उच्चतम न्यायालय (Supreme Court)
1773 के रेगुलेटिंग एक्ट में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना का प्रावधान किया गया|
इस एक्ट के तहत 1774 में कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना गई|
लॉर्ड इम्पे प्रथम मुख्य न्यायाधीश थे |
1935 के भारत शासन अधिनियम में दिल्ली में फेडरल कोर्ट (संघीय न्यायालय) की स्थापना का प्रावधान किया गया|
इस एक्ट के तहत 1 अक्टूबर 1937 को दिल्ली में फेडरल कोर्ट की स्थापना की गई|
मॉरिस ग्वेयर फेडरल कोर्ट के पहले मुख्य न्यायाधीश थे|
राज्यों तथा राज्य व केंद्र के मध्य विवादों का निपटारा करना इसका क्षेत्राधिकार था|
संविधान सभा के एक सदस्य M R जयकर इस संघीय न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश भी रह चुके हैं|
Note- यह सर्वोच्च न्यायालय नहीं था, क्योंकि इसके निर्णय के विरुद्ध लंदन के प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी|
वर्तमान उच्चतम न्यायालय का गठन 28 जनवरी 1950 को हुआ| यह फेडरल कोर्ट के स्थान पर बना|
हीरालाल J.कानियां प्रथम मुख्य न्यायाधीश थे|
Note- हीरालाल J. कानिया फेडरल कोर्ट के अंतिम (चौथा) मुख्य न्यायाधीश था|
H.J कानिया प्रथम मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनकी पद पर रहते हुए मृत्यु हुई|
इसके अलावा सब्सयाची मुखर्जी की भी पद पर रहते हुए मृत्यु हुई थी|
भारत में एकीकृत न्यायिक व्यवस्था है, जिसमें शीर्ष स्थान पर उच्चतम न्यायालय, उसके अधीन उच्च न्यायालय हैं तथा उच्च न्यायालय के अधीन अधीनस्थ न्यायालय है|
भारत के संविधान के भाग V के अध्याय- 4 में अनु 124 से 147 तक उच्चतम न्यायालय के बारे में उल्लेख है|
न्यायालय की एकल व्यवस्था भारत शासन अधिनियम 1935 से ग्रहण की गई है|
उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन [अनु 124 (1)]
भारत में एक उच्चतम न्यायालय होगा, जिसमें एक मुख्य न्यायधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीश होंगे|
संसद विधि बनाकर न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर सकती है|
संसद द्वारा सदस्यों की संख्या में वृद्धि-
1960- 1 + 12
1977- 1 + 16
1986- 1 + 25
2009- 1 + 30
2019- 1 + 33
Note- इन न्यायाधीशों में एक मुस्लिम अवश्य होगा|
न्यायाधीशों की योग्यता [अनुच्छेद 124(3)]-
वह भारत का नागरिक होना चाहिए और-
किसी उच्च न्यायालय या दो या दो से अधिक उच्च न्यायालयों में कम से कम 5 वर्ष तक न्यायधीश रहा हो| या
किसी उच्च न्यायालय या दो या दो से अधिक उच्च न्यायालयो में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो| या
राष्ट्रपति की राय में परंपरागत विधिवेता हो| (अभी तक इस आधार पर कोई न्यायधीश नहीं बना है)
S.M सीकरी अधिवक्ता की योग्यता के आधार पर S.C में न्यायधीश बनने वाले पहले व्यक्ति थे|
इंदु मल्होत्रा भी अधिवक्ता की योग्यता के आधार पर न्यायधीश बनी है| और इस आधार पर न्यायाधीश बनने वाली प्रथम महिला न्यायधीश है|
Note- सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर एक भी महिला नियुक्त नहीं हुई है|
मीरा साहेब फातिमा बीबी सर्वोच्च न्यायालय की प्रथम महिला न्यायाधीश है|
उच्चतम न्यायालय में अब तक 11 महिलाएं न्यायाधीश बन चुकी हैं-
1 मीरा साहेब फातिमा बीबी 2 सुजाता मनोहर
3 रूमा पॉल 4 ज्ञान सुधा मिश्रा
5 रंजना प्रकाश देसाई 6 आर भानुमति
7 इंदु मल्होत्रा 8 इंदिरा बनर्जी
9 हीमा कोहली 10 बेला त्रिवेदी
11 बीवी नागारत्ना
ज्ञान सुधा मिश्रा राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुकी है|
उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर को सेवानिवृत्ति के बाद फिजी के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया है|
न्यायाधीशों की नियुक्ति- [अनुच्छेद 124 (2)]-
राष्ट्रपति S.C के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति S.C और H.C के न्यायाधीशों से परामर्श करके (जिससे परामर्श करना आवश्यक समझे) अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र के द्वारा करेगा|
मुख्य न्यायाधीश के अलावा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति S.C के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श सदैव करेगा|
Note- राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में वारंट (अधिपत्र) जारी करता है व वारंट को मुख्य सचिव पढ़कर सुनाता है|
राष्ट्रपति के द्वारा निम्न नियुक्तियों के मामले में वारंट जारी किया जाता है-
S C के सभी न्यायाधीश
H.C के सभी न्यायाधीश
राज्यपाल
CAG
1950 से लेकर 1993 तक मंत्रीपरिषद की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती थी|
SP गुप्ता बनाम भारत संघ 1982- इस मामले में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में निर्णय दिया| इसमें कहा कि मुख्य न्यायाधीश की परामर्श राष्ट्रपति के लिए परामर्श है, बाध्यकारी नहीं है| इसे प्रथम न्यायाधीश वाद भी कहते हैं| इसे न्यायाधीश स्थानांतरण वाद के नाम से भी जाना जाता है|
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ 1993 के मामलों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रचलित व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया और उसके स्थान पर कॉलेजियम व्यवस्था की स्थापना की गई| (J.S वर्मा पीठ का निर्णय था)
लेकिन कॉलेजियम शब्द 1998 में प्रयुक्त हुआ|
इसे द्वितीय न्यायाधीश वाद कहा जाता है|
इसमें निर्णय दिया गया कि नियुक्ति के संबंध में परामर्श का तात्पर्य सहमति है, राष्ट्रपति परामर्श मानने के लिए बाध्य है, यदि राष्ट्रपति उनकी सलाह को नहीं मानता है, तो उसका कारण बताना होगा|
इसमें उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय भी दिया कि वरिष्ठतम न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाना चाहिए|
Note- न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में कॉलेजियम जैसा शब्द संविधान में उल्लेखित नहीं है|
कॉलेजियम व्यवस्था- कुल सदस्य 5
अध्यक्ष- मुख्य न्यायाधीश (CJI)
सदस्य- चार वरिष्ठतम न्यायधीश
1993 में कॉलेजियम व्यवस्था की स्थापना की गई|
तृतीय न्यायाधीश वाद- 1998 में राष्ट्रपति KR नारायण द्वारा S.C से लिए गए प्रेसीडेंशियल रेफरेंस (सलाह संदर्भ) (अनु.143) में यह निर्णय दिया गया कि राष्ट्रपति कॉलेजियम की सिफारिश को एक बार पुनर्विचार के लिए भेज सकता है|
इसमें कॉलेजियम का विस्तार हुआ तथा दो वरिष्ठ न्यायाधीशों की जगह चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों का प्रावधान किया गया|
इसे तृतीय न्यायाधीश वाद कहा जाता है|
संविधान समीक्षा आयोग 2002- M.N वेंकटचलैया (पूर्व मुख्य न्यायाधीश) की अध्यक्षता वाले संविधान समीक्षा आयोग 2002 ने कोलेजियम व्यवस्था को समाप्त कर न्यायिक नियुक्ति आयोग (JAC) की स्थापना का सुझाव दिया|
वर्ष 2013 में इस आयोग की स्थापना हेतु 120 वा संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में लाया गया| वर्ष 2014 में लोकसभा भंग हो जाने के कारण यह विधेयक में समाप्त हो गया|
12 अगस्त 2014 को JAC की स्थापना के लिए 121वां सविधान संशोधन विधेयक लाया गया जो दोनों सदनों द्वारा पारित हो गया तथा 31 दिसंबर 2014 को राष्ट्रपति ने स्वीकृति दे दी|
1 जनवरी 2015 को यह 99 वां संविधान संशोधन के रूप में लागू हुआ|
राज्यसभा में एकमात्र व्यक्ति राम जेठमलानी ने इसका विरोध किया था|
99 वां संविधान संशोधन-
इसके द्वारा निम्न अनुच्छेद जोड़े गए-
अनुच्छेद 124 A- इसके द्वारा NJAC (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) की स्थापना की गई थी| मुख्य न्यायाधीश इसके अध्यक्ष होते थे| इसके अलावा इसके 5 सदस्य थे| (कुल 6 सदस्य)
5 सदस्य-
उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश
भारत का विधि मंत्री (पदेन सदस्य)
राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त दो अन्य व्यक्ति
अनुच्छेद 124 (B)- NJAC के कार्य
S.C के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में राष्ट्रपति को सिफारिश करना|
H.C के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में राष्ट्रपति को सिफारिश करना|
H.C के न्यायाधीशों के स्थानांतरण के संदर्भ में राष्ट्रपति को सिफारिश करना|
अनुच्छेद 124 (C)-
अनुच्छेद 124A व अनुच्छेद 124B के अलावा अन्य मामलों पर संसद कानून बना सकती है|
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ 2015-
इस मामले में 99 वें संविधान संशोधन को चुनौती दी गई|
J.S खेहर (S.C के प्रथम सिक्ख न्यायाधीश) संविधान पीठ के अध्यक्ष थे|
16 अक्टूबर 2015 को 99वां संविधान संशोधन आधारभूत संरचना (शक्तियों का पृथक्करण) के उल्लंघन के कारण रद्द कर दिया|
इसे चतुर्थ न्यायाधीश वाद कहा जाता है|
इस वाद में कॉलेजियम व्यवस्था को पुनः स्थापित कर दिया|
मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति-
मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के संदर्भ में संविधान मौन है|
सामान्यतः वरिष्ठतम न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश बनाया जाना परंपरा है| हालांकि इस परंपरा का दो बार उल्लंघन किया जा चुका है-
1973 A N रे (केशवानंद भारती वाद में 3 वरिष्ठ न्यायाधीशों J N शैलट, के एस हेगडे, ए एन ग्रोवर ने मूल ढांचे के समर्थन में निर्णय दिया था अतःइन तीनों की वरिष्ठता का उल्लंघन करते हुए अजीत नाथ रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया)
1977 मो. हमीदुल्लाह बेग (A D M जबलपुर बनाम शिवाकांत शुक्ला वाद में (आपातकाल के दौरान) जस्टिस H R खन्ना ने जीवन के अधिकार को निलंबित किए जाने के विरुद्ध निर्णय दिया था, इस कारण इनकी वरिष्ठता का उल्लंघन किया गया)
वर्तमान में S.C के मुख्य न्यायाधीश धनञ्जय यशवंत चंद्रचूड़ (50 वे CJI) है| 9 नवंबर 2022 को इन्होंने शपथ ली थी|
Y.V चंद्रचूड सर्वाधिक समय तक मुख्य न्यायाधीश रहे थे| [7 वर्ष, 1978 से 1985]
K.N (कमल नारायण) सिंह सबसे कम समय मुख्य न्यायाधीश रहे हैं| (17 दिन)
S.C के पूर्व मुख्य न्यायाधीश K सुब्बाराव राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले एकमात्र SC के मुख्य न्यायाधीश थे|
पूर्व न्यायधीश V .R कृष्णन अययर भी राष्ट्रपति का चुनाव लड़ चुके हैं|
K.S हेगडे लोकसभा के एक ऐसे अध्यक्ष हैं, जो S.C के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं|
P. सदाशिवम S.C के एकमात्र मुख्य न्यायधीश हैं, जिन्हें सेवानिवृत्त के बाद राज्यपाल बनाया गया|
रंजन गोगोई ऐसे मुख्य न्यायधीश हैं, जिनको सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रपति ने राज्यसभा में नामित किया है|
शपथ [अनु 124 (6)]
सभी न्यायाधीशों को शपथ राष्ट्रपति दिलाता है या राष्ट्रपति द्वारा अधिकृत व्यक्ति शपथ दिलाता है|
व्यवहार में मुख्य न्यायाधीश को राष्ट्रपति तथा अन्य न्यायाधीशों को मुख्य न्यायाधीश शपथ दिलाता है|
सभी न्यायाधीश अनुसूची-3 में निर्धारित प्रारूप के अनुसार शपथ लेते हैं|
वेतन भत्ता 125-
सभी न्यायाधीशों का वेतन भत्ता भारत की संचित निधि पर भारित होता है|
मुख्य न्यायाधीश का वेतन 280000 तथा अन्य न्यायाधीशों का वेतन 250000 है|
पद पर रहते हुए न्यायाधीशों के वेतन में किसी प्रकार का हानिकारक परिवर्तन नहीं किया जा सकता है|
कार्यकाल-
65 वर्ष आयु तक
सेवानिवृत्ति के बाद भारत सरकार या किसी भी राज्य सरकार के अधीन कोई लाभ का पद धारण नहीं कर सकता है तथा न ही किसी न्यायालय में वकील के रूप में सेवाएं दे सकता है|
त्यागपत्र-
राष्ट्रपति को संबोधित हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा|
न्यायाधीशों को पद से हटाना-
अनुच्छेद 124(4) में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया तथा उनके आधारों का उल्लेख है|
अनुच्छेद 124 (5) के तहत जांच की प्रक्रिया का निर्धारण संसद कानून बनाकर करेगी|
अनुच्छेद 124 (5) के आधार पर संसद ने न्यायधीश जांच अधिनियम 1968 तथा न्यायाधीश जांच नियम 1969 बनाये हैं|
न्यायाधीशों को हटाने का प्रस्ताव किसी भी सदन में लाया जा सकता है|
1968 के अधिनियम के तहत प्रस्ताव लोकसभा में लाए जाने पर कम से कम 100 तथा राज्यसभा में लाए जाने पर कम से कम 50 सदस्यों का समर्थन आवश्यक होता है|
अनुच्छेद 124 (4) के तहत कदाचार अथवा असमर्थता के आरोपों में इन्हें हटाने हेतु प्रस्ताव लाया जाता है|
1968 के अधिनियम के तहत न्यायधीशो पर लगे आरोपों की जांच एक तीन तीन सदस्यीय समिति के द्वारा की जाती है, जिसमें उच्चतम न्यायालय का एक न्यायाधीश, किसी उच्च न्यायालय का एक मुख्य न्यायाधीश तथा विधि का जानकार एक व्यक्ति सदस्य के रूप में होते हैं|
संबंधित सदन के अध्यक्ष/ सभापति के द्वारा इस समिति का गठन किया जाता है तथा समिति अपना प्रतिवेदन इसी अध्यक्ष को सौंपती है|
प्रस्ताव पर चर्चा करने से कम से कम 14 दिन पूर्व न्यायधीश को सूचना देनी पड़ती है|
यदि सदन अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान करने वालों के 2/3 बहुमत (इसमें जो भी अधिक हो) से प्रस्ताव स्वीकार कर देता तो प्रस्ताव दूसरे सदन में जाता है|
दूसरा सदन भी इसी प्रक्रिया द्वारा प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है तो न्यायधीश का पद रिक्त माना जाता है|
Note- इस प्रक्रिया के दौरान भी न्यायाधीशों को सभी शक्तियां और सुविधाएं प्राप्त होती है| न्यायधीश कभी भी निलंबित नहीं होते हैं|
कुछ तथ्य-
SP सिन्हा (इलाहाबाद H.C 1949) एकमात्र न्यायधीश है. जिन्हें हटाया गया था|
V रामास्वामी 1992- SC के एकमात्र न्यायाधीश हैं, जिन्हें हटाने के लिए लोकसभा में प्रस्ताव लाया गया था| प्रस्ताव 2/3 बहुमत से पारित हुआ था लेकिन कांग्रेस के सांसदों द्वारा बहिष्कार किए जाने के कारण ये प्रस्ताव कुल सदस्य संख्या का अपेक्षित बहुमत प्राप्त नहीं कर सका|
दीपक मिश्रा उच्चतम न्यायालय के ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं, जिन्हें हटाने के लिए मई 2018 में राज्य सभा में प्रस्ताव लाया गया था लेकिन सभापति वेंकैया नायडू ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया|
सोमित्र सेन (कोलकाता H.C), P D दीनाकरण (कर्नाटक/ सिक्किम H.C), J B.पारदीवाला (गुजरात) तथा SK सेंगले (जबलपुर MP) ये चार ऐसे न्यायधीश हैं, जिन्हें हटाने हेतु राज्यसभा में प्रस्ताव लाया गया|
सोमित्र सेन प्रथम न्यायाधीश है, जो अपना पक्ष रखने के लिए सदन (राज्यसभा) में उपस्थित हुए|
1999 में S C व H C के न्यायाधीशों पर लगे आरोप की जांच करने हेतु स्वयं न्यायपालिका द्वारा ‘इनहाउस प्रोसीजर’ अपनाया गया था ये 7 चरणों की प्रक्रिया है |
SN शुक्ला (इलाहाबाद H.C के न्यायधीश) ऐसे पहले न्यायधीश है, जिन्हें ‘इन हाउस प्रोसीजर’ के तहत हटाने के लिए मुख्य न्यायाधीश ने जनवरी 2018 में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को पत्र लिखा|
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश (अनु 126)-
अनु126 के अंतर्गत मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त होने पर राष्ट्रपति, S.C के किसी भी न्यायाधीश को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त कर सकता है|
तदर्थ (Ad Hoc) न्यायधीश (अनु 127)-
अनुच्छेद 127 में यह उल्लेखित है कि S.C में गणपूर्ति न होने पर भारत का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से H.C के ऐसे न्यायधीश को जो S.C में न्यायाधीश बनने की योग्यता रखते है, उन्हें S.C में तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर सकेगा|
सेवानिवृत न्यायाधीशों की पुनर्नियुक्ति (अनु-128)
अनु 128 में यह उल्लेखित है कि S.C में गणपूर्ति नहीं होने पर भारत का मुख्य न्यायाधीश रष्ट्रपति की पूर्व सहमति से सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को S.C में नियुक्त कर सकेगा|
Note- तदर्थ तथा सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की पुनर्नियुक्ति पर वे सभी सुविधाएं और शक्तियां प्राप्त होती हैं जो नियमित न्यायधीश को प्राप्त होती है|
अनुच्छेद 348- S.C में सभी कार्यवाहिया अंग्रेजी भाषा में होती है|
अनु 130- S.C दिल्ली में स्थित है| भारत के मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति के अनुमोदन पर S.C की पीठ अन्य स्थान पर स्थापित कर सकते हैं|
न्यायालय का कार्य स्थान दिल्ली में स्थापित किया गया है, परंतु मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से उसकी बैठक किसी और स्थान पर भी कर सकता है| अभी तक हैदराबाद व श्रीनगर में इसकी बैठक हो चुकी है|
उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार या अधिकारिता-
मूल या प्रारंभिक अधिकारिता (अनु 131) -
ऐसे मामले जिनकी सुनवायी केवल उच्चतम न्यायालय करता है-
भारत सरकार का किसी राज्य सरकार के साथ विवाद उत्पन्न होने पर
एक राज्य सरकार का दूसरी राज्य सरकार के साथ विवाद उत्पन्न होने पर
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित विवादों पर निर्णय अनुच्छेद 71 भी सर्वोच्च न्यायालय का आरंभिक क्षेत्राधिकार है|
अपीलीय अधिकारिता-
उच्चतम न्यायालय अपील का सर्वोच्च न्यायालय है|
अनु 132 में यह उल्लेखित है की दीवानी, दांडिक, संविधान की व्याख्या से संबंधित मामलों में उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है|
अनुच्छेद 133 के तहत दीवानी मामलों में उच्च न्यायालय के दिए गए निर्णय के विरुद्ध S.C में अपील की जा सकती है|
अनुच्छेद 134 दाण्डिक मामलों में उच्च न्यायालय के द्वारा दिए गए निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है| लेकिन इसकी 2 शर्तें हैं-
सत्र न्यायालय में चल रहे किसी मामले को उच्च न्यायालय अपने पास मंगवाकर फांसी की सजा सुना दे|
सत्र न्यायालय ने किसी व्यक्ति को बरी कर दिया है और H.C ने अपील में फांसी की सजा सुना दी है|
Note- अनु 134(A) में यह उल्लेखित है कि S.C में अपील हेतु H.C से प्रमाण पत्र प्राप्त करना होता है|
Note- अनु 133 के अंतर्गत यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाण पत्र दे कि मामले में विधि का कोई प्रश्न है तो S.C में अपील की जा सकती है| पहले 20,000 से अधिक का मामला उच्चतम न्यायालय में दर्ज हो सकता है लेकिन 30 वां संशोधन 1972 के द्वारा यह प्रावधान हटा दिया गया|
विशेष याचिका (SLP)- (अनु 136)-
136 (1) उच्चतम न्यायालय अपने विवेक के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में स्थित किसी न्यायालय अथवा अधिकरण द्वारा दिए गए किसी निर्णय या आदेश के विरुद्ध अपील करने की अनुमति दे सकता है|
136 (2) (अपवाद)- लेकिन यह सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा दिए गए निर्णय या आदेश पर यह लागू नहीं होता है|
अनु 136 के तहत ये याचिका उच्चतम न्यायालय में दायर की जा सकती है|
अनु 262-
इसके तहत संसद कानून बनाकर जल संबंधी विवादों के निपटारे के लिए ट्रिब्यूनल (प्राधिकरण) का गठन कर सकती है| संसद कानून बनाकर ट्रिब्यूनल के निर्णय को S.C की अधिकारिता से बाहर कर सकती है|
अनु 329-
इसमें यह उल्लेखित है कि परिसीमन को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है|
उपचारात्मक याचिका-
उच्चतम न्यायालय द्वारा विशेष याचिका खारिज किए जाने के बाद भी प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन के आधार पर यह याचिका उच्चतम न्यायालय में दायर की जाती है|
रूपा हुरा V/S अशोक हुरा (2002) के मामले में पहली बार इस अवधारणा को दिया था|
निर्णयों की समीक्षा या पुनर्विलोकन करना- (अनु 137)
इस अनुच्छेद में यह उल्लेखित है कि S.C अपने द्वारा दिए गए निर्णयो की समीक्षा कर सकता है|
उदाहरण- बेरुबारी वाद 1960 - केसवानंद भारती वाद 1973
गोलकनाथ वाद 1967- केसवानंद भारती वाद 1973
न्यायिक पुनरावलोकन (अनु-13)
संसद द्वारा बनाये गये कानून या कार्यपालिका द्वारा लागू कानून यदि संविधान का उल्लंघन करते हैं, तो S.C ऐसी विधियों को शून्य घोषित कर सकता है|
इस संदर्भ में दो सीमाएं हैं-
24 अप्रैल 1973 के पहले के वे कानून, जो 9वी अनुसूची में शामिल हैं|
ऐसे संविधान संशोधन, जो सविधान की आधारभूत संरचना का उल्लंघन नहीं करते हैं|
अभिलेख न्यायालय- (अनु 129)-
अनु 129 के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए सभी निर्णयो का रिकॉर्ड रखा जाता है| S.C के ये निर्णय भारत के सभी न्यायालयों के लिए संदर्भ या नजीर (Reference) होते हैं| उच्चतम न्यायालय अपनी अवमानना पर दंड दे सकता है|
न्यायिक अवमानना अधिनियम 1971- S.C अपनी अवमानना पर संबंधित व्यक्ति को सजा दे सकता है| इसके तहत पदासीन न्यायधीश को भी सजा दी जा सकती है|
इस एक्ट में न्यायिक अवमानना के दो प्रकार है-
सिविल अवमानना- किसी फैसले, आदेश को नहीं मानना
अपराधिक अवमानना- इसमें ऐसी सामग्री का प्रकाशन और ऐसे कार्य शामिल हैं, जिससे न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचे, अपमान हो (अनुच्छेद 129), न्यायिक प्रक्रिया में बाधा पहुंचे (अनुच्छेद 215), ऐसा वक्तव्य देना, जो न्यायालय की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाएं|
Note- कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायधीश C.S कर्णन भारत के ऐसे पहले न्यायधीश हैं, जिन्हें 2017 में पद पर रहते हुए उच्चतम न्यायालय ने इस आधार पर सजा दी थी|
अनुच्छेद 135-
संघीय न्यायालय की सारी शक्तियां उच्चतम न्यायालय के पास होगी अर्थात फेडरल कोर्ट की अधिकारिकता व शक्तियों का प्रयोग उच्चतम न्यायालय करेगा|
अनुच्छेद 138-
इसके तहत संसद कानून बनाकर उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता में वृद्धि कर सकती है|
अनुच्छेद 139-
इसके तहत संसद कानून बनाकर मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य मामलों में भी S.C को याचिका जारी करने का अधिकार दे सकती है|
अनुच्छेद 139 (A)-
एक ही प्रकार के मामले विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित होने पर उच्चतम न्यायालय उन मामलों को अपने पास मंगवा सकता है या S.C किसी मामले को एक H.C से दूसरे H.C में स्थानांतरित कर सकता है|
अनुच्छेद 141-
उच्चतम न्यायालय के द्वारा घोषित की गई विधि भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी है|
अनुच्छेद 142- उच्चतम न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों का प्रवर्तन या प्रकटीकरण
पूर्ण न्याय के लिए उच्चतम न्यायालय अपने आदेशों को लागू करवाने के लिए विधायिका व कार्यपालिका को निर्देशित कर सकता है|
अनुच्छेद 144-
इसके अंतर्गत यह प्रावधान है, कि भारत के राज्य क्षेत्र के सभी सिविल और न्यायिक प्राधिकारी उच्चतम न्यायालय की सहायता में कार्य करेंगे|
सविधान पीठ (अनु 145)-
संविधान की व्याख्या से संबंधित मामलों में, राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के चुनाव संबंधी विवाद के मामले में, अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति द्वारा परामर्श मांगने पर इस प्रकार की पीठ गठित की जाती है| इसमें कम से कम 5 न्यायाधीश होते हैं|
अनुच्छेद 145 के अनुसार पीठ बहुमत से निर्णय लेती है|
सामान्यतः मुख्य न्यायधीश इस पीठ के अध्यक्ष होते हैं|
सविधान पीठ का गठन मुख्य न्यायाधीश करते हैं|
सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ का गठन केशवानंद भारती मामले 1973 में किया गया| (कुल 13 न्यायाधीशों की बेंच)
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश S.M सीकरी इस पीठ के अध्यक्ष थे|
शांति भूषण बनाम भारत संघ 2017 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया की मुख्य न्यायाधीश ही संविधान पीठ का गठन करेंगे|
अनुच्छेद 145 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय अपने नियम, विनिमय तथा प्रक्रिया का निर्धारण स्वयं करता है| उच्चतम न्यायालय के प्रशासनिक कार्यों का दायित्व मुख्य न्यायाधीश पर है|
Note- मुख्य न्यायाधीश रॉस्टर (कौन सा न्यायधीश कौन सा कार्य करेगा) का आवंटन करता है| इस कारण मुख्य न्यायाधीश को ‘रॉस्टर का मास्टर’ कहा जाता है|
अनुच्छेद 146- इस अनुच्छेद के तहत उच्चतम न्यायालय के सभी अधिकारियों व कर्मचारियों की भर्ती एवं सेवा-शर्तों का निर्धारण भारत के मुख्य न्यायधीश अथवा उसके द्वारा नियुक्त न्यायाधीश के द्वारा किया जाता है|
उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता-
भारत में निष्पक्ष एवं स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए निम्नलिखित प्रावधान किए गए है-
नियुक्ति में कॉलेजियम की मुख्य भूमिका होती है, अतः कार्यपालिका का हस्तक्षेप बहुत कम है|
न्यायाधीशों को कार्यकाल की सुरक्षा प्राप्त है, क्योंकि इनको संसद के विशेष बहुमत से ही हटाया जा सकता है, अन्य विधि से नहीं|
वित्तीय आपातकाल को छोड़कर कार्यकाल के दौरान न्यायाधीशों के वेतन-भत्तो में अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है|
न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते संचित निधि पर भारित होते हैं|
न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में बहस नहीं हो सकती है, केवल हटाने के प्रस्ताव पर बहस हो सकती है| (अनुच्छेद 121)
न्यायपालिका अपनी अवमानना पर दंड दे सकती है| (अनुच्छेद 129)
लोक सेवाओं में कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण करने के लिए राज्य कदम उठाएगा| (अनुच्छेद 50)
सेवानिवृत्ति के बाद उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश भारत के किसी भी न्यायालय में वकील के रूप में सेवाएं नहीं दे सकते हैं| अनुच्छेद 124(7)
सेवानिवृत्ति के बाद उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश भारत सरकार अथवा किसी भी राज्य सरकार के अधीन कोई लाभ का पद नहीं ग्रहण कर सकते है|
न्यायिक पुनर्विलोकन या न्यायिक समीक्षा (Judicial Review)-
न्यायिक पुनर्विलोकन का अर्थ है- न्यायालय द्वारा व्यवस्थापिका द्वारा बनाई गई विधि तथा कार्यपालिका द्वारा लागू की गई विधि संविधान के उपबंधों के अनुसार है या नहीं है की जांच करना|
न्यायिक पुनर्विलोकन की शुरुआत अमेरिका से हुई है| अमेरिका में मार्बरी बनाम मेडिसिन 1803 के वाद में न्यायमूर्ति जॉन मार्शल ने न्यायिक पुनरावलोकन की व्याख्या की थी|
भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति अमेरिकी संविधान से ली गई है|
अमेरिका में जहां कानून की समीक्षा का आधार विधि की उचित प्रक्रिया है, वहीं भारत में विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया है, जो जापान से ली गई है|
न्यायिक पुनरावलोकन के माध्यम से सरकार के अंगों में शक्ति संतुलन बनाए रखा जाता है| भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति उच्चतम तथा उच्च दोनों न्यायालयो को प्राप्त है|
सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक समीक्षा को संविधान की मूलभूत विशेषता घोषित किया है, इस कारण इसको संविधान संशोधन द्वारा न तो हटाया जा सकता है और न हीं कम किया जा सकता है|
भारतीय संविधान में कहीं न्यायिक पुनरावलोकन शब्द का प्रत्यक्ष रूप से प्रयोग नहीं किया गया है, किंतु संविधान के कुछ अनुच्छेद न्यायिक पुनरावलोकन की स्थापना करते हैं, जो निम्न है-
अनुच्छेद 13(2)- राज्य ऐसी विधि नहीं बनाएगा, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, मौलिक अधिकार के उल्लंघन बनाई गई विधि को सर्वोच्च न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है|
अनुच्छेद 32- मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर सर्वोच्च न्यायालय लागू करवाने के लिए रिट जारी कर सकता है|
अनुच्छेद 132- संविधान की व्याख्या के संबंधित प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय अंतिम होगा|
अनुच्छेद 246- इसके अंतर्गत संघ और राज्यों की विधायी सीमा का उल्लेख किया गया है| संघ व राज्यों द्वारा अपने क्षेत्राधिकार को तोड़ने पर उच्चतम न्यायालय अवैध घोषित कर सकते हैं|
अनुच्छेद 368- संविधान में संशोधन यदि निर्धारित विधान की प्रक्रिया के अनुसार नहीं होता है, तो उच्चतम न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकते हैं|
संविधान समीक्षा की आवश्यकता-
संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की भूमिका आवश्यक है|
संघीय संतुलन बनाये रखने के लिए|
नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए|
न्यायिक समीक्षा की इस विस्तृत शक्ति के लिए इसे ‘विधायिका का तीसरा सदन’ कहा जाता है|
भारत में न्यायिक समीक्षा से निम्न विषयों को बाहर रखा गया है-
मंत्रीपरिषद द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल को दी गई सलाह की जांच किसी न्यायालय में नहीं की जा सकती है|
संसद तथा विधायिका की प्रक्रिया की वैधानिकता का पुनरावलोकन नहीं किया जा सकता है|
अंतरराष्ट्रीय जल विवाद (अनुच्छेद 262)
राष्ट्रपति व राज्यपाल के विशेषाधिकार
न्यायिक सक्रियतावाद (Judicial Activism)-
न्यायिक सक्रियतावाद का विकास 1960 के दशक में अमेरिका में हुआ|
न्यायिक सक्रियतावाद शब्दावली 1947 में आर्थर सेलिंगसर जूनियर द्वारा दी गई|
न्यायिक सक्रियता लोकतांत्रिक देशों में कार्यपालिका की निष्क्रियता का परिणाम है अर्थात कार्यपालिका की निष्क्रियता पर न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के कार्य ग्रहण करना अथवा सार्वजनिक नीति निर्माण के संबंध में न्यायपालिका द्वारा दिशा निर्देश जारी करना
न्यायिक सक्रियता सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक है|
इसको न्यायिक गतिशीलता भी कहते हैं|
न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका तथा विधायिका के कार्यों में हस्तक्षेप ही न्यायिक सक्रियता है|
न्यायिक सक्रियता न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति का विस्तृत रूप है|
भारत में न्यायिक सक्रियता की नीव 1970 के दशक में न्यायाधीश VR कृष्ण अय्यर, न्यायाधीश PN भगवती, न्यायाधीश चित्रप्पा रेड्डी और न्यायमूर्ति D.A देसाई ने रखी|
न्यायिक सक्रियता की संकल्पना के विकास में मुख्य भूमिका PN भगवती की है| S.P गुप्ता वाद 1982 (प्रथम न्यायाधीश वाद) से इसकी शुरुआत मानी जाती है|
जनहित याचिका न्यायिक सक्रियता का उपकरण है|
न्यायिक सक्रियता की आवश्यकता -
कार्यपालिका का जन समस्याओं के प्रति उदासीन होना, जिससे वंचित तबको को उपेक्षा का सामना करना पड़ता है|
कानून का उचित क्रियान्वयन नहीं होना, जिससे समाज में बंधुआ मजदूरी जैसी समस्याओं का प्रचलन बना रहा|
जनता के प्रति विधायिका का उदासीन बना रहना|
देश की अधिकतर असाक्षर आबादी तक न्यायिक प्रक्रिया की पहुंच बनाना|
राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के तहत कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना, इसके लिए न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका आवश्यक है|
न्यायिक सक्रियता की अवधारणा में न्यायिक संयम अत्यंत अहम है|
न्यायिक सक्रियता के लिए जिम्मेदार घटनाक्रम-
मौलिक अधिकारों की व्यापक व्याख्या-
मेनका गांधी वाद 1976 के बाद में भारत में विधि की स्थापित प्रक्रिया के साथ विधि की उचित प्रक्रिया को भी शामिल किया गया, यह न्यायिक सक्रियता का ही परिणाम था|
आधारभूत ढांचे का सिद्धांत-
केशवानंद भारती वाद 1973 में आधारभूत ढांचे का सिद्धांत दिया गया|
जिसके तहत संविधान के मूल ढांचे को संसद संविधान संशोधन द्वारा भी परिवर्तित नहीं कर सकती है|
मूल ढांचा वहीं होगा, जो न्यायालय परिभाषित करेगा|
कॉलेजियम व्यवस्था-
कॉलेजियम व्यवस्था में न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका को प्राथमिकता दी गयी है| इससे भारतीय न्यायपालिका विश्व की सबसे शक्तिशाली न्यायपालिका बन गयी है|
जनहित याचिका -
जह नवाचार न्यायिक सक्रियता का परिणाम था|
न्यायिक विधायक -
यह भी न्यायिक सक्रियता का ही परिणाम था|
प्रमुख उदाहरण- विशाखादत्त वाद की विशाखा गाइडलाइन, यह कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न को प्रतिबंधित करने के लिए न्यायपालिका द्वारा उठाया गया एक सकारात्मक कदम था|
जनहित याचिका (PIL)-
यह न्यायिक सक्रियता का प्रभावशाली उपकरण है|
जनहित याचिका अवधारणा की उत्पत्ति और विकास 1960 के दशक में अमेरिका में हुई|
भारत में जनहित याचिका की शुरुआत 1980 के दशक में हुई| न्यायमूर्ति VR कृष्णा अय्यर तथा PN भगवती इस अवधारणा के प्रवर्तक रहे|
अन्य नाम- वग्रीय क्रिया याचिका, सामाजिक क्रिया याचिका, सामाजिक याचिका, पत्र विषयक न्यायिक क्षेत्राधिकार
उपेंद्र बक्सी ने जनहित याचिका को ‘सार्वजनिक कार्यवाही याचिका’ कहा है|
जनहित याचिका का संबंध सामाजिक न्याय व सामाजिक हित से हुए वाद से है, जिसमें समाज के शोषित,निर्धन व असहाय लोगों के हितों की रक्षा की जाती है|
अर्थात जनहित याचिका द्वारा सार्वजनिक हित से उत्प्रेरित कोई भी नागरिक किसी ऐसे व्यक्ति या वर्ग के संवैधानिक या विधिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए आवेदन दे सकता है जो अपनी निर्धनता या अन्य कारण से न्यायालय में जाने में असमर्थ है, अर्थात जनहित वाद के माध्यम से उठाया गया मामला सार्वजनिक हित से संबंधित होना चाहिए|
अर्थात जिसमें सार्वजनिक हित से उत्प्रेरित कोई भी नागरिक या संस्था किसी ऐसे तीसरे पक्ष के अधिकारों के लिए वाद कर सकती है, जो निर्धनता या अन्य कारण से अपने अधिकारों की रक्षा में असमर्थ है|
जनहित याचिका 39A में उल्लिखित सामाजिक न्याय के उद्देश्य प्राप्ति में सहायक है|
प्रथम जनहित याचिका -
प्रथम PIL हुसैन आरा खातून बनाम बिहार थी|
इसमें बिहार की जेलों में विचारधीन बंदियों के संदर्भ में एक वकील हिंगोरानी ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी|
इस मुकदमे को हुसैन आर खातून बनाम बिहार सरकार 1979 के नाम से जाना जाता है, जिसमें PN भगवती ने फैसला दिया|
SP गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया वाद 1982 में PIL को आधिकारिक मान्यता दी गयी|
उपेंद्र बक्शी “सामाजिक क्रिया याचिका (जनहित याचिका) सर्वोच्च न्यायालय के लोकतांत्रिकरण का सूचक है|
2021 में सुप्रीम कोर्ट ने कोविड-19 महामारी में प्रवासी श्रमिकों द्वारा सामना किया जा रहे मुद्दों पर स्वत: संज्ञान ‘इन री प्रॉब्लम्स एंड मिसरीज ऑफ़ माइग्रेट वर्कस’ में किया|
भारत में जनहित याचिका को तीन चरणों में बांटा गया है-
प्रथम चरण-
निर्धन, वंचित वर्ग के जीवन के अधिकार की रक्षा करना|
प्रथम चरण के वाद-
हुसैन आरा खातून वाद
अनिल यादव बनाम बिहार राज्य वाद- कैदियों को अंधा करना
सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन- साथी कैदी की यातना का विरोध किया गया|
दूसरा चरण-
पारिस्थितिकी, पर्यावरण, वन इत्यादि के रक्षण के लिए|
द्वितीय चरण के वाद-
MC मेहता बनाम भारत संघ- ताज महल से लेकर दिल्ली के प्रदूषण का कारण बने कारखानो को लेकर याचिका दायर की|
तीसरा चरण-
लोकजीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए
तृतीय चरण के वाद-
विनीत नारायण बनाम भारत संघ- जैन डायरी से जुड़ा वाद
राजीव रंजन बनाम भारत संघ- चारा घोटाले से जुड़ा वाद
Note- जनहित याचिका सिर्फ उच्च तथा उच्चतम न्यायालय में ही दायर की जा सकती है|
जनहित याचिका के उद्देश्य-
वंचित तथा पिछड़े तबको तक प्रभावशाली पहुंच बनाना तथा न्यायालय तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करना|
मूल अधिकारों के वास्तविक उद्देश्यों को प्राप्त करना तथा लोगों तथा समूहों को सक्षम बनाना कि वे सामान्य जन समस्याओं के लिए आवाज उठा सके|
संवैधानिक निर्णयन की प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी को बढ़ावा देना|
जनहित याचिका की वैधता स्थापित करके वंचित तबको से जुड़े मुद्दों पर तथा समाज के हर वर्ग तक समान न्याय की पहुंच उपलब्ध करवाना|
आलोचनात्मक रूप में जनहित याचिका को ‘पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन, पॉलिटिक्स इंटरेस्ट लिटिगेशन’ ‘प्राइवेट इंटरेस्ट लिटिगेशन’ ‘पैसा इंटरेस्ट लिटिगेशन’ भी कहा जाता है|
SP साठे “सामाजिक कार्यवाही याचिकाओं ने सर्वोच्च न्यायालय को जनता के करीब ला दिया|”
SP साठे “जनहित याचिका के उद्धव ने भारतीय न्यायपालिका को जमीदारों, राजाओ, नौकरशाहों के न्यायालय से बंधुआ मजदूर, असंगठित मजदूर, जेल कैदियों इत्यादि के न्यायालय में परिवर्तित कर दिया|
न्यायिक सुधार (Judicial Reforms)
भारत में न्यायिक सुधार की आवश्यकता-
वर्तमान में लगभग 470 करोड़ वाद भारत में विचारधीन है, वही लगभग हजार वाद सर्वोच्च न्यायालय में विचारधीन है|
एक वाद के निपटान में औसत समय 1445 दिन है, जो की अत्यंत गंभीर विषय है|
भारत में प्रति मिलियन आबादी पर मात्र 17 न्यायाधीश नियुक्त हैं, वही USA में 107/मिलियन, UK में 51/मिलियन, कनाडा में 75/ मिलियन है|
भारत में GDP का मात्र 0.09% ही न्यायपालिका पर व्यय किया जाता है|
भारतीय न्यायपालिका में महिलाओं, SC, ST की भागीदारी बहुत ही कम है|
भारतीय न्यायपालिका आधारभूत संरचनाओं को लेकर भी दयनीय दशा में है टॉयलेट, मेडिकल, पुस्तकालय जैसी सुविधाओं का अभाव है|
न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपी की जांच के लिए सवायत संस्था नहीं है|
न्यायपालिका RTI के दायरे से बाहर है|
भारत में न्यायिक सुधार की दशा में उठाए गये कदम-
National Mission for Justice Delivery and Legal Reforms 2011-
इसमें सूचना तकनीकी को न्यायिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप में शामिल करने पर जोर दिया, ताकि AI तथा ब्लॉक चैन द्वारा न्याय प्रक्रिया को तीव्र करके हर आम आदमी तक न्याय की पहुंच को तीव्र किया जा सके|
इसमें न्यायपालिका के अतिरिक्त भार को कम करने में मदद मिलेगी|
Legal Service Authorities Act 1987-
इसके तहत अनुच्छेद 39A में उल्लेखित में निशुल्क विधिक सहायता को वास्तविक स्वरूप देने के लिए निम्न संस्थाओं का गठन किया गया-
केंद्र स्तर पर- NALSA (National Legal Service Authority)
राज्य स्तरपर- SALSA (State Legal Service Authority)
जिला स्तर पर- DALSA (District Legal Service Authority)
यह व्यवस्था समाज के पिछड़े तथा वंचित वर्गों को त्रिस्तरीय कानूनी सहायता का प्रावधान करती है, ताकि अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समता तथा अनुच्छेद 22 (1) के तहत बंदी को मनचाही विधिक सहायता प्राप्त करने के अधिकार को सुरक्षित रखा जा सके|
LSA Act के तहत लोक अदालतों का भी गठन किया गया है|
14 वे विधि आयोग ने फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की सिफारिश की, ताकि गंभीर प्रकृति के केसो का त्वरित निपटारा किया जा सके|
सरकार द्वारा 2017 में Tele Law प्रोग्राम शुरू किया गया, जिसके तहत ग्राम न्यायालय जो कि Mobile न्यायालयों के रूप में आमजन तक त्वरित न्याय की पहुंच को सुनिश्चित करेंगे|
विधि आयोग 14वे के द्वारा ग्राम न्यायालय के गठन का सुझाव दिया गया, जिसको सरकार द्वारा ग्राम न्यायालय कानून 2008 के तहत लागू किया|
न्यायिक आधारभूत संरचना कोदुरुस्त करने के लिए पूर्व मुख्य न्यायाधीश NV रमन्ना द्वारा एक National Justice Infrastructure Authority of India (NJIAI) के गठन का सुझाव दिया गया|
अप्रैल 2021 में (कोविड के समय) न्यायाधीश DY चंद्रचूड़ ने वर्चुअल अदालतों के रूप में Online Dispute Resolution की शुरुआत के लिए यह तर्क रखा कि यह नवाचार समय की मांग था|
मुख्य न्यायाधीश NV रमन्ना ने मई 2021 में सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई को लाइव स्ट्रीम करने का फैसला किया तथा इसके लिए गठित ई-कमेटी लाइव स्ट्रीमिंग के लिए नियम तय करेगी, जिसका प्रमुख न्यायाधीश DY चंद्रचूड़ को बनाया गया|
Social Plugin