवेल ने शक्ति और सुरक्षा की समस्याओं के लिए संतुलन प्रक्रम के विचार का उपयोग किया है|

    • टालकॉट पार्सन्स ने संतुलन संप्रत्यय को एक परस्पर आश्रित समाज व्यवस्था में सामाजिक नियंत्रण की कई प्रकार की युक्तियों द्वारा कायम की गई परिवर्तन की अवस्था या व्यवस्थित प्रक्रम बताया है|”


    अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संतुलन संप्रत्य-

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संतुलन सिद्धांत का प्रतिपादन करने का प्रयास जार्ज लिस्का व मार्टन केप्लान ने किया|

    • जार्ज लिस्का की रचना- International Equilibrium: Theoretical Essay on the Politics and Organisation of security 1957

    • मार्टन केप्लान की रचना- System and Process in International Politics 1957

    • लिस्का ने संतुलन संप्रत्यय अर्थशास्त्र से लिया है|

    • लिस्का के अनुसार कुछ व्यक्ति, सामाजिक समूह, अर्थव्यवस्था और संस्कृतियों का अंतरराष्ट्रीय संतुलन में योगदान रहा है|

    • लिस्का संतुलन की कई शाखा-प्रशाखाओ में विश्वास रखता है और बहुल संतुलन की संज्ञा देता है| बहुल संतुलन में राजनीतिक, सैनिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि पहलू आ जाते हैं|

    • लिस्का “संतुलन की नीति मानवीय मूल्यों को सुरक्षित करने के लिए एक वांछनीय नीति है|”

    • लिस्का के मत में संतुलन सिद्धांत में यह मान्यता है कि राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और भूमंडलीय (वैश्विक) स्तर पर एक कामचलाऊ संगठन की आवश्यकता है, जिसके द्वारा संस्थात्मक, सैनिक, राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक कारकों तथा स्थायित्व के पक्ष-विपक्ष बलों को समझ-बूझकर संतुलित किया जाए|


    मार्टीन कैप्लान व संतुलन संप्रत्यय-

    • मार्टीन कैप्लान ने अंतरराष्ट्रीय प्रणाली के 6 प्रकार या प्रतिमानो का उल्लेख किया है|

    • मार्टीन कैप्लान ने इन प्रणालियों के कुछ नियम बताए हैं, जिनका पालन उन प्रणालियों में निर्णयकर्ता को करना चाहिए|

    • मार्टीन कैप्लान के मत में संघटक प्रकर्मो की प्रवृत्ति संतुलनविघटन प्रकर्मो की प्रवृत्ति असंतुलन पैदा करने की होती है|

    • चार्ल्स किंडलबर्गर (रचना-Scientific International politics 1958) के मत में केप्लान का प्रतिमान केवल आंशिक संतुलन का है|

    • लिस्का सामान्य संतुलन तथा केप्लान वैधानिक संतुलन के विचार के निकट है|

    • डेविड ईस्टन संतुलन को ‘एक तरह की विश्राम की अवस्था’ मानता है|

    • जार्ज कैटलिन संतुलन को एक प्रक्रम नहीं मानते, बल्कि एक असली दशा मानते हैं|


    चल संतुलन-

    • चार्ल्स मेरियम ने चल संतुलन (मूविंग इक़्विलिब्रियम) का विचार पेश किया है| अर्थात संतुलन कभी स्थायी नहीं रहता है, परिवर्तित होता रहता है, क्योंकि प्रौद्योगिकी, जनसंख्या, साधन जैसी दशाएं बदलती रहती है|


    • J A शुम्पीटर “संतुलनकारी प्रक्रम सदा संतुलन के आसपास घूमता रहता है|”

    • स्टेनले हॉपमैन “संतुलन सिद्धांत माप योग्य चरो द्वारा ही समझा जा सकता है, कि क्योंकि मानव व्यवहार यांत्रिकवादी नियमों से तय होता है|”


    व्यवस्था सिद्धांत-  

    व्यवस्था की परिभाषाएं-

    • बर्टन लेंफी “यह अंत: क्रियाशील तत्वों का समूह है|”

    • हाल व फैग़न “यह वस्तुओं का समुच्चय और वस्तुओं तथा उनके गुणों के आपसी संबंधों का इकट्ठा नाम है|”

    • कोलिन चेरी “व्यवस्था एक समष्टि है, जिसमें बहुत से हिस्से होते हैं|”

    • इस प्रकार व्यवस्था किन्ही वस्तुओं या अवयवों का वह समूह है, जिसमें वस्तुओं या अवयवों का एक-दूसरे के साथ कोई संरचनात्मक संबंध होता है|

    • रोबट जे लीबर “व्यवस्था विश्लेषण, व्यवस्थित विश्लेषण के लिए यथार्थ में तकनीकों की एक समष्टि है, जो आंकड़ों के रखरखाव को आसान बनाती है, पर इसका कोई आदर्श सैद्धांतिक लक्ष्य नहीं है| दूसरी ओर व्यवस्था सिद्धांत में अवधारणाओं का एक एकीकृत समूह, प्रकल्पना और प्रस्ताव सम्मिलित हैं, जो सैद्धांतिक रूप से विस्तृत पैमाने पर लागू किए जा सकते हैं|”


    अंतरराष्ट्रीय राजनीति में व्यवस्था सिद्धांत-


    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ‘व्यवस्था सिद्धांत’ का आरंभ W. थॉमसन ने किया, पर इसका वास्तविक विकास मार्टीन कैप्लान ने किया तथा इसे लोकप्रिय बनाया|

    • इसलिए कैप्लान को व्यवस्था सिद्धांत का जनक कहते हैं|

    • जेम्स रोजेनाऊ “अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों के अध्ययन में जो नवीनतम प्रवृत्तियां विकसित हो रही है, उनमें से संभवत: सबसे अधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय प्रवृत्ति अंतरराष्ट्रीय जगत को व्यवस्था मानकर चलने की है|”


    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में व्यवस्था शब्द तीन अर्थो में प्रयोग होता है- 

    1. प्रथम अर्थ-

    • व्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं का ऐसा विन्यास है, जिसमें परस्पर क्रियाएं स्पष्ट रूप से पहचानी जा सकती है|

    • यह अंतरराष्ट्रीय वास्तविकता को प्रकट करता है|

    • जेम्स रेजीनो ने इसी अर्थ में व्यवस्था सिद्धांत का प्रयोग करते हुए इसे वर्णन का तरीका माना है|

    1. दूसरा अर्थ-

    • व्यवस्था विशेष विन्यास है, जिसमें स्वयं विन्यास का स्वरूप ही राज्यों के व्यवहार की व्याख्या करने में सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है|

    • यह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की व्याख्या करता है|

    • केनेथ, बोल्डिंग और चार्ल्स मैक्लीलैंड ने इसी अर्थ में व्यवस्था सिद्धांत का प्रयोग करते हुए अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के मुख्य चरो की व्याख्या की है|


    1. तीसरा अर्थ-

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में विशेष प्रकार की प्रविधियों के प्रयोग को व्यवस्था कहते हैं|

    • यह अंतरराष्ट्रीय वास्तविकता का विश्लेषण करता है|

    • जार्ज लिस्का और आर्थर बंर्स ने ऐसे ही विशिष्ट दृष्टिकोण विकसित कर उन्हें अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लागू किया|


    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति के व्यवस्था विश्लेषण की विशेषताएं-

    1. व्यवस्था विश्लेषण में अंतरराष्ट्रीय जगत को एक सावयव या जैविक इकाई माना जाता है|

    2. अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था एक क्रियाशील गतिमान अवस्था है और विशिष्ट काल में उसका विशिष्ट रूप रहता है|

    3. अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था उन स्वतंत्र राजनीतिक इकाइयों का संग्रह है, जो कुछ नियमित रीति से पारस्परिक क्रिया करती है|

    4. व्यवस्था विश्लेषण दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के भूत और वर्तमान से संबंधित है|


    मार्टन ए. कैप्लान का व्यवस्था सिद्धांत-

    • कैप्लान के व्यवस्था सिद्धांत की प्रमुख मान्यताएं निम्न है-

    1. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अन्तनिर्भता एवं क्रमबद्धता है|

    2. वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को राजनीतिक व्यवस्था नहीं मानता है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में निर्णयकर्ता की भूमिका अपने राष्ट्रीय हित के अधीन रहती है|

    3. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दो कर्ता है -

    1. राष्ट्रीय कर्ता, जैसे- राष्ट्र

    2. अधिराष्ट्रीय कर्ता, जैसे UNO, NAM, EU, NATO आदि|

    1. मुख्य कर्ता राज्य है और अंतरराष्ट्रीय कार्यवाही इन्हीं के मध्य होती है|

    2. अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने के लिए अंतरराष्ट्रीय परिवर्तनों के साथ राष्ट्र राज्य के नेताओं के व्यवहार का विश्लेषण करना चाहिए|


    • मार्टन कैप्लान ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति के 6 प्रतिमान बताएं है-

    1. शक्ति संतुलन व्यवस्था (Balance of Power System)

    2. शिथिल द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था (Loose Bipolar System)

    3. कठोर द्वि- ध्रुवीय व्यवस्था (Tight Bipolar System)

    4. विश्वव्यापी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था (Universal International System)

    5. सोपानीय अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था (Hierarchical in International System)

    6. इकाई वीटो सिस्टम (Unit Veto System)


    1. शक्ति संतुलन व्यवस्था-

    • यह शक्ति संतुलन की व्यवस्था है, जो 18वीं-19वीं सदी में पश्चिमी जगत में मौजूद थी|

    •  इसमें कार्यकर्ता, अंतर्राष्ट्रीय कार्यकर्ता भी है और एक उपवर्ग के रूप में राष्ट्रीय कार्यकर्ता भी है|

    • इसमें दो प्रकार के कार्यकर्ता होते हैं-

    1. आवश्यक कार्यकर्ता

    • इसमें 5 से 6 शक्तियों के बीच शक्ति संतुलन होता है, जिन्हें आवश्यक कर्ता कहा जाता है|

    • जैसे- अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन आदि|


    1. अन्य लघु कार्यकर्ता


    • इस प्रतिमान के 6 मूल नियम है-

    1. प्रत्येक आवश्यक कार्यकर्ताओं को बातचीत के माध्यम से अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए, युद्ध से नहीं|

    2. प्रत्येक राष्ट्रीय कार्यकर्ता का प्रथम दायित्व अपने राष्ट्रीय हित की सिद्धि करना है, इसलिए युद्ध का जोखिम उठाकर भी एक राष्ट्र को राष्ट्रीय हित की सिद्धि के लिए अपनी सामर्थ्य बढ़ानी चाहिए|

    3. व्यवस्था से किसी भी कार्यकर्ता को निकाला नहीं जाता है| विरोधी के समाप्त होने से पहले ही कार्यकर्ता युद्ध रोक देते हैं|

    4. राष्ट्रीय कार्यकर्ता को कार्यकर्ताओं के ऐसे समूह का विरोध करना चाहिए, जो  बाकि की व्यवस्था में प्रभुत्व या आधिपत्य की स्थिति ग्रहण कर लेता है|

    5. राष्ट्रीय कार्यकर्ता, अन्य कार्यकर्ताओं को अधिराष्ट्रीय सिद्धांतों का अनुसरण करने से रोके|

    6. पराजित या अवरुद्ध आवश्यक राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को व्यवस्था में फिर से प्रवेश देना चाहिए|


    • प्रथम विश्व युद्ध से पहले यह व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी तथा इसकी जगह द्विध्रुवीय  व्यवस्था आयी| इसके दो रूप हैं-

    1. शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था

    2. दृढ़ द्विध्रुवीय  व्यवस्था


    1. शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था- 

    • इस अवस्था में विश्व दो गुटों में बंट जाता है तथा अंतरराष्ट्रीय संगठन शांति, सहयोग व संतुलन बनाए रखते हैं|

     

    1. कठोर द्विध्रुवीय व्यवस्था-

    • शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था कठोर द्विध्रुवीय में बदल जाता है| इसमें विश्व दो गुटों में तो बटा रहता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भूमिका समाप्त हो जाती है|


    1. विश्वव्यापी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था-

    • इसमें सभी राष्ट्र एक संघात्मक प्रणाली में संगठित हो जाते हैं|

    • एक सार्वभौम कार्यकर्ता अंतरराष्ट्रीय संगठन द्वारा विश्व, एक संघात्मक विश्व राज्य में बदल जाता है|

    • सार्वभौम कार्यकर्ता अंतरराष्ट्रीय संगठन इतना शक्तिशाली होता है, कि वह युद्ध रोक सकता है तथा शांति व संतुलन बनाए रख सकता है| जैसे- UNO 


    1. सोपानीय अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था-

    • इसमें एक महाशक्ति सार्वभौमिक हो जाती है, जो विजय या संधि के द्वारा सभी राष्ट्रों पर नियंत्रण स्थापित कर लेती है| 

    • यह मॉडल दो प्रकार का हो सकता है-

    1. निर्देशात्मक व्यवस्था- यह व्यवस्था निरंकुश राज्य द्वारा विश्व विजय के फलस्वरुप आती है|

    2. अनिर्देशात्मक व्यवस्था- यह व्यवस्था प्रजातांत्रिक देशों में आती है, इस व्यवस्था में काफी स्थायित्व रहता है|


    1. इकाई वीटो व्यवस्था- 

    • इसमें बहुध्रुवीय धारणा शामिल होती है| 

    • इसमें सभी राष्ट्रों की शक्तियां समान होती हैं| प्रत्येक राष्ट्र परमाणु शस्त्र संपन्न होता है| प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करने की शक्ति रखता है तथा प्रत्येक राष्ट्र कर्ता के पास वीटो का अधिकार आ जाता है|


    • 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद केप्लान ने अपने छ: सूत्रीय प्रतिमान को 4 सूत्रीय प्रतिमान में बदल दिया|

    1. अतिशिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था

    2. देदांत व्यवस्था

    3. अस्थिर ब्लॉक व्यवस्था- गैर गुटीय देशों का एक से दूसरे गुट में जाना|

    4. अपर्याप्त परमाणु प्रसार व्यवस्था 



    अधिमान्य व्यवहार के सिद्धांत-

    • इनको आंशिक सिद्धांत भी कहा जाता है|

    • R हैंडी व P कुर्ट्ज़ ने इन्हें अधिमान्य व्यवहार के सिद्धांत कहा है|

    • खेल सिद्धांत, सौदेबाजी का सिद्धांत, निर्णय निर्माण का सिद्धांत, संप्रेषण का सिद्धांत आदि अधिमान्य व्यवहार के सिद्धांत के अंतर्गत आते हैं|

    • अधिमान्य व्यवहार का अर्थ ऐसा व्यवहार है, जो परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सबसे अच्छा और तर्कसंगत व्यवहार है|

    • खेल सिद्धांत-

    • खेल सिद्धांत मूलत: गणित व अर्थशास्त्र में विकसित किया गया था|

    • इस सिद्धांत की शुरुआत 1970 में जर्मन गणितज्ञ लीवनिटज ने की थी|

    • इस सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या जॉन वॉन न्यूमैन ने एक गणितीय प्रमेय हल करते समय की थी|

    • खेल सिद्धांत को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में लाने का श्रेय मार्टीन शुबीक, आस्कर मार्गेस्टर्न, कार्ल डवाइच तथा शेलिंग आदि का है|

    • मार्टीन शुबीक की रचना- Game Theory and Related Approach to Social Behaviour, 1964

    • आस्कर मार्गेस्टर्न की रचना- Theory of Games and Economic Behaviour, 1964

    • कार्ल डवाइच की रचना- Game Theory and Politics, 1964

    • इस सिद्धांत को लोकप्रिय बनाने का श्रेय वॉन न्यूमैन व आस्कर मार्गेस्टर्न को दिया जाता है, जब 1944 में इन्होंने इसे दो खिलाड़ियों वाले खेलों पर लागू किया| 

    • यह सिद्धांत, खेल के नियम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में लागू करता है| जिस प्रकार खेल में दो या दो से अधिक प्रतिभागी एक दूसरे को हराने के लिए विभिन्न प्रकार की चाल चलते हैं| उसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न राष्ट्र अपने विरोधी को हराने के लिए अनेक चालें चलते हैं| 

    • इसमें प्रत्येक खिलाड़ी (राष्ट्र) अपने लाभ को अधिकतम करना चाहता है तथा हानियों को न्यूनतम करना चाहता है| इसलिए खेल सिद्धांत को अधिकतम-न्यूनतम सिद्धांत (Maxi-mini Principle) भी कहते हैं|

    • यह सिद्धांत कई विकल्पों में से एक उत्तम विकल्प का चयन करने की पद्धति है|

    • चार्ल्सवर्थ “खेल सिद्धांत का आधार यह है, कि यह राजनीतिक प्रक्रिया में शतरंज के खेल जैसी टकराहट है या दो व्यापारियों या दलालों के बीच मुकाबला है या प्रतिद्वंदी राजनीतिक प्रत्याशियों के बीच पैंतरेबाजी या विरोधी राजनयिकों के बीच प्रति कार्यवाही है|” 


    खेल सिद्धांत के दो मुख्य प्रयोजन-

    1. उन सिद्धांतों का निरूपण करना, जो यह बता सके कि, किस प्रकार की सामाजिक स्थितियों में, किस प्रकार का व्यवहार तर्कसंगत माना जा सकता है|

    2. सिद्धांतों के आधार पर उस व्यवहार की सामान्य विशेषताओं का पता लगाना|


    खेल सिद्धांत के संप्रत्यय-

    • खेल सिद्धांत में पांच महत्वपूर्ण संप्रत्यय हैं-

    1. रणनीतिक (Strategy) संप्रत्यय- खेल सिद्धांत में दूसरे पक्ष की संभावित चालो को देख कर, चली जाने वाली चाले पहले ही तय कर ली जाती है|

    2. तर्कसंगत व्यवहार (Rational behaviour) का संप्रत्यय- इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक खिलाड़ी ऐसी रणनीति चुने, जिससे विजय के अधिकतम अवसर प्राप्त हो|

    3. क्षतिपूर्ति (Pay-off) का संप्रत्य- इसका तात्पर्य है कि इस बात का ध्यान रखना कि अंत में खेल का मूल्य कितना है|

    4. नियम का संप्रत्यय- इसके अनुसार खेल खेला जाता है|

    5. सूचना का संप्रत्यय- खेल में सभी विकल्पों की जानकारी खिलाड़ी के पास होनी चाहिए|


    खेल प्रतिमान-

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में खेल सिद्धांत के 4 मॉडल है-

    1. Zero- sum- two person game

    2. Non- zero- sum two person game

    3. Zero- sum n- person game

    4. Non- zero- sum n- person game


    1. Zero- sum- two person game-

    • इसमें केवल 2 खिलाड़ी होते हैं|

    • इसमें एक खिलाड़ी का लाभ, दूसरे की हानि के बराबर होता है|

    • दोनों खिलाड़ियों के खेल का परिणाम शून्य होता है|

    • यह खेल पूर्ण रूप से विरोधी दलों का खेल है तथा इसका स्वरूप प्रतिद्वंदी होता है|

    • इसमें संचार, वाद-विवाद, सौदेबाजी, लाभ तथा बचत की कोई संभावना नहीं रहती है|

    1. Non- zero- sum two person game-

    • इसमें दो या अधिक खिलाड़ी होते हैं|

    • इसमें सभी खिलाड़ियों को लाभ मिल सकता है|

    • एक के लाभ के बराबर दूसरे की हानि इसमें नहीं होती है|

    • इस खेल में क्षतिपूर्ति बाटी जा सकने वाली हो तथा बंटवारे के कुछ नियम हो|


    1. Zero- sum n- person game-

    • इसमें दो या दो से अधिक खिलाड़ी होते हैं|

    • इसमें लाभ व क्षतिपूर्ति में सब भागीदार होते हैं|


    1. Non- zero- sum n- person game-

    • इसमें तीन या तीन से अधिक खिलाड़ी होते हैं|

    • इसमें दो या दो से अधिक खिलाड़ी अपने संसाधनों को समेकित करते हुए सामूहिक निर्णय ले सकते हैं|

    • गठबंधनो का निर्माण किया जा सकता है|

    • गठबंधन के भीतर गठबंधन की स्थिति पैदा हो सकती है अर्थात गठबंधन का सदस्य  विपक्षी से कोई अलग से समझौता कर सकता है| 


    खेल-सिद्धांत की विशेषताएं-

    1. खेल रणनीतिक होता है|

    2. रणनीति का निर्माण हमेशा सूचना पर आधारित होता है|

    3. खेल में सदैव भुगतान करना होता है|

    4. खेल में कुछ नियम होते हैं|

    5. कोई भी खेल बिना प्रतिपक्षी के संभव नहीं है|


    खेल सिद्धांत की कमियां या आलोचना-

    1. खेल सिद्धांत को केवल शून्य योग खेलों के मामलों पर ही कुछ सफलता से लागू किया जा सकता है, पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ऐसी स्थितियां बहुत कम होती हैं|

    2. टॉमस शैलिंग ने अपनी पुस्तक द स्ट्रेटजी ऑफ कनफ्लिक्ट में खेल सिद्धांत की शून्य योग रूप में मान्यता पर आपत्ति की है|

    3. टॉमस शैलिंग के अनुसार खेल सिद्धांत का सीमित युद्ध, युद्ध निवारण, आकस्मिक आक्रमणों, परमाणु आतंक और व्यापक प्रतिशोध जैसी समस्याओं के समाधान में कोई खास योगदान नहीं रहा|

    4. शैलिंग के मत में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संघर्ष की स्थिति के साथ, सहयोग की भी जरूरत पड़ती है तथा सहयोग की स्थिति में सौदेबाजी आवश्यक हो जाती है|

    5. शैलिंग के मत में सहयोग और समंजन, प्रतिबद्धताओं या धमकी जैसे बुनियादी अभिप्रेरकों से ही किए जाते हैं शैलिंग के संप्रत्यय को मिश्र अभिप्रेरक खेल कहा जाता है|


    मिश्र अभिप्रेरक खेल-

    • प्रतिपादक- टॉमस शैलिंग

    • इसको अशून्य जोड़ खेल भी कहते हैं

    • यह मनोवैज्ञानिक और समाजवैज्ञानिक दोनों दृष्टिकोण से संपन्न है|

    • यह विश्लेषण सीमित युद्ध निवारण और शस्त्र नियंत्रण की समस्याओं के समाधान के लिए है| 

    • इसमें सहयोग और समंजन पर बल दिया जाता है| 

    • इस खेल में खिलाड़ी साथ-साथ जीत सकते हैं वह साथ-साथ पराजित भी हो सकते हैं| अतः एक की विजय दूसरे की पराजय बिल्कुल नहीं है|


    Note- टॉमस शैलिंग ने मिश्रित अभिप्रेरणा के खेल को सौदेबाजी खेल की संज्ञा दी है|


    खेल सिद्धांत के कुछ अन्य प्रकार-

    • जीरो सम गेम से केवल युद्ध की स्थितियों का ही विश्लेषण किया जा सकता है, पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सहयोग भी होता है| इस कारण बहुत से विद्वानों के अनुसार खेल सिद्धांत के कुछ अन्य प्रतिमान भी हो सकते हैं| जैसे- 


    1. सतत जोड़ खेल- इस खेल में किसी भी पक्ष का लाभ किसी दूसरे की हानि की कीमत पर नहीं मिलता है| यह पूर्णतया सहयोग पर आधारित खेल है|


    1. अशून्य जोड़ खेल

    नॉन जीरो सम गेम के दो मॉडल है-


    1. चिकन गेम मॉडल

    • इसका प्रयोग अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संकटपूर्ण परिस्थितियों में किया जाता है| 

    • इस खेल में खिलाड़ी का उद्देश्य अपने हितों को अधिकतम करना होता है|

    • इसकी मुख्य विशेषता यह है, कि यदि कोई राष्ट्र अपने प्रतिद्वंदी राष्ट्र  के इरादों को पूरी तरह नहीं समझता हो तो वह ऐसी नीति का अनुसरण कर सकता है जिससे उसके हितों की रक्षा हो सके, लेकिन वह इस बात की परवाह नहीं करे कि उसकी नीति से दूसरे प्रतिद्वंदी राष्ट्रों का लाभ होना संभव है|


    1. कैदी की दुविधा मॉडल या प्रिजनर्स डायलेमा गेम

    • यह सिद्धांत विभिन्न राष्ट्रों के आपसी संबंधों के संबंध में लागू होता है|

    • प्रत्येक राष्ट्र इस दुविधा में रहता है कि दूसरे राष्ट्र उसके साथ विवेकपूर्ण व्यवहार करेंगे या अविवेकपूर्ण व्यवहार|

    • और इस दुविधा के कारण सभी राष्ट्र अक्सर अविवेकपूर्ण ढंग से कार्य करते हैं|


    खेल सिद्धांत की उपयोगिता-

    1. इस सिद्धांत के आधार पर विवेक संगत विदेश नीति तैयार की जा सकती है, लेकिन यहां युद्ध, शस्त्रों की होड़ और अंतरराष्ट्रीय संघर्ष के विभिन्न प्रकार विवेक संगत विदेश नीति के लक्षण है न कि अविवेक पूर्ण विदेश नीति के|

    2. खेल सिद्धांत से यह समझने में सहायता मिलती है कि विभिन्न राष्ट्र किस प्रकार व्यवहार करते हैं, तथा उनका व्यवहार अधिकतर या तो चिकन गेम से या प्रिजनर्स डायलेमा गेम से मिलता है| 


    • सौदेबाजी का सिद्धांत-

    • प्रतिपादक- टॉमस शैलिंग

    • अन्य समर्थक- J F नाश, रोगर फिशर, आर्थर ली बर्न्स, जोसेफ नोगी 

    • जोसेफ फ्रैंकल “सौदेबाजी का सिद्धांत, अंतरराष्ट्रीय समझौतों की बातचीत तथा अध्ययन के लिए खेल सिद्धांत का लागू होना ही है| इसे खेल के सिद्धांत के अनुरूप ही परिभाषित करें तो यह मिश्रित उद्देश्य खेल रणनीतियों में धमकियों तथा निवारण तथा वायदों का विश्लेषण ही है|”

    • टॉमस शैलिंग ने अंतर्हित सौदेबाजी (Tacit Bargaining) को उन राष्ट्रों के मध्य संचार का अध्ययन करने के लिए प्रतिमान के रूप में प्रयोग किया, जिन्होंने आपस में हितों को बांटा है तथा उन्हें भिन्न नहीं रखा|

    • खेल सिद्धांत की कमियों को दूर करने के लिए शैलिंग ने ‘सौदेबाजी का सिद्धांत’ का विकास किया|

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शून्य योग खेल (अर्थात भाग लेने वालों के लाभ और हानियों का जोड़ शून्य हो) की स्थितियां बहुत कम होती है|

    • जीरो सम गेम संप्रत्य केवल युद्ध के खेल की अवस्था के लिए ही मान्य हो सकता है|

    • जबकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में युद्ध के अलावा सहयोग की स्थिति भी रहती है| अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में कूटनीतिक वार्ताएं और विचार-विमर्श भी चलता रहता है|

    • टॉमस शैलिंग (रचना- Experimental Games and Bargaining Theory) के अनुसार ये स्थितियां अधिकतर सौदेबाजी की स्थितियां होती हैं, जिसमें संघर्ष और विरोध दोनों पाए जाते हैं|

    • खेल सिद्धांत का अब तक विकसित रूप, मिश्र अभिप्रेरक खेलों के लिए अपर्याप्त है| इस अपर्याप्ता को दूर करने के लिए शैलिंग ने सौदेबाजी का सिद्धांत दिया|

    • सौदेबाजी का सिद्धांत खेल सिद्धांत का ही विकसित रूप है|

    • आधुनिक युग में अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों के शांतिपूर्ण समाधान का महत्व अधिक हो गया है|

    • सौदेबाजी के सिद्धांत में वार्ताओं का विशेष महत्व है|

    • किसी भी वार्ता व्यवहार में निपुणता, दूरदर्शिता, कौशल का प्रयोग करने वाला अधिकतम सौदेबाजी की स्थिति में होता है|

    • द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद निर्मित परमाणु युग की अनिश्चितता और अतिमारकता के युग में सौदेबाजी के सिद्धांत का महत्व बढ़ता जा रहा है|

    • मार्टिन शुबिक के मत में सौदेबाजी के सिद्धांत में सबसे अधिक दिलचस्पी अर्थशास्त्रियों ने द्विपक्षीय एकाधिकार के प्रसंग में दिखाई है|


    • सौदेबाजी सिद्धांत में वार्ता का बड़ा महत्व होता है| वार्ता सिद्धांत के तीन दृष्टिकोण है-

    1. प्रथम दृष्टिकोण-

    • यह पुराना दृष्टिकोण है, जिसमें यह आवश्यक माना जाता है कि वार्ता में लगे पक्षों की अधिमान्यता सूची स्थिर रहे|

    • अर्थात वार्ता के दौरान वार्ताधीन किसी प्रश्न के बारे में अपनी अधिमान्यता बदलना कभी भी तर्कसंगत नहीं होता|


    1. दूसरा दृष्टिकोण-

    • यह दृष्टिकोण आर्थर ली बर्न्स ने प्रतिपादित किया|

    • इसके अनुसार अधिमान्यता सूचियों में परिवर्तन की संभावना रहती है|

    • अर्थात वार्ता के दौरान दोनों पक्ष अपनी स्थिति या मूल प्रस्ताव बदलते रहते हैं|

    • इसका उद्देश्य अधिक से अधिक लाभ अर्जित करना होता है|

    • आर्थर ली बर्न्स के अनुसार समझौता वार्ता के दौरान अधिमानो में कई परिवर्तन आने की संभावना बनी रहती है|


    1. तीसरा दृष्टिकोण- 

    • यह दृष्टिकोण जोसेफ नोगी ने प्रतिपादित किया|

    • जोसेफ नोगी की रचना- The Diplomacy of disarmament International Conciliation 1960

    • इसे अर्ध-वार्ता का सिद्धांत कहते हैं|

    • इसके अनुसार कुछ ऐसी वार्ताएं होती हैं, जिनमें कोई भी पक्ष समझौते पर नहीं पहुंचना चाहता| पर कोई भी पक्ष यह भी नहीं प्रकट करना चाहता कि वार्ता विफल रही और ऐसा हठ भी नहीं पकड़ना चाहता कि दूसरे पक्ष को मजबूरन वार्ता तोड़नी पड़ी|

    • इसलिए इसमें यह कोशिश की जाती है कि ऐसे प्रस्तावों या धाराओ का समुच्चय पेश किया जाए जो आम जनता को बहुत पसंद आए, पर उनमें एक या दो धारा ऐसी हो, जिसे दूसरा पक्ष किसी भी स्थिति में स्वीकार न करें और जिसकी वजह से दूसरा पक्ष सारे दावे को अस्वीकार करने के लिए मजबूर हो जाता है| 

    • इन धाराओं को जोकर धारा कहा जाता है|

    • जोसेफ नोगी के अनुकरण पर फ्रेड इक्ले (रचना- How Nation Negotiate 1964) ने वार्ता के बारे में प्रशंसनीय कार्य किया है|


    • ओरान यंग ने अपनी पुस्तक The politics of force: Bargaining in international crisis में सौदेबाजी के दो प्रकार बताए हैं-

    1. सरल सौदेबाजी- इसमें सामान्य सूचनाओं के आधार पर कुछ ले-देकर समझौता करने की इच्छा रहती है|


    1. युक्तिमूलक सौदेबाजी (Strategic bargaining)

    • इसमें कूटनीतिक दांव-पेचो का सहारा लिया जाता है|

    • सौदेबाजी का यह प्रकार शक्ति के साथ वार्ता के विचार के बहुत निकट है|

    • इस प्रकार की सौदेबाजी में हमेशा बल प्रयोग रहता है|


    सौदेबाजी सिद्धांत की कमियां-

    1. यह ऐसी स्थिति में लागू नहीं किया जा सकता, जिसमें शुद्ध संघर्ष मौजूद हो तथा भागीदारी का साझा हित बिल्कुल भी न हो|

    2. यदि शुद्ध सहयोग की स्थिति है, तो संबद्ध पक्ष अपने साझे लाभ के लिए संयुक्त योजना बनाएंगे, इसलिए सौदेबाजी की आवश्यकता नहीं होगी|

    इस प्रकार सौदेबाजी का सिद्धांत न तो शुद्ध संघर्ष की स्थिति में प्रासंगिक है और न शुद्ध सहयोग की| इन दोनों स्थितियों के बीच की स्थितियों पर ही लागू हो सकता है|

    1. प्रतियोगी और सहयोगी हित इतने परस्पराश्रित और परस्परमिश्रित होते हैं कि यह निर्णय बड़ा कठिन हो जाता है कि सौदेबाजी का निर्णय, प्रतियोगी पहलू का परिणाम है या सहयोगी पहलू का|

    2. बहुत सी स्थितियों में निर्णय-करण या वार्ता प्रकरणों के अध्ययन पर प्रभाव डालने वाले अनेक चरांको के बारे में पूरी जानकारी या सूचना नहीं मिल पाती है|

    3. सौदेबाजी का दृष्टिकोण, अंतरराष्ट्रीय समझौता वार्ताओं का अध्ययन करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है, परंतु यह समस्त अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन करने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता है|


    संकट और सौदेबाजी-

    • संकट और सौदेबाजी के बीच आपसी संबंध का बड़ा ही महत्व है, क्योंकि सौदेबाजी विश्लेषण, संकट की स्थितियों के अध्ययन में ही सबसे अधिक लागू होता है| 

    • ओरान यंग के अनुसार “संकट उस स्थिति को कहते हैं, जिसे सौदा करने वाले पक्ष अंतरराष्ट्रीय राजनीति के साधारण प्रवाह से अधिक प्रतियोगिताकारी समझते हैं|”

    • इस प्रकार संकट की स्थिति, युद्ध की स्थिति से अलग है|

    • संकट की स्थिति में आपसी विश्वास खत्म हो जाता है तथा हिंसा प्रयोग की संभावना बढ़ जाती है|

    • सौदेबाजी तब होती है, जब संकट की स्थिति पैदा हो गई हो और जब संबद्ध पक्ष इसके समाधान में बल प्रयोग से बचने में ही अपना हित समझते हैं|

    • सौदेबाजी का प्रक्रम 1945 के बाद विशेष महत्व का रहा, जब USA व USSR दो महाशक्तियां विश्व में पैदा हुई तथा बल प्रयोग के बजाय सौदेबाजी पर जोर दिया गया| 


    • निर्णय-निर्माण सिद्धांत-

    • द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद रिचर्ड स्नाइडर, एच. डब्ल्यू ब्रुक्स और बर्टन सापिन ने विदेश नीति के अध्ययन में निर्णयपरक विश्लेषण अपनाया|

    • A रॉबिंसन तथा रोगर माजेक “निर्णय निर्माण सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन के विषय के रूप में आजकल अधिक से अधिक स्थान प्राप्त करता जा रहा है|”


    समर्थक विद्वान-

    • रिचर्ड स्नाइडर, एच. डब्ल्यू ब्रुक्स, बर्टन सापिन, जेम्स बेट्स, वार्ड एडवर्ड, जेम्स मार्च, थ्राल, कुम्ब्स, डेरिस फ़्रैंकल


    • स्नाइडर, ब्रुक्स और सापिन का विचार है कि निर्णय विश्लेषण राज्यों के व्यवहार के अध्ययन की लाभदायक विधि है|

    • इस सिद्धांत में अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों के बजाय उन अंतर्राष्ट्रीय कर्ताओं के अधिमान्य व्यवहार के अध्ययन पर बल दिया जाता है जो अंतरराष्ट्रीय घटना चक्र को निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं| 

    • हर्बर्ट साइमन ने लोक प्रशासन में प्रशासनिक प्रक्रियाओं को निर्णयात्मक प्रक्रिया कहकर एक मॉडल बनाने का प्रयास किया था|

    • राजनीति विज्ञान में इसका प्रयोग मतदान व्यवहार, विधायकों में मतगणना और जनमत के अध्ययन में होने लगा है| 

    • निर्णय परक दृष्टिकोण राज्य के साथ साथ उन कार्यकर्ताओं पर भी ध्यान केंद्रित करता है, जो निर्णयकर्ता कहलाते हैं|

    • यह उपागम अंतरराष्ट्रीय संबंधों को व्यक्तिगत निर्णय पर आधारित मानकर चलता है| अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व का, उसकी रुचियों, अभिरुचियों, विचारधारा, संस्कृति, धर्म, निर्णय लेने की प्रक्रिया, शक्ति का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है|


    अध्यन का केंद्रीय विषय-

    • निर्णय निर्माण दृष्टिकोण, साधारण रूप में राज्यों की कार्यात्मकता और राज्य के वास्तविक निर्णय-निर्माताओं का विशेष तौर पर अध्ययन करता है|

    • यह अध्ययन 3 तरीकों से किया जाता है-

    1. निर्णय-निर्माताओं की पहचान

    2. निर्णय-निर्माण प्रक्रिया का विश्लेषण

    3. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और प्रक्रियाओं को समझने के लिए उचित और निश्चित तरीकों की खोज|


    • G T अलीसन ने निर्णय निर्माण दृष्टिकोण के तीन मॉडल बताएं हैं-

    1. तार्किक कर्ता मॉडल- जो कि नीतियों को उनकी विश्वसनीयता के आधार पर जांच करता है|

    2. संगठनात्मक प्रक्रिया मॉडल- यह प्रशासनिक और संगठनात्मक व्यवहारों से संबंधित है, जिसका मुख्य उद्देश सरकारी निर्णयों को समझना और विश्लेषण करना है|

    3. नौकरशाही राजनीति मॉडल- यह नीति-निर्माण यंत्रों में आंतरिक नौकरशाही की स्वीकृति प्राप्त करने की कठिनाइयों तथा महत्व के अध्ययन पर बल देता है|


    स्नाइडर का निर्णय निर्माण सिद्धांत-

    • स्नाइडर के अनुसार निर्णय निर्माण दृष्टिकोण के दो आधारभूत उद्देश्य है-

    1. राजनीतिक क्षेत्र में उन महत्वपूर्ण संरचनाओं की पहचान तथा पृथक करने में सहायता करना जहां कार्यों का आरंभ होता है तथा वे लागू होते हैं तथा जहां निर्णयों का निर्माण अवश्य किया जाता है| 

    2. निर्णय निर्माण व्यवहार, जिससे कार्यों का आरंभ होता है तथा जो कार्यों को बनाए रखता है, का सुव्यवस्थित ढंग से विश्लेषण करने में सहायता करता है|


    • स्नाइडर के निर्णय निर्माण दृष्टिकोण में निम्नलिखित तत्वों का अध्ययन किया जाता है-

    1. निर्णय कार्यकर्ता अथवा निर्णय निर्माता का अध्ययन|

    2. निर्णय निर्माण करने वाली एक परिस्थिति में कार्यकर्ता के रूप में वातावरण का अध्ययन|

    3. निर्णय की परिस्थिति का अध्ययन|

    4. निर्णय प्रक्रिया का अध्ययन|


    • स्नाइडर ने अपनी पुस्तक Decision making as an approach to the study of international politics में निर्णय निर्माण करने वाले पदाधिकारियों के व्यवहार का विश्लेषण आवश्यक समझा है| इनके अनुसार-

    1. जो भी राजनीतिक कार्यवाही होती है, वह कुछ विशेष व्यक्तियों के द्वारा की जाती है|

    2. यदि कार्यवाही को समझना है तो हमें उन व्यक्तियों के दृष्टिकोण को समझना होगा, जिन पर निर्णय लेने का उत्तरदायित्व होता है|


    • स्नाइडर के अनुसार किसी भी राजनीतिक कार्य को ठीक से समझने के लिए निम्न आवश्यक है-

    1. निर्णयों को लिया किसने है, इसको जानना|

    2. उन बौद्धिक और अंतः क्रियात्मक प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करना, जिनका अनुसरण करके निर्णय निर्माता अपने निर्णय पर पहुंचे हैं| 


    • स्नाइडर ने निर्णय निर्माताओं को प्रभावित करने वाले कारकों को तीन समूहों में बांटा है-

    1. आंतरिक परिपार्श्व- इसका अर्थ उस समाज से है, जिसमें अधिकारी अपने निर्णय लेते हैं|

    2. बाह्य परिपार्श्व- इसका अर्थ अन्य राज्यों से है अर्थात अन्य राज्यों के निर्णय निर्माताओं की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से|

    3. निर्णय निर्माण प्रक्रिया- इनके अनुसार निर्णय निर्माण प्रक्रिया के 3 वर्ग हैं- 1 सक्षमता का क्षेत्र,  2 संचारण व सूचना  3 अभिप्राय 



    • जॉन बर्टन ने अपनी पुस्तक International relations में शक्ति के संदर्भ में निर्णय परक सिद्धांत का विश्लेषण किया है|

    • इनके अनुसार राज्यों के आपसी संबंधों के निर्धारण में शक्ति का तत्व महत्वपूर्ण है|

    • इनके अनुसार निर्णय निर्माण प्रक्रिया में शक्ति की उपेक्षा हुई है|

    • इन्होंने शक्ति आगत तथा शक्ति निर्गत प्रतिमान की रचना की है| उनके अनुसार एक राज्य का आगत दूसरे का निर्गत होगा और दूसरे राज्य की प्रक्रिया को समझे बिना भी निर्णय को लेना तर्कसंगत नहीं होगा|


    निर्णय निर्माण सिद्धांत की मूल प्रतिस्थापना-

    • निर्णय निर्माण दृष्टिकोण निर्णय कर्ताओ तथा उन राज्यों पर जो निर्णय करने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं, पर ध्यान केंद्रित करता है

    • इस दृष्टिकोण के अनुसार निर्णयकर्ताओं के व्यवहार का वर्णन और व्याख्या निर्णयकर्ताओं के कार्यों के विश्लेषण के रूप में करनी चाहिए| 


    निर्णय निर्माण सिद्धांत: की विभिन्न धाराएं-

    • प्रथम धारा या मार्ग-

    • यह परिस्थिति या पर्यावरण पर अधिक बल देता है|

    • इसके मुख्य अनुयायी हेराल्ड और मार्गरेट स्प्राउट है|

    • हेराल्ड और मार्गरेट स्प्राउट की दिलचस्पी इसमें कम है कि कोई निर्णय कैसे और क्यों किया जाता है, बल्कि इस बात में अधिक है कि जो पर्यावरण निर्णयकर्ता देखते हैं, उस पर्यावरण से क्या संबंध है|

    • ये विदेश नीति के संबंध में यह देखते हैं कि जो निर्णय, निर्णयकर्ताओं ने किया उससे बेहतर निर्णय लिया जाना संभव था या नहीं|


    • दूसरी धारा-

    • यह व्यक्तित्व कारक मार्ग है, जो अलेक्जेंडर जॉर्ज और जूलियट जॉर्ज ने अपनाया|

    • इसके समर्थक निर्णयकर्ताओं और निर्णयकारी व्यवहार का अध्ययन उनके व्यक्तित्व के अध्ययन द्वारा करते हैं|

    • अलेक्जेंडर जॉर्ज और जूलियट जॉर्ज ने 1965 Woodrow Wilson and Colonel house पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें वुड्रो विल्सन के पूरे जीवन कार्य व व्यक्तित्व का विवरण देकर यह बताया कि विल्सन के व्यक्तित्व का उनके राजनीतिक कार्यों और निर्णय पर क्या प्रभाव पड़ा|

    • अलेक्जेंडर जॉर्ज और जूलियट जॉर्ज ने अपनी इस तकनीक को परिवर्धन मुलक जीवनी नाम दिया|

    • इस तकनीक के आधार- विदेश नीति संबंधी निर्णयकर्ताओं के ठीक अध्ययन के लिए निर्णयकर्ताओं के व्यक्तित्व का विश्लेषण आवश्यक है|


    • तीसरा मार्ग-

    • इसके समर्थक उन कार्यकर्ताओं का अध्ययन करते हैं, जो विदेश नीति के निर्माण में सचमुच हिस्सा लेते हैं|

    • बनार्ड कोहन इससे संबंधित है|

    • बनार्ड कोहन के मत में विदेश नीति के निरूपण में हिस्सा लेने वाले सरकारी और गैर-सरकारी कार्यकर्ताओं की परस्पर क्रिया के अनुसार ही विदेश नीति का व्यवस्थित विश्लेषण होना चाहिए|

    • बनार्ड कोहन की रचना- The Political Process and foreign policy 1957


    • कोहेन निर्णय-निर्माण या विदेश नीति निर्माण के 5 आधारभूत तत्व बताता है-

    1. जनमत का दृष्टिकोण

    2. राजनीतिक हित समूह

    3. जनसंपर्क के साधन व मीडिया

    4. कार्यपालिका के मुख्य कर्मचारी

    5. विधानमंडल की मुख्य समितियां


    • हेराल्ड लासवेल ने निर्णयकरण प्रक्रम में 7 क्रमिक अवस्थाएं बताई है-

    1. सूचना की अवस्था- समस्या व समाधान के बारे में नीति निर्माता को जानकारी देना|

    2. सिफारिश की अवस्था- इसमें अनेक संभव समाधान पेश किए जाते हैं|

    3. निर्धारण की अवस्था- इसमें विकल्प का चयन किया जाता है|

    4. नवाचार की अवस्था- छांटा गया विकल्प सबसे नया है, कहकर पेश किया जाता है| 

    5. अनुप्रयोग की अवस्था- कार्यवाही लागू की जाती है|

    6. मूल्यांकन की अवस्था- निर्णय की सफलता का मूल्यांकन किया जाता है|

    7. अवसान की अवस्था- निर्णय की समाप्ति हो जाती है|


    • इस तरह निर्णयकारी दृष्टिकोण का बुनियादी विचार यह है, कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति को विदेश नीतियों की परस्पर क्रिया समझना चाहिए|

    • निर्णय निर्माण सिद्धांत द्वारा किसी समस्या के समाधान के अनेक विकल्पों में से सर्वोत्तम विकल्प का चयन किया जाता है|


    • संचार सिद्धांत-

    • अमेरिकी गणितज्ञ नारबर्ट विनर को संचार सिद्धांत का प्रवर्तक माना जाता है|

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में लागू करने का श्रेय हावर्ड प्रोफेसर कार्ल डायच को है| डायच की कृति The Nerves of Government है|

    • कॉल डायच का शोध लेख Communication models and decision system जो कि जेम्स चार्ल्सवर्थ द्वारा प्रकाशित पुस्तक Contemporary political analysis में प्रकाशित हुआ था| 

    • कॉल डायच व मैक्लीलैंड अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संचार सिद्धांत के मुख्य समर्थक रहे हैं| 

    • संचार सिद्धांत, प्रशासन को विभिन्न सूचना प्रवाहों के आधार पर स्थित निर्णय निर्माण की एक व्यवस्था मानता है|


    कॉल डायच के संचार प्रतिमान के चर-

    • इनका संचार मॉडल, निर्णय निर्माण तथा उसे लागू करने की अवस्था है|

    • इनके सिद्धांत के मुख्य तत्व-

    1. कार्य करने वाली संरचनाएं- इनके द्वारा सूचना व्यवस्था में प्रवाहित होती है तथा निर्णय निर्माण होता है| यह निम्न है-

    1. अभिग्राहक या प्राप्तकर्ता- जो वातावरण से सूचना प्राप्त करते हैं|

    2. आंकड़ा प्रक्रिया इकाइयां- जो सूचना का प्रक्रियाकरण (Processing) करती है|

    3. स्मरण शक्ति- मूल्य संरचनाएं- जो सूचना को मूल्यों के साथ संबंधित करते हैं|

    4. निर्णय निर्माण संरचनाएं- जो नीतियां या निर्णयों को बनाते हैं|

    5. प्रभावक (Effectors)- जो वातावरण में निर्णयों को लागू करते हैं| 


    1. सूचना प्रवाह- सूचना किसी भी संचार जाल में घूमती है|

    2. निर्णय निर्माण- सूचना के आधार पर निर्णयों का निर्माण करना|

    3. पुनर्निवेश- यह दो प्रकार का होता है-

    1. सकारात्मक पुनर्निवेश

    2. नकारात्मक पुनर्निवेश


    • कार्ल डायच ने पुनर्निवेश क्षमता को मापने वाले चार तत्व बताएं है-

    1. भार (Load)- सूचना की मात्रा

    2. विलंब (Lag)- सूचना प्राप्ति का समय

    3. लाभ (Gain)- त्रुटियों को सुधारने के लिए वास्तव में किए गए कार्य

    4. अग्रता (lead)- प्रस्तावित कार्यवाही के भावी परिणामों का पहले से अनुमान लगाना


    उदारवादी उपागम-

    • इस उपागम के प्रमुख समर्थक स्टीवन लैमी है|


    • प्रमुख विशेषताएं

    1. मानव विकास के लिए लोकतंत्र को अनिवार्य मानते हैं|

    2. युद्ध का विरोध करते हैं|

    3. यह राष्ट्रीय हित को सैनिक हित की तुलना में व्यापक मानते हैं|

    4. यह राज्य के बहुलवादी स्वरूप का समर्थन करता है|

     

    • उदारवादी दृष्टिकोण की मौलिक मान्यताएं-

    1. व्यक्ति मौलिक अंतरराष्ट्रीय कर्ता है- उदारवादी व्यक्ति को मौलिक अंतरराष्ट्रीय कर्ता मानते हैं| 

    2. राज्य के अधिकार गतिशील है और वे स्व-संबंधित तथा दूसरों के साथ भी संबंधित होते हैं|

    3. व्यक्ति और राज्य के हित विभिन्न प्रकार की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों से निर्धारित होते हैं|

    4. अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में आपसी हित सहयोग को लगातार टिकाऊ रख सकते हैं|

    5. उदारवादी, मानवीय विवेक में आस्था रखते हुए अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर तर्कसंगत सिद्धांत लागू करने पर बल देते हैं|


                उदारवाद के रूप-

    1. गणतांत्रिक उदारवाद-

    • गणतंत्रात्मक उदारवाद का प्रमुख तर्क यह है कि उदारवादी लोकतंत्र किसी भी अन्य राजनीतिक व्यवस्था से अधिक शांतिपूर्ण एवं विधिपालक व्यवस्था है|

    • समर्थक कांट व माइकल डायल

    • इस विचार का सर्वप्रथम प्रतिपादन इमानुएल कांट ने 18वीं सदी में किया था| 

    • कांट चिर स्थायी शांति व शांति प्रिय संघ के समर्थक हैं| इनके अनुसार लोकतांत्रिक राज्य आपस में युद्ध नहीं करते|

    • माइकल डायल ने लोकतांत्रिक शांति का सिद्धांत व शांति के उदार क्षेत्र की अवधारणा दी है| उनके अनुसार लोकतांत्रिक राज्य अपने संघर्षों का शांतिपूर्ण समाधान करते हैं|


    • माइकल डायल ने इस बात पर 1983 में विचार किया कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं एक दूसरे के साथ शांति क्यों स्थापित करना चाहती हैं| तथा इसके निम्न कारण बताएं-

    1. शांतिपूर्ण विवाद समाधान पर आधारित घरेलू राजनीति संस्कृति की उपलब्धता- अर्थात लोकतांत्रिक सरकारे अपने नागरिकों द्वारा नियंत्रित होती हैं जो कभी भी युद्ध का समर्थन नहीं करती है |

    2. लोकतंत्र कुछ सामान्य नैतिक मूल्यों में विश्वास करता है, जिसके फलस्वरूप जैसा कि इमानुएल कांट ने कहा है शांतिप्रिय संघ की स्थापना होगी|

    कांट के अनुसार “व्यापार वाणिज्य की प्रवृत्ति को शांतिप्रिय संघ में बढ़ावा दिया जाता है|”


    • गणतंत्रात्मक उदारवाद में उदारवाद की अन्य शाखाओं की अपेक्षा ज्यादा प्रबल आदर्शपरक तत्व है, क्योंकि ये विश्व स्तर पर लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहते हैं|

    • इनका मानना है कि लोकतांत्रिक विश्व पर आधारित अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शांति व सहयोग अवश्य स्थापित होगा|

    • फ्रांसीसी फुकियामा ने ‘इतिहास के अंत’ की भविष्यवाणी की थी पर गणतंत्रवादी फ्रांसीसी फुकियामा की तरह भी आशावादी नहीं है|

    1. व्यापारिक उदारवाद-

    • समर्थक- मिल्टन फ्रीडमैन

    • भूमंडलीकरण व उदारीकरण पर बल 


    1. संस्थात्मक उदारवाद (Institutional liberalism)- 

    • उदारवाद का यह रूप अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के कल्याणकारी प्रभाव के बारे में प्रारंभिक उदारवादी चिंतन पर आधारित है, परंतु वर्तमान समय के संस्थात्मक उदारवादी अपने पूर्ववर्ती आदर्शवादियों (जैसे वुड्रो विल्सन) से कम आशावादी है|

    • संस्थात्मक उदारवादियों के लिए यथार्थवादियों का यह दृष्टिकोण कि ‘अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं मात्र कागज के टुकड़े हैं’, निराधार है|

    • संस्थात्मक उदारवादियों के अनुसार अंतरराष्ट्रीय संस्था एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है|

    • ये विचारक व्यवहारवादी एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं|

    • इन विचारको अनुसार संस्थानीकरण का उच्च स्तर बहूध्रुवीयता अराजकता के अस्थायीकरण के प्रभावों को कम करता है|


    1. समाजशास्त्रीय उदारवाद- 

    • इसके अनुसार अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में पारराष्ट्रीय संबंध अर्थात विभिन्न देशों के लोगों, समुदायों एवं संगठनों के बीच का अध्ययन भी शामिल है|

    • अर्थात समाजशास्त्रीय उदारवाद यथार्थवादियों के इस दृष्टिकोण को संकुचित व एकपक्षीय मानता है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रभुतासंपन्न राज्यों की सरकारों के मध्य संबंधों का अध्ययन माना जाता है|

    • इस दृष्टिकोण को बहुलवाद का नाम दिया जाता है|

    • इनका मत है कि शांति की स्थापना में राष्ट्रीय सरकारों की बजाय जनता के बीच संबंध, अधिक सहयोगी एवं अधिक समर्थक होते हैं|


    कार्ल डायच या ड्यूश-

    • रचना- Political Community and North Atlantic area 1975

    • इनका मत है कि समाजों के मध्य उच्च स्तर के पारराष्ट्रीय संबंध युद्ध की बजाय शांतिपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देते हैं|

    • कार्ल डायच इसे ‘सुरक्षा समुदाय अथवा लोगों का संगठित समूह’ कहते हैं|

    • जॉन बर्टन अपनी कृति World Society में अंतरराष्ट्रीय संबंधों का मक्कड़ जाल या वाग्जाल मॉडल देते हैं|

    • वाग्जाल मॉडल एक ऐसे विश्व की ओर संकेत करता है, जो विरोधी संघर्ष के बजाय परस्पर लाभ से अधिक संचालित होता है| 

    • एक राज्य में लोगों के विभिन्न समुदाय शामिल होते हैं, जिनके विभिन्न प्रकार के बाहरी संबंध एवं विभिन्न प्रकार के हित आपस में जुड़े होते हैं|


    1. संरचनात्मक उदारवाद-

    • प्रतिपादक- डेनियल ड्यूडनी तथा C जॉन आइकनरी

    • इसके अनुसार पश्चिमी उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के मध्य संबंधों की प्रमुख विशेषताएं निम्न है-

    1. सुरक्षा सहसंबंध- सुरक्षा के लिए कई राष्ट्रों द्वारा संयुक्त सैन्य संगठन बनाना, जैसे- NATO

    2. प्रभावी पारस्परिक वर्चस्व- संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा पश्चिमी व्यवस्था का नेतृत्व करना|

    3. अर्ध प्रभुत्वशाली एवं आंशिक महान शक्तियां- जर्मनी एवं जापान की विशिष्ट स्थिति अर्ध-प्रभुता एवं आंशिक रूप से महान शक्ति के उदाहरण है|

    4. आर्थिक खुलापन- अर्थात अर्थव्यवस्था में खुलापन

    5. जन अभिज्ञान- पाश्चात्य समर्थित राजनीति व नागरिक स्वतंत्रताओं, बाजार अर्थव्यवस्था, नृजातीय सहनशीलता के मूल्यों का संबंध जन अभिज्ञान से है|


    1. अन्योन्याश्रित उदारवाद-

    • इसका विकास 1950 के बाद औद्योगीकृत देशों के उदय से हुआ|

    • इन उदारवादियों का मत है कि अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में उच्च श्रम विभाजन राज्यों के मध्य अन्योन्याश्रिता को बढ़ावा देता है और फलस्वरुप यह राज्यों के मध्य उग्र संघर्ष को कम करता है| 

    • रोजक्रेस के मत में युद्ध की संभावना कम विकसित देशों में ही हो सकती है, क्योंकि आर्थिक विकास के निम्न स्तर के फलस्वरुप भूमि, उत्पादन के लिए प्रभुत्वपूर्ण कारक बनी रहेगी तथा आधुनिकीकरण एवं अन्योन्याश्रिता प्राय: दुर्बल रहते हैं| 

    • डेविड मिटरेनी- पुस्तक- A Working Peace System Chicago 1996 में एकीकरण के कार्यात्मक सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं, जिसमें यह सुझाव देते हैं कि सहयोग का निर्माण तकनीकी विशेषज्ञ कर सकते हैं न कि राजनीतिज्ञ|

    • मिटरेनी का तर्क है कि आर्थिक अन्योन्याश्रिता के फलस्वरुप राजनीतिक एकीकरण व शांति का निर्माण होगा| 

    • अर्नेस्ट हॉस- पुस्तक The Uniting of Europe: Political, Social and Economic forces में नव कार्यात्मक सिद्धांत दिया|

    • अर्नेस्ट हॉस के मत में एकीकरण की कार्यात्मक प्रक्रिया अतिरिक्त गिरावट (Spill Over) की धारणा पर आधारित है, अर्थात एक क्षेत्र में बढ़ता सहयोग अन्य क्षेत्रों में उन्नतशील सहयोग को बढ़ावा देगा| 

    • रोबर्ट कोहन तथा जोसेफ नाई- पुस्तक Power and Interdependence: World Politics in Transition में जटिल अन्योन्याश्रिता सिद्धांत दिया| इनके अनुसार उत्तर युद्ध कालीन जटिल अन्योन्याश्रिता प्रारंभिक एवं सामान्य प्रकार की परस्पर निर्भरता से गुणात्मक रूप से भिन्न है|



    नव उदारवादी उपागम-

    • नव उदारवादी मानव प्रगति तथा सहयोग के प्रति उदारवादियों की तुलना में कम आशावादी है|

    • जैचर एवं मैथ्यू “नव उदारवादी यह नहीं चाहते हैं, कि उन्हें युद्धों के मध्यांतर के अनेक उदारवादियों की तरह आदर्शवादी कहा जाय|”

    • शैक्षणिक दृष्टि से नव उदारवाद का अर्थ नव उदारवादी संस्थात्मकता से लिया जाता है|

    • नीतिगत दृष्टि से विदेश नीति के परिप्रेक्ष्य में नव उदारवादी उपागम मुक्त व्यापार तथा मुक्त बाजार को प्रोत्साहन देते हैं, तथा पाश्चात्य लोकतांत्रिक मूल्यों व उनकी संस्थाओं पर बल देते हैं|

    • नव उदारवादी राज्य को अंतरराष्ट्रीय संबंधों में प्रमुख कर्ता मानते हैं, इसके अलावा गैर-राज्यकर्ता और अंतर्सरकारी संगठनों को भी महत्वपूर्ण मानते हैं|

    • शीतयुद्ध काल में राज्यों के मध्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के बढ़ते प्रभाव के कारण नव उदारवाद को ‘नव उदार संस्थावाद’ भी कहा जाता है|

    • उदारवाद को वैश्वीकरण के प्रथम युग की विचारधारा व नव उदारवाद को वैश्वीकरण के द्वितीय युग की विचारधारा कहा जाता है|


    • प्रमुख विशेषताएं-

    1. मानव विवेक में आस्था

    2. मुक्त बाजार, मुक्त व्यापार, पश्चिमी लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन

    3. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की वित्तीय संस्थाओं और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का समर्थन

    4. नैतिकता की तुलना में व्यापार हित को ज्यादा महत्व

    5. विश्व व्यवस्था के समर्थक|


    • प्रमुख नव उदारवादी विचारक-

    • स्टीफेन गुस्ताव सेन, रोनाल्ड रीगन, मारग्रेट थैचर तथा आलन ग्रीनस्पान, थॉमस एल फ्रीडमैन

    • थॉमस एल फ्रीडमैन रचना-

    •  The lexus and the The Olive tree

    •  The world is flat


    • प्रमुख नव-उदारवादी उपागम

    1. विश्व राज्य सिद्धांत या दृष्टिकोण

    2. बहुलवादी सिद्धांत या दृष्टिकोण

    3. भूमंडलीय अवधारणा

    4. निवारकता सिद्धांत

    5. निर्भरता और अंत-निर्भरता सिद्धांत

    6. कार्यात्मकवाद का सिद्धांत 

    7. रचनावाद



    1. विश्व राज्य सिद्धांत या दृष्टिकोण-


    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों के उस वर्ग द्वारा जिसे स्वपनलोकीय कहते हैं, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शांति और व्यवस्था की स्थापना के लिए अंतरराष्ट्रीय संगठन पर बल दिया, जो आगे चलकर ‘विश्व-राज्य’ के रूप में विकसित होगा|


    • विश्वराज्य की अवधारणा

    • द्वितीय महायुद्ध के काल में अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में विश्व राज्य की अवधारणा का उदय हुआ|

    • अंतर्राष्ट्रीय शांति स्थापित करने और विश्व को युद्धों से बचाने के लिए शांति प्रेमी विधिशास्त्री ‘विश्व राज्य’ के दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं|

    • उनके अनुसार विश्व शांति अंतरराष्ट्रीय राजनीति का ध्येय या साध्य है तथा ‘विश्व राज्य’ दृष्टिकोण, शांति तक पहुंचने का संस्थात्मक साधन है|

    • इस दृष्टिकोण के समर्थक युद्धों का मुख्य कारण ‘अंतर्राष्ट्रीय अराजकता’ को मानते हैं|

    • इस दृष्टिकोण के समर्थक यह मानते हैं, जिस प्रकार राज्य की शक्ति ने अपनी सीमाओं में शांति स्थापित की है, उसी प्रकार राष्ट्रों के ऊपर भूमंडलव्यापी स्तर पर एक ऐसा राज्य होना चाहिए जो राज्यों को एक दूसरे पर आक्रमण करने से रोके तथा विश्व शांति बनाए रखें|

    • मार्गेंथाऊ “एक शताब्दी के चतुर्थांश में दो महायुद्धों के अनुभव तथा अणुशस्त्रों के तीसरे महायुद्ध की आशंका के कारण विश्व राज्य का विचार अपूर्व महत्व का हो गया है|”


    • विश्व राज्य की उपयोगिता

    • हेराल्ड लास्की “अंतरराष्ट्रीय मामलों में राज्य प्रभुसत्ता धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है, क्योंकि अब उसकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है| आज के व्यक्ति को साम्राज्य की धारना नहीं वरन संघवाद की संकल्पना की आवश्यकता है|”

    • क्लोरेन्स ए स्ट्रीट ने अपनी पुस्तक ‘यूनियन नाउ’ में संघीय प्रकार के एक विश्व राज्य की स्थापना की मांग की है|

    • डॉ राधाकृष्णन विश्व शांति की स्थापना और नए अंतरराष्ट्रीय समाज की रचना के लिए विश्व राज्य को सर्वोत्तम साधन मानते हैं|

    • बर्टेंड रसैल की मान्यता है कि विश्व राज्य बन जाने से जब सारा विश्व एक सरकार के अधीन हो जाएगा, तब युद्धों का स्वरूप ही बदल जाएगा| प्रथम तो युद्ध होंगे ही नहीं और यदि होंगे तो भी महायुद्ध न होकर गृहयुद्ध मात्र होंगे|

    • जवाहरलाल नेहरू ने 20 दिसंबर 1965 को UNO में कहा था कि “वर्तमान युग में हम संकुचित दृष्टिकोण नहीं रख सकते| हमें अनागत की और देखना चाहिए| इसके लिए निश्चित रूप से केवल एक ही मार्ग है- विश्व राज्य या एक विश्व का उद्भव|”


    • डॉ. अप्पादुराय ने चार आधारों पर विश्व संघ की स्थापना का समर्थन किया है-

    1. विश्व शांति का एकमात्र साधन

    2. राष्ट्रों पर अनुशासन रखने के लिए आवश्यक

    3. युद्धों को रोकने के लिए आवश्यक

    4. प्रगति का प्रतीक


    विश्व राज्य की उपयोगिता या आवश्यकता निम्न है

    1. विश्व में स्थायी शांति की स्थापना करने के लिए| 

    2. विश्व के आर्थिक विकास के लिए|

    3. युद्धों को रोकने के लिए|

    4. राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद की विभिषिका से मानवता को बचाने के लिए| 


    •  विश्व राज्य अवधारणा की विशेषताएं-

    1. यह किसी विशेष प्रदेश की सीमाओं में बंधा नहीं होगा, अपितु सारे भूमंडल में फैला होगा|

    2. विश्व के सभी भागों में रहने वाले व्यक्ति इसके नागरिक होंगे, वे इसके प्रति निष्ठा रखेंगे इनके आदेशों का पालन करेंगे|

    3. विश्व-राज्य सरकार को सब राज्यों के ऊपर अधिकार प्राप्त होगा|

    क्लाड के अनुसार “विश्व राज्य की सरकार ऐसी शक्तिशाली केंद्रीय संस्था हो, जो अंतरराष्ट्रीय युद्धों को रोकने का कार्य सफलतापूर्वक कर सकें|”

    1. विश्वराज्य एक संघात्मक अवस्था है- विश्वराज्य एक संघ होगा, जिसकी राज्य विभिन्न इकाइयां होंगी|

    2. विश्व राज्य सामूहिक सुरक्षा का विकसित रूप है|

    3. विश्व राज्य शांति स्थापित करने का संस्थागत प्रयत्न है|

    4. विश्व राज्य शक्ति प्रबंध के रूप में- विश्व राज्य, राज्यों की शक्ति को नियंत्रित और अनुशासित करने तथा विश्व की अराजकता को दूर करने का साधन है|

    5. विश्व राज्य द्वारा राष्ट्रीय संप्रभुता पर नियंत्रण- ज्योफरे सेवर “किसी भी बड़े भयानक युद्ध की संभावना को तब तक दूर नहीं किया जा सकता, जब तक कि संप्रभु आत्मनिर्णायक राज्यों की व्यवस्था को विश्वराज्य की स्थापना द्वारा स्थानांतरित नहीं कर दिया जाता|”


    • विश्व राज्य : निर्माण की प्रक्रिया

    विश्व राज्य निर्माण की तीन प्रक्रियाएं हैं-

    1. विश्व विजय द्वारा

    2. विश्व संघ के निर्माण द्वारा

    3. विश्व समुदाय के निर्माण द्वारा


    1. विश्व विजय द्वारा-

    • इसमें विश्व राज्य के निर्माण का इच्छुक राज्य सैनिक शक्ति का सहारा लेकर विभिन्न छोटे-बड़े संप्रभु राज्यों को पराजित कर एक केंद्रीय शक्ति का निर्माण कर सकता है|

    • ऐसे स्थापित विश्व राज्य का आधार शक्ति होगा|


    1. विश्व संघ के निर्माण द्वारा

    • विश्व के सभी राज्यों को मिलाकर एक संघ में एकीकृत करके विश्व-राज्य की स्थापना करना|


    1.  विश्व समुदाय के निर्माण के द्वारा

    • कुछ विचारको का मानना है कि विश्व राज्य के निर्माण से पहले विश्व समुदाय का निर्माण किया जाना चाहिए| सभी देशों के नागरिकों के बीच सांस्कृतिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं आर्थिक सहयोग की भावना विकसित हो, जिससे विश्व राज्य की स्थापना सुगम हो जाएगी|


    • विश्व राज्य के मार्ग में बाधाएं

    निम्न बाधाएं हैं-

    1. वर्तमान में राज्य संप्रभुता को त्यागने के लिए तैयार नहीं है|

    2. राष्ट्र राज्यों में उग्र राष्ट्रवाद की भावना होना|

    • टॉयनबी “विश्व एकता के लिए राष्ट्रवाद सबसे बड़ी कठिनाई है| विश्व इतिहास के ज्वलंत अध्याय में राष्ट्रवाद मानवता का एक नंबर का शत्रु है|’

    1. उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद 

    2. सैनिकवाद

    3. विश्व राज्य के लिए सरकार का निर्माण कठिन है|


    • मार्गेंथाऊ “विश्व राज्य के अभाव में अंतर्राष्ट्रीय शांति स्थायी नहीं हो सकती तथा विश्व की वर्तमान नैतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों में विश्व राज्य की स्थापना नहीं हो सकती|”

    • आर्गेन्सकी “विश्व राज्य अभी बहुत दूर की बात है| वर्तमान राष्ट्रों के ऐच्छिक सहयोग द्वारा विश्व राज्य का निर्माण इतना दुष्कर है कि हम स्पष्ट कह सकते हैं कि यह कभी नहीं होगा|”

    • अर्नाल्ड फोस्टर “विश्व सरकार की स्थापना के लिए शिक्षा पद्धति में क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है|”

    • पंडित नेहरू “विश्व राज्य बनाना चाहिए और बनेगा, क्योंकि विश्व की बीमारी का इसके अतिरिक्त कोई इलाज नहीं है|”



    2. बहुलवादी सिद्धांत या दृष्टिकोण- 


    • बहुलवादी धारणा राज्य कर्ताओं के साथ-साथ गैर-सरकारी संगठनों, बहुराष्ट्रीय निगमो तथा अंतरा-राष्ट्रीय संगठनों को भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के प्रभावी पात्र मानती है|


    • अंतरा-राष्ट्रीय संगठन अथवा गैर राज्यीय कर्ता निम्न है-

    1. बहुराष्ट्रीय निगम

    2. गैर-सरकारी संगठन

    3. अंतर-सरकारी संगठन

    4. अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन

    5. धार्मिक संगठन

    6. गुरिल्ला एवं आतंकवादी संगठन


    • बहुलवादी अवधारणा से पहले अंतरराष्ट्रीय राजनीति राज्य प्रणाली के इर्द-गिर्द घूमती थी तथा संप्रभु राज्य ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी कर्ता थे|

    • ओपनहीम “चूँकि अंतरराष्ट्रीय कानून राज्यों की सहमति पर आधारित है, अतः राज्य ही अंतरराष्ट्रीय कानून का मुख्य विषय है|”

    • फ्रेडरिक स्मिथ “राज्य ही अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व के धारक होते हैं|”

    • अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की सांविधि में लिखा है कि “न्यायालय के समक्ष आने वाले मामलों में केवल राज्य ही वादी-प्रतिवादी हो सकते हैं|”

    • अर्नाल्ड वोल्फर “वैटिकन, अरब-अमेरिका तेल कंपनी तथा अनेक गैर-राज्यीय इकाइयां कभी-कभी अंतरराष्ट्रीय घटनाओं की दिशा को प्रभावित करते हैं|”



    3.भूमंडलीय अवधारणा- 


    • विश्व अर्थव्यवस्था में आया खुलापन, आपसी जुड़ाव और परस्पर निर्भरता के फैलाव को भूमंडलीकरण कहा जाता है|

    • भूमंडलीकरण प्रक्रिया अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक लेनदेन पर लगी रोक के हटने से शुरू हुई|

    • इससे व्यापार क्षेत्र में खुलापन आया तथा विदेशी निवेश के प्रति उदारता बढ़ी|


    • भूमंडलीय दृष्टिकोण की अंतरराष्ट्रीय संबंधों के संबंध में मान्यताएं- 

    1. भूमंडलीय विचारको के मत में विश्व के समक्ष उपस्थित सभी समस्याएं भूमंडलीय प्रकृति की है| पर्यावरण प्रदूषण, जनसंख्या विस्फोट, परमाणु युद्ध, आतंकवाद, नशीली वस्तुएं आदि समस्या विश्वव्यापी है|

    2. भूमंडलीय विचारकों के मत में इन विश्वव्यापी समस्याओं का निदान भी विश्वव्यापी ही हो सकता है| इसके लिए सभी देशों के वित्तीय, भौतिक व मानव संसाधनों का समन्वय करना होगा|

    3. भूमंडलीय विचारको के मत में इस प्रकार का समन्वय सतत आधार पर ही हो सकता है|


    • आलोचना-

    • आलोचक भूमंडलीय प्रक्रिया को ऊपर से थोपा गया भूमंडलीकरण कहते हैं, क्योंकि इसका निर्माण अमीर और शक्तिशाली राज्यों तथा बहुराष्ट्रीय निगमों के द्वारा किया जा रहा है|



    4. निवारकता सिद्धांत-


    • परमाणु युग में नए हथियारों के सर्वनाश करने की सामर्थ्य से अंतरराष्ट्रीय राजनीति का स्वरूप बहुत ज्यादा बदल गया है|

    • नये शस्त्रों की सर्वनाशकता के कारण ही मैक्स लर्नर आज के युग को ‘अतिमारकता का युग’ कहता है और उसने अपनी एक पुस्तक का नाम द एज ऑफ ओवरकिल यानी अतिमारकता का युग रखा है| 

    • अतिमारकता शब्द का प्रयोग सबसे पहले जॉन मेडारस ने किया था| इनका कहना है कि अमेरिका और रूस दोनों में अलग-अलग रूप से इतनी सामर्थ्य है कि वे संपूर्ण संसार का कई बार सर्वनाश कर सकते हैं|

    • विश्व राजनीति की पुरातन प्रणाली का मुख्य आधार युद्ध और शक्ति थे| सभी राष्ट्र शक्ति प्राप्त करने और वृद्धि करने के लिए सदा तत्पर रहते थे|

    • पुरातन प्रणाली के अनुसार शक्ति पाने, उसे बनाये रखने और उसे बढ़ाने का अंतिम साधन युद्ध था|

    • लेकिन समकालीन युग की अतिमारक सामर्थ्य से युद्ध निर्णायक तत्व नहीं रहा|

    • वर्तमान अंतरराष्ट्रीय राजनीति में युद्ध के स्वरूप में आये परिवर्तन को अप्पपोदोराई (पुस्तक- Dilemmas of foreign Policy in the Modern Period 1963) ने विदेश नीति की दुविधा कहा है| 

    • अब सर्वनाश के खतरे के कारण युद्ध का प्रयोग आसानी से नहीं किया जा सकता है|


    • पिछले दशकों के इतिहास के अनेक उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि सर्वनाश के खतरे के कारण ही युद्ध/बल प्रयोग नहीं किया गया| जैसे - 

    1. क्यूबा संकट 1962

    • क्यूबा संकट 1962 के दौरान USA व USSR में युद्ध छिड़ जाने का खतरा उत्पन्न हो गया था| 

    • लेकिन जब USA ने USSR को यह चेतावनी दी की अगर उसने कैरेबियन सागर से अपने अस्त्र नहीं हटाए तो वह परमाणु शस्त्रों का प्रयोग करेगा, तो सोवियत संघ ने अपने परमाणु अस्त्र वहां से तत्कालीन हटा लिए|


    1. कोरिया संकट 1950

    • जब अक्टूबर 1950 में UNO की फौजो ने 38 वे अक्षांश को पार कर लिया, तब चीनी स्वयंसेवक उत्तरी कोरिया की तरफ से युद्ध में कूद पड़े|

    • उस समय पूर्वी एशिया के सेनापति जरनल मैकार्थर ने सुझाव दिया कि UNO की फौज चीन के समुद्र तट का घेरा डाल दें और सीधे चीन पर बमबारी की जाए|

    • सर्वनाशकारी युद्ध के खतरे के कारण अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया|

    • ट्रूमैंने लिखा है कि “जरनल मैकार्थर समग्र युद्ध छिड़ जाने की जोखिम लेने को तैयार थे, परंतु मैं इसके लिए तैयार नहीं था|”


    1. 13 दिसंबर 2001: भारतीय संसद पर हमला

    • जब 13 दिसंबर 2001 को भारतीय संसद पर आतंकवादी हमला हुआ, उसके बाद तत्कालीन PM वाजपेयी ने ‘आर-पार लड़ाई लड़ने’ की बात कही|

    • दो बार पाकिस्तान से युद्ध करने की तारीखे 5-6 जनवरी तथा 15 जून 2000 निश्चित करने के बाद भी भारत ने युद्ध नहीं किया, क्योंकि पाकिस्तान परमाणु शक्ति संपन्न था तथा सर्वनाशकता का खतरा था|


    • PMS ब्लैंकेट का विचार है कि सर्वनाशी युद्ध का खतरा आज इतना बड़ा हो गया है कि परमाणु हथियारों का उपयोग कभी भी नहीं किया जाएगा और इसलिए बड़ा युद्ध कभी भी नहीं होगा|


    5.निर्भरता और अंतर-निर्भरता सिद्धांत-

    • निर्भरता सिद्धांत की उत्पत्ति मार्क्सवादी तथा पश्चिमी विद्वानों द्वारा समर्थित आधुनिकरण एवं राजनीतिक विकास सिद्धांतों के विकल्प के रूप में हुई|

    • यह सिद्धांत तृतीय विश्व के विकासशील देशों की राजनीति का विश्लेषण करने वाले संरचनात्मक प्रकार्यात्मक एवं पारस्परिक मार्क्सवादी सिद्धांतों को अस्वीकार करता है|

    • निर्भरता सिद्धांत ‘विकास के निरंतरता सिद्धांत’ तथा ‘प्रसारण सिद्धांत’ (जिन्हें विकसित देशों का समर्थन प्राप्त है तथा जो विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को दी जाने वाली विदेशी सहायता और निवेश की नीतियों की सराहना करते हैं) को अस्वीकार करता है| 

    • यह सिद्धांत यूरो-केंद्रीय झुकाव तथा साम्राज्यवाद एवं आधुनिकरण के प्रतिमानो को भी अस्वीकार करता है|

    • यह सिद्धांत तृतीय विश्व के देशों में विद्यमान निम्नस्तर के विकास की प्रक्रिया का विश्लेषण करके राजनीति के अध्ययन के वैकल्पिक उपागम प्रस्तुत करता है|


    निर्भरता सिद्धांत का अर्थ (केंद्र-परिधि मॉडल)-

    • यह सिद्धांत किसी अल्पविकसित देश की सामाजिक- आर्थिक- राजनीतिक संरचनाओं पर औपनिवेशिक प्रभावो का विश्लेषण करता है, तथा उनकी उभरती हुई नई सामाजिक- आर्थिक संरचनाओं का अध्ययन प्रस्तुत करता है|

    • इस सिद्धांत के समर्थक विद्वान अल्पविकसित देशों को परिधियाँ तथा विकसित देशों को केंद्र कहते हैं|

    • इस सिद्धांत की मान्यता है कि तृतीय विश्व के देशों की सामाजिक- आर्थिक प्रक्रियाओं की प्रकृति का निर्धारण निम्नस्तरीय विकास की प्रक्रिया (जो विश्व स्तर पर पूंजीवादी विस्तार का एक परिणाम है) द्वारा होता है|

    • निम्न स्तरीय विकास सदैव बाह्य निर्भरता (पूंजीवादी देशों पर निर्भरता) से उत्पन्न होता है|

    • विकसित देशों में विकास का उच्च स्तर तथा अल्पविकसित देशों में विकास का निम्न स्तर अलग-अलग प्रक्रियाएं न होकर, पूंजीवादी विस्तार के कारण उत्पन्न एक-दूसरे से गुथे हुए दो परिणाम है|

    • इस सिद्धांत के अनुसार केंद्र (विकसित देश) अपने लाभ हेतु परिधियो (अल्पविकसित देशों) के संसाधनों एवं श्रम का शोषण करता है|

    • इसके अनुसार अल्पविकसित देश (परिधि) विकसित देश (केंद्र) पर निर्भर होता है|

    • पूंजीवाद के विस्तार का परंपरागत स्वरूप साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद था, जबकि सामयिक रूप नव उपनिवेशवाद है|


    निर्भरता सिद्धांत का विकास एवं उत्पत्ति

    • लैटिन अमेरिकी आर्थिक सहयोग (ECLA) के प्रतिवेदन से निर्भरता सिद्धांत का विकास हुआ| 

    • इस आयोग की नियुक्ति लैटिन अमेरिकी देशों के निम्न स्तर के विकास का विश्लेषण करने तथा संभावित समाधान सुझाव के लिए की गई थी|

    • इस आयोग का मत था कि लैटिन अमेरिकी देशों द्वारा बाह्य विदेशी सहायता का जो कार्यक्रम अपनाया हुआ है, वह इनके शोषण का यंत्र बना न कि इनके विकास का समाधान|

    • फुर्तादो तथा संकल ने तर्क दिया कि स्थानीय देशों में आधुनिक पूंजीवादी संस्थाओं के आगमन से ही लैटिन अमेरिकी व दूसरे निम्नस्तरीय विकसित राज्यों में विकास का निम्नस्तर रहा|”


    निर्भरता सिद्धांत के समर्थक विद्वान-

    • एंड्रे गुंडर फ्रैंक, वालस्ट्रेन, डॉस सांतोस, संकल, फुर्तादो, स्टावनहेगन, यूजो फालेटो तथा फ्रांज फैनन  आदि|

    • फ्रांज फैनन ने तीसरे विश्व के देशों को ‘पृथ्वी के गिरे हुए दुर्दशा वाले राज्य’ कहा है|


    निर्भरता सिद्धांत: AG  फ्रैंक तथा वाल्सर्टेन के विचार-


    • फ्रैंक के विचार- 

    • फ्रैंक ने पश्चिम में पूंजीवाद के विकास के संदर्भ में निम्नस्तरीय विकास की प्रक्रिया की व्याख्या की है|

    • फ्रैंक ने डॉस सांतोस के इस मत से सहमति प्रकट की कि निर्भरता एक परिसीमित करने वाली स्थिति है, जो की परिधि के राज्यो के विकास की संभावनाओं को सीमित करती है|

    • फ्रैंक के मत तृतीय विश्व के देशों का निम्न-स्तरीय विकास कम विकसित तथा विकसित देशों में संबंधों से इतिहास की उपज है|


               फ्रैंक ने पूंजीवाद के तीन विरोधाभास बताएं हैं-

    1. आर्थिक अतिरेक के विनियोग तथा छीना-झपटी का विरोधाभास

    2. महानगरीय उपग्रही ध्रुवीकरण का विरोधाभास

    3. परिवर्तन में निरंतरता का विरोधाभास


    1. आर्थिक अतिरेक के विनियोग तथा छीना-झपटी का विरोधाभास-

    • यह विरोधाभास पूंजीवाद की शोषण प्रकृति और क्षेत्र को दर्शाता है|

    • विकसित देश (केंद्र) कम विकसित देशों (परिधियो) के आर्थिक अतिरेक की छीना-झपटी कर लेते हैं|


    1. महानगरीय उपग्रही ध्रुवीकरण विरोधाभास-

    • फ्रैंक “आर्थिक विकास तथा निम्न स्तर का विकास दोनों संबंधित तथा गुणात्मक है| संरचनात्मक रूप में दोनों एक दूसरे से भिन्न होते हैं, परंतु फिर भी प्रत्येक दूसरे के साथ संबंधों द्वारा उत्पन्न होता है| 


    1. परिवर्तन में निरंतरता का विरोधाभास

    • यह निम्न स्तर के विकास को जन्म देता है|

    • पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार एवं विकास ने अपनी आवश्यक संरचनाओ तथा विरोधाभास को निरंतर बनाए रखा, जिससे कम विकसित देशों में निम्नस्तर का विकास रहा है|

    • निम्नस्तरीय विकास की समस्या के समाधान के लिए फ्रैंक यह सुझाव देता है कि साम्राज्यवाद और बुर्जुआ वर्ग को पहचानकर समाजवादी क्रांति द्वारा इनको समाप्त किया जाय|


    • Note- मार्क्स द्वारा प्रस्तुत पूंजीवाद तथा समाजवाद के विचारों को न मानते हुए भी फ्रैंक विद्यमान व्यवस्था की समाप्ति के लिए समाजवादी क्रांति की आवश्यकता को स्वीकार करता है|


    • वालस्ट्रेन के विचार

    • A G फ्रैंक की तरह वालस्ट्रेन भी विकास तथा निम्न स्तरीय विकास को एक ही ऐतिहासिक प्रक्रिया, पूंजीवादी विकास एवं विस्तार के दो भिन्न परिणाम बताता है|

    • वालस्ट्रेन विश्व पूंजीवादी प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए केंद्र-परिधि मॉडल को अपनाता है|

    • वह पूंजीवादी देशों के आर्थिक विकास की व्याख्या करता है तथा उससे उत्पन्न शोषण के स्वरूप का विश्लेषण करता है|

    • वालस्ट्रेन ने सामाजिक संपूर्णताओ (Social Totalities) को श्रम-विभाजन के संदर्भ में परिभाषित किया है|


    • वाल्सर्टेन के अनुसार दो प्रकार की सामाजिक व्यवस्थाएं हैं-

    1. साम्राज्य (Empires)- इसमें कार्यात्मक-आर्थिक विभाजन को साम्राज्यशाही राज्य के  प्रभुत्वाधीन रखा जाता है|

    2. विश्व आर्थिक व्यवस्थाएं- इसमें कई राजनीतिक संप्रभु होते हैं, जिसमें कोई भी अकेला समस्त आर्थिक व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने में सक्षम नहीं होता है| 


    • वालस्ट्रेन के मत में एक विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तीन संरचनात्मक स्थितियां होती है-

    1. केंद्र

    2. परिधि

    3. अर्ध-परिधि

    • ये विश्व व्यापार बाजार में एक दूसरे से गुंथी हुई है| 


    • साम्राज्यों के अंत से केंद्र का परिधियों के ऊपर से राजनीतिक प्रभुत्व का तो अंत हो गया, लेकिन आर्थिक रूप में पहले का दूसरे पर प्रभुत्व अभी भी बना हुआ है|


    6.कार्यात्मकवाद का सिद्धांत-


    • प्रवर्तक- डेविड मित्रेनी (मिटरेनी)

    • डेविड मिटरेनी के अनुसार बहुराष्ट्रीय संबंधों के रूप में अधिक पारस्परिक निर्भरता के द्वारा शांति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है|

    • इनके मत में सहयोग की व्यवस्था राजनीतिज्ञों के द्वारा नहीं, तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा की जानी चाहिए|


    • अन्य समर्थक- जोसेफ नाई, अर्नेस्ट हास, JP स्वेल, पॉल टेलर, AJR ग्रम, जॉन बर्टन, किस्टोफर मिशेल आदि |

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रयुक्त कार्यात्मकवाद का सिद्धांत राज्यों के आपसी सहयोग, भाईचारा, शांति का परिवेश स्थापित करने के लिए अधिकतम सामाजिक-कल्याण के कार्यों को संपन्न करने पर जोर देता है|

    • इस सिद्धांत के अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनीति में युद्धों, विवादों, तनावों, झगड़ों को समाप्त करने के लिए विश्व समुदाय के लोगों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण पर ध्यान केंद्रित करना अधिक समीचीन एवं लाभकारी है|


    • कार्यात्मकवाद सिद्धांत के आधारभूत सिद्धांत

    1. ऐसे गैर-राजनीतिज्ञ सहयोगी संगठनों का धीरे-धीरे विकास करना, जो शांति की स्थापना करें तथा युद्ध की आवश्यकता को अप्रसांगिक कर दें|

    2. यह सिद्धांत राज्य को शांति व समृद्धि के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा मानता है|

    3. यह सिद्धांत ‘बिखर जाने वाली (Spillover)’ धारणा पर बल देते हैं अर्थात एक क्षेत्र में सहयोग से अन्य क्षेत्रों में सहयोग के अवसर मिलेंगे|





    7. रचनावाद-

    • अंतरराष्ट्रीय संबंधों में रचनावाद बर्लिन की दीवार और पूर्वी यूरोप में साम्यवाद के पतन के बाद उभरकर आया| 

    • माइकल बर्नेट “रचनावादी अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत को इस रूप में समझा जाता है, कि विचार कैसे अंतर्राष्ट्रीय संरचना को परिभाषित करते हैं, यह संरचना कैसे राज्यों के हितों और पहचान को परिभाषित करती हैं और गैर-राज्य अभिनेता इस संरचना को कैसे पुनः पेश करते हैं|”


    • रचनावाद का प्रमुख सिद्धांत- अंतरराष्ट्रीय राजनीति प्रेरक विचारों, सामूहिक मूल्यो, संस्कृति और सामाजिक पहचान द्वारा निर्मित होती है|

    • रचनावाद का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय वास्तविकता सामाजिक रूप से ज्ञानात्मक/ बौद्धिक संरचनाओं के द्वारा निर्मित होती है|

    • एमेन्यू एडलर “रचनावाद तर्कवादी और व्याख्यात्मक अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों में एक बीच का रास्ता है|”



    नारीवाद

    • 1980 के दशक में नारीवादी विचारधारा का उदय हुआ, जिसमें विश्लेषण का आधार राष्ट्र-राज्य, शक्ति, राष्ट्रीय हित अथवा शासन व्यवस्था नहीं है, बल्कि लैंगिक संबंध है|

    • नारीवादी महिलाओं के उद्धार के लिए लैंगिक व्यवस्था को पुनः निर्धारित करने पर बल देते हैं|

    • नारीवादी समालोचनात्मक सिद्धांतवादियों ने पारिवारिक महिलाओं की विमुक्ति पर बल दिया है|

    • नारीवादी उन कारकों की खोज पर बल देते हैं, जिनमें महिलाओं पर उचित ध्यान नहीं दिया गया|

    • नारीवादी यह भी अवलोकन करते हैं, कि किस प्रकार महिलाओं की, लिंग व्यवस्था के द्वारा उपेक्षा की गई|


    • नारीवादी विचारक- कैथिया इनोल, जालेवस्की, गायत्री स्पिवाक, पीटरसन



    • मार्गेंथाऊ की आलोचना-

    • J Amm Tickner (जे एम टिकनर) के द्वारा मार्गेंथाऊ के सभी 6 सिद्धांतों की आलोचना की गई है| उनके अनुसार-

    1. मार्गेंथाऊ अंतरराष्ट्रीय राजनीति को मानव स्वभाव पर आधारित मानता है, जबकि टिकनर ने कहा यह पुरुष का स्वभाव है, मानव का स्वभाव नहीं|

    2. राष्ट्रीय हित को केवल शक्ति के संदर्भ में परिभाषित नहीं किया जा सकता|

    3. शक्ति को प्रभुत्व के रूप में परिभाषित करने से सामूहिक उत्थान की भावना का ह्रास हो जाता है|

    4. सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं और घटनाओं का नैतिक प्रभाव होता है|

    5. इनके अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मानव के सार्वभौमिक स्वभाव और नैतिक सिद्धांतों की व्याख्या आवश्यक है|

    6. राजनीति को स्वायत्त कहने का दृष्टिकोण पितृ-सत्तात्मक सत्ता का समर्थन है, जिससे महिलाओं का दृष्टिकोण उपेक्षित हो जाता है|


    • नैंसी हार्टसोक (Nancy Hartsock) ने मार्गेंथाऊ के शक्ति के विचार को पुरुष पर पुरुष की शक्ति के रूप में बताया है|

    • Jane Jaquette (जाने जैक्यूटे) के अनुसार महिला शक्ति अनुनय- विनय और सहयोग पर आधारित होती है, परंतु महिलाओं का शक्ति पर नियंत्रण नहीं रहा|

    • नारीवादियों ने यथार्थवाद की कड़ी आलोचना की है| नारीवादियों के अनुसार ‘शक्ति राजनीति मूलतः पितृसत्तात्मक है, क्योंकि शक्ति की संकल्पना पुरुषों से जुड़ी हुई, महिलाओं को कमजोर बताया गया है|’


    नारीवाद: युद्ध और शांति-

    • नारीवादियों ने मार्गेंथाऊ की इस मान्यता को अस्वीकार किया कि “मानव स्वभाव से आक्रमक व शक्ति प्राप्त करने वाला है|” नारीवादियों के मत में यह मुलत: पुरुषों का स्वभाव है, महिलाओं का नहीं|

    • उग्र नारीवादियों के अनुसार जेंडर के कारण विश्व में युद्ध एवं अशांति उत्पन्न होती है| उग्र नारीवादियों के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय राजनीति के युद्ध का मूल कारण शासन सत्ता पर पुरुषों का नियंत्रण है| इनके मत में यदि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में महिलाओं का शासन सत्ता पर नियंत्रण हो जाए तो, पूरे विश्व में शांति होगी|

    • नारीवादियों के अनुसार युद्ध  मूलतः जेंडर से संबंधित है| इनके अनुसार युद्धों का संचालन तो पुरुष करते हैं, लेकिन युद्ध में सर्वाधिक पीड़ित महिलाएं होती हैं| 

    • पीटरसन और रुनयान (ग्लोबल जेंडर इशूज बाऊल्डर 1993) के अनुसार “महिलाएं, पुरुषों की तुलना में विश्व का सबसे उपेक्षित वर्ग है|”


    नारीवाद और सुरक्षा

    • नारीवासियों ने सुरक्षा की राज्य केंद्रित यथार्थवादी संकल्पना की आलोचना की है|

    • इनके अनुसार सुरक्षा मूलत: समाज केंद्रित संकल्पना है|

    • नारीवादियों ने यथार्थवादियों की आलोचना करते हुए कहा कि राष्ट्र-राज्यो द्वारा अर्जित हथियारों का भंडार का प्रयोग राज्य की सुरक्षा के बजाय, पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किया जाता है|

    • इनके अनुसार शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं का विस्तार तथा कुपोषण व गरीबी समाप्ति आदि सुरक्षा के व्यापक रूप है|


    उदार नारीवाद-

    • उदार नारीवादियो ने राजनीतिक निर्णय निर्माण और संस्थाओं एवं सैन्य व्यवस्थाओं आदि में महिलाओं के समान प्रतिनिधित्व का समर्थन किया है|

    • इनके अनुसार महिलाओं को समान प्रतिनिधित्व देने से राष्ट्रीय हित में वृद्धि होगी| राष्ट्र अत्याधिक शक्तिशाली होगा| यदि देश की आधी जनसंख्या अशक्त एवं कमजोर है, तो संपूर्ण राष्ट्र का विकास संभव नहीं है|


    जेंडर जस्टिस- 

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में 1970 के दशक से लैंगिक न्याय का मुद्दा अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है|

    • UNO द्वारा 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में घोषित किया गया|

    • UNO द्वारा 1975 से 1985 के दशक को अंतर्राष्ट्रीय महिला दशक के रूप में मनाया गया|

    • 1979 में मानवाधिकार के घोषणा पत्र में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव और शोषण को मानवाधिकार का उल्लंघन माना|


    पर्यावरणीय नारीवाद

    • नारीवादियों के अनुसार पर्यावरणीय क्षति का मूल कारण, पुरुषों का प्रभुत्वशाली एवं आक्रामक व्यवहार है|

    • इनके अनुसार महिलाओं का स्वभाव प्रकृति के अनुरूप होता है| मनोवैज्ञानिक रूप में महिलाओं में देखभाल, स्नेह और संबंधों को बनाए रखने का गुण पाया जाता है|


    वैश्विक नारीवादी आंदोलन में समकालीन संकट-

    • वैश्विक नारीवादी आंदोलन में समकालीन संकट निम्न है

    1. विकसित देशों (अमेरिका) में श्वेत एवं अश्वेत महिलाओं के सरोकारों में विभाजन उत्पन्न हो चुका है|

    2. विकसित एवं विकासशील देशों की महिलाओं की स्थिति, मांग एवं समस्याओं में अंतर पाया जाता है|

    3. विकसित देशों में महिला संगठन, विकासशील देशों की महिलाओं के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं|

    4. उत्तर-उपनिवेशवादी नारीवादियों के अनुसार, विकासशील देशों की महिलाएं एक ओर तो उपनिवेशवादी व्यवस्था के द्वारा शोषित होते हैं, दूसरी ओर पितृ-सत्तात्मक सत्ता के द्वारा, जबकि विकसित देशों की महिलाओं के समक्ष केवल दूसरी समस्या है|



    उत्तर आधुनिकवाद


    • प्रमुख प्रतिपादक- रिचर्ड एशले है, जिनकी रचना ‘The Achievement of Post Structuralism’ 1996

    • उत्तर आधुनिकवाद- प्रमुख विचारक- मिशेल्स फूकोल्ट (फूको), देरिंदा, ल्यूटार्ड आदि|


    • उत्तर आधुनिक वाद एक सामाजिक सिद्धांत है, जिसकी उत्पत्ति फ्रांस में उत्तर युद्ध काल में अस्तित्ववाद के दर्शन के प्रतिक्रिया स्वरूप हुई|

    • अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उत्तर आधुनिकवाद का प्रवेश 1980 के दशक में हुआ| 

    • इनके अनुसार स्वयं आधुनिकता एवं आधुनिकरण का वह संपूर्ण विचार, जो सभी के लिए प्रगति एवं बेहतर जीवन जुटा सकता है, वह सबसे महत्वपूर्ण संकल्पना है|

    • उत्तर आधुनिकवादी यथार्थवाद एवं उदारवाद दोनों के आलोचक हैं|

    • जहां नव-यथार्थवादियों ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक बनाने पर बल दिया, वही मार्क्सवादी स्वयं को वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ होने का दावा करते हैं|

    • जबकि उत्तर आधुनिकवाद के अनुसार कोई भी ज्ञान वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक नहीं होता है, बल्कि सामाजिक व्यवस्था का परिणाम होता है|

    • इन्होंने शास्त्रीय उदारवादियों के ज्ञानोदय (Enlightenment) में विश्वास को अस्वीकार किया है|

    • उत्तर आधुनिकवाद के अनुसार ज्ञान सार्वभौमिक सत्य न होकर विभिन्न दृष्टिकोण एवं परिप्रेक्ष्य पर आधारित है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति का कोई भी सिद्धांत पूर्ण नहीं है|

    • इनके अनुसार ज्ञान एवं शक्ति एक दूसरे से अंतसंबंधित है|

    • नव यथार्थवाद अथवा नव उदारवाद तात्विक वर्णन के उदाहरण है, जो सामाजिक विश्व के बारे में वास्तविकता की खोज पर बल देते हैं| उत्तर-आधुनिकवादी इसे अस्वीकार करते हैं| इस कारण कुछ विचारक उत्तर-आधुनिकवाद को ‘तात्विक वर्णन के प्रति संदेह’ के रूप में परिभाषित करते हैं|

    • उत्तर आधुनिकतावादी विखंडनवादी (Deconstructivism) होते हैं और वे सिद्धांतों को ‘वर्णनात्मक अथवा तात्विक वर्णन’ मानते हैं| इनके अनुसार चूंकि सिद्धांतकारों के दृष्टिकोण एवं पूर्वाग्रहों द्वारा वर्णनात्मक अथवा तार्किक वर्णन को मिला दिया गया है, इसलिए सिद्धांतों का भी खंडन किया जा सकता है|



    मार्क्सवाद


    • मार्क्सवादी दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय संबंधों की संपूर्ण प्रकृति और परिवर्तन का विश्लेषण करता है|

    • कार्ल मार्क्स तथा उनके अनुयायियों के मत में अंतरराष्ट्रीय राजनीति, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वर्ग संघर्ष का विस्तृत रूप है|

    • इसमें पूंजीवादी देश, गरीब देशों का शोषण करते हैं और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए युद्ध और साम्राज्यवाद की नीतियों को अपनाते हैं|

    • इस समस्या का एक समाधान है- विश्व के सभी मजदूर जिनका कोई देश नहीं होता है, संगठित हो तथा वैश्विक पूंजीवाद को क्रांति द्वारा समाप्त कर दें|

    • मार्क्सवादी अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषण के लिए आर्थिक कारकों के विश्लेषण पर बल देते हैं|

    • इनके अनुसार अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषण में राज्य नहीं, बल्कि वर्ग (पूंजीवादी व सर्वहारा वर्ग) मूल इकाई है|

    • इनके अनुसार पूंजीवाद व साम्राज्यवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं|


    • मार्क्सवादी दृष्टिकोण के दो उद्देश्य है-

    1. तात्काल्कि उद्देश्य- पूंजीवाद को उखाड़ फेंकना 

    2. अंतिम उद्देश्य- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक साम्यवादी समुदाय का निर्माण करना, जिसमें पूंजीवादी व्यवस्था की बुराइयां- शोषण, विस्तारवाद, असमानता, युद्ध न हो|


    • मार्क्सवादी दृष्टिकोण के प्रमुख तत्व-

    • अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिए ‘मार्क्सवादी सिद्धांत’ नामक लेख में प्रो. अरुण बोस ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मार्क्सवादी विचारधारा के चार आधार तत्वों को उल्लेखित किया है- 


    1. सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयवाद-

    • मार्क्सवाद का अंतिम उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद की स्थापना है|

    • यह बुर्जुआ राष्ट्रवाद के विरोध में तथा सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयवाद के पक्ष में है|


    सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयवाद के सिद्धांत में निम्न शामिल हैं-

    1. संसार के मजदूरों का सामूहिक हित होता है, जो सभी प्रकार की राष्ट्रीयता की भावना से स्वतंत्र होता है|

    2. मजदूरों का कोई देश नहीं होता है|

    3. सर्वहारा की मुक्ति के लिए संगठित कार्यवाही पहली शर्त है|

    4. एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति द्वारा जब शोषण समाप्त हो जाएगा, तब उसी अनुपात में एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण भी समाप्त हो जाएगा|


    1. साम्राज्यवाद का विरोध-

    • मार्क्सवादी अंतरराष्ट्रीय संबंधों में साम्राज्यवाद/ विस्तारवाद (जो कि पूंजीवाद का अंतिम विकास है) को समाप्त करने पर बल देते है|


    1. आत्मनिर्णय का अधिकार-

    • मार्क्सवादीयों के मत में विश्व के सभी देशों को अपनी राजनीतिक नीति निर्धारित करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और उपनिवेशवाद समाप्त होना चाहिए|


    1. शांतिमय सह अस्तित्व

    • मार्क्सवादियों के मत में सभी राष्ट्र-राज्यों को बिना किसी देश की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था की आलोचना किए, शांतिमय ढंग से रहना चाहिए|


    मार्क्स, लेनिन व अंतरराष्ट्रीय राजनीति

    • मार्क्स ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में किसी भी व्यवस्थित सिद्धांत का निर्माण नहीं किया है| मार्टिन ब्राइट के अनुसार ‘अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मार्क्सवाद का कोई सिद्धांत नहीं है|”

    • लेनिन ने परोक्ष रूप में अंतरराष्ट्रीय राजनीति का विश्लेषण किया, तथा साम्राज्यवाद का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि “पूंजीवादी देश बुर्जुवा वर्ग के सदस्य हैं तथा एशियाई-अफ्रीकी देश, सर्वहारा वर्ग के सदस्य हैं|”


    बिल वारेन की संकल्पना-

    • रचना- Imperialism Pioneer of Capitalism 1980

    • इस रचना में वॉरेन साम्राज्यवाद को सकारात्मक शक्ति मानते हुए, इसे पूंजीवाद के विकास में सहायक माना है|

    • इन्होंने तीसरी दुनिया के देशों में उपनिवेशवाद को पूंजीवाद के विकास में सहायक माना है, क्योंकि उपनिवेशवादी व्यवस्था के द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में उपभोक्ता वस्तुओं में वृद्धि हुई तथा शिक्षा व चिकित्सा जैसी बुनियादी व्यवस्था की वृद्धि हुई|


    Note- तीसरी दुनिया शब्द का प्रयोग फ्रांस के अल्फ्रेड सोवी ने किया |


    जस्टिन रोजेन बर्ग- पूंजीवाद व वैश्विक सामाजिक संबंधों का विश्लेषण-

    • रोजेन बर्ग ने यथार्थवाद की आलोचना करते हुए कहा कि “यथार्थवादी सिद्धांत, अनैतिहासिक है|”

    • रोजेन बर्ग के अनुसार “अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने के लिए अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली की समझ आवश्यक है|”

    • रोजेन बर्ग ने यथार्थवाद की आलोचना करते हुए कहा कि “यथार्थवाद के दो मूल आधार हैं- ‘अराजकता एवं संप्रभुता’, जिनको आर्थिक प्रणाली के अध्ययन के द्वारा बेहतर रूप में समझा जा सकता है|”


    संरचनात्मक मार्क्सवाद- 

    • संरचनात्मक सिद्धांत का विकास सर्वप्रथम भाषा वैज्ञानिक सौसर (Sassur) के द्वारा किया गया| इसके अनुसार “बोलने के माध्यम से व्यक्ति भाषायी संरचना का प्रयोग करता है|”

    • समाजशास्त्र में संरचनात्मक सिद्धांत का विकास ‘लेवी स्ट्रॉस’ के द्वारा किया गया|

    • मार्क्सवाद में इसका प्रयोग अल्थ्यूसर ने किया|

    • अल्थ्यूसर ने परंपरागत मार्क्सवादी विचारों में संशोधन किया| इसके अनुसार समाज में अर्थव्यवस्था के अलावा राजनीतिक, वैचारिक, तकनीकी संरचनाएं भी विद्यमान रहती हैं| इसलिए अर्थव्यवस्था ही समूचे समाज को प्रभावित नहीं करती|

    • अल्थ्यूसर के अनुसार समाज की प्रत्येक संरचना पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने का कार्य करती हैं| इसलिए आर्थिक आधार पर समूचे समाज की पर्याप्त समझ नहीं हो सकती, बल्कि वैचारिक, तकनीकी और वैज्ञानिक संरचनाओं का प्रयोग पूंजीवाद को बनाए रखने में किया जा रहा है| 


    पराश्रितता का सिद्धांत व अंतरराष्ट्रीय राजनीति

    • प्रमुख समर्थक- समीर अमीन व आंद्रे गुंडर फ्रेंक

    इनकी रचना- Capitalism and Underdevelopment in Latin America: Historical Studies of Chilli and Brazil 1967

    • पराश्रितता सिद्धांतकारों ने अपना मूल विचार, लेनिन के विचारों से प्राप्त किया|

    • इनके अनुसार ‘विश्व केंद्र (कोर) एवं परिधि में विभाजित है, तथा केंद्र, परिधि का शोषण करते हैं|’

    • इनके अनुसार ‘तीसरी दुनिया के देश अविकसित नहीं, बल्कि अल्पविकसित हैं|’



    सामाजिक रचनावाद

    • सामाजिक रचनावाद के मुख्य प्रतिपादक- एलेक्जेंडर वेन्डट (Alexander wendt)

    रचना- Anarchy is What States Make of it: the Social Construction of Power Politics 1992


    • सामाजिक रचनावाद के अनुसार राज्य एवं सरकार मानव निर्मित संस्थान है, इसलिए राज्यों के बीच के संघर्षमूलक संबंधों को शांतिपूर्ण संबंधों में बदला जा सकता है|

    • इसके अनुसार सामाजिक और राजनीतिक विश्व भौतिक नहीं है, बल्कि मानवीय चेतना का विषय है| इसलिए अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का सौर मंडल की भांति स्वतंत्र रूप में अस्तित्व नहीं होता, बल्कि इसका अस्तित्व लोगों की परस्पर चेतना के परिणामस्वरूप होता है|

    • इसके अनुसार कोई बाह्य, वस्तुगत एवं सामाजिक यथार्थ नहीं होता है| 

    • सामाजिक रचनावादियों ने व्यवहारवादियों और व्यवस्था उपागम की आलोचना की है, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय संबंधों का विश्लेषण वैज्ञानिक रूप में करने का प्रयास किया है|

    • इनके अनुसार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था मानव का वैचारिक और बौद्धिक निर्माण है| अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था मानव प्रयासों द्वारा निर्मित होती है| इस कारण जिस तरह मानव के विचार परिवर्तित होते हैं, उसी तरह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में परिवर्तन हो जाता है|

    • इनके अनुसार सामाजिक और राजनीतिक नियमों को प्राकृतिक रूप में व्याख्यायित करना तार्किक नहीं है, क्योंकि सामाजिक और राजनीतिक विश्व प्रकृति का भाग नहीं है|

    • इनके अनुसार राजनीतिक और सामाजिक विश्व का निर्माण मानव के विचार और चेतना के द्वारा होता है|

    • इन विचारकों के अनुसार समाज में असहमति या संघर्ष का मूल कारण संचार या बौद्धिक विचार-विमर्श का अभाव है|


    • रचनावादियों द्वारा उदारवाद की आलोचना

    • उदारवादी वस्तु के आदान-प्रदान (व्यापार) व आर्थिक विकास के द्वारा शांति को स्थापित करने की बात करते हैं, अर्थात अंतरराष्ट्रीय राजनीति की भौतिकतावादी व्याख्या करते हैं| जबकि रचनावादियों के अनुसार मानव विचारों को भौतिक तत्वों से नहीं, विचारों से बदला जा सकता है|



    आलोचनात्मक सिद्धांत 

    • फ्रैंकफर्ट स्कूल के द्वारा आलोचनात्मक सिद्धांत का आधार रखा, जिसे नव-मार्क्सवाद भी कहा जाता है|

    • प्रतिपादक- 

    • रॉबर्ट W कॉक्स 

    रचना- Social forces States and World Order: Beyond International Relations theory 1981


    • एंड्रयू लिंकलेटर 

    रचना-

    1. The Achievement of Critical theory 1996

    2. Realism, Marxism and Critical International theory

    3. Men and Citizens in International Relation


    • एंड्रयू लिंकलेटर ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में नव-मार्क्सवाद का प्रयोग किया है|

    • आलोचनात्मक सिद्धांतकार मार्क्स की वैज्ञानिक और भौतिकतावादी व्याख्या के बजाय मानवतावादी एवं वैचारिक व्याख्या को स्वीकार करता है|

    • आलोचनात्मक सिद्धांतकार मानवीय प्रगति एवं पूंजीवाद के विरोधी हैं|

    • इन्होंने परंपरागत मार्क्सवाद का खंडन किया है, जिसमें केवल आर्थिक आधार पर बल दिया गया है|

    • इनके अनुसार कोई भी सिद्धांत वस्तुनिष्ठ एवं तटस्थ नहीं होता, बल्कि विशेष उद्देश्यों के लिए निर्मित होता है|

    • नव मार्क्सवादी, युवा मार्क्स की रचना ‘दार्शनिक आर्थिक पांडुलिपि’ 1948 से प्रभावित थे|

    • इन्होंने उदारवादियों को बुर्जुआ व शोषणकारी बताया है तथा वैज्ञानिक मार्क्स की वस्तुनिष्ठता व आर्थिक अपचयनवाद के सिद्धांत का खंडन किया|

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