मौलिक अधिकार
संविधान में मूल अधिकारों को रखने का उद्देश्य नागरिकों को समानता, न्याय, सुरक्षा प्रदान करना था- न्यायधीश सप्रू
संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद12-35 तक मौलिक अधिकारों का विवरण है|
मौलिक अधिकार अमेरिकी संविधान से प्रेरित है|
मूल अधिकारों को संविधान में मूल अधिकार शीर्षक से सम्मिलित करने की सिफारिश मोतीलाल नेहरू समिति (1928) ने की थी|
ग्रेनविले ऑस्टिन का मत है कि नेहरू रिपोर्ट को संविधान में निर्दिष्ट मूल अधिकारों का अग्रदूत कहा जा सकता है|
मूल अधिकारों में संशोधन, संविधान संशोधन प्रक्रिया अनुच्छेद 368 के तहत किया जा सकता है|
संविधान के भाग-3 को मैग्नाकार्टा कहा जाता है|
मौलिक अधिकार व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध मिले हुए हैं, ये विधायिका (संसद/ विधानमंडल) के कानून के क्रियान्वयन पर तानाशाही को मर्यादित करते हैं|
ये मूल इसलिए है, क्योंकि ये व्यक्ति के चहुमुखी (भौतिक, बौद्धिक, नैतिक, अध्यात्मिक) विकास के लिए आवश्यक है|
मूल अधिकार असीमित नहीं है, राज्य इन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकता है|
अनु.- 15, 16, 19, 29, 30 केवल नागरिकों को मिले हैं, बाकि सभी व्यक्तियों अर्थात नागरिक, विदेशी, कानूनी व्यक्ति (परिषद एवं कंपनियां) को मिले हैं|
मूल अधिकार वाद योग्य है, अर्थात उल्लंघन होने पर न्यायालय द्वारा लागू कराये जा सकते हैं|
इनमें अधिकतर नकारात्मक है, जबकि कुछ सकारात्मक भी है|
सकारात्मक मौलिक अधिकार- अनुच्छेद 21(क), अनुच्छेद25, अनुच्छेद29(1), अनुच्छेद 30(1)
ये निषेधात्मक है, जो राज्य की गतिविधियों पर रोक लगाते हैं|
आत्यंतिक या स्थायी नहीं है क्योंकि संसद इनमें संशोधन कर सकती है|
राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान (अनु. 20, 21) को छोड़कर इन्हें निलंबित किया जा सकता है|
ये राजनीतिक न्याय की स्थापना करते हैं|
अनु.- 12 ‘राज्य की परिभाषा’-
अनु- 12 में राज्य की परिभाषा दी गयी है| राज्य में निम्न शामिल होंगे-
भारत सरकार और संसद
राज्य सरकार और विधानमंडल
भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी|
NOTE- स्थानीय और अन्य प्राधिकारी का मतलब ऐसे प्राधिकारी या व्यक्तियों का निकाय जो विधि का बल रखने वाले आदेश, नियम, उपविधिया या विनियम बनाने की शक्ति का प्रयोग करता है|
प्राइवेट व्यक्ति का कार्य भी राज्य का कार्य हो सकता है, यदि प्राधिकारी या व्यक्तियों का निकाय उसे प्रव्रत करता है या सहायता देता है|
स्थानीय निकाय- पंचायते, नगरपालिकाएं, जिला बोर्ड, सुधार न्यास
अन्य प्राधिकारी- LIC, ONGC, SAIL, FCI (भारतीय खाद्य निगम), विश्वविद्यालय, संघ लोक सेवा आयोग (UPSC), राष्ट्रपति (जब अनुच्छेद 359 के अंतर्गत आपातकाल में मूल अधिकारों के निलंबन का आदेश जारी करता है), उच्च न्यायालयो के मुख्य न्यायाधीश (जब प्रशासनिक अधिकारिता का प्रयोग करें), राष्ट्रीयकृत बैंक, 95% अनुदान प्राप्त सरकारी स्कूल|
निम्न को राज्य नहीं माना गया है-
NCERT
SCERT
वक्फ बोर्ड
BCCI
निजी महाविद्यालय
न्यायपालिका
सजातीयता का सिद्धांत- इसका तात्पर्य है वैसा का वैसा| इस सिद्धांत का प्रयोग तब किया जाता है, जब अनुच्छेद 12 के तहत अन्य प्राधिकारी को परिभाषित किया जाता है| उदाहरण सर्वोच्च न्यायालय ने संघ लोक सेवा आयोग को राज्य माना| इसका तात्पर्य यह नहीं है कि राष्ट्रीय महिला आयोग, बाल विकास आयोग, संविधान समीक्षा आयोग में तथा वे सभी प्राधिकारी जिनके साथ आयोग शब्द लगा हो इसके अंतर्गत आ जाएंगे|
अनु.-13 मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियां-
13(1)- संविधान प्रारंभ से ठीक पहले की विधियां-
संविधान प्रारंभ से पहले की विधियों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है|
आच्छादन या ग्रहण का सिद्धांत- इस सविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के राज्य क्षेत्र में प्रव्रत सभी विधियां उस मात्रा तक शून्य होगी, जिस मात्रा तक वे इस भाग के उपबंधो से असंगत हैं| अर्थात संविधान प्रारंभ से पूर्व की प्रव्रत विधियां मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है तो उन पर मौलिक अधिकार पर आच्छादित हो जाते हैं और संविधान पूर्व विधियों पर ग्रहण लग जाता है|
भीकाजी बनाम मध्य प्रदेश वाद 1955- विधि जिस मात्रा तक मूल अधिकारों के विरोध में होगी, उस मात्रा तक शून्य हो जाएगी|
भविष्यलक्षी सिद्धांत- सविधान प्रारंभ से पहले की विधियां जिस दिन बनी है, उस दिन से शून्य नहीं होती है, बल्कि सविधान के प्रारंभ के दिन से शून्य होंगी|
13(2)- संविधान प्रारंभ के पश्चात की विधियां-
राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा, जो मौलिक अधिकारों को छीनती है, या न्यून करती है| उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी| यह अप्रत्यक्ष रुप से न्यायिक पुनरावलोकन है|
पृथकरणीयता का सिद्धांत-अनुच्छेद 13(2) के अनुसार सविधान पश्चात विधियां मूल अधिकारों के उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगी, न कि संपूर्ण विधि शून्य होगी|
13(3) (क)- इसमें विधि की परिभाषा है
विधि के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में विधि का बल रखने वाला कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि या प्रथा है|
Note- विधि के अंतर्गत पर्सनल लॉ (व्यक्तिगत विधि), अर्थात हिंदू लॉ, मुस्लिम लॉ तथा क्रिस्चियन लॉ नहीं आते है|
क्या संविधान संशोधन विधि है?
शंकरी प्रसाद वाद 1951- संविधान संशोधन विधि नहीं है, क्योंकि विधि के अंतर्गत साधारण बहुमत से बनाई गई संसदीय विधियां आती हैं, जबकि 368 में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है|
सज्जन सिंह वाद 1965- यही निर्णय सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य वाद 1967- इसमें सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि सामान्य विधि व संविधान संशोधन विधि में कोई अंतर नहीं है, अर्थात संविधान संशोधन भी विधि में आता है|
गोलकनाथ वाद में दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने हेतु 1971 में 24 वा संविधान संशोधन किया गया तथा इस संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 13(4) जोड़ा गया|
केशवानंद भारती वाद 1973- 13(3) में वर्णित विधि के अंतर्गत संविधान संशोधन नहीं आता है|
13(3) (ख)- प्रव्रत विधि के अंतर्गत भारत के राज्य क्षेत्र में किसी विधानमंडल या सक्षम प्राधिकारी द्वारा संविधान प्रारंभ से पहले बनाई गई विधि|
13(4) इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 (संविधान संशोधन) के अधीन किए गए किसी संविधान संशोधन पर लागू नहीं होगी|
भूतलक्षी अधिमान्यता का सिद्धांत-
यह सिद्धांत गोलकनाथ वाद की देन है|
इस वाद में कहा कि संसद मूल अधिकारों में परिवर्तन नहीं कर सकती है, पर 1967 से पूर्व संसद ने जो मौलिक अधिकार (अर्थात भूतकाल वाले) बदल दिए हैं, वह मान्य रहेंगे|
अधित्याग का सिद्धांत-
ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम निर्णय 1985 में कहा गया है कोई भी व्यक्ति संविधान द्वारा प्राप्त मूल अधिकारों को स्वेच्छा से त्याग नहीं कर सकता है|
भारतीय संविधान में वर्तमान में कुल छ: मौलिक अधिकार है-
समता का मौलिक अधिकार (14-18)
स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार (19- 22)
शोषण के विरुद्ध मौलिक अधिकार (23- 24)
धर्म की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार (25- 28)
संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार (29- 30)
संविधानिक उपचारों का मौलिक अधिकार (32)
Note- मूल संविधान में 7 मौलिक अधिकार थे| संपत्ति के मौलिक अधिकार को 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के द्वारा हटा दिया गया तथा इसे संविधान के भाग- XII मे अनु.- 300 ‘क’ के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया है|
इसी संशोधन द्वारा 19(1)(च) को भी हटाया गया था|
इस समय जनता पार्टी मोरारजी देसाई की सरकार थी|
समता का अधिकार (14-18)-
कुल अनुच्छेद 5 या कुल समता के अधिकार- 5
राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र मे किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं रहेगा|
यह प्रत्येक व्यक्ति (नागरिक व विदेशी) के अतिरिक्त निगम, कंपनियों, पंजीकृत समितियों या किसी भी अन्य तरह के विधिक व्यक्ति को मिला हुआ है|
‘विधि के समक्ष समता’-
यह ब्रिटेन से लिया गया है| यह नकारात्मक शब्द है|
इसका अभिप्राय है-
किसी व्यक्ति के पक्ष में विशिष्ट अधिकारों की अनुपस्थिति
साधारण विधि के तहत या न्यायालय द्वारा सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार|
कोई व्यक्ति (चाहे अमीर- गरीब, ऊंचा- नीचा, अधिकारी- गैर अधिकारी हो) विधि के ऊपर नहीं है|
विधि का शासन-
विधि के समक्ष समता का विचार ब्रिटिश न्यायवादी A.V डायसी के ‘विधि के शासन’ सिद्धांत पर आधारित है|
विधि के शासन सिद्धांत की तीन अवधारणाएं है-
इच्छाधीन शक्तियों की अनुपस्थिति अर्थात किसी भी व्यक्ति को विधि के उल्लंघन के सिवाय दंडित नहीं किया जा सकता|
कोई भी व्यक्ति (चाहे अमीर- गरीब, ऊंचा- नीचा, अधिकारी- गैर अधिकारी) कानून के ऊपर नहीं है|
व्यक्तिगत अधिकारों की प्रमुखता अर्थात सविधान व्यक्तिगत अधिकारों का परिणाम है, न की व्यक्तिगत अधिकारों का स्रोत|
NOTE- पहला व दूसरा कारक ही भारतीय व्यवस्था में है तीसरा नहीं है अर्थात भारत में व्यक्तिगत अधिकारों का स्रोत ही संविधान है|
विधि का समान संरक्षण-
यह सकारात्मक शब्द है तथा अमेरिका के संविधान से लिया गया है|
इसका अभिप्राय है-
विधियों द्वारा प्रदत विशेषाधिकारों और अध्यारोपित दायित्वो मे समान परिस्थितियों के अंतर्गत समान व्यवहार किया जाएगा|
समान विधि के अंतर्गत सभी व्यक्तियों के लिए समान नियम होंगे|
बिना भेदभाव के समान के साथ समान व्यवहार होना चाहिए|
E P रोय्यपा बनाम तमिलनाडु वाद 1974- इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वर्गीकरण यानी भेदभाव युक्तिसंगत हो, और सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि समता व स्वेच्छाचारिता एक दूसरे की कट्टर शत्रु है|
शिव शंकर वाद 1951 “विधि के समक्ष समता व विधियों का समान संरक्षण दोनों ही पहलुओं का मुख्य उद्देश्य समान न्याय है|”
मिनर्वा मिल्स वाद 1980 में विधि के शासन को संविधान का मूलभूत ढांचा घोषित किया गया|
एम नागराज बनाम भारत संघ वाद 2007 में समता के सिद्धांत को संविधान का मूल ढांचा बताया गया|
संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी वाद 2014 में SC ने निर्णय दिया कि जहां अनुच्छेद 31A की सीमा प्रारंभ होती है, वहां अनुच्छेद 14 की सीमा समाप्त हो जाती है|
विधि के समक्ष समता के अपवाद-
अनु.- 361 राष्ट्रपति और राज्यपालों और राजप्रमुखों का संरक्षण-
राष्ट्रपति व राज्यपाल अपनी पदावधि के दौरान पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्य पालन करते समय किए गए किसी भी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं है|
राष्ट्रपति और राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान किसी भी न्यायालय में किसी भी प्रकार की दांडीक कार्यवाही प्रारंभ नहीं की जा सकती है और न ही चालू रखी जा सकती है|
राष्ट्रपति व राज्यपाल की पदावधि के दौरान उसकी गिरफ्तारी या कारावास के लिए किसी भी न्यायालय द्वारा आदेश नहीं निकाला जा सकता है|
राष्ट्रपति या राज्यपाल के रूप में अपना पद ग्रहण करने से पहले या पश्चात व्यक्तिगत हैसियत से किए गए या किए जाने वाले कार्य के लिए दीवानी मुकदमा चलाया जाता है, तो राष्ट्रपति/ राज्यपाल को दो माह पूर्व सूचना देनी पड़ेगी |
अनु. 361(क)- संसद और राज्यों के विधानमंडलों की कार्यवाहीयों के प्रकाशन का संरक्षण-
यदि कोई व्यक्ति संसद या राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों या किसी एक सदन की सत्य कार्यवाही से संबंधित विषय वस्तु का प्रकाशन समाचार -पत्र, रेडियो और टेलीविजन में करता है, तो उस पर किसी भी प्रकार का दीवानी या फौजदारी मुकदमा देश के किसी भी न्यायालय में नहीं चलाया जा सकता है
अनु.- 105(2)-
संसद या उसकी किसी समिति मे संसद के किसी सदस्य द्वारा की गई बात या दिए गए मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी|
अनु.-194-
राज्य विधानमंडल या उसकी समिति में किसी विधानमंडल सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती |
अनु.- 31 ‘ग’(C)-
यदि नीति निर्देशक तत्व 39 ‘ख’ व 39 ‘ग’ को लागू करते समय यदि अनु 14 व अनु.19 का उल्लंघन होता है तो अनु.-13 के आधार पर न्यायालय में चुनौती
नहीं दी जा सकती है|
अनु.- 15-
15(1)- राज्य किसी भी नागरिक के प्रति केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा|
15(2)- कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान में किसी भी आधार पर-
(क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयो, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या
( ख) पूर्णत या भागत: राज्य निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओ, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के संबंध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बंधन या शर्त के अधीन नहीं होगा|
15(3)- इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालको के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी|
15(4)- इस अनुच्छेद की कोई बात या अनु. 29(2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या SC व ST वर्गों की उन्नति के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी| (यह व्यवस्था चम्पाकम दोरायजन वाद के बाद प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम 1951 के द्वारा की गयी|)
Note- चम्पाकम दोरायजन बनाम मद्रास राज्य वाद 1951 के मामले में मद्रास सरकार के सांप्रदायिक आदेश (जातिगत आरक्षण) को रद्द किया गया तथा चम्पाकम वाद में दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने हेतु प्रथम संविधान संशोधन 1951 के द्वारा अनुच्छेद 15(4) जोड़ा गया|
15(5)- अनु.30(1) मे संदर्भित अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं को छोड़कर, सरकारी व निजी सभी प्रकार की संस्थाओं मे सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों, SC व ST के लिए प्रवेश में छूट के संबंध राज्य कानून बना सकता है| (19(1) छ का उल्लंघन नहीं होगा)
NOTE- यह प्रावधान 93 वे संविधान संशोधन अधिनियम 2005 द्वारा जोड़ा गया
15(6) इस अनु. या अनु. 19(1)( छ) या अनु. 29(2) कि कोई बात राज्य को-
15(6)(क)- खंड(4) और खंड(5) में उल्लेखित वर्गों से भिन्न आर्थिक रूप से दुर्बल किन्ही वर्गों की उन्नति के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी
15(6) (ख)- अनु. 30(1) में संदर्भित अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं को छोड़कर, सभी सरकारी व निजी संस्थाओं में खंड(4) और खंड(5) में उल्लेखित वर्गों से भिन्न आर्थिक रूप से दुर्बल किन्ही वर्गों की उन्नति के लिए प्रवेश में अधिकतम 10% आरक्षण दिया जा सकेगा|
Note- 15(6) क व ख में उल्लेखित वर्ग 15(4) व 15 (5) मे उल्लेखित वर्ग से भिन्न होगा|
Note- 15(6) का प्रावधान 103 वां संविधान संशोधन अधिनियम 2019 के द्वारा जोड़ा गया|
स्पष्टीकरण-
15(1)- इसमें केवल और विभेद दो शब्द आये हैं, जहां केवल का अर्थ राज्य का कोई भी कार्य चाहे वह राजनीतिक, सिविल या अन्य प्रकार का हो केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर भेद नहीं करेगा, इनके अलावा अन्य आधार पर किया जा सकता है|
विभेद का अर्थ- विपरीत मामला
15(2)- यह राज्य एवं प्राइवेट व्यक्ति दोनों के विरुद्ध विभेद का प्रतिषेध करता है, जबकि 15(1) केवल राज्य के विरुद्ध विभेद का प्रतिषेध करता है|
अनु. 15(3), 15(4), 15( 5), 15(6) इस अनु. 15(1) व 2 का अपवाद है|
अनु. 15(5) के क्रियान्वयन के लिए केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय शैक्षणिक संस्था (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम 2006 पारित किया गया, जिसके अंतर्गत पिछड़े वर्गों को सभी उच्च शैक्षणिक संस्थानों में (I I T, I I M) 27% आरक्षण दिया गया|
2008 में उच्चतम न्यायालय ने इसको वैध माना तथा आदेश दिया कि क्रीमीलेयर के सिद्धांत का पालन करें|
15(6) (क) यह आर्थिक रूप से दुर्बल सामान्य वर्ग के लिए विशेष उपबंध राज्य द्वारा करने का प्रावधान करता है|
15(6)(ख) यह आर्थिक रूप से दुर्बल सामान्य वर्ग के लिए अल्पसंख्यक संस्थानों के अलावा सभी संस्थानों में 10% आरक्षण का प्रदान करता है|
NOTE-15(6)(क) व (ख) का प्रावधान 19(1) छ व 29(2) का उल्लंघन नहीं माना जायेगा|
साइमन कमीशन ने 1929 में आदिम जाति को ST व हरिजन व दलितों को SC कहा, जो आज भी संविधान में है|
अनु.- 16-
16(1)- राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी|
16(2)- राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी भी आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न ही विभेद किया जायेगा||
16(3)- इस अनुच्छेद की कोई बात संसद को, किसी राज्य क्षेत्र या संघ क्षेत्र में किसी पद या नियोजन में निवास की शर्त संबंधी विधि बनाने से नहीं रोकेगी|
16(4)- इस अनुच्छेद की कोई बात राज्यों को पिछड़े वर्गों (जिनका प्रतिनिधित्व राज्य के अधीन सेवा में पर्याप्त नहीं है) के संबंध में नियुक्ति या पदों के लिए आरक्षण देने से नहीं रोकेगी|
16(4)( क)- इस अनुच्छेद की कोई बात SC, ST को राज्य सेवाओं में आरक्षण से नहीं रोकेगी (77 वा संविधान संशोधन अधिनियम 1995) तथा राज्य अधीन सेवाओं में प्रोन्नति के मामलों में SC व ST को आरक्षण से निवारित नहीं करेगी (85 वा सविधान संशोधन अधिनियम 2001, यह 17- 6- 1995 से प्रभावी हुआ)
16(4) (ख)- बैकलॉग रिक्तियां (किसी वर्ष की बिना भरी सीटें) जिस वर्ष में भरी जाती है उस वर्ष की रिक्तियों के साथ नहीं जोड़ा जायेगा| ताकि आरक्षण की 50% की सीमा का पालन किया जा सके|
81 वें संविधान संशोधन 2000- बैकलॉग की भर्ती करते समय 50% की सीमा को क्रॉस किया जा सकता है|
16(5)- किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्था के कार्यकलाप से संबंधित कोई पदाधिकारी या सदस्य किसी विशिष्ट धर्म का मानने वाला या विशिष्ट धर्म का हो ऐसा कानून बनाने से इस अनुच्छेद की कोई बात निवारित नहीं करेगी|
16(6)- इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को खंड (4) मे उल्लेखित वर्गों से भिन्न नागरिकों के आर्थिक रूप से दुर्बल वर्गों को राज्य के अधीन सेवाओं में 10% आरक्षण का प्रावधान करने से निवारित नहीं करेगी|
लोकसभा में आरक्षण- अनुच्छेद 330-
SC 84 सीट ST 47 सीट
विधानसभा में आरक्षण- अनुच्छेद 332
वर्तमान में आरक्षण
SC- 15%
ST- 7.5%
OBC- 27%
GEN- 10%
स्पष्टीकरण-
16(1)- यह राज्य के अधीन पदों पर केवल नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है, अन्य व्यक्तियों को नहीं| इसमें अवसर की समता समान वर्ग के नागरिकों में है न की अलग-अलग नागरिकों में| सभी नागरिक जिनकी स्थिति एक जैसी है उन्हीं के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, अन्य के साथ अलग व्यवहार किया जा सकता है|
16(2)- 7 आधारों की बात की है, जिनके आधार पर विभेद नहीं किया जा सकता है- (1) धर्म (2) मूल वंश (3) जाति (4) लिंग (5) उद्भव (6) जन्म स्थान (7) निवास|
इनके अलावा अन्य आधारों पर भेदभाव किया जा सकता है|
अपवाद-
16(3)- किसी पद के लिए निवास की शर्त लगायी जा सकती है| इस शक्ति का प्रयोग करते हुए संसद ने ‘लोक नियोजन (निवास विषयक अपेक्षा) अधिनियम 1957’ पारित किया तथा आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा मे कुछ पदों में निवास की शर्त लगायी गयी| यह अधिनियम 1974 में समाप्त कर दिया गया|
वर्तमान में आंध्रप्रदेश में अनु. 371 घ के अंतर्गत यह उपबंध (निवास की शर्त) है|
98 वे संशोधन द्वारा 2012 में कर्नाटक के लोगों के लिए निवास की प्राथमिकता के संदर्भ में एक नया अनुच्छेद 371J जोड़ा गया|
अनु.16(4)- पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण व्यवस्था की जा सकती है| पिछड़े वर्ग में अन्य पिछड़े वर्ग, SC, ST शामिल होंगे (E.V चिन्नइया बनाम आंध्रप्रदेश 2005)
अनु.16(5)- धार्मिक या सांप्रदायिक संस्थानों के पद किसी विशिष्ट धर्म या संप्रदाय के व्यक्तियों के लिए आरक्षित किए जा सकते हैं|
अनु. 16(6)- यह अनुच्छेद सामान्य वर्ग के आर्थिक पिछड़े वर्ग को 10% आरक्षण देने की बात करता है| (SC,ST,OBC को छोड़कर)
NOTE- अनुच्छेद 335- अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आरक्षण देते समय नीति प्रशासन की दक्षता बनी रहे इसका भी ध्यान रखना होगा अर्थात यह अनुच्छेद16(4) की आरक्षण व्यवस्था पर मर्यादा लगाता है| 82वें संविधान संशोधन 2000 द्वारा अनुच्छेद 335 में यह उल्लेखित कर दिया गया कि SC व ST को अहर्ता अंकों में छूट दी जा सकेगी|
Note- राजकुमार गिजरोया वाद 2016- इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान की उद्देशिका, मूल अधिकार (अनुच्छेद 14, 15 व 16) तथा नीति निर्देशक तत्व (अनुच्छेद 39A) में वर्णित अनुसूचित जाति, जनजाति व समाज के शैक्षणिक व सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के जो संवैधानिक प्रावधान है, उनका उद्देश्य सभी वर्गों को समान अवसर प्रदान करना, लोक नियोजन में असमानता को समाप्त करना है|
Note- महेश कुमार बनाम उत्तराखंड वाद 2020 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सरकारी नौकरी में पदोन्नति में आरक्षण संविधान के माध्यम से वर्णित मौलिक अधिकार या सरकार का संवैधानिक कर्तव्य नहीं है बल्कि यह है, सरकारों का विवेकाधिकार है|
अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आयोग-
राष्ट्रपति अनुच्छेद 340 के तहत सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग व उनकी पहचान के लिए पिछड़ा वर्ग आयोग बनाता है|
अब तक ऐसे तीन आयोग बने हैं-
काका कालेकर आयोग (1953)-
29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन काका कालेकर की अध्यक्षता में किया गया|
इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को दी|
तत्कालीन प्रधानमंत्री J.L नेहरू ने इस आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दिया|
मंडल आयोग (1979)-
1 जनवरी 1979 को मोरारजी देसाई सरकार ने द्वितीय पिछड़ा आयोग का गठन B.P मंडल (बिंदेश्वरी प्रसाद) की अध्यक्षता में किया|
इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 12 दिसंबर 1980 को दी| जिस समय इंदिरा गांधी सरकार आ चुकी थी, जिसने इस आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दी|
काका कालेकर आयोग की तरह बी पी मंडल आयोग ने भी पिछड़े वर्ग का निर्धारण जाति के आधार पर करने की सलाह दी|
इसने 3743 जातियो की पहचान की जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी हुई थी| (जनसंख्या में हिस्सा 52% था)
आयोग ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण की सिफारिश की|
NOTE- 1990 में सर्वप्रथम V.P सिंह सरकार ने 13 अगस्त 1990 को BP मंडल आयोग की सिफारिश (27% आरक्षण) को लागू करने की घोषणा की| जिसका व्यापक विरोध हुआ था|
1991 मे नरसिम्हा राव सरकार ने 27% आरक्षण अन्य पिछड़े वर्ग के साथ 10% आरक्षण उच्च जाति के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को प्रदान किया|
इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ 1992 या मंडल केस 1992-
सर्वोच्च न्यायालय के 9 न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया| सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश M H कानिया उस पीठ के अध्यक्ष थे|
इसे मंडलवाद भी कहते हैं| इंदिरा साहनी, मंडल रिपोर्ट के आधार पर दिए गए आरक्षण के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय चली गई|
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में अन्य पिछड़ा वर्ग की पहचान का आधार जाति को सही माना|
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने OBC के 27% आरक्षण को वैध माना| लेकिन सवर्ण का 10% आरक्षण, जो आर्थिक आधार पर दिया गया है, उसको समाप्त कर दिया तथा OBC के क्रीमीलेयर सिद्धांत की बात की| OBC को प्रोन्नति में आरक्षण नहीं होगा|
आरक्षण कोटा 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए, लेकिन कुछ असाधारण परिस्थितियों में 50% से ज्यादा हो सकता है|
रोहिणी आयोग 2017-
जस्टिस रोहिणी आयोग के रूप में तीसरा पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 340 के तहत OBC में उपवर्गीकरण व विभाजन के लिए किया है|
क्रीमीलेयर सिद्धांत-
क्रीमीलेयर की पहचान के लिए 1993 में रामनंदन समिति का गठन किया गया|
क्रीमीलेयर की अवधारणा केवल ओबीसी पर लागू होती है, लेकिन जरनैलसिंह बनाम लक्ष्मी नारायण वाद 2018 में यह निर्णय लिया गया कि क्रीमीलेयर की अवधारणा SC व ST पर लागू की जा सकती है, लेकिन इस संदर्भ में अंतिम निर्णय सरकार को लेना है|
आरक्षण की सीमा 50% से ऊपर नहीं होगी, पर तमिलनाडु इस मामले में अपवाद जहां आरक्षण 69% है| यह नोवी अनुसूची में शामिल|
76 वे संविधान संशोधन 1995 में तमिलनाडु राज्य में 69% का आरक्षण प्रावधान कर उसे नोवी अनुसूची में शामिल किया गया|
इसमें पिछड़े वर्ग के कुछ छात्र सम्मिलित होंगे, जिन्हें आरक्षण का लाभ प्राप्त नहीं होगा-
संवैधानिक पद धारण करने वाले व्यक्ति| जैसे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, SC व H.C के न्यायधीश, UPSC के सदस्य व अध्यक्ष, राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष व सदस्य, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, CAG आदि|
केंद्रीय या राज्य सेवा के वर्ग A, वर्ग B की सेवा के क्लास- II अधिकारी, निजी कंपनी, बैंक, बीमा, विश्वविद्यालय के समकक्ष अधिकारी|
सेना में कर्नल व इसके ऊपर के रैंक का अधिकारी या नौसेना व वायुसेना में समकक्ष अधिकारी|
डॉक्टर, इंजीनियर, कलाकार, लेखक, सलाहकार आदि|
व्यापार, वाणिज्य, उद्योग में लगे व्यक्ति|
जिन लोगों की सालाना आय 8 लाख से अधिक है|
अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग-
अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) की पहचान के लिए मंडलवाद में सुप्रीम कोर्ट के कहने पर 1993 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया|
यह संसदीय अधिनियम से बना विधिक या सांविधिक आयोग था|
मोदी सरकार ने इसे संवैधानिक दर्जा दे दिया, अब यह संवैधानिक आयोग है|
102 वां संविधान संशोधन अधिनियम 2018 के द्वारा अनुच्छेद 338B जोड़ कर इसको संवैधानिक दर्जा दिया गया|
अनु. 17 (अस्पृश्यता का अंत)-
यह अनुच्छेद अस्पृश्यता का अंत करता है तथा अस्पृश्यता का किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध करता है|
अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना दंडनीय अपराध होगा|
यह व्यक्ति की गरिमा व सामाजिक समता से संबंधित है|
यह राज्य व व्यक्ति दोनों के विरुद्ध प्राप्त है|
NOTE- अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम- 1955 बनाया गया| 1976 में इसको संशोधित कर नागरिक अधिकारों की रक्षा अधिनियम 1955 नया नाम दिया गया
अनु.18 ‘उपाधियों का अंत’-
यह अनुच्छेद उपाधियों का अंत करता है|
यह औपनिवेशिक काल में उपाधियो के माध्यम से होने वाले विभेद को समाप्त कर सामाजिक समानता स्थापित करता है|
18(1)- राज्य सेना व विधा संबंधी सम्मान के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा|
18(2)- भारत का कोई नागरिक विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा|
18(3)- कोई विदेशी, राज्य (भारत) के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा|
18(4)- राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा|
बालाजी राघवन बनाम भारत संघ 1996-
इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निम्न उपलब्धियों को वैध ठहराया है, और कहा कि ये उपाधियां नहीं है बल्कि उपलब्धियां है-
पदम विभूषण
पदम भूषण
पदम श्री
लेकिन पुरस्कार पाने वाला व्यक्ति प्रत्यय या उपसर्ग के रूप में प्रयोग नहीं कर सकता अन्यथा उसको पुरस्कारों को त्यागना पड़ेगा|
1978 में मोरारजी सरकार ने भारत रत्न, शिक्षा, सेना की उपाधियों को समाप्त कर दिया था|
1980 में इंदिरा सरकार ने इन उपाधियों को पुनः शुरू कर दिया| बालाजी राघवन मामले में इंदिरा गांधी के निर्णय को SC मे चुनौती दी गई|
Note- K M मुंशी ने अनुच्छेद 18 का उल्लंघन कहकर पदमश्री लेने से मना कर दिया था|
स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार (19- 22)
कुल-4 अनुच्छेद या 5 अधिकार
अनु. -19
19(1) मे छ: स्वतंत्रताओ का उल्लेख है|
19(2)- 19(6) तक इन स्वतंत्रताओ पर लगाए जाने वाले प्रतिबंधो के आधारों का उल्लेख है|
इन 6 स्वतंत्रताओ की रक्षा केवल राज्य के खिलाफ है, न कि निजी मामलों में|
19(1) सभी नागरिकों को-
(क) वाक्-स्वांतत्र्य और अभिव्यक्ति स्वांतत्र्य का,
(ख) शांति पूर्वक और निरायुद्ध सम्मेलन का,
(ग) संगम या संघ [या सहकारी समिति] बनाने का,
(घ) भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का,
(ड) भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का,
(च) हटा दिया गया
(छ) कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार होगा|
Note- 19(1)(ग) मे सहकारी समिति शब्द 97 वा संशोधन अधिनियम 2011 के द्वारा 12-1-2012 से जोड़ा गया|
Note- 19(1)(च) संपत्ति को खरीदने , अधिग्रहण करने या बेच देने की स्वतंत्रता को 44 वा संशोधन 1978 के द्वारा समाप्त कर दिया गया| अर्थात मूल सविधान में 7 स्वतंत्रताए थी|
अनु.19(1)(क)- वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-
प्रत्येक नागरिक को बोलने की, स्वयं या दूसरे व्यक्ति के विचारों को अभिव्यक्त (लिखित या मौखिक रूप में) करने की, सरकार की लिखित, मौखिक या सांकेतिक आलोचना करने का अधिकार है|
SC ने वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में निम्न को शामिल किया है-
प्रेस की स्वतंत्रता- बृजभूषण मामला (संविधान सभा के सदस्य KT शाह ने प्रेस की स्वतंत्रता को अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत शामिल किए जाने का समर्थन किया था
व्यवसायिक विज्ञापन की स्वतंत्रता- टाटा प्रेस मामला
प्रसारित करने का अधिकार अर्थात सरकार का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर एकाधिकार नहीं है- क्रिकेट एसोसिएशन मामला
तिरंगा फहराने का अधिकार- नवीन जिंदल
सूचना का अधिकार- SP गुप्ता
फिल्म निर्माण का अधिकार- फिल्म फेस्टिवल
प्रदर्शन या विरोध का अधिकार
फोन टैपिंग के विरुद्ध अधिकार
इंटरनेट के माध्यम से वाक्य और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा कोई वृति, उपजीविका व्यापार या कारोबार करने का अधिकार19(1) के तहत व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है- अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ
उम्मीदवार के बारे में सूचना तथा नोटा का अधिकार- पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ वाद
Note- हड़ताल व बंद का अधिकार 19(1)(क) के अंतर्गत नहीं आता है|
(19 (1)(क) पर प्रतिबंध-
यह स्वतंत्रता आत्यंतिक नहीं है इस पर अनु.19(2) मे उचित प्रतिबंध का उल्लेख है|
अनु.19(2) -
अनु.-19(1) (क) पर निम्न 8 आधार पर युक्तियुक्त निर्बन्धन राज्य विधि बनाकर लगा सकता है-
भारत की प्रभुता और अखंडता
राज्य की सुरक्षा
विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध
लोक व्यवस्था
शिष्टाचार व सदाचार के हितों में
न्यायालय अवमान
मानहानि
अपराध- उद्दीपन
चारुलता जोशी वाद 1999- प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार आत्यंतिक नहीं है, कैदी का साक्षात्कार नहीं लिया जा सकता|
अरुंधति राय वाद 2002- न्यायालय की गरिमा की रक्षा के लिए वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाई जा सकती है|
Note- प्रथम संविधान संशोधन 1951 के द्वारा इन प्रतिबंधों के तीन आधार शामिल किए गए-1 विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, 2 लोक व्यवस्था, 3 अपराध उद्दीपन
Note-16 वें संविधान संशोधन 1963 के द्वारा भारत की प्रभुता और अखंडता शब्द जोड़े गए|
अनुच्छेद 19 (2) के तहत मूल संविधान में युक्तियुक्त निर्बन्धन शब्द का उल्लेख नहीं था| इसे प्रथम संविधान संशोधन 1951 द्वारा जोड़ा गया| यद्यपि अनुच्छेद 19 (3) (4) (5) (6) में युक्तियुक्त निर्बन्धन शब्द संविधान लागू होने के दिन से ही उल्लेखित है|
अनु.19(1)(ख) - शांतिपूर्वक और निरायुद्ध सम्मेलन की स्वतंत्रता-
यह अनुच्छेद किसी भी नागरिक को शांतिपूर्वक और बिना युद्ध की भावना के सम्मेलन करने का अधिकार प्रदान करता है|
इस स्वतंत्रता का प्रयोग सार्वजनिक भूमि पर बिना हथियार किया जा सकता है|
NOTE- अपराधिक व्यवस्था की धारा 144 (1973) के अंतर्गत न्यायपालिका किसी संगठित बैठक को किसी व्यवधान के खतरे के आधार पर रोक सकता है|
Note- भारतीय दंड संहिता की धारा- 141 के तहत पांच या उससे अधिक लोगों का संगठन निम्न मामलों में गैर कानूनी हो सकता है-
किसी कानूनी प्रक्रिया का अवरोध हो|
कुछ लोगों की संपत्ति पर बलपूर्वक कब्जा हो|
किसी अपराधिक कार्य की चर्चा हो
किसी व्यक्ति पर गैरकानूनी काम के लिए दबाव डालना
सरकार या उसके कर्मचारियों को उनकी विधायी शक्तियों के प्रयोग हेतु धमकाना
19(1)(ख) पर प्रतिबंध -
19(3)- द्वारा अनुच्छेद19(1)(ख) पर निम्न 2 आधारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये गए हैं-
भारत की प्रभुता और अखंडता,
लोक व्यवस्था के संबंध में
अनु.19(1)(ग)- संगम या संघ (या सहकारी समितियां) बनाने का अधिकार-
इसके अंतर्गत नागरिकों को राजनीतिक दल बनाने, कंपनी, साझा फर्म, समितियां, क्लब, व्यापार संगठन, सहकारी समितियां आदि बनाने का अधिकार प्रदान किया गया है|
19(1)(ग) पर प्रतिबंध-
अनु.19(4) इस पर निम्न 3 आधारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाता है-
भारत की प्रभुता और अखंडता
लोक व्यवस्था
सदाचार के हित में|
अनु.19(1)(घ)- संचरण की स्वतंत्रता-
यह सभी नागरिकों को भारत के राज्य क्षेत्र मे कहीं भी अबांध संचरण (आने जाने की) या भ्रमण की स्वतंत्रता प्रदान करता है| इसका उद्देश्य राष्ट्रीय सोच को बढ़ावा देना है न की संकीर्णता को|
अनु.19(1)(ड)- निवास या बस जाने का अधिकार-
यह प्रत्येक नागरिक को भारत के राज्य क्षेत्र में कहीं भी स्थायी या अस्थायी रूप से बस जाने की स्वतंत्रता प्रदान करता है|
अनु.19(1)(घ) व (ड) पर प्रतिबंध-
अनु.19(5) इन दोनों स्वतंत्रताओ पर निम्न आधारों पर प्रतिबंध लगाता है-
साधारण जनता के हितों के संरक्षण,
अनुसूचित जनजाति के हितों के संरक्षण
NOTE- S.C के अनुसार वेश्या के संचरण पर सार्वजनिक नैतिकता एवं स्वास्थ्य के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है|
Note- बम्बई उच्च न्यायालय ने एड्स पीड़ित व्यक्ति के संचरण पर प्रतिबंध को वैध ठहराया है|
Note- S.C ने पेशेवर अपराधी के घूमने पर प्रतिबंध लगाया हैं|
अनु.19(1) (छ)- कारोबार की स्वतंत्रता-
यह प्रत्येक नागरिक को कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार, कारोबार करने का अधिकार प्रदान करता है|
प्रतिबंध-
यह आत्यंतिक नहीं है| इस पर अनु.19(6) में निम्न आधारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये गये हैं-
साधारण जनता के हितों में|
इसके अलावा-
किसी व्यवसाय के लिए पेशेगत या तकनीकी योग्यता आवश्यक की जा सकती है|
राज्य किसी व्यापार, कारोबार, उद्योग या सेवा को पूर्णत: या भागत: अपने लिए आरक्षित कर सकता है|
इन सभी छ: स्वतंत्रताओ पर युक्त युक्त प्रतिबंध राज्य (संसद) विधि बनाकर लगा सकती है|
ये सभी स्वतंत्रताए असीमित या निर्बधन रहित नहीं है|
यह दोषी करार व्यक्ति को मनमाने या अतिरिक्त दंड से सुरक्षा प्रदान करता है|
यह अधिकार राष्ट्रीय आपात (अनु .352) के समय भी निलंबित नहीं होता है|
20 (1) भूतलक्षी विधि (Ex Post Facto Law)-
किसी भी व्यक्ति को अपराध के रूप में आरोपित विधि के अतिक्रमण करने पर ही दोषी ठहराया जा सकता है| तथा दंड अपराध के समय प्रवृत्त विधि के अनुरूप ही दिया जा सकता है अर्थात न्यायालय नवीन विधि के अनुसार दंड नहीं दे सकता है| कोई विधि पूर्व तिथि से लागू नहीं होगी|
20(2) दोहरे दंड से सुरक्षा (Jeopardy Law)-
किसी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक से अधिक बार दंडित नहीं किया जा सकता है|
NOTE- दोहरे दंड में सरकारी विभागीय कार्यवाही को सम्मिलित नहीं किया जाता है| यह केवल कानूनी न्यायालय या न्यायिक अधिकरण में ही लागू होता है|
20(3) स्वयं के विरुद्ध गवाही से छूट-
किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है|
Note- सेलवी बनाम कर्नाटक राज्य वाद 2010- S.C ने इस निर्णय में कहा था कि नारको टेस्ट, पॉलीग्राफ़ टेस्ट को केवल संवेदनशील मामलों में ही अनुमति दी जाये, सामान्य मामलों में नहीं|
Note- भूतलक्षी विधि अपराधिक कानूनों में ही लागू होती है, सिविल कानूनों में नहीं| अर्थात जन उत्तरदायित्व या एक कर को पूर्वव्यापी रूप में लगाया जा सकता है|
Note- स्वयं के विरुद्ध गवाही से छूट मौखिक या लिखित दोनों ही रूपों में है|
अंबेडकर “यह संविधान का मेरुदंड तथा मैग्नाकार्टा है|”
इसे जीवन का अधिकार भी कहते हैं|
यह भी राष्ट्रीय आपात (अनु. 352) के समय निलंबित नहीं होता है|
इसके अनुसार किसी व्यक्ति को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (जापान से प्रेरित) के अनुसार वंचित किया जा सकता है, अन्यथा नहीं|
Note- S.C ने इसमें इच्छा मृत्यु को भी शामिल किया है|
A.K.गोपालन बनाम मद्रास राज्य वाद (1950)-
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनु. 21 के तहत मनमानी कार्यकारी प्रक्रिया के विरुद्ध सुरक्षा उपलब्ध है, न कि विधानमंडलीय प्रक्रिया के विरुद्ध|
अर्थात राज्य प्राण व दैहिक स्वतंत्रता को कानूनी आधार पर रोक सकता है|
मेनका गांधी बनाम भारत संघ वाद (1978)-
इसमें गोपालन वाले निर्णय को पलट दिया गया| अर्थात अनु. 21 के तहत सुरक्षा मनमानी कार्यकारी प्रक्रिया व विधानमण्डलीय प्रक्रिया दोनों के विरुद्ध प्राप्त है|
इस मामले में दैहिक स्वतंत्रता का अर्थ गरिमामय जीवन बताया|
मेनका गांधी मामले में उच्चतम न्यायालय ने नैसर्गिक न्याय की संकल्पना का प्रतिपादन किया अर्थात अनुच्छेद 21 में विधि शब्द से तात्पर्य विधायिका द्वारा पारित विधि से नहीं है, बल्कि ऐसी विधि से है जो नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत पर आधारित है|
S C ने अनु. 21 में निम्न अधिकारों को सम्मिलित किया है-
निशुल्क विविध सहायता का अधिकार (सुकदास V/S अरुणाचल प्रदेश)
आजीविका का अधिकार (पटरी वासियों का केस)
प्राथमिक शिक्षा का अधिकार (मोहिनी जैन V/S कर्नाटक)
चिकित्सा का अधिकार (परमानंद कटारा)
प्राइवेसी का अधिकार (फोन टैपिंग मामला)
विदेश जाने का अधिकार (मेनका गांधी वाद)
सौंदर्य प्रतियोगिता का अधिकार (हैदराबाद पुलिस कमिश्नर)
हथकड़ी न लगाने का अधिकार (गुजरात कैदी)
सूचना का अधिकार (हेल्थ उत्कर्ष समिति V/S एस्सार ऑयल लि.)
नींद का अधिकार (श्याम सिंह)
एकांतता का अधिकार (गोविंद V/S M.P)
स्वच्छ जल व वायु का अधिकार (सुभाष कुमार V/S बिहार)
आश्रय प्राप्ति का अधिकार (चमेली सिंह V/S U P)
मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक वाद 1992- इसमें सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा पाने के अधिकार को अनुच्छेद 21 में शामिल करने पर का निर्णय दिया|
मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक वाद 1992 के बाद यह अनुच्छेद 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के द्वारा जोड़ा गया|
इसमें घोषणा की गई कि राज्य 6-14 वर्ष के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा|
इसको लागू करने के लिए 2009 में राइट टू एजुकेशन अधिनियम बनाया गया|
NOTE- यह व्यवस्था आवश्यक शिक्षा के लिए है न कि उच्च या व्यवसायिक शिक्षा के लिए|
यह किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी व निवारक निरोध कानून से संरक्षण प्रदान करता है|
हिरासत तो तरह की होती है-
दंड विषयक
निवारक
दंड विषयक-
इसमें एक व्यक्ति को तब हिरासत में लिया जाएगा, जब उसने अपराध स्वीकार कर लिया तथा अदालत ने दोषी ठहरा दिया|
निवारक निरोध-
इसमें व्यक्ति को शंका के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता है, ताकि भविष्य में होने वाले अपराध को रोका जा सके|
यह रोलेट एक्ट की पुनरावृति दिखाई देता है|
पंडित ठाकुर दास भार्गव ने संविधान सभा में निवारक निरोध को असफलताओं का शिरोमणि कहा था|
AK गोपालन वाद 1950 में सुप्रीम कोर्ट ने इसको संविधान का एक भद्दा प्रावधान कहा था|
भारत सरकार ने निवारक निरोध के अब तक निम्न कानून पारित किए हैं-
निवारक निरोध अधिनियम- 1950 (1969 में समाप्त)- AK गोपालन को इसी के तहत गिरफ्तार किया गया था|
आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA)1971, (1978 में समाप्त)- इसे इंदिरा गांधी ने बनवाया था तथा 1975 के आपातकाल में इसका बहुत ज्यादा दुरूपयोग हुआ था|
विदेशी मुद्रा का संरक्षण एवं व्यवसन निवारण अधिनियम (COFEPOSA) 1974- COFEPOSA निवारक निरोध कानून वर्तमान में सक्रिय है| COFEPOSA विदेशी मुद्रा व मादक पदार्थों की तस्करी से संबंधित है|
राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NASA )1980- रासुका नाम से चर्चित यह अधिनियम आज भी लागू है, जो कि सांप्रदायिक व जातीय दंगों को प्रेरित करने वालों पर लगता है|
चोर बाजारी निवारण और आवश्यक वस्तु प्रदान अधिनियम (PBMSECA) 1980
आतंकवादी और विध्वंसक क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (TADA) 1985 (1995 में समाप्त)
स्वापक औषधि और मन प्रभावी पदार्थ व्यापार निवारण (PITNDPSA) अधिनियम 1988
आतंकवाद निवारण अधिनियम (POTA) 2002, (2004 में समाप्त)- यह भारतीय संसद पर हमले के बाद लाया गया था| राज्यसभा में अटकने पर POTA को अटल बिहारी की सरकार ने संसद के संयुक्त अधिवेशन में पारित करवाया था|
अनुच्छेद 22(1)
गिरफ्तार व्यक्ति को यथाशीघ्र गिरफ्तारी का कारण बताएं बिना गिरफ्तार नहीं रखा जा सकता है तथा विधि व्यवसायी से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा|
अनुच्छेद 22(2)-
गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे (यात्रा समय को छोड़कर) की अवधि में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा तथा मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना 24 घंटे से ज्यादा हिरासत में नहीं रखा जा सकता है|
अनुच्छेद 22(3)-
22(1) व 22(2) की बातें लागू नहीं होंगी-
(क) तत्कालीन शत्रु विदेशी व्यक्ति पर|
( ख) निवारक निरोध कानून के तहत गिरफ्तार व्यक्ति पर|
अनुच्छेद 22(4)-
निवारक निरोध कानून के तहत गिरफ्तार व्यक्ति को 3 महीने से अधिक गिरफ्तार सलाहकार बोर्ड के प्रतिवेदन पर ही रखा जा सकता है|
सलाहकार बोर्ड उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, या H.C के पूर्व न्यायधीश या H.C मे न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए योग्य व्यक्तियों से मिलकर बनेगा|
अनुच्छेद 22(5)-
निवारक निरोध कानून के तहत गिरफ्तार व्यक्ति को यथाशीघ्र निवारक निरोध आदेश जारी करने वाला प्राधिकारी आदेश के आधार बतायेगा तथा आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिए उसे शीघ्रातिशीघ्र अवसर देगा|
अनुच्छेद 22 (6)-
आदेश जारी करने वाले प्राधिकारी आदेश के आधारों को बताना लोकहित के विरुद्ध समझता है, तो आधारों को बताना आवश्यक नहीं होगा|
अनुच्छेद 22(7)-
(क) सलाहकार बोर्ड की राय के बिना किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार रखने के लिए संसद विधि बना सकती है|
(ख) ससद विधि बनाकर निवारक निरोध कानून के तहत गिरफ्तारी की अधिकतम अवधि तय कर सकती है|
(ग) सलाहकार बोर्ड की जांच प्रक्रिया का निर्धारण संसद विधि बनाकर कर सकती है|
शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनु .23-24)
कुल अनुच्छेद-2
अनुच्छेद 23(1)-
मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा किसी प्रकार का अन्य बलात श्रम प्रतिषेध किया जाता है और इस उपबंध का कोई भी और उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा|
यह किसी व्यक्ति को न केवल राज्य के खिलाफ बल्कि व्यक्तियों के खिलाफ भी सुरक्षा प्रदान करता है|
मानव दुर्व्यापार का अर्थ-
पुरुष, महिला व बच्चों की वस्तु के सामान खरीद- बिक्री
महिलाओं व बच्चों का अनैतिक दुर्व्यापार, इसमें वेश्यावृत्ति भी शामिल है|
देवदासी
दास
Note- इन कार्यों को रोकने के लिए संसद ने अनैतिक दुर्व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956 बनाया है|
Note- राजस्थान में प्रचलित रही हाली या सागड़ी प्रथा पर रोक इसी अनुच्छेद के आधार पर लगी है|
बेगार का अर्थ-
बिना पारिश्रमिक के काम करना
बलात श्रम का अर्थ-
किसी व्यक्ति से बलपूर्वक उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करवाना|
न्यूनतम मजदूरी से कम पर काम कराना भी बलात श्रम है|
बेगार व बलात श्रम को रोकने के लिए संसद ने निम्न कानून बनाये है-
बंधुआ मजदूरी व्यवस्था (निरसन) अधिनियम 1976,
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948,
ठेका श्रमिक अधिनियम 1970,
समान परिश्रमिक अधिनियम 1976,
दीना बनाम भारत संघ वाद 1983- कैदियों को अपने काम हेतु उचित मजदूरी पाने का हक अर्थात उचित पारिश्रमिक बगैर काम कराना बलात श्रम है|
Note- मनरेगा कार्यक्रम में न्यूनतम मजदूरी अनु.23(1) व अनु. 43 का समर्थन करता है|
अनुच्छेद 23(2)-
यह 23(1) का अपवाद है|
राज्य सार्वजनिक प्रयोजन के लिए किसी सेवा को अनिवार्य सेवा अधिरोपित कर सकता है, ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा
चार आधार- 1 धर्म, 2 मूल वश, 3 जाति, 4 वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा, इनके अलावा भेदभाव किया जा सकता है|
14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान तथा अन्य परिसंकटमय कार्य में नियोजित नहीं किया जाएगा|
बालश्रम (प्रतिषेध एवं नियमन) अधिनियम 1986 प्रावधान करता है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों में नहीं लगाया जाएगा| इस अधिनियम को 2003 में संशोधित किया गया|
बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम 2005- यह अधिनियम बालकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए एक राष्ट्रीय आयोग और राज्य आयोगों की स्थापना का प्रावधान करता है|
फलस्वरुप 2007 में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग बनाया गया| यह आयोग संसदीय अधिनियमों से बना वैधानिक आयोग है| इसमें बालक की परिभाषा 0 से 18 वर्ष तक के बालक हैं|
2006 में सरकार ने बच्चों के घरेलू नौकर के रूप में तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठानों (होटल, रेस्टोरेंट्स, दुकान, रसोई, स्पा, चाय की दुकानें आदि) में नियोजन पर रोक लगा दी है|
बंधुआ मुक्ति मोर्चा वाद 1997 “बाल श्रम का प्रतिषेध| गलीचा उद्योग में अल्पआयु बच्चों से काम नहीं करवाया जा सकता है|
Note- इस अनुच्छेद कोई अपवाद नहीं है|
बाल श्रम संशोधन अधिनियम 2016 द्वारा14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को के लिए सभी प्रकार के व्यवसायों में नियोजन पर रोक लगा दी है, केवल दो परिस्थितियों में कुछ शर्तों के साथ छूट दी गई है-
यदि बच्चा स्कूल के समय के बाद अपने पारिवारिक व्यवसाय में मदद करता है,लेकिन वह कोई खतरनाक कार्य नहीं हो|
यदि बच्चा कलाकार के रूप में ऑडियो-वीडियो मनोरंजक उद्योग या किसी खेलकूद संबंधी क्रियाकलाप (सर्कस को छोड़कर) में नियोजित हो, लेकिन वह कार्य जोखिम भरा न हो|
4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (25-28)
यह अनुच्छेद धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित है, जिसको आयरलैंड के संविधान से लिया गया है|
अनुच्छेद 25(1)- लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को अंतः करण की स्वतंत्रता का और धर्म को अबाध रूप से मानने का, आचरण करने का और प्रचार करने का समान हक होगा|
अनुच्छेद 25(2)-
यह अनुच्छेद 25(1) अपवाद है|
राज्य को निम्न बातों पर विधि बनाने से नहीं रोका जाएगा-
धार्मिक आचरण से सम्बद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बधन करना|
सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए या सार्वजनिक प्रकार की हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों या अनुभागों के लिए खोलना|
स्पष्टीकरण- 1 - कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिख धर्म को मानने का अंग समझा जाएगा| संविधान निर्माताओ ने कृपाण धारण करने के प्रावधान को मोतीलाल नेहरू समिति 1928 की अनुशंसा से लिया था|
स्पष्टीकरण- 2 - हिंदुओं में सिख, जैन, बौद्ध शामिल है| (प्रथम संशोधन 1951)
अनुच्छेद 25 व्यक्ति को चार प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान करता है-
अंतः करण की स्वतंत्रता- किसी व्यक्ति को भगवान के साथ अंतर्संबंध बनाने की स्वतंत्रता होगी|
धर्म को अबाध रूप से मानने की स्वतंत्रता- व्यक्ति बिना भय व बाधा के जिस धर्म को मानना चाहता है, उसको मान सकता है अर्थात व्यक्ति अपना धर्म बदल सकता है|
आचरण की स्वतंत्रता- सभी व्यक्तियों को अपने धर्म के अनुसार आचरण की स्वतंत्रता है अर्थात धार्मिक पूजा, परंपरा, समारोहों करने की स्वतंत्रता है|
प्रचार का अधिकार- सभी व्यक्तियों को अपनी धार्मिक आस्थाओं व सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करने का अधिकार है, लेकिन किसी व्यक्ति को अपने धर्म में धर्मान्तरित करने का अधिकार नहीं है|
प्रोफेसर रेव स्टेनस्लास वाद 1977- सुप्रीम कोर्ट ने इसमें निर्णय दिया कि धार्मिक स्वतंत्रता में किसी का धर्म परिवर्तन कराना नहीं आता है|
प्रतिबंध- अनुच्छेद 25 पर निम्न प्रतिबंध/ बंधन है-
लोकव्यवस्था
सदाचार
स्वास्थ्य
मौलिक अधिकारों के अन्य प्रावधान
चर्च ऑफ गॉड ऑफ इंडिया बनाम K.K.R मेजस्टिक कॉलोनी वेलफेयर एसोसिएशन मामला 2000- कोई धर्म यह नहीं कहता कि दूसरे व्यक्ति की शांति में व्यवधान उत्पन्न करके प्रार्थना, पूजा-पाठ, संपादित की जानी चाहिए, न हीं कोई धर्म यह आदेश देता है कि लाउडस्पीकर, वॉइस एंपलीफायर अथवा ढोल नगाड़ा पीट कर प्रार्थना या पूजा पाठ करें|
इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य 2018- इस वाद में अनुच्छेद 25 के आधार पर केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को न्यायालय ने असंवैधानिक बतलाया|
लोक व्यवस्था, सदाचार, और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी अनुभाग को निम्न अधिकार होगा-
अनुच्छेद 26 (क)- धार्मिक और मूर्त प्रयोजन के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का अधिकार
अनुच्छेद 26 (ख)- अपने धर्मविषयक कार्यों के प्रबंध करने का अधिकार
अनुच्छेद 26 (ग)- जंगम (चल) और स्थावर (अचल) संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार
अनुच्छेद 26 (घ)- ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार|
Note- अनुच्छेद 25 व्यक्तियों को अधिकार प्रदान करता है, जबकि अनुच्छेद 26 धार्मिक संप्रदाय या उसके अनुभाग को अधिकार प्रदान करता है|
प्रतिबंध-
लोकव्यवस्था
सदाचार
स्वास्थ्य
Note- अनुच्छेद 25 की तरह, अनुच्छेद 26 पर मौलिक अधिकारों के अन्य प्रावधानों का प्रतिबंध नहीं है|
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार धार्मिक संस्थाओं को तीन शर्ते पूरी करना आवश्यक है-
यह ऐसे व्यक्तियों का समूह होना चाहिए, जिनका विश्वास तंत्र उनके अनुसार उनकी आत्मिक तुष्टि के अनुकूल हो|
इसका एक सामान्य संगठन होना चाहिए|
इस संगठन का विशिष्ट नाम होना चाहिए|
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार रामकृष्ण मिशन और आनंद मार्ग धार्मिक संप्रदाय है, जबकि अरविंदो सोसाइटी धार्मिक संप्रदाय नहीं है|
अनुच्छेद- 27- किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करो के संदाय के बारे में स्वतंत्रता
किसी व्यक्ति को ऐसे करो का संदाय करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, जिस कर को विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवृद्धि या पोषण पर व्यय किया जाये|
अर्थात सरकार किसी एक विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्थान की अभिवृद्धि के लिए कर नहीं लगा सकती है|
लेकिन शुल्क लगाया जा सकता है, क्योंकि शुल्क से यात्रियों को सुरक्षा और सुविधाएं दी जाती हैं| धर्म या धार्मिक संस्था पर खर्च नहीं किया जाता है|
कर का उपयोग धार्मिक कार्यों में नहीं किया जा सकता|
यह निम्न संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा तथा धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता देता है-
अनुच्छेद 28(1)- राज्य निधि से पूर्णत: पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी|
अनुच्छेद 28(2)- ऐसा शिक्षण संस्थान, जिसका प्रशासन तो राज्य करता है, लेकिन इनकी स्थापना ऐसे किसी विन्यास या न्यास के तहत हुई है, जिसके अनुसार धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है तो उस शिक्षण संस्थान में धार्मिक शिक्षा दी जा सकती है|
अनुच्छेद 28(3)- राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या राज्य निधि से सहायता पाने वाली शिक्षण संस्थान में दी जाने वाले धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में व्यक्ति को तब तक बाध्य नहीं किया जा सकता है जब तक उस व्यक्ति ने या अवयस्क होने पर माता-पिता ने सहमति न दे दी हो|
Note- तमिलनाडु में सभी स्कूलों में वंदे मातरम अनिवार्य कर दिया गया, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा है कि वंदेमातरम गान धार्मिक नहीं है|
Note- उत्तर प्रदेश में योगी सरकार द्वारा राष्ट्रीय गान को स्कूलों में अनिवार्य कर दिया गया, इलाहाबाद H.C ने इसे वैध ठहराया है, क्योंकि राष्ट्रीय गान धार्मिक नहीं है|
5. संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी मौलिक अधिकार (29-30)
अनुच्छेद 29(1)- भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा|
अनुच्छेद 29(2)- राज्य द्वारा पोषित या राज्य निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता है|
स्पष्टीकरण-
अनुच्छेद 29 (1)-
यह केवल अल्पसंख्यक ही नहीं, बल्कि नागरिकों के किसी भी अनुभाग, जिसकी विशेष भाषा, लिपि, संस्कृति है के अधिकारों की रक्षा करता है|
यह नागरिकों के एक समूह को तीन विषय- 1 भाषा 2 लिपि 3 संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार देता है|
अनुच्छेद 29 (2)- यह किसी भी नागरिक (चाहे अल्पसंख्यक न हो) को राज्य द्वारा पोषित या राज्य से सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थान में चार आधार [(1) धर्म (2) मुलवंश (3) जाति (4) भाषा] पर प्रवेश से वंचित करने को रोकता है|
अनुच्छेद- 30 शिक्षा संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार
अनुच्छेद 30(1)- धर्म या भाषा आधारित सभी अल्पसंख्यक-वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा|
अनुच्छेद 30(1)(क)-
44 वें संशोधन 1978 के द्वारा जोड़ा गया
यदि राज्य किसी अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान का अनिवार्य अर्जन करना चाहता है, तो उसको प्रतिकर या क्षतिपूर्ति देना होगा|
अनुच्छेद 30(2)- राज्य शिक्षा संस्थानों को सहायता देते समय अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षण संस्थान के साथ भेदभाव नहीं करेगा|
स्पष्टीकरण-
यह अनुच्छेद अल्पसंख्यक वर्गों को शिक्षण संस्थानों की स्थापना करने का तथा उसका प्रशासन करने का अधिकार प्रदान करता है|
यह अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षण संस्थान के अर्जन पर क्षतिपूर्ति देना अनिवार्य करता है|
यह राज्य द्वारा सहायता देने में अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षण संस्थान से होने वाले भेदभाव को रोकता है|
Note- भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है|
Note- यह केवल भाषा तथा धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देता है अनुच्छेद 29 की तरह नागरिकों के किसी अनुभाग को नहीं|
अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में सरकार हस्तक्षेप कर सकती है या नहीं-
केरला शिक्षा फाउंडेशन 1960 और सेंट स्टीफन कॉलेज 1985 मामलो में S.C ने निर्णय दिया कि सरकार अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है|
पाई फाउंडेशन 2003 के मामलों में S.C निम्न निर्णय दिया-
भारत में अल्पसंख्यक दो प्रकार के हैं- (A) भाषायी (B) धार्मिक
अल्पसंख्यक का आधार राज्य की जनसंख्या है|
सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में हस्तक्षेप किया जा सकता है| परंतु गैर सरकारी सहायता प्राप्त संस्थान में नहीं|
अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थाएं तीन प्रकार की होती है-
राज्य से आर्थिक सहायता व मान्यता लेने वाले संस्थान
ऐसे संस्थान जो मान्यता तो लेते हैं, लेकिन उन्हें आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं होती है|
ऐसे संस्थान जो मान्यता या सहायता नहीं लेते हैं|
प्रथम व द्वितीय प्रकार की संस्थाओं में राज्य के अनुसार शिक्षण स्टाफ, पाठ्यक्रम, शैक्षणिक मानक, अनुशासन, सफाई व्यवस्था होगी|
तीसरे प्रकार की संस्थान प्रशासनिक मामलों में स्वतंत्र है|
Note- RTE- 2009 अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों पर लागू नहीं होता है| RTE- 2009- दुर्बल वर्ग के लिए शिक्षण संस्थानों में 25% सीटें आरक्षित करता है|
अनुच्छेद 31(क) या 31 (A)- सम्पदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृति - (प्रथम संशोधन 1951 द्वारा जोड़ा गया|)
अनुच्छेद 31 (क)(1)- अनुच्छेद 13 की कोई बात होते हुए भी-
(क) किसी संपदा के या उसमें किन्ही अधिकारों के राज्य द्वारा अर्जन करने के लिए या संपदा के अधिकारों का निर्वापन या परिवर्तन करने के लिए या
(ख) किसी संपत्ति का प्रबंध लोकहित में या उचित प्रबंध के उद्देश्य से परिसीमित अवधि के लिए राज्य द्वारा लेने के लिए|
(ग) दो या दो से अधिक निगमों को लोकहित या उचित प्रबंध के उद्देश्य से समामेलित (एक जगह मिलना) करने के लिए|
(घ) निगम के प्रबंध अभिकर्ताओं, सचिवों, कोषाध्यक्षों, प्रबंध निदेशकों, प्रबंधको के किन्हीं अधिकारों या निगमों के शेयर धारकों को मत देने के अधिकार को समाप्त (निर्वापन) या परिवर्तन के लिए|
(ड) किसी खनिज या खनिज तेल की खोज करने या खनिज या खनिज तेल को प्राप्त करने के प्रयोजन के लिए किसी करार, पट्टे या अनुज्ञप्ति का निर्वापन (समाप्त) या परिवर्तन, या समय से पहले रद्द करने के लिए कोई विधि बनाई जाती है, तो उसे अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 19 के उल्लंघन के आधार पर शून्य या समाप्त नहीं किया जा सकता है|
अर्थात ऐसी विधियों को अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 19 के आधार पर असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता है|
अपवाद
लेकिन ऐसी विधि राज्य विधानमंडल द्वारा बनायी जाती है, तो उस विधि पर राष्ट्रपति की सहमति लेने पर वह विधि लागू होगी अन्यथा नहीं|
लेकिन राज्य किसी व्यक्ति की जोत भूमि अर्जन करता है, तो उसे जोत भूमि तथा उससे सलंगन (उस पर बना) भवन या संरचना का प्रतिकर बाजार मूल्य के बराबर देना पड़ेगा| (यह प्रावधान 17वें संशोधन 1964 द्वारा जोड़ा गया|)
अनुच्छेद 31 ‘क’ (2)
(क) - इसमें संपदा के अंतर्गत क्या होगा, उसको बताया है|
संपदा के अंतर्गत
कोई जागीर, इनाम अथवा अनुदान द्वारा प्राप्त भूमि
रैयतवाड़ी बंदोबस्त के अधीन दी गई भूमि
कृषि के प्रयोजन या कृषि के सहायक प्रयोजन के लिए दी गई भूमि या पट्टे पर दी गई भूमि शामिल होगी, जिसके अंतर्गत बंजर भूमि, वन भूमि, चारगृह या कृषको, श्रमिकों, ग्रामीण कारीगरों के उपयोग के भवन तथा अन्य संरचना के स्थल है|
(ख) अधिकार पद के अंतर्गत क्या होगा, उसको बताया है-
अधिकार के अंतर्गत
स्वत्वधारी, उप-स्वत्वधारी, अवर स्वत्वधारी, भू-धृतिधारक, रैयत, अवर रैयत या अन्य मध्यवर्ती निहित कोई अधिकार या भू राजस्व के संबंध में कोई अधिकार या विशेषाधिकार|
कुछ अधिनियमो और विनियमो का विधिमान्यकरण
यह प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम 1951 द्वारा जोड़ा गया|
इस अनुच्छेद में प्रावधान है कि नवी अनुसूची में शामिल कोई अधिनियम और विनियम मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर उसे शून्य या असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता है| (अर्थात अनुच्छेद 13- न्यायिक पुनरावलोकन के बाहर है, 9वी अनुसूची)
9वीं अनुसूची के अधिनियम और विनियम न्यायालय अधिकरण के निर्णय, डिक्री या आदेश के प्रतिकूल होने पर भी बने रहेंगे|
ये विधानमंडल की निरसित या संशोधित करने की शक्ति के अधीन रहते हुए भी बने रहेंगे|
अर्थात 9वीं अनुसूची के अधिनियम और नियमों को विधानमंडल (संसद) भी संशोधित या निरसित नहीं कर सकती है|
Note- अनुच्छेद 31 ‘ख’ सभी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है, जबकि 31 ‘क’ केवल अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 19 का|
कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृति
25 वें संविधान संशोधन 1971 द्वारा 31‘ग’ जोड़ा गया|
कोई विधि जो अनुच्छेद 39‘ख’ व 39‘ग’ में वर्णित नीति निर्देशक तत्वों को लागू करती है, तो वह अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 19 के उल्लंघन के आधार पर शून्य नहीं मानी जाएगी|
लेकिन ऐसी विधि राज्य विधानमंडल द्वारा बनायी जाती है, तो उस विधि पर राष्ट्रपति की सहमति लेने पर वह विधि लागू होगी अन्यथा नहीं|
Note-
केशवानंद भारती मामले 1973 में 31‘ग’ को असवैधानिक घोषित कर दिया|
42 वें संशोधन 1976 द्वारा 31‘ग’ को विस्तारित कर दिया तथा कहा कि किसी भी नीति निर्देशक तत्व को लागू करने के लिए विधि बनायी जाती है, तो अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 19 के उल्लंघन के आधार पर शून्य नहीं होगी|
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ 1980 के मामले में अनुच्छेद 31‘ग’ के विस्तार को अवैध (शून्य) घोषित कर दिया|
अतः वर्तमान में 31 ‘ग’ में यह उल्लेखित है कि अनुच्छेद 39‘ख’ व 39 ‘ग’ को लागू करने के लिए बनायी गयी विधि अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 19 के उल्लंघन पर शून्य घोषित नहीं की जा सकती है|
Note- 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा राजाओं के प्रिविपर्स को इंदिरा गांधी सरकार ने समाप्त कर दिया, जिसे न्यायालय ने अवैध ठहराया, इसलिए 25 वें संशोधन 1971 द्वारा 31‘C’ जोड़ा गया
यह अनुच्छेद 42 वें संशोधन 1976 के द्वारा जोड़ा गया|
इसमें प्रावधान था कि राष्ट्र विरोधी क्रियाकलाप करने पर व्यक्ति की संपत्ति छीनी जा सकती है|
इस अनुच्छेद को 43 वें संशोधन 1977 के द्वारा निरसित कर दिया गया|
6. संवैधानिक उपचारों का मौलिक अधिकार अनुच्छेद- 32
अनुच्छेद 32(1)- इस भाग (भाग-3) द्वारा प्रदत अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए व्यक्ति को सीधा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार है|
अनुच्छेद 32(2)- इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित करने के लिए न्यायालय को निम्न निदेश/ आदेश/ रिट निकालने की शक्ति होगी-
बंदी प्रत्यक्षीकरण
परमादेश
प्रतिषेध
उत्प्रेषण
अधिकार- पृच्छा
अनुच्छेद 32(3)- संसद किसी अन्य न्यायालय को ऐसे निदेश/ आदेश/ रिट जारी करने की शक्ति दे सकती है| (लेकिन उच्चतम न्यायालय की शक्ति पर प्रभाव डाले बिना)
अनुच्छेद 32(4)- संविधान में उल्लेखित उपबंधो के अलावा अन्य आधार पर अनुच्छेद 32 द्वारा प्रत्याभूत S.C मे जाने का अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता|
अर्थात राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) के दौरान इनको निलंबित किया जा सकता है| (अनुच्छेद 358, अनुच्छेद 359)
यह सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार है, क्योंकि इसके बिना मूल अधिकारों की घोषणाएं निरर्थक है| यह मौलिक अधिकार अन्य मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर S.C द्वारा उन्हें लागू कराने का प्रावधान करता है|
इस अधिकार के द्वारा S.C मौलिक अधिकारों का रक्षक व गारंटर बन जाता है|
अनुच्छेद 32 को B.R अंबेडकर ने संविधान की आत्मा व हृदय कहा है|
B.R.अंबेडकर “यदि मुझे कहा जाए कि मैं संविधान के किस अनुच्छेद को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता हूं, ऐसा अनुच्छेद जिसके बिना सविधान व्यर्थ हो जाएगा तो मैं किसी और अनुच्छेद को नहीं बल्कि इसी अनुच्छेद को इंगित करूंगा| यह संविधान की आत्मा है, उसका ह्रदय है|”
भीमराव अंबेडकर ने इसी अनुच्छेद को संविधान की प्राचीर (दीवार) की संज्ञा दी है|
पूर्व मुख्य न्यायाधीश गजेंद्र गढ़कर ने इसे भारतीय संविधान का सबसे प्रमुख लक्षण और संविधान द्वारा स्थापित प्रजातांत्रिक भवन की आधारशिला कहा है|
कोच्चनी बनाम मद्रास राज्य वाद 1959- मूल अधिकारों के भंग के किसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका लगाना स्वयं में एक मौलिक अधिकार है|
दरयाव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद 1961- मूल अधिकारों को लागू करवाना सर्वोच्च न्यायालय का कर्तव्य है| सर्वोच्च न्यायालय मूल अधिका का संरक्षक व गारंटर है|
रोंNOTE- संविधान द्वारा अनुच्छेद 32 में केवल मूल
अधिकारों की गारंटी दी गई है, अन्य अधिकारों की नहीं|
S.C के अलावा अनुच्छेद 226 के तहत H.C भी रिट जारी कर सकता है|
1950 से पहले केवल कलकत्ता, बम्बई, मद्रास उच्च न्यायालय को ही रिट जारी करने का अधिकार था, अब सभी उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने का अधिकार है|
रिट इंग्लैंड के कानून से लिए गए हैं| ये इंग्लैंड के सम्राट द्वारा सामान्य विधिक उपचार अपर्याप्त होने पर जारी किए जाते थे|
इन्हें न्याय का झरना भी कहा जाता है|
आगे चलकर उच्च न्यायालय ने इन रिटो को जारी करना शुरू कर दिया
बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) (हेबियस कॉरपस)
यह लेटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- ‘को प्रस्तुत किया जाए या सशरीर उपस्थित किया जाए|’
यह रिट व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित है|
यह उस व्यक्ति को जारी किया जाता है, जिसने किसी व्यक्ति को हिरासत में ले रखा है| इसके द्वारा हिरासत में लिए गए व्यक्ति को न्यायालय के सामने सशरीर पेश करने का आदेश दिया जाता है|
इसके द्वारा-
न्यायालय, हिरासत का कारण जान सकता है|
हिरासत का कारण उचित न होने पर छोड़ने का आदेश दे सकता है|
किसको जारी किया जायेगा-
यह रिट सार्वजनिक प्राधिकरण या अधिकारी अथवा प्राइवेट व्यक्ति (जिसने किसी व्यक्ति को हिरासत में रखा है) को जारी किया जा सकता है|
किसको जारी नहीं किया जा सकता-
यह रिट निम्न मामलों में जारी नहीं किया जा सकता है-
हिरासत कानून के अनुसार है|
हिरासत संसद या न्यायालय की अवमानना के कारण हुई है|
हिरासत न्यायालय के न्याय क्षेत्र से बाहर हुई है|
किसी अपराध के लिए न्यायालय द्वारा हिरासत हुई है|
परमादेश (Mandamus) (मेंडामस)-
इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘हम आदेश देते हैं’
यह किसी सरकारी अधिकारी या सरकारी संस्था को कार्य करने से इनकार करने पर जारी किया जाता है, ताकि वह अपने कर्तव्य का पालन कर सकें| अर्थात इसके द्वारा सरकारी अधिकारी या सरकारी निकाय को कर्तव्य पालन का आदेश दिया जाता है|
निम्न को जारी किया जाता है-
किसी भी सार्वजनिक इकाई
सार्वजनिक निगम
अधीनस्थ न्यायालय
अधीनस्थ प्राधिकरण
सरकार
निम्न को जारी नहीं किया जा सकता है-
राष्ट्रपति और राज्यपालों को (अनुच्छेद 361)
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को, जो न्यायिक क्षमता में कार्यरत है
निजी व्यक्तियों
निजी इकाइयों
गैर संवैधानिक विभाग
सविदात्मक दायित्व को लागू करने के विरुद्ध
प्रतिषेध (Prohibition) (प्रोहिबिशन)
इसका शाब्दिक अर्थ है ‘रोकना’
यह S.C व H.C द्वारा अधीनस्थ न्यायालय या अधिकारणों को अपने न्याय क्षेत्र से उच्च न्यायिक कार्यों को करने से रोकने के लिए जारी किया जाता है|
जारी किया जाता है-
केवल न्यायिक एवं अर्ध न्यायिक प्राधिकरणों तथा न्यायिक व अर्ध न्यायिक अधिकारियों के विरुद्ध जारी किया जाता है|
जारी नहीं किया जा सकता-
प्रशासनिक प्राधिकरण
विधायी निकाय/ अधिकारी
निजी व्यक्ति
निजी निकाय
प्रशासनिक प्राधिकारी
उत्प्रेषण (Certiorari) (सेरशियोरेरी)-
इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘प्रमाणित होना या सूचना देना’
यह S.C व H.C द्वारा अधीनस्थ न्यायालय या अधिनस्थ अधिकरणों को जारी किया जाता है|
इसमें S.C व H.C द्वारा अधीनस्थ न्यायालय या अधिकरण से उनके न्यायिक क्षेत्र से बाहर के कार्यों को अपने पास मंगवाया या स्थानांतरित करवाया जाता है|
जारी किया जाता है-
केवल न्यायिक व अर्ध न्यायिक अधिकरणों तथा न्यायिक व अर्ध न्यायिक अधिकारियों को|
Note-1991 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया की उत्प्रेषण रिट व्यक्तियों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रशासनिक प्राधिकरणों/ अधिकारी के खिलाफ भी जारी किया जा सकता है|
जारी नहीं किया जा सकता-
प्रशासनिक प्राधिकरण/ अधिकारी
विधायी निकाय/ अधिकारी
निजी व्यक्ति
निजी निकाय
NOTE- उत्प्रेषण व प्रतिषेध दोनों का उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालय या अधिकरण को अपने अधिकार क्षेत्र या न्यायिक क्षेत्र में ही कार्य करने को सुनिश्चित करना है|
अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto) (को- वारंटो)-
इसका शाब्दिक अर्थ है- ‘प्राधिकृत या वारंट के द्वारा’
यह सार्वजनिक पद को अवैध रूप से ग्रहण करने वाले व्यक्ति के खिलाफ जारी किया जाता है|
इसके द्वारा न्यायालय लोक पद पर पर किसी व्यक्ति के दावे की वैधता की जांच करता है, यदि उसका दावा गलत है तो उसे पद से निष्कासित कर दिया जाता है|
ऐसे व्यक्ति से पूछा जाता है कि पद किस अधिकार से ग्रहण किया है|
जारी किया जा सकता है-
सार्वजनिक पद- पद कानून द्वारा या संविधान द्वारा सृजित होना चाहिए न की किसी व्यक्ति की इच्छा पर आधारित हो|
पूरक सार्वजनिक कार्यालय के मामले में तब जारी किया जा सकता है, जब उसका निर्माण संवैधानिक हो|
जारी नहीं किया जा सकता-
मंत्री कार्यालय व निजी कार्यालय के लिए
Note- अन्य 4 रिटो से हटकर इसे किसी इच्छुक व्यक्ति के लिए जारी किया जाता है, न कि पीड़ित व्यक्ति के लिए|
यह अनुच्छेद संसद को यह अधिकार देता है कि संसद विधि बना कर सशस्त्र बलों, अर्ध सैनिक बलों, पुलिस बलों, खुफिया एजेंसी के सदस्यों तथा इनसे संबंधित व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों में कटौती कर सकती है|
मूल अधिकारों में कटौती का कारण इन सदस्यों द्वारा करते कर्तव्यों का उचित पालन किया जा सके तथा अनुशासन बना रह सके|
इसके लिए संसद ने निम्न नियम पारित किए हैं-
सैन्य अधिनियम 1950,
नौ सेना अधिनियम 1950,
वायु सेना अधिनियम 1950,
पुलिस बल (अधिकारों पर निषेध) अधिनियम 1966 आदि|
संसद विधि बना कर संघ या राज्य की सेवा में किसी व्यक्ति अर्थात सरकारी कर्मचारी या किसी व्यक्ति को सैन्य कानून (मार्शल ला) के समय व्यवस्था बनाए रखने तथा व्यवस्था की पुनः स्थापना के लिए किए गए कार्य की क्षतिपूर्ति कर सकती है|
तथा संसद मार्शल ला के अधीन पारित दंडादेश, दिए गए दंड तथा अन्य कार्य को विधि मान्य कर सकेगी|
35(क) निम्न मामलों मे केवल संसद को शक्ति होगी राज्य विधान मंडल को नहीं-
अनुच्छेद 16(3), अनुच्छेद 32(3), अनुच्छेद 33, अनुच्छेद 34 के अधीन उपबंध संसद विधि द्वारा बना सकेगी|
भाग 3 के तहत अपराध घोषित किए गए कार्य के लिए तथा अनुच्छेद 16(3), अनुच्छेद 32(3) अनुच्छेद 33, अनुच्छेद 34 के तहत अपराध के लिए विधि बनाकर दंड का निर्धारण संसद करेगी|
मौलिक अधिकारों की समालोचना-
भीमराव अंबेडकर ने भाग 3 को सर्वाधिक विवादास्पद व आलोचित भाग कहा है|
न्यायाधीश करीम मोहम्मद छागला “हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था सिपाही के दृष्टिकोण से की गई है|”
मौलिक अधिकारों में संशोधन-
शंकरी प्रसाद वाद 1951- संसद मौलिक अधिकारों में परिवर्तन कर सकती है|
सज्जन सिंह वाद 1965- शंकरी प्रसाद वाद का निर्णय ही दोहराया
गोलकनाथ वाद 1967- संसद मूल अधिकारों में परिवर्तन नहीं कर सकती है|
केशवानंद भारती वाद 1973- संसद मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में परिवर्तन कर सकती है पर साथ ही मूल ढांचे का सिद्धांत दिया| यह आज तक की सबसे बड़ी पीठ थी जिसमें कुल 13 न्यायाधीश थे मुख्य न्यायाधीश SM सीकरी था|
मिनर्वा मिल्स वाद 1980- इसमें केशवानंद भारती वाले निर्णय को दोहराया गया|
न्यायाधीश सुब्बाराव-
“मौलिक अधिकार परंपरागत प्राकृतिक अधिकारों का दूसरा नाम है, ये वे नैतिक अधिकार है , जिन्हें हर काल, हर जगह, हर मनुष्य को प्राप्त होने चाहिए, क्योंकि अन्य प्राणियों के विपरीत वह चेतन तथा नैतिक प्राणी है|”
मानव व्यक्तित्व के विकास के लिए वे मौलिक अधिकार है|
वे ऐसे अधिकार है, जो मनुष्य को स्वेच्छानुसार जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करते हैं|
मौलिक अधिकार उप समिति के सदस्य-
जे बी कृपलानी, मीनू मसानी, के टी शाह, अल्लादि कृष्णा स्वामी अय्यर, के एम् मुंशी, सरदार हरनाम सिंह, मौलाना आजाद, डॉ अंबेडकर, हंसा मेहता, जयरामदास, दौलतराम, के पाणिकर,राजकुमारी अमृत कौर
सप्रू समिति (1945) ने मौलिक अधिकारों को वाद योग्य और अवाद योग्य दो भागों में बांटा था|
डॉ राधाकृष्णन ने मौलिक अधिकारों को हमारी भावना के साथ किया गया वादा तथा सभ्य विश्व के साथ की गई संधि कहा था|
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