जीवन परिचय-
जन्म-
23 जुलाई 1856 ई
महाराष्ट्र के कोकण जिले के रत्नागिरी में हुआ|
तिलक की रुचि गणित विषय थी, लेकिन इन्होंने उच्च शिक्षा के लिए कानून चुना| इस पर तिलक ने कहा कि “मैं अपना जीवन अपने देश में नवजागरण के कार्य में लगाना चाहता हूं | और मेरा विचार है कि इस कार्य के लिए साहित्य अथवा विज्ञान की किसी उपाधि की उपेक्षा कानून का ज्ञान अधिक उपयोगी होगा|’
कानून विषय चुनने के संबंध में तिलक ने कहा कि “मैं एक ऐसे जीवन की कल्पना नहीं कर सकता, जिसमें कि मुझको अंग्रेज शासकों के साथ संघर्ष ना करना पड़े|”
1880 ई.में तिलक ने चिपलुकर आगरकर तथा नामजोशी के साथ मिलकर पूना में ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’ की स्थापना की|
1881 में तिलक ने आगरकर के साथ मिलकर दो साप्ताहिक पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ किया-
मराठी भाषा में केसरी
अंग्रेजी भाषा में मराठा
1884 में ढक्कन एजुकेशन सोसायटी (दक्षिण शिक्षा समाज) की स्थापना की|
मित्र आगरकर से मतभेद होने पर तिलक ने दक्षिण शिक्षा समाज से संबंध विच्छेद कर लिया तथा केसरी व मराठा का पूरा भार अपने हाथ में लिया|
1885 में फर्ग्युसन कॉलेज खोला|
1889 में तिलक कांग्रेस में सम्मिलित हो गये
तिलक ने कहा कि “कांग्रेस ने एक बड़ा गंभीर कार्य अपने हाथ में ले लिया है, जिसे आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता की भावना के साथ पूरा किया जा सकता है|”
19 दिसंबर 1893 को तिलक ने केसरी में घोषणा की “भारत में अंग्रेज नौकरशाही से अनुनय-विनय करके हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं| ऐसा प्रयास करना तो पत्थर की दीवार से सिर टकराने के समान है|
1895 तथा 1897 में दो बार तिलक बम्बई विधान परिषद के सदस्य चुने गये|
तिलक कार्लायल और इमर्सन की इस धारणा से पूर्णतया सहमत थे कि जो राष्ट्र अपने नायकों का सम्मान करना नहीं जानता, वह जीवित नहीं रह सकता है|
इस दृष्टि से तिलक ने 1893 में गणपति उत्सव तथा 1895 में शिवाजी उत्सव शुरू किया|
1896 में पश्चिमी भारत में भीषण अकाल पड़ा| तब तिलक ने पूना की सार्वजनिक सभा के द्वारा जनता की उचित मांगों को सरकार तक पहुंचाया|
1897 में बम्बई में भीषण प्लेग फैला तब प्लेग कमिश्नर रैंड तथा उसके सहायकों ने प्लेग की रोकथाम के लिए दमनकारी उपाय अपनाएं तब तिलक ने अपने पत्रों में उनकी कड़ी आलोचना की|
22 जून 1887 दामोदर चापेकर ने रैंड और आर्थस्ट की हत्या कर दी| तब तिलक पर युवकों को हत्या के लिए भड़काने का आरोप लगाया गया तथा 18 माह का कठोर कारावास किया गया|
राजनीतिक कार्यों के लिए जेल जाने वाले पहले व्यक्ति तिलक थे|
तिलक ही प्रथम व्यक्ति थे, जिन पर राजद्रोह का अभियोग लगाया गया था|
1905-1908 तक तिलक ने जो कार्य किए, उससे अंग्रेज नौकरशाही थर्रा गयी थी| जून 1908 बम्बई के तत्कालीन गवर्नर सिडनेहम ने मार्ले (तत्कालीन भारत सचिव) से कहा कि “बम्बई सरकार के सामने एक ही प्रश्न था- दक्षिण भारत में तिलक का शासन रहेगा या अंग्रेजी सरकार का|”
1908 में तिलक की एक बार फिर 6 वर्ष की जेल हो गयी| इस प्रकार तिलक दो बार जेल गये|
1908 में मुजफ्फरनगर बम कांड (जिसमें खुदीराम बोस को फांसी दी गयी थी) के दोषियों की देशभक्ति की प्रशंसा तिलक ने केसरी में की|
सरकार ने इसलिए मुद्दा चलाकर 6 वर्ष का कारावास देकर, तिलक को निर्वासित कर मांडले जेल (बर्मा) में डाल दिया| (1908 से 1914 जेल में रहे|)
मांडले कारावास के दौरान उन्होंने दार्शनिक एवं नीतिशास्त्रात्मक ग्रंथ ‘गीता रहस्य’ लिखा जो 1915 में प्रकाशित हुआ|
1916 में एनीबेसेंट के साथ मिलकर होमरूल लीग की स्थापना की|
1907 सूरत अधिवेशन में कांग्रेस की फूट (नरम दल गरम दल) के बाद एनीबेसेंट के प्रयासों 1916 में लखनऊ अधिवेशन के दौरान कांग्रेस में शामिल हुए|
लखनऊ अधिवेशन के दौरान तिलक कांग्रेस व मुस्लिम लीग के लिए लखनऊ पैक्ट 1916 करवाया तथा सुप्रसिद्ध नारा दिया “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूंगा|”
1918 में सर्वसहमति से कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये, शिरोल केस के सिलसिले में इंग्लैंड जाने के कारण पद ग्रहण नहीं किया| तथा इंग्लैंड में लेबर पार्टी के साथ संपर्क स्थापित किया|
1919 में अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन से लौटकर 1920 में ‘लोकतांत्रिक स्वराज दल’ का गठन किया|
1920 में तिलक का निधन हो गया|
तिलक ‘आधुनिक भारत के हरक्यूलस तथा प्रोमेथियस’ थे| वे उग्र राष्ट्रवाद के जनक थे|
तिलक में राजनीतिक यथार्थवाद की सूझबूझ तथा विशाल ‘बौद्धिक आदर्शवाद’ का मिश्रण था|
वेलेंटाइन शिरोल ने अपनी पुस्तक ‘The Indian Unrest’ में तिलक को ‘भारतीय अशांति का जनक’ कहा है| तिलक ने इस संदर्भ में शिरोल के खिलाफ इंग्लैंड में मानहानि का दावा भी किया था, लेकिन केस हार गये थे|
व्यापक जन स्वीकृति व वैधता के कारण तिलक को ‘लोकमान्य’ कहा जाता है|
R.C मजूमदार ने अपनी पुस्तक ‘भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास’ मेरे लिखा कि “अपने देश प्रेम तथा अथक प्रयत्नो के परिणामस्वरूप बाल गंगाधर तिलक ‘लोकमान्य’ कहलाए जाने लगे तथा उनकी देवता के समान पूजा होने लगी|
महात्मा गांधी “हमारे समय में किसी भी व्यक्ति का जनता पर इतना प्रभाव नहीं पड़ा जितना तिलक का| स्वराज्य के संदेश का किसी ने इतने आग्रह से प्रचार नहीं किया जितना लोकमान्य ने|”
Note- तिलक व गांधीजी के बीच ब्रिटिश प्रतिरोध के तरीके को लेकर मतभेद था| तिलक जहां निष्क्रिय प्रतिरोध के समर्थन थे, वही गांधी सत्याग्रह के|
गांधीजी ने अगस्त 1921 में असहयोग आंदोलन के संचालन में आर्थिक सहयोग लेने हेतु तिलक की प्रथम पुण्यतिथि पर ‘तिलक स्वराज फंड’ की स्थापना की थी|
तिलक ने 1920 में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विचार दिया जो 1956 में फजल अली आयोग की रिपोर्ट के बाद संभव हुआ|
तिलक की रचनाएं-
तिलक ने 1908 से 1914 के मांडले कारावास के दौरान ‘गीता रहस्य’ तथा ‘दि आर्कटिक हॉम ऑफ़ दि वेदाज’ नामक दो प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की|
The Orion 1887-
1897 में कारावास के दौरान इस अन्वेषणात्मक ग्रंथ की रचना की|
The Orion ग्रंथ में ज्योतिष के माध्यम से तिलक ने यह सिद्ध किया कि ऋग्वेद के कतिपय मंत्र आज से साढे छ: हजार वर्ष पूर्व रचे गये|
The Orion ग्रंथ की ब्लूमफील्ड और मैक्समूलर ने प्रशंसा की है|
वैदिक क्रोनोलॉजी एंड वेदांग ज्योतिष-
इस रचना में ज्योतिष द्वारा तिलक ने सिद्ध किया कि ऋग्वेद का काल ईसा से 4000 वर्ष पूर्व का था|
द आर्कटिक होम इन द वेदाज 1915-
इस पुस्तक में तिलक ने आर्यों का मूल निवास स्थान आर्कटिक यानी उत्तरी ध्रुव बताया है|
वारेन ने तिलक के उत्तरी ध्रुव सिद्धांत की प्रशंसा की है|
गीता रहस्य (कर्मयोग शास्त्र) 1915-
यह मूलतः मराठी भाषा में लिखी गई रचना है|
इसमें निवृत्ति मार्ग के स्थान पर प्रवृत्ति मार्ग व कर्मयोग पर बल दिया गया है|
तिलक के गीता रहस्य पर T.H ग्रीन की पुस्तक ‘Prolegomena to Ethics’ का प्रभाव था|
इसमें पूर्वी व पश्चिमी नीतिशास्त्रीय व तत्वशास्त्रीय सिद्धांतों का समन्वय है|
तिलक द्वारा वर्णित कर्मयोग जीवन, नैतिकता तथा कर्म का समुचित दर्शन है|
इसमें उपनिषद व गीता में वर्णित अद्वैतवाद तथा कर्म सिद्धांत का सामाजिक आदर्शवाद, लोकतांत्रिक नैतिकता तथा गतिशील मानववाद जैसे आधुनिक सिद्धांतों के साथ समन्वय किया गया|
इसमें कांट का कर्तव्य के लिए कर्तव्य तथा ग्रीन द्वारा प्रतिपादित नैतिकता भी है|
महाकवि दिनकर ने कहा है “गीता एक बार भगवान श्री कृष्ण के मुख से कही गयी, दूसरी बार उसका सच्चा आख्यान तिलक ने किया|”
तिलक के तत्वशास्त्रीय तथा धार्मिक विचार-
तिलक का अद्वैत दर्शन में विश्वास था|
धार्मिक भक्ति के लिए व्यक्ति ईश्वर की धारणा को स्वीकार करते हैं|
1901 में कलकाता में हिंदू धर्म पर एक भाषण में कहा कि “वास्तविक दृष्टि से धर्म में ईश्वर तथा आत्मा के स्वरूप का ज्ञान तथा मनुष्य द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के साधन सम्मिलित हैं|”
अवतारवाद में तिलक का विश्वास था| उन्होंने कृष्ण को ईश्वर का अवतार माना है| उनकी कृति गीता रहस्य श्री कृष्ण को समर्पित है|
तिलक ने एक भाषण में कहा कि “सनातन धर्म एक बात का द्योतक है कि हमारा धर्म उतना ही प्राचीन है, जितनी की स्वयं मानव जाति| वैदिक धर्म प्रारंभ से ही आर्य जाति का धर्म था|
उनके मत में धर्म राष्ट्रीयता का एक तत्व है|
तिलक का मत है कि आधुनिक विज्ञान हिंदुओं के प्राचीन ज्ञान को प्रमाणित कर रहा है|
तिलक के मत में हिंदू वे हैं, जो वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार करते हैं| हिंदू वेदों, स्मृतियों, पुराणों के आदेशानुसार कार्य करता है|
तिलक का समाज सुधार संबंधी विचार-
सामाजिक सुधारों के संबंध में तिलक पर अक्सर प्रतिक्रियावादी व रूढ़ीवादी होने का आरोप लगाया जाता है|
लेकिन सिद्धांतत: तिलक समाज सुधार के विरोधी नहीं थे, किंतु वे तत्कालीन सामाजिक क्रांति के विरुद्ध थे|
उनके मत में सामाजिक परिवर्तन एकदम से नहीं होंगे, बल्कि धीरे-धीरे व शांतिमय तरीके से होंगे| प्रगतिशील शिक्षा एवं बढ़ती जागृति इस प्रकार के परिवर्तनों का मुख्य साधन होने चाहिए|
उनके मत में जो सुधार ऊपर से थोपे जाते हैं, दंड के भय पर आधारित होते हैं, वे यांत्रिक होते हैं, जिनसे समाज व्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने का खतरा होता है|
तिलक ने हिंदू राष्ट्रवाद का समर्थन किया है| M.N राय ने अपनी पुस्तक Indian Transition में लिखा है कि “जब तिलक ने घोषणा की कि भारतीय राष्ट्रवाद शुद्ध ऐहिक नहीं हो सकता और उसका आधार सनातन हिंदू धर्म होना चाहिए तो ‘अखंड राष्ट्रवाद’ को प्रोत्साहन देने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियों का भंडाफोड़ हो गया|”
तीन घटनाएं जो तिलक को समाज सुधार के संबंध में प्रतिक्रियावादी व रूढ़िवादी सिद्ध करती है-
शारदा सदन विवाद 1889-
पंडिता रमाबाई ने अमेरिकन ईसाई मिशनरीज की सहायता से पहले बम्बई और फिर पुना में विधवा आश्रम ‘शारदा सदन’ खोला|
तिलक को यह पसंद नहीं था कि मिशनरियों के द्वारा लड़कियों का आश्रम खोला जाय, क्योंकि इस प्रकार के आश्रम धर्म परिवर्तन का केंद्र बन जाएगा|
21 दिसंबर 1889 को ‘इलस्ट्रेटेड क्रिश्चियन वीकली’ में एक समाचार छापा कि शारदा सदन में रहने वाली कुछ बालिकाओं ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है|
तब यह विवाद और बढ़ गया तथा केसरी ने लोगों को शारदा सदन के प्रति सावधान रहने की चेतावनी दी तथा शारदा सदन को अप्रत्यक्ष रूप से ईसाई संस्था कहा|
चाय पार्टी की घटना 1890-
4 अक्टूबर 1890 को पूना के ईसाई मिशनरी के घर तिलक, महादेव रानाडे तथा गोखले सहित 42 व्यक्तियों ने चाय पी ली|
परंपरावादी हिंदुओं की नजर में यह भयंकर अपराध था|
इस विषय पर शंकराचार्य के धार्मिक न्यायालय में मुकदमा दायर किया गया (सरदार नाटु ने इसके विरोध में मुकदमे की पैरवी की)
बाद में तिलक ने चाय पीने को गलती मानकर प्रायश्चित के रूप में माफी मांगी|
यह पंच हाउस मिशन पार्टी विवाद के नाम से जाना जाता है|
सम्मति आयु अधिनियम 1891-
18 जनवरी 1891 को कलकत्ता में इंपीरियल लेजिस्लेटिक कौसिल में ‘सम्मति आयु विधेयक’ प्रस्तुत किये गया, जिसमें विवाह की आयु 10 वर्ष से 12 वर्ष करना प्रस्तावित था|
तिलक ने इसका विरोध किया, लेकिन विरोध के बाद भी यह विधेयक पारित हो गया|
हालांकि तिलक बाल विवाह की पक्षधर नहीं थे, लेकिन अंग्रेजों द्वारा ऐसे सुधार को हिंदुओं के धार्मिक रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप माना|
तिलक समाज सुधार के संबंध समाज सुधारों की तुलना में राजनीतिक स्वतंत्रता को ज्यादा जरूरी मानते थे|
तिलक के मत में संपूर्ण शक्ति देश की राजनीतिक स्वतंत्रता पर लगायी जाये, सुधार के बाद में हो जाएंगे|
तिलक ने आयरलैंड, श्रीलंका, बर्मा के उदाहरण से यह साबित किया कि इन देशों के समाज स्वतंत्र व प्रगतिशील है, फिर भी वे राजनीतिक रूप से परतंत्र हैं| अतः समाज सुधार राजनीतिक स्वायत्तता व विकास की पूर्व शर्त नहीं है|
तिलक ने ब्रिटिश सरकार द्वारा हिंदू धर्म में सुधार के लिए कानून बनाने का विरोध किया है|
तिलक ने पाश्चात्य सामाजिक जीवन के अंधानुकरण व ईसाईयत के प्रसार का विरोध किया है|
छुआछूत पर तिलक के विचार-
तिलक अस्पृश्यता की प्रथा के विरुद्ध थे|
तिलक ने गणेश उत्सव के जुलूसो में नीची जातियों के लोगों को ऊंची जातियों के सदस्यों के साथ-साथ अपनी गणेश प्रतिमाएं लेकर चलने की आज्ञा दी|
1918 में लोनवाला जिला सम्मेलन के अवसर पर तिलक ने डिप्रेस्ड क्लास मिशन के मंच पर K.V.R शिंदे के साथ विचार विमर्श किया|
तिलक का राजनीतिक दर्शन-
तिलक के राजनीतिक चिंतन के आधार-
तिलक में राजनीतिक चिंतन पर उनकी प्रमुख तत्वशास्त्रीय मान्यताओं का प्रभाव है|
उसने राजनीतिक चिंतन में भारतीय दर्शन और आधुनिक यूरोप के राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक विचारों का समन्वय है|
तिलक वेदांती थे| तिलक के अद्वैतवाद में स्वतंत्रता की धारणा की सर्वोच्चता का सिद्धांत था|
स्वतंत्रता तिलक के मत में ईश्वरीय गुण है, व्यक्तिगत आत्मा का जीवन है|
राष्ट्रवाद-
तिलक का राष्ट्रवाद मूलत: सांस्कृतिक व आध्यात्मिक राष्ट्रवाद था| इसी कारण तिलक स्वराज्य को मनुष्य का अधिकार कि नहीं, बल्कि धर्म भी मानते हैं|
तिलक के राष्ट्रवाद पर पाश्चात्य राष्ट्रीय स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय के सिद्धांतों का प्रभाव पड़ा था|
1908 में उन्होंने राजद्रोह मुकदमे के संबंध में न्यायालय में जो भाषण दिया, उसमें स्टूअर्ट मिल की परिभाषा को स्वीकार किया|
1919 में उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के सिद्धांत को स्वीकार किया|
तिलक का राष्ट्रवाद दर्शन, आत्मा की परम स्वतंत्रता के वेदांती आदर्श और मैजिनी, बर्क, मिल और पाश्चात्य धारणा का समन्वय था|
तिलक के राष्ट्रवाद के चार प्रमुख तत्व हैं-
स्वदेशी
बहिष्कार
राष्ट्रीय शिक्षा
निष्क्रिय प्रतिरोध
राष्ट्रवाद : अंशतया पुनरुत्थानवादी-
तिलक का राष्ट्रवाद कुछ अंशो में पुनरुत्थानवादी और पुननिर्माणवादी है|
तिलक का विचार था कि प्राचीन भारतीय संस्कृति के कल्याणकारी और जीवनदायिनी परंपराओं की पुन: स्थापना करना अत्यंत आवश्यक है|
तिलक ने मराठा पत्र में लिखा है कि “सच्चा राष्ट्रवाद पुरानी नीव पर ही निर्माण करना चाहता है, जो सुधार के प्रति घोर असम्मान की भावना पर आधारित है, उसे सच्चा राष्ट्रवादी रचनात्मक कार्य नहीं समझता|
हम अपनी संस्थाओं को ब्रिटिश ढांचे में नहीं डालना चाहते, सामाजिक तथा राजनीतिक सुधार के नाम पर हम उनका अराष्ट्रीयकरण नहीं करना चाहते हैं|
तिलक के मत में राष्ट्रवाद एक आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक धारणा है| उनके मत में प्राचीन काल में आदिम जातियों के मन में अपने कबीले के प्रति जो भक्ति भावना विद्यमान थी, उसी का आधुनिक नाम राष्ट्रवाद है|
तिलक के मत में जो राष्ट्रवाद राष्ट्रीय एकता पर आधारित होता है, वही सच्चा और स्वस्थ राष्ट्रवाद है|
राष्ट्रीयता को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक स्वरूप प्रदान करने के उद्देश्य से तिलक ने गणपति उत्सव व शिवाजी उत्सव मनाने शुरू किये|
तिलक ने केसरी के एक लेख में गणपति पूजा की तुलना यूनान के ओलंपियन और पिथियन उत्सव से की|
तिलक को गणपति उत्सव की प्रेरणा एथेंस के ओलंपियन और पिथियन के उत्सवों से तथा शिवाजी उत्सव की प्रेरणा थॉमस कार्लाइल व जान रस्किन की पुस्तकों में वर्णित वीर-पूजा से मिली|
M.N राय “तिलक ने कांग्रेस की खंडश: नीति का शक्तिपूर्वक विरोध किया और अपना अखंडन राष्ट्रवाद का सिद्धांत देश के समक्ष रखा| तिलक ने पुराने नेताओं को जो चुनौती दी, उसी के कारण निम्न मध्यम वर्ग के असंतुष्ट युवक चतुर्दिक एकत्र हो गये|”
तिलक का कोरा हिंदूवादी राष्ट्रवाद व मुस्लिम विरोधी-
कुछ आलोचकों का मानना है कि तिलक कोरे हिंदू राष्ट्रवादी थे और मुसलमानों के विरुद्ध थे|
जकारिया ने अपनी कृति Renascent India में लिखा है कि “मुस्लिम लीग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जवाब थी और आवश्यक भी थी, क्योंकि तिलक की असहिष्णुता से प्रथकत्व की जिस भावना को बल मिला था वह स्वशासन की संभावना से और अधिक तीव्र हो गई थी|”
रजनी पामदत्त ने अपनी कृति India Today में लिखा है कि “तिलक व अरविंद घोष दोनों ने राष्ट्रीय जागरण को हिंदू पुनरुत्थानवाद के साथ जोड़ दिया था, इसलिए मुस्लिम्स जनता राष्ट्रीय आंदोलन से अलग हो गयी|”
वेलेंटाइन शिरोल ने अपनी कृति India Unrest 1910 में लिखा है कि “तिलक के अति परंपरावादी होने के कारण पूना सार्वजनिक सभा के सदस्यों ने उस संस्था से त्यागपत्र दे दिया|”
MN राय ने अपनी पुस्तक India in Transition 1922 में लिखा है कि “तिलक में विद्रोही भावना का अभाव था, वे चतुर राजनीतिज्ञ थे, अतः जहां तक धार्मिक विश्वासों और आध्यात्मिक दुराग्रहों का संबंध है,वे गांधी से अधिक मिलते-जुलते थे|”
लेकिन तिलक पर लगाये गये ये आरोप पूरी तरह सही नहीं है| तिलक के मोहम्मद अली जिन्न, MA अंसारी, मोहम्मद अली व शौकत अली आदि मुस्लिम नेताओं से सौहार्दपूर्ण संबंध थे|
शौकत अली ने लिखा है कि “मै पुन: 100वी बार कहना चाहता हूं कि मोहम्मद अली जिन्ना और मैं, तिलक की पार्टी के थे और आज भी हैं|”
हसरत मुहानी का कथन है कि “उस अल्पायु में ही मैंने तिलक को अपने लिए आदर्श नेता मान लिया था|”
डॉ. अंसारी तथा आसफ अली भी तिलक को मुसलमानों का परममित्र तथा शुभचिंतक मानते थे|
तिलक का उग्र राष्ट्रवाद (निरपेक्ष संहिता का विरोध)-
तिलक को नरमपंथियों की 3P (Prayer, Petition and Protest) की नीति पसंद नहीं थी| साथ ही उनको शांतिवादीयो व रूसी दार्शनिक टॉलस्टाय की ‘निरपेक्ष अहिंसा’ की नीति भी स्वीकार नहीं थी|
उन्होंने शिवाजी द्वारा अफजल खां की हत्या को उचित ठहराया|
चाफेकर बंधुओं के साहस व चतुराई की प्रशंसा की| श्यामजी कृष्ण वर्मा व वीर सावरकर से भी उनके नजदीकी संबंध थे|
उनके मत में गीता में धर्मानकुल हिंसा का संदेश दिया गया है पर यह हिंसा लोक कल्याण के लिए हो, अहंकार तुष्टि के लिए नहीं|
तिलक के शब्दों में “भीख मांगने से लेकर खुले विद्रोह तक जो भी उपाय तुम्हें अपने सामर्थ्य के अनुकूल लगे, उन्हें चुन लो और उसी को करो, किंतु याद रखो राष्ट्रधर्म सर्वोपरि है|”
इस तरह तिलक के लिए साध्य महत्वपूर्ण था, साधन कैसा भी हो|
वेलेंटाइन शिरोल में लिखा है कि “तिलक पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हत्याओं को जन्म देने वाले वातावरण का निर्माण किया|”
1908 में तिलक को दंड देने वाले जूरी के एक सदस्य ब्रैंसन ने कहा कि “तिलक के लेख ‘विद्रोह की प्रच्छन धमकी’ से भरे हैं और उनके उपदेश का सारांश है- ‘स्वराज अथवा बम’
लेकिन तिलक ने लिखा है कि “मैं राष्ट्रवादी हूं और अपने देश से प्रेम करता हूं, किंतु मैं ऐसी किसी योजना से परिचित नहीं हूं, जिसका उद्देश्य वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को हिंसात्मक तरीके से उलट देना हो|”
तिलक का लक्ष्य : स्वराज्य-
तिलक के समस्त राजनीतिक चिंतन को एक शब्द में व्यक्त किया जा सकता है, वह है- स्वराज
तिलक के मत में स्वराज नैतिक आवश्यकता की तथा प्रत्येक भारतीय का धर्म अर्थात कर्तव्य था|
1916 के कांग्रेस अधिवेशन में तिलक में नारा दिया कि “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे|”
तिलक का राष्ट्रवादी दर्शन आत्मा की सर्वोच्चता के वेदांतिक आदर्श और मैजिनी, बर्क,मिल तथा विल्सन की धारणाओं का समन्वय था| इस समन्वय को तिलक ने स्वराज शब्द द्वारा व्यक्त किया है|
स्वराज एक वैदिक शब्द है| इसका प्रयोग महाराष्ट्र में शिवाजी के राजतंत्र के लिए भी किया जाता था|
1916 से पूर्व स्वराज का अर्थ तिलक के लिए पूर्ण स्वाधीनता की स्थिति था, जिसमें ब्रिटिश सम्राट का कोई स्थान नहीं था|
लेकिन 1916 में उन्होंने अपनी धारणा को तत्कालीन परिस्थितियों में बदला|
31 मई 1916 को अहमदनगर में अपने भाषण में कहा कि “स्वराज्य से अभिप्राय केवल यह है कि भारत के आंतरिक मामलों का संचालन और प्रबंधन भारतवासियों के हाथों में हो| हम ब्रिटेन के राजा को सम्राट बनाए रखने में विश्वास करते हैं|
अर्थात ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वराज्य| इसे ही औपनिदेशक स्वराज्य कहा जाता है|
तिलक को लोकप्रिय स्वराज्य का प्रतिपादक भी कहा जाता है, क्योंकि उनके स्वराज्य का आशय था ‘अंतिम सत्ता जनता के हाथ में हो|’
इसलिए तिलक ने कहा कि “भारतीय रियासतों में भारतीय शासन होते हुए भी स्वराज्य नहीं है|”
तिलक की जीवनी लेखक पर्वते ने अपनी कृति (तिलक की जीवनी) ‘बाल गंगाधर तिलक’ में लिखा है कि “तिलक के नाम के साथ जो विविध सम्मानित संबोधन जोड़े जाते हैं, उनमें ‘लोकतांत्रिक स्वराज्य के प्रतिपादक’ अवश्य ही जुड़ जाना चाहिए|
मृत्युशैय्या पर पड़े तिलक के अंतिम शब्द थे “यदि स्वराज्य न मिला तो भारत समृद्ध नहीं हो सकता| स्वराज्य हमारे लिए अनिवार्य है|”
तिलक ब्रिटिश नौकरशाही के इस तर्क से पूर्णतया असहमत थे कि भारतीय अपना शासन नहीं चला सकते, क्योंकि यहां हिंदूओ व मुसलमानों में विद्वेष है| इसके विरोध में तिलक ने कहा कि “मैं जिस स्वराज्य की मांग कर रहा हूं, वह केवल हिंदुओं के लिए है, मुसलमानों अथवा किसी विशिष्ट वर्ग के लिए नहीं है|
तिलक के मत में जनता की समस्याओं का एक ही समाधान है, वह है- वास्तविक सत्ता|
स्वराज्य के संबंध में तिलक का दृष्टिकोण आध्यात्मिक था, इसलिए वे स्वराज्य को मनुष्य का अधिकार ही नहीं बल्कि धर्म भी मानते थे|
तिलक के मत में स्वराज्य राष्ट्रीय धर्म है|
तिलक के स्वराज्य के प्रकार तीन प्रकार-
राजनीतिक स्वराज्य- अर्थात राष्ट्रीय स्वशासन
नैतिक स्वराज्य- आर्थिक नैतिक दृष्टि से आत्म निग्रह व स्वधर्म पालन
अध्यात्मिक स्वराज्य- अर्थात आंतरिक स्वतंत्रता व ध्यान जन्य आनंद की प्राप्ति|
स्वराज्य के आधार पर स्तंभ -
तिलक के स्वराज्य की चार आधार स्तंभ हैं-
स्वदेशी
बहिष्कार
निष्क्रिय प्रतिरोध
राष्ट्रीय शिक्षा
स्वदेशी-
स्वदेशी कार्यक्रम एक प्रकार का ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध आर्थिक शस्त्र था|
कांग्रेस उग्रपंथियों का स्वदेशी आंदोलन वास्तव में आयरलैंड के सिन-फिन आंदोलन का प्रतिरूप था|
बहिष्कार-
इसमें विदेशी माल का बहिष्कार किया गया, जिससे देश के उद्योगों को संरक्षण मिले|
स्वदेशी व बहिष्कार तिलक द्वारा अपनाये गये दो सबसे अधिक महत्वपूर्ण साधन थे|
तिलक के शब्दों में “हमारा राष्ट्र एक वृक्ष की तरह है, जिसका मूल तना स्वराज्य है और स्वदेशी तथा बहिष्कार उसकी शाखाएं हैं|
8 जनवरी 1907 को केसरी में लिखा कि “विदेशी वस्तु इस देश में नहीं आनी चाहिए, केवल वही वस्तुए जो यहां उत्पन्न की जाती है, खरीदी और इस्तेमाल करनी चाहिए|”
निष्क्रिय प्रतिरोध-
तिलक बहिष्कार को राजनीतिक शस्त्र निष्क्रिय प्रतिरोध के रूप प्रतिपादित करते हैं|
तिलक के बहिष्कार का अर्थ केवल विदेशी माल का बहिष्कार नहीं था, बल्कि उसके साथ ब्रिटिश शासन का बहिष्कार था|
अर्थात शासन की नौकरियों, उपाधियों, सार्वजनिक समारोहों और अदालतों, कार्यालयों शिक्षा संस्थानों बहिष्कार तथा लगान व कर न देना|
इसे ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ कहा गया|
अरविंद घोष ने इस साधन को ‘रक्षात्मक प्रतिरोध’ कहा है| गांधी का सत्याग्रह सक्रिय प्रतिरोध कहलाता है|
राष्ट्रीय शिक्षा-
अंग्रेजी शिक्षा भारतीयों को राजनीतिक व मानसिक गुलामी तथा आत्महीनता की ओर धकेल रही थी|
अतः तिलक ने राष्ट्रवादी शिक्षा पर बल दिया|
तिलक के राष्ट्रीय शिक्षा विचार के चार प्रमुख पक्ष थे-
शिक्षा को जनसामान्य के लिए सुलभ बनाया जाय|
शिक्षा भारतीयों द्वारा, भारतीय उद्देश्यों को ध्यान में रखकर दी जाय|
शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास तथा चरित्र निर्माण को सुदृढ़ करें|
शिक्षा के द्वारा युवकों को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाय कि वे जनता को राष्ट्रीय जागृति एवं आंदोलन के लिए प्रेरित और संगठित कर सकें|
तिलक के शब्दों में “पढ़ना-लिखना सीख लेना शिक्षा नहीं है, शिक्षा वही है, जो हमें जीविकोपार्जन के योग्य बनाएं, देश का सच्चा नागरिक बनाएं और हमें पूर्वजों का ज्ञान तथा अनुभव दें|”
स्वदेशी आंदोलन के दौरान तिलक ने महाराष्ट्र में राष्ट्रीय शिक्षा के लिए शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास के नाम पर समर्थ विद्यालय स्थापित किए|
तिलक के राष्ट्रीय शिक्षा पाठ्यक्रम निम्न बातें शामिल थी-
औद्योगिक एवं प्राविधिक शिक्षा पाठ्यक्रम अंग बने|
धार्मिक शिक्षा पर बल
शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो|
एक राष्ट्रभाषा एक लिपि का समर्थन
राजनीतिक शिक्षा
अंग्रेजों की न्याय प्रियता और उदारवादी विचारधारा में अविश्वास-
लोकमान्य को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में कोई विश्वास नहीं था|
तिलक ने उदारवादियों की पद्धति संवैधानिक मांगो व साधनों के प्रति अविश्वास प्रकट किया है|
तिलक ने कहा कि “अनुनय, आग्रह और प्रतिनिधिमंडल से कुछ नहीं होगा, जब तक इसके पीछे ठोस शक्ति न हो|
तिलक के मत में संवैधानिक पद्धति ब्रिटेन में सही हो सकती है, जहां संविधान है और शासन जनता के प्रति उत्तरदायी है| भारत जैसे देश में संवैधानिक पद्धति सर्वथा अनुप्रयुक्त है, जहां दंड विधान ही संविधान था|
पेरिस शांति सम्मेलन स्मृति पत्र (1919)-
इस स्मृति पत्र में तिलक ने मांग की, कि भारत को ब्रिटेन के स्वशासी उपनिवेशो की तरह लीग ऑफ नेशन में प्रतिनिधित्व दिया जाय तथा भारत पर भी आत्मनिर्णय का सिद्धांत लागू किया जाय|
लोकतांत्रिक स्वराज्य दल-
1919 के मांटेग्यू चेम्सफोर्ड अधिनियम के बाद विधानमंडल के चुनाव होने थे|
इस चुनाव में भाग लेने के लिए तिलक ने लोकतांत्रिक स्वराज्य दल का गठन किया|
20 अप्रैल 1920 को इस दल का घोषणा पत्र जारी किया गया जिसे ‘तिलक का वसीयतनामा’ भी कहा जाता है|
संवादी या प्रत्युत्तरदायी सहयोग की नीति (Policy of Responsive Co-operation)-
यह तिलक की एक व्यवहारिक नीति थी|
1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत भारतीयों को कुछ अधिकार दिए गए तब उस समय तिलक से पूछा गया कि अब आप ब्रिटिश राज्य के साथ कितना सहयोग करेंगे तो तिलक का उत्तर दो शब्दों में था - Responsive Cooperation
जिसका तात्पर्य था कि जितना सहयोग अंग्रेज शासक हमारी राजनीतिक मांगों को पूरा करने में करेंगे, हमारा सहयोग उनके साथ उसी अनुपात में होगा|
समाज सुधार के संबंध में तिलक का प्रस्ताव-
प्रसिद्ध समाज सेवक बैरामजी मालाबारी द्वारा प्रस्तावित सुधार प्रस्तावो में संकलित करने के लिए 1890 में तिलक ने निम्न प्रस्ताव भेजे-
विवाह की न्यूनतम आयु लड़कों के लिए 20 व लड़कियों के लिए 16 हो|
40 वर्ष से अधिक आयु के पुरुष विवाह न करें और यदि करें भी तो विधवा से करें|
विवाह उत्सव पर मद्यपान बंद किया जाय|
दहेज पर रोक लगायी जाय|
विधवाओं को विरुप न किया जाय|
अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाय|
शिक्षा का अधिकारिक प्रचार किया जाय|
शिक्षा में धार्मिक शिक्षा को शामिल किया जाय|
प्रत्येक समाज सुधारक अपनी मासिक आय का 1/10 भाग सार्वजनिक कार्यों में खर्च करें|
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