- कौटिल्य का वास्तविक नाम विष्णुगुप्त था, इसे चाणक्य भी कहते हैं| 
- कौटिल्य ई. पूर्व तीसरी सदी के आचार्य थे| 
- इनका जन्म तक्षशिला में हुआ था| 
- इनके जन्म के संबंध में मतभेद हैं| बौद्ध ग्रंथ इनकी जन्मभूमि तक्षशिला मानते हैं, जैन ग्रंथों के अनुसार इनकी जन्मभूमि मैसूर राज्य का श्रवणबेलगोला है, कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान नेपाल का तराई प्रदेश मानते हैं 
- यह तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षक थे| 
वैसे- चाणक्य इसके पिता का नाम था, कुठिल नामक गोत्र होने के कारण कौटिल्य कहलाए|
- कौटिल्य की व्यवहारिक राजनीति व राजवैभव में कोई रुचि नहीं थी परिस्थितियों ने व्यावहारिक राजनीति में भाग लेने के लिए बाध्य किया और भारतीय राजनीति के महत्वपूर्ण विद्वान बन गए| 
राजनीति में आने के कारण-
- तत्कालीन मगध साम्राज्य के सम्राट घनानंद द्वारा कौटिल्य का अपमान| 
- भारत पर यूनानी सिकंदर का आक्रमण| सिकंदर के आक्रमण से बचने के लिए भारत को एक शक्तिशाली साम्राज्य बनाना| 
- इन्हीं परिस्थितियोंवश इन्होंने मगध साम्राज्य या नंद वंश का नाश किया तथा चंद्रगुप्त मौर्य को शासक बनाकर मौर्य वंश की नीव रखी, और स्वयं प्रधानमंत्री बन गए| 
- कौटिल्य ने अर्थशास्त्र नामक राजनीति पर एक ग्रंथ लिखा| 
- 19 वी सदी तक इस ग्रंथ की जानकारी नहीं थी| 
- सर्वप्रथम 1905 ई. में तंजौर के एक ब्राह्मण ने कौटिल्य अर्थशास्त्र की एक हस्तलिखित पांडुलिपि तत्कालीन मैसूर रियासत की प्राच्य पुस्तकालय को भेंट की उस समय इस पुस्तकालय के अध्यक्ष शाम शास्त्री के प्रयत्नों से 1909 में इस ग्रंथ का सर्वप्रथम प्रकाशन हुआ| 
- विशाखदंत ने मुद्राराक्षस में चाणक्य को कौटिल्य और विष्णुगुप्त कहा है| 
- डॉ पांडुरंग वामन काणे कृत ‘धर्म शास्त्र का इतिहास’ में बताया है कि कौटिल्य, चाणक्य, विष्णुगुप्त एक ही व्यक्ति के नाम थे| 
अर्थशास्त्र-
- अर्थशास्त्र की रचना और रचनाकाल -
अर्थशास्त्र ग्रंथ के लेखक व रचनाकाल के संबंध में दो मत हैं-
- प्रथम मत- इस मत के अनुसार रचनाकार- मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु एवं महामंत्री आचार्य विष्णुगुप्त शर्मा या कौटिल्य
रचनाकाल- ई. पू. तीसरी सदी
मत के समर्थक- शाम शास्त्री, के पी जायसवाल, राधामुकुंद मुखर्जी, P V काणे, जे.एफ फ्लीट, जे.जे मेयर, स्टेन कोनॉव, स्मिथ आदि|
- दूसरा मत- इस मत के अनुसार अर्थशास्त्र अज्ञात विद्वान द्वारा लिखा गया एक अप्रमाणिक ग्रंथ है, जिसने कौटिल्य नामक कल्पित नाम से रचना की|
रचनाकाल- ईसा की प्रथम सदी से चौथी सदी के मध्य
समर्थक- विंटरनित्ज, जौली, ए.बी कीथ, ई एच जॉनसन, अरविंद नाथ बोस, हेमचंद्र राय चौधरी|
- जौली “कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक धोखा देने वाली चीज है जिसे संभवत तीसरी शताब्दी में तैयार किया गया था|” 
- आर जी भंडारकर इसे प्रथम शताब्दी की रचना मानते हैं| 
- डॉ श्याम लाल पांडे “प्रस्तुत अर्थशास्त्र चाहे मौर्य काल की रचना हो या उसके पश्चात की रचना हो परंतु यह अवश्य मानना पड़ेगा कि इसमें राज्यशास्त्र से संबंधित जिन सिद्धांतों की स्थापना की गई है वह मौर्यकालीन ही है|” 
Note- कौटिल्य की अर्थशास्त्र में 15 अधिकरण, 150 अध्याय, जिसमें 180 विषयों पर लगभग 6000 श्लोक हैं|
अर्थशास्त्र की विषय वस्तु-
- अर्थशास्त्र शुक्र और बृहस्पति की वंदना से प्रारंभ होता है| 
- अर्थशास्त्र दंडनीति अर्थात राजनीति व शासन कला पर लिखा गया ग्रंथ है जैसा इसका नाम अर्थशास्त्र है उस तरह यह अर्थव्यवस्था पर नहीं है| प्राचीन भारत में राजनीति शास्त्र को दंडनीति कहा जाता था, तथा इसे ही (दंडनीति को) अर्थशास्त्र भी कहा जाता था| 
- महाकवि दंडी ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र को दंडनीति कहा है| 
- कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के प्रथम अध्याय में कहा है कि वे दंडनीति की विवेचना कर रहे हैं| 
- डॉ. अलतेकर “राजनीति शास्त्र में अर्थशास्त्र का वही स्थान है जो व्याकरण में पाणिनि की अष्टाधायी का है| 
- कौटिल्य ने अपने ग्रंथ में अर्थ एवं अर्थशास्त्र की संक्षिप्त परिभाषा दी है| 
- कौटिल्य के अनुसार अर्थशास्त्र की परिभाषा- “मनुष्यों की जीविका को अर्थ कहा जाता है और मनुष्य से युक्त भूमि को भी अर्थ कहते हैं, जो शास्त्र इस भूमि को प्राप्त करने का तथा इस भूमि की रक्षा करने का उपाय बताता है उसे अर्थशास्त्र कहते हैं|” 
- अर्थात अर्थशास्त्र से कौटिल्य का आशय दंडनीति (राज्यशास्त्र) से है| 
- कौटिल्य अर्थशास्त्र में सभी शास्त्रों को सम्मिलित करके उसका व्यापक अर्थ बताते हैं| जैसे कौटिल्य के शब्दों में “संपूर्ण शास्त्रों का क्रमबद्ध अध्ययन करके और उनके प्रयोगों को भली-भांति समझ कर ही राजा के लिए इस शासन विधि की रचना की है|” 
अर्थशास्त्र में कुल 15 अधिकरण है-
- पहला अधिकरण : राजवृत्ति निरूपण या विनियाधिकरण- इसमें राजा के जीवन व उससे संबंधित समस्याओं के बारे में बताया है| इसके अलावा अमात्यो की नियुक्ति, गुप्तचर व्यवस्था, राजा की स्वजनों से रक्षा, राजभवन निर्माण, विभिन्न विधाओं पर विचार, विष प्रतिकार उपाय आदि का वर्णन है|
- दूसरा अधिकरण: अध्यक्ष प्रचार- इसमें विभिन्न विभागों के अध्यक्षों की नियुक्ति तथा उनके कार्यों का वर्णन है| इसके अलावा जनपदों तथा दुर्गों के निर्माण का भी विवरण है|
- तीसरा अधिकरण: न्याय का निरूपण या धर्मस्थीय- इसमें धर्मशास्त्र के अनुसार न्याय विभाग का संगठन विभिन्न प्रकार के विवादों, न्यायिक प्रक्रिया का वर्णन है|
- चौथा अधिकरण: कण्टक शोधन- इसमें विभिन्न प्रकार के अपराधों के लिए दंड विधान का उल्लेख है|
- पांचवा अधिकरण: योगवृत्त निरूपण- इसमें राज्यभृत्यो के कर्तव्यों का तथा उनमें से जो अराजभक्त हो उसके लिए दंड नियमों का वर्णन है| जैसे कोश का संग्रह, राज्यभृत्यो का भरणपोषण, व्यवहार आदि का|
- छठवां अधिकरण: प्रकृतियों का निरूपण या मंडलयोनि- इसमें राज्य मंडल के विभिन्न राज्यों की प्रकृति व गुण तथा शत्रु राज्य को वश में करने के उपायों का वर्णन है|
- सातवां अधिकरण: षडगुणों का निरूपण- इसमें षडगुण नीति की उद्देश्य, प्रकार, उनकी उपयोगिता, तथा व्यवहारिक प्रयोगों पर विचार किया गया है, जिसके आधार पर शत्रु, मध्यम, उदासीन राज्य को वश में किया जा सके|
- आठवां अधिकरण: व्यसनों का निरूपण या व्यसनादिकारिक- इसमें कौटिल्य ने राज्यों की विपत्तियों का कारण व्यसन बताया है, तथा इन्हें दूर करने के उपाय बताए हैं|
- नवां अधिकरण: आक्रमण का निरूपण या अभियास्यत्कर्म- इसमें आक्रमण से पहले की जाने वाली तैयारियों का विवरण है| सैन्य शक्ति व देश के बल पर विचार, आक्रमण का समय आदि|
- दसवां अधिकरण: युद्ध का निरूपण या संग्रामिक- इसमें युद्ध में शत्रु पर विजय प्राप्ति के लिए युद्ध नियमों का वर्णन है| जैसे सैन्य छावनी का निर्माण, युद्ध के दौरान अपनी सेना की रक्षा, सैन्य व्यूह आदि|
- ग्यारहवां अधिकरण: संघवृत्त निरूपण या संघवृत्त- इसमें संघ राज्यो (दो या दो से अधिक राज्यों का संगठन) का विनाश करने के लिए उनमें भेद डालने के उपायों की विवेचना है जैसे- भेदक प्रयोग, उपाशुदंड|
- बारहवां अधिकरण: अबलीयस का निरूपण- इसमें निर्बल राजा द्वारा बलवान राजाओं के प्रतिकार के उपायों का वर्णन है| जैसे- इतकर्म, राजमंडल की मदद, सेनापतियों का वध|
- तेहरवां अधिकरण: दुर्ग प्राप्ति के उपायों का निरूपण या दुर्गलंभोपाय- इसमें शत्रु के दुर्ग पर अधिकार करने के उपायों का वर्णन है|
- चौदहवां अधिकरण: औपनिषदिक निरूपण- इसमें शत्रु पर विष, जादू, टोना आदि की प्रयोग विधि बताई गई है|
- पन्द्रहवां अधिकरण: तंत्रयुक्ति का निरूपण- इसमें अर्थशास्त्र की सामान्य विवेचना की गई है|
- अर्थशास्त्र की रचना गद्य व पद्य दोनों में की है, किंतु अधिकांश भाग गद्य का है| 
- गद्य भाग: यह सूत्रों के रूप में है, जिनकी व्याख्या भाष्य भी कौटिल्य ने प्रस्तुत की थी| 
- पद्य भाग: इस भाग में कुल 375 श्लोक हैं| अधिकांश श्लोक प्रत्येक अध्याय के अंत में निष्कर्ष के रूप में लिखे हैं| 
कौटिल्य की अध्ययन पद्धति-
- कौटिल्य की लेखन शैली तर्कपूर्ण व बुद्धिप्रधान है| यह एक यथार्थवादी राजशास्त्री थे, जिसने आगमनात्मक पद्धति को अपनाया है| इसी के साथ मनोवैज्ञानिक पद्धति को भी अपनाया है| 
- आगमनात्मक पद्धति की उपपद्धति- ऐतिहासिक, पर्यवेक्षणात्मक, प्रयोगात्मक 
अर्थशास्त्र का महत्व-
- प्राचीन भारतीय राजनीति शास्त्र में कौटिल्य का अर्थशास्त्र एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिसकी तुलना अरस्तु के राजनीति (Politics) से की जा सकती है| 
- अर्थशास्त्र से प्राचीन भारतीय राजनीति, समाज, उस समय की राजनीतिक समस्याओं की जानकारी मिलती है| 
- कौटिल्य ने राजनीति के प्रति यथार्थवादी (जो है उसी का वर्णन, ना की कल्पनालोक) दृष्टिकोण को अपनाया है| इसमें राज्यशास्त्र को एक स्वतंत्र विषय के रूप में मान्यता दी है उसे धर्मशास्त्र के बंधन से मुक्त किया है| 
- अर्थशास्त्र ने भारत को एक सुदृढ़ और केंद्रीयकृत शासन दिया है जिसके संबंध में पहले के विचारक अनभिज्ञ थे| 
- प्राचीन भारतीय राजनीति शास्त्र के इतिहास में कौटिल्य प्रथम प्रमुख विचारक है जिसने धर्म व राजनीति के पृथक्करण पर बल दिया है व धर्म को राजनीति का अनुचर बताया है| 
- कौटिल्य ने समस्त राजनीतिक चिंतन का आधार अर्थ को बताया है 
- कौटिल्य के अनुसार इहिलोक के धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थो में अर्थ का सम्मान प्रमुख है| 
- कौटिल्य की रचना का प्रभाव अनेक भारतीय विद्वानों पर देखा जाता है| जैसे- महाकवि कालिदास का कुमार संभव, रघुवंश, शाकुंन्तलम, दंडी का दशकुमार चरित, विशाखदत्त की मुद्राराक्षस, वात्सायन का कामसूत्र, याज्ञवल्म्य स्मृति, अग्निपुराण, तथा मत्स्यपुराण पर अर्थशास्त्र का प्रभाव दिखाता है| 
- कामन्दक की नीतिसार, सोमदेव सूरी की नीतिवाक्यम पर भी अर्थशास्त्र का अत्यधिक प्रभाव है जिनको अर्थशास्त्र का संक्षिप्त सार का भी कहा जाता है| 
- रामास्वामी “कौटिल्य अर्थशास्त्र से पूर्व की रचनाओं में इधर-उधर फैली राजनीतिक बुद्धिमता और शासन कला के सिद्धांतों का एक संग्रह है| कौटिल्य ने शासन कला को एक पृथक तथा विशिष्ट विज्ञान रूप का रूप देने के प्रयत्न में उनको नए रूप में विवेचित किया है|” 
कौटिल्य का सामाजिक दर्शन-
- अर्थशास्त्र मूलत:राजनीति पर ग्रंथ है लेकिन इसमें समाज के संगठन व नियमों का भी विचार मिलता है| 
- तत्कालीन भारत राजनीतिक अव्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक अव्यवस्था के दौर से भी गुजर रहा था| 
- कौटिल्य ने सामाजिक समझौते के रूप में में विचार प्रस्तुत किया कि “शक्तिशाली एवं प्रजा कल्याण के लिए प्रतिबंध राज्य के बिना एक व्यवस्थित समाज की स्थापना नहीं हो सकती है अर्थात सुव्यवस्थित समाज की स्थापना के लिए शक्तिशाली एवं प्रजा कल्याणकारी राज्य की आवश्यकता है| 
वर्ण व्यवस्था-
- कौटिल्य ने प्राचीन भारतीय परंपरा की तरह समाज के संगठन का आधार वर्णव्यवस्था को माना है| 
- कौटिल्य का वर्ण व्यवस्था से संबंधित दृष्टिकोण मनु से उदार था| कौटिल्य शुद्र को भी आर्य समुदाय का सदस्य मानता है तथा शूद्र को संपत्ति का अधिकार भी देता है| 
आश्रम व्यवस्था-
- कौटिल्य ने प्राचीन वैदिक परंपरा की चार आश्रम की व्यवस्था को स्वीकार किया है- 
(1) ब्रह्मचार्य (2) गृहस्थ (3) वानप्रस्थ (4) सन्यास
- कौटिल्य ने युवावस्था के पुरुषों द्वारा सन्यासी या भिक्षुक बनने का विरोध किया है और उसे दंडनीय माना है| 
विवाह व तलाक -
- कौटिल्य ने 12 वर्ष की लड़की एवं 16 वर्ष के लड़के को विवाह योग्य माना है| 
- आठ प्रकार के विवाह को वैध माना है- ब्रह्म, प्रजापत्य, आर्ष, देव, गंधर्व, असुर, राक्षस, पैशाच| प्रथम चार में तलाक की अनुमति नहीं थी अन्य चार में थी| विधवा विवाह कर सकती है| 
दास प्रथा -
- कौटिल्य के अनुसार केवल मलेच्छ जाति के स्त्री पुरुषों को दास बनाया जा सकता है आर्य जाति को नहीं| मलेच्छ जाति के लोग अपनी संतान बेच या गिरवी रख सकते हैं| 
- कौटिल्य के अनुसार दास दो प्रकार के- (1) उदार दास (2) अहितक दास 
- उदार दास- आजीवन दास रहते थे, मुक्ति नहीं हो सकती थी| 
- अहितक दास- ऋण के बदले गिरवी के रूप में होते थे, मुक्ति संभव है| 
- कौटिल्य ने दासता को वंशानुगत नहीं माना है, अर्थात दास की संतान स्वतंत्र हो सकती है| 
- दास-दासी के प्रति क्रूर व्यवहार दंडनीय है तथा दासी के सतीत्व को भंग करना भी दंडनीय है| 
वेश्यावृत्ति-
- कौटिल्य ने वेश्यावृत्ति को वैध माना है 
मदिरापान-
- कौटिल्य के अनुसार सूराध्यक्ष की देख-रेख में दुर्ग एवं जनपद के विभिन्न स्थानों पर सुराग्रहों के ठेके दिए जाते थे| 
द्युत (जुआ)-
- कौटिल्य के अनुसार राज्य द्युताध्यक्ष की देखरेख में नियत स्थानों पर द्युतगृह (जुआ घर) चलाने की आज्ञा देता है| 
स्त्री अधिकार-
- कौटिल्य ने स्त्री के अधिकारों को स्वीकारा है| उन्हें संपत्ति का अधिकार दिया है| 
कौटिल्य के राज्य संबंधी विचार-
- राज्य की उत्पत्ति
- अर्थशास्त्र के प्रथम अधिकरण (तेहरवां अध्याय) में राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत दे रखा है| 
- कौटिल्य ने राज्य की उत्पत्ति के लिए सामाजिक समझौता सिद्धांत दिया है| 
- कौटिल्य ने राजा की उत्पत्ति को ही राज्य की उत्पत्ति माना है तथा राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत अथवा शक्ति सिद्धांत को नहीं मानता है| 
- कौटिल्य के अनुसार राज्य की उत्पत्ति से पहले समाज में अराजकता व्याप्त थी| अराजक व्यवस्था (मत्स्य न्याय) के अंत के लिए प्रजाजन ने मनु को राजा बनाया| 
- प्रजाजन ने राजा को भृति (वेतन) के रूप खेती से उत्पन्न अन्न का छठवां भाग तथा व्यापार से प्राप्त लाभ व स्वर्ण का दसवां भाग देने का निश्चय किया तथा राजा ने इसके बदले प्रजा की रक्षा, कल्याण अर्थात प्रजा के योगक्षेम का दायित्व स्वीकार किया अर्थात समझौता प्रजा व राजा के मध्य द्विपक्षीय था| 
- प्रजा, राजा को दंड एवं कर संबंधी अधिकार देती है| 
- कौटिल्य राजतंत्र की औचित्यपूर्णता का समर्थन करता है| 
- कौटिल्य एक व्यवहारिक राजशास्त्री है और उन्होंने प्रजाजन व राजा के बीच हुए समझौता का उल्लेख उनकी तत्कालीन उपयोगिता के कारण किया है किसी सैद्धांतिक आस्था के कारण नहीं| 
- कौटिल्य के सामाजिक समझौते के अनुसार राज्य मनुष्यों द्वारा निर्मित संस्था है तथा प्रजाजन ने स्वेच्छा से राजा की नियुक्ति की है| और प्रजाजन ने राजा के प्रति दायित्व स्वीकारे हैं तथा राजा ने प्रजाजन के प्रति अपने दायित्व को स्वीकारा है| 
- कौटिल्य के सामाजिक समझौते या राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत की पाश्चात्य समझौते तुलना-
- के.पी जायसवाल ने कौटिल्य को भारत का हॉब्स कहा है, क्योंकि अनेक विद्वानों ने इसके राज्य उत्पत्ति के समझौता सिद्धांत की तुलना हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धांत से की है| 
- कौटिल्य तथा थॉमस हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धांत में समानताएं- 
- दोनों ने राज्य की उत्पत्ति सामाजिक समझौते द्वारा मानी है अर्थात राज्य एक मानव निर्मित संस्था है| 
- दोनों ने एक ही समझौते के द्वारा राज्य व राजा दोनों की उत्पत्ति को माना है| 
- दोनों ने समझौते द्वारा राज्य की स्थापना की है| 
- कौटिल्य व हॉब्स के सामाजिक समझौते में असमानताएं- 
- थॉमस हॉब्स ने राज्य की उत्पत्ति से पहले की दशा को ‘प्राकृतिक अवस्था’ कहा है जो समाज रहित अवस्था थी जबकि कौटिल्य राज्य की उत्पत्ति से पहले की दशा को अराजकता की व्यवस्था कहा है, किंतु यह समाज रहित अवस्था नहीं थी| 
- थॉमस हॉब्स ने समझौते द्वारा राजा को पूर्ण प्रभुता सौंपी है, वह नैतिकता व कानून दोनों का स्रोत है उसकी सत्ता पूर्ण, अनियंत्रित व निरंकुश है जबकि कौटिल्य समझौते द्वारा राजा की सत्ता पर प्रजा के योगक्षेम (कुशलता- मंगलता) के दायित्व का नियंत्रण लगाया है| कौटिल्य ने राजा को नैतिकता व कानून का स्रोत नहीं माना है, राजा की सत्ता अनियंत्रित व निरंकुश नहीं है| 
- थॉमस हॉब्स का समझौता पूरी तरह भौतिकवादी है, जबकि कौटिल्य ने अपने समझौता में दैवी तत्वों को स्थान दिया है| कौटिल्य के अनुसार राजा में इंद्र व यम की शक्ति है अतः राजा का अपमान नहीं करना चाहिए, अपमान करने पर प्राकृतिक आपदाये आती है| 
- कौटिल्य व हॉब्स दोनों ही राज्य को अनिवार्य संस्था माना है| राज्य कृत्रिम संस्था है| 
- राज्य की प्रकृति-
- कौटिल्य का राज्य कृत्रिम, जैविक, नैतिक सामाजिक समझौते से उत्पन्न है 
- कौटिल्य ने राज्य को साध्य (End- in- itself) तथा व्यक्ति को साधन माना है|| 
- धर्म व नैतिकता के प्रति उनका दृष्टिकोण रूढ़िवादिता से परे है| 
- मानव धर्म शास्त्र के प्रणेता मनु की लीक से हटकर धर्म के बजाय अर्थ या राज्य हित को सर्वोपरि माना है| 
- राज्य हित के सामने नैतिकता के हित भी परे रख देता हैं| 
- इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर आचार्य कौटिल्य को भारत का मैक्यावली भी कहा जाता है| J.L नेहरू ने इन्हें मैक्यावली कहा था| 
- कौटिल्य के अनुसार राज्य एक कृत्रिम संस्था है| राज्य की स्थापना मत्स्य न्याय की समाप्ति के लिए हुई है| 
- राज्य एक दंड युक्त संस्था है, दंड राजा की सर्वोच्च शक्ति है, लेकिन राजा निरंकुश नहीं है| 
- कौटिल्य के अनुसार राज्य प्रकृति से एक ऐसी संस्था है जो अपने दंड शक्ति का प्रयोग नैतिक साध्यों की प्राप्ति के लिए करता है| 
- राज्य का उद्देश्य-
- कौटिल्य के अनुसार राज्य के निम्न उद्देश्य हैं- 
- अराजकता (मत्स्य न्याय) की समाप्ति करना| (नकारात्मक उद्देश्य) 
- शांति व व्यवस्था की स्थापना करना| (सकारात्मक उद्देश्य) 
- प्रजा को योगक्षेम प्रदान करना| 
- योगक्षेम का अर्थ- राज्य द्वारा किए जाने वाले वे कार्य जो प्रजा-पालन एवं प्रजा कल्याण की दृष्टि से आवश्यक है| 
- राज्य का सप्रांग सिद्धांत- (Seven- organs’ Theory of the State)
- सप्रांग सिद्धांत कौटिल्य की नई देन नहीं है| मनुस्मृति में भी सप्रांग सिद्धांत का उल्लेख है| 
- इस सिद्धांत के अनुसार राज्य एक शरीर है, जिसके 7 अंग है, जो सभी एक-दूसरे से निकट से जुड़े हैं जिसका पृथक अस्तित्व संभव नहीं है| 
- कौटिल्य ने इस 7 अंगो की तुलना मानव शरीर से की है राज्य को मानव शरीर माना है, जिसके अंग निम्न है- 
- स्वामी (राजा)- राज्य के सिर के तुल्य 
- अमात्य (मंत्री)- राज्य की आंखों के समान 
- सुहृद (राजा के मित्र)- राज्य के कान के समान 
- कोष- राज्य के मुख के समान 
- दंड- राज्य के मस्तिष्क के समान 
- दुर्ग- राज्य की भुजाओ के समान 
- पूर/ जनपद (भूमि एवं प्रजा)- राज्य की जंघाओं के समान 
- स्वामी- 
- सात अंगों में क्रम की दृष्टि से प्रथम माना है| 
- राजा कार्यपालिका का सर्वोच्च अधिकारी होता है| 
- राज्य व्यवस्था में केंद्रीय स्थान माना है| 
- राज्य के अन्य अंग (प्रकृतिया) स्वामी के गुणों व अवगुणों का अनुकरण करते है| 
- अमात्य- 
- राज्य का दूसरा अंग 
- कौटिल्य ने इस शब्द का प्रयोग मंत्री एवं सभी उच्च पदस्थ अधिकारियों के लिए किया है| 
- राज्य संचालन के लिए स्वामी एवं अमात्य के बीच सहयोग होना जरूरी है| 
- सुहृद (मित्र)- 
- शांति काल में राज्य की प्रगति तथा आपत्तिकाल में राज्य की रक्षा के लिए मित्र-बल का विशेष महत्व है| मित्र बल की मदद से विजिगीषु राजा अपने राज्य के विस्तार में सफल होता है| 
- कौटिल्य के अनुसार मित्र ऐसे होने चाहिए- 
- पितृ/ पितामह (वंशपरंपरा) के समय से मित्र हो| 
- वश में रहने वाले, तत्काल मदद को तैयार रहने वाले, विरोध की संभावना नहीं हो| 
- मित्र में उक्त गुणों का होना मित्र संपन्न कहलाता है| 
- कोष- 
- कौटिल्य के अनुसार राज्य के संपूर्ण कार्य का आधार कोष है| 
- सेना/ दंड- 
- कौटिल्य ने सेना के लिए दंड शब्द का प्रयोग किया है 
- सेना में क्षत्रिय वर्ण की अधिकता होनी चाहिए| 
- कौटिल्य के अनुसार जिस राजा के पास शक्तिशाली सेना होती है, उनके मित्र तो मित्र बने रहते हैं तथा शत्रु भी मित्र बन जाते हैं| 
- दुर्ग- 
- कौटिल्य दुर्ग का महत्व रक्षा एवं सैन्य संचय के लिए बताया| 
- कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया है- 
- औदक दुर्ग 
- पार्वत दुर्ग 
- धान्वन दुर्ग 
- वन दुर्ग 
- कौटिल्य के अनुसार औदक दुर्ग व पार्वत दुर्ग शत्रु आक्रमण से राजा व प्रजा दोनों की रक्षा में उपयोगी होते हैं, जबकि धान्वन दुर्ग व वन दुर्ग शत्रु से पीड़ित राजा के लिए छुपने के लिए उपयुक्त स्थान होते हैं| 
- पुर/ जनपद- 
- जनपद का अर्थ है जन युक्त भूमि| 
- कौटिल्य ने राष्ट्र के लिए जनपद शब्द का प्रयोग किया है| 
- कौटिल्य ने राज्य की एक प्रादेशिक इकाई को जनपद कहा है| 
- कौटिल्य के अनुसार “मनुष्यों से रहित भू-प्रदेश जनपद नहीं है और जनपद से रहित राज्य नहीं हो सकता है|” 
- कौटिल्य राज्य के इन सात अंगों में राजा को महत्वपूर्ण माना है| कौटिल्य ने कहा है कि सार रूप में राज्य की दो ही मूल प्रकृति (अंग) है- राजा और राज्य| 
- कौटिल्य ने कहा है कि स्वामी अन्य प्रकृतियों (अंगों) के अभ्युदय और पतन का कारण होता है| 
- कौटिल्य राजा और अमात्य को राज्य रूपी गाड़ी के दो पहिए कहा है| 
- ए.एस अल्टेकर के अनुसार कौटिल्य का मंडल सिद्धांत शक्ति संतुलन पर आधारित सिद्धांत है| 
- राज्य के कार्य-
- कौटिल्य ने दंडनीति (राज्यशास्त्र) के उद्देश्यों को ही राज्य के कार्य बताया है| 
- राज्य/ दंडनीति ( राज्यशास्त्र) के कौटिल्य ने चार उद्देश्य बताए हैं- 
- अलब्ध की प्राप्ति- अर्थात जो कुछ अभिष्ट है, परंतु प्राप्त नहीं हुआ है, उसे प्राप्त करना| 
- लब्ध का परिरक्षण- अर्थात जो कुछ प्राप्त कर लिया है, उसकी रक्षा करना| 
- रक्षित का विवर्धन- अर्थात जिसकी रक्षा की गई है, उसमें बढ़ोतरी करना| 
- विवर्धित का सुपात्रो में विभाजन- अर्थात जिसकी बढ़ोतरी की गई है, उसे उपयुक्त पात्रों में वितरित करना| 
- जो राजा दंडनीति के उद्देश्यों की पूर्ति करता है उसका यश चारों दिशाओं में फैलता है| 
- डॉ. M.L शर्मा तथा डॉ.परिपूर्णानंद वर्मा के मतानुसार अर्थशास्त्र में जो कार्य बताए हैं, वे आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य से भी अधिक विस्तृत है| 
कौटिल्य के राजा (स्वामी) संबंधी विचार -
- राज्य के 7 अंगों में राजा सर्वोच्च एवं प्रधान अंग है| कौटिल्य राजतंत्र को सर्वोच्च शासन व्यवस्था मानता है| 
- अर्थशास्त्र में राजा के चार गुण बताए गए है- 
- अभिगामिक गुण- अभिगामिक का अर्थ है- राजा प्रजा को अपनी ओर आकर्षित करने वाला हो| राजा उच्च कुलीन, दैवी गुण संपन्न, बुद्धिमान, धर्मात्मा, सत्यभाषी, कृतज्ञ, दानी, दृढ़र्बुद्धि, विनयशील, अनुशासनशील तथा संयमी और पड़ोसी राजाओं को नियंत्रित करने की क्षमता रखने वाला हो ताकि प्रजा खुद-ब-खुद उसकी ओर आकृष्ट हो| 
- प्रज्ञा गुण- राजा विवेक, तर्क, विवेचन, समालोचन, तत्वज्ञान आदि गुणों से संपन्न यथार्थवादी होना चाहिए| 
- उत्साह गुण- शौर्य, शीघ्रता, निपुणता व तत्परता के गुण राजा को उत्साही बनाते हैं| 
- आत्म संपन्न गुण- स्मृतिवान, बलवान, दूरदर्शी, त्याग, संयम, संधि में दक्ष, काम-क्रोध-लोभ- मोह-चुगलखोरी से रहित आदि गुण राजा में होने चाहिए| 
राजा की शिक्षा-
- कौटिल्य ने युवराज (राजा) की शिक्षा पर बल दिया है| कौटिल्य के अनुसार उपनयन संस्कार के बाद राजकुमारों को चारों विद्याओं (त्रयी, आन्वीक्षिकी, वार्ता, दंडनीति) की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए| 
- कौटिल्य “जिस प्रकार घुन लगी लकड़ी शीघ्र नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार जिस राज्यवंश के राजपूत शिक्षित नहीं किए जाते हैं, वह राजवंश युद्ध आदि के अभाव में स्वयं ही नष्ट हो जाता है|” 
- कौटिल्य “सुशिक्षा से शिक्षित राजा समस्त प्राणियों के हित में लगा हुआ और प्रजा के रक्षण में तत्पर रहता हुआ चिरकाल तक पृथ्वी का निष्कंटक भोग करता है|” 
- कौटिल्य ने शिक्षा पाठ्यक्रम में सैद्धांतिक व व्यावहारिक शिक्षा दोनों में उचित तालमेल स्थापित किया है| 
कौटिल्य ने ज्ञान या विद्या की 4 शाखाएं बताई है-
- त्रयी- ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद तीनों वेदों का ज्ञान 
- आन्वीक्षिकी- योग व दर्शन का ज्ञान 
- वार्ता- कृषि, पशुपालन, व्यापार का ज्ञान 
- दंड नीति- शासन कला व राजनीति का ज्ञान 
राजा की दिनचर्या-
- कौटिल्य ने दिन व रात्रि को 16 भागों में बांटा है- 8 भाग दिन के तथा 8 भाग रात्रि के| प्रत्येक भाग को नालिका (नाड़ीका) कहा है, जो 1:30 मिनट के बराबर होती है| इन नालिकाओ के आधार पर राजा के कार्यों का निर्धारण किया है| 
- कौटिल्य ने राजा की कल्पना राजर्षि (king Philosopher) के रूप में की है| 
- राजा परिस्थितियों एवं अपनी क्षमता अनुसार इस दिनचर्या में व्यवहारिक परिवर्तन कर सकता है| 
- यद्यपि कौटिल्य ने राजा को शासन की सर्वोच्च शक्ति प्रदान की है, किंतु उन्होंने राजा को निरंकुश एवं स्वेच्छारी नहीं माना है| 
- कौटिल्य ने अयोग्य राजा को गद्दी से उतारने और उनकी जगह दूसरा राजा बैठाने तथा अधर्मी और प्रज्ञा का तिरस्कार करने वाले राजा को मारे जाने का समर्थन किया| 
राजा के कार्य-
- कौटिल्य “प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में राजा का हित है| राजा के लिए प्रजा के सुख से भिन्न अपना सुख नहीं है|” 
- राजा के प्रमुख कार्य निम्न है- 
- वर्णाश्रम को बनाए रखना- अर्थात जनता के द्वारा वर्ण और आश्रम के नियमों का पालन करने को सुनिश्चित करना| 
- दंड की व्यवस्था करना- दंड न तो आवश्यकता से अधिक होना चाहिए न हीं कम होना चाहिए दंड उचित मात्रा में होना चाहिए| 
- आय-व्यय संबंधी कार्य- राजा को आय-व्यय के हिसाब का कार्य समाहर्ता द्वारा करवाना चाहिए| 
- नियुक्ति संबंधी कार्य- अमात्य, सेनापति, प्रमुख कर्मचारियों की नियुक्ति| 
- लोकहित और सामाजिक कल्याण संबंधी कार्य 
- युद्ध संबंधी कार्य 
कौटिल्य के अमात्य संबंधित विचार-
- कौटिल्य ने राज्य के समस्त उच्च अधिकारियों एवं मंत्रियों के लिए अमात्य शब्द का प्रयोग किया है| 
- अर्थशास्त्र के अनुसार तत्कालीन शासन के समस्त कार्य अमात्यो की मदद से किए जाते थे| अमात्य वर्ग वर्तमान की ‘सिविल सेवा’ से मिलता है| 
- कौटिल्य ने अमात्य पद पर नियुक्ति के लिए चार परीक्षाओं का उल्लेख किया है- 
- धर्मोपधा 
- अर्थोपधा 
- कामोपधा 
- भयोपधा 
कौटिल्य के अनुसार-
- धर्मोपधा में उत्तीर्ण व्यक्ति को- न्यायधीश बनाना चाहिए 
- अर्थोपधा में उत्तीर्ण व्यक्ति को- कोषाध्यक्ष या समाहर्ता बनाना चाहिए 
- कामोपधा में उत्तीर्ण व्यक्ति को- विलास स्थानों तथा अंतपुर की रक्षा का कार्य दिया जाय| 
- भयोपधा में उत्तीर्ण व्यक्ति- राजा के अंगरक्षक बनाए जाय| 
- सबसे योग्य तथा सभी प्रकार की परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति को मंत्री बनाया जाय| 
- यदि कोई पुरुष इन सभी परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण हो जाए, उसमें अन्य गुण मौजूद हो तो उसे खानों, जंगलों, हाथियों के प्रबंध का कार्य दिया जाय| 
कौटिल्य के मंत्रिमंडल के संबंध में विचार-
- कौटिल्य ने राज्य-कार्य के सफल संचालन के लिए मंत्रियों की आवश्यकता एवं महत्व को स्वीकारा है| 
मंत्री परिषद का संगठन-
- सदस्य संख्या- राजा अपनी आवश्यकतानुसार मंत्रियों की संख्या निश्चित करें (सदस्य संख्या निश्चित नहीं) 
- किंतु कम से कम 5 मंत्री होने चाहिए 
- राजा को तीन या चार मंत्रियों से गुप्त मंत्रणा करनी चाहिए| 
मंत्रिमंडल के प्रकार- कौटिल्य ने दो प्रकार की मंत्रिपरिषद बतायी है-
- मंत्रीपरिषद- एक बड़ी संस्था सभी मंत्री, मंत्रीपरिषद सदस्य होते हैं| 
- मंत्रपरिषद- एक छोटी संस्था जिसके 3 या 4 सदस्य होते हैं, जिससे राजा गुप्त मंत्रणा करता है| यह एक अधिक शक्तिशाली संस्था है 
- मंत्री पद पर सभी विधाओं में उत्तीर्ण अमात्य को पदोन्नत किया जाता था| 
- मंत्री अमात्य/ महामात्र- यह सभी मंत्रियों से श्रेष्ठ होता था तथा आधुनिक प्रधानमंत्री पद के समान था| 
- मंत्रियों का कार्यकाल राजा की कृपा पर निर्भर था| 
- वेतन- प्रधानमंत्री/ महामात्र/ मंत्री अमात्य को 48000 पण वार्षिक तथा अन्य मंत्रियों को 12000 पण वार्षिक 
- मंत्रीपरिषद के कार्य -
- राज्य के आंतरिक व बाह्य विषयों पर विचार करना| 
- राजा को परामर्श देना| 
- राज्य कार्यों को लागू करना, पूर्ण करना, समीक्षा करना| 
- राजा व राज्य के समस्त गुप्त भेदो की रक्षा करना| 
- ऐसे प्रयत्न करना कि राजा राज्य कर्तव्य से विमुख ना हो| 
- Note- कौटिल्य मंत्रियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर करने के पक्ष में है ना कि वंश परंपरा के आधार पर| 
- Note- मंत्रीपरिषद का कार्य केवल विशेषज्ञ राय देना था इनकी सलाह राजा के लिए बाध्यकारी नहीं थी| 
- Note- कौटिल्य मंत्रणा की गोपनीयता पर विशेष बल देता है| कौटिल्य मंत्रणा स्थल के आसपास स्त्रियों, पशु-पक्षियों को दूर रखने की कहता है| 
कौटिल्य के अनुसार सामान्य प्रशासनिक व्यवस्था -
- अर्थशास्त्र में राजतंतंत्रात्मक शासन व्यवस्था से संबंधित प्रशासनिक प्रणाली का वर्णन किया है| 
- राजा या स्वामी- यह प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी था, जो सैद्धांतिक रूप से संपूर्ण प्रशासन का नियंत्रण करता था| 
- मंत्री एवं अमात्य- ये प्रशासन की नीतियों के निर्माण में तथा नीतियों को लागू करने में राजा के प्रमुख सहायक होते थे| 
- इस प्रकार प्रशासन की संपूर्ण सत्ता राजा, मंत्री एवं अमात्य में निवास करती थी, और ये ही प्रशासनिक कार्यों के लिए उत्तरदायी माने जाते थे| 
राज्य कर्मचारियों का वर्गीकरण-
- कौटिल्य ने समस्त कर्मचारियों की चार श्रेणियां बताई हैं- 
- तीर्थ- सर्वोच्च स्तर कुल 18 
- विभागाध्यक्ष- तीर्थों के निर्देशन व नियंत्रण के काम करने वाले अमात्य 
- प्रमुख सहायक कर्मचारी- विभागाध्यक्ष के अधीन कार्य करने वाले कर्मचारी 
- हीन कर्मचारी- सबसे नीचे स्तर के कर्मचारी, जो प्रमुख सहायक कर्मचारियों के अधीन कार्य करते हैं| 
अष्टादश तीर्थ-
- कौटिल्य ने प्रशासन के सफल संचालन के लिए संपूर्ण प्रशासन को कुल 18 तीर्थों (अधिकारियों) में बांटा है, जो निम्न है - 
- मंत्री- यह राजा को मंत्रणा देता है| 
- पुरोहित- यह राजा को धर्म व नीति संबंधी परामर्श देता है| 
यह राजा को नैतिक जीवन व्यतीत करने में मदद देता था|
- सेनापति- यह सेना का सर्वोच्च अधिकारी था| 
- युवराज- यह राजा का ज्येष्ठ अथवा कोई अन्य पुत्र होता था, जिसे राजा अपना उत्तराधिकारी घोषित करता था| 
- दौवारिक- यह राजमहल की रक्षा व्यवस्था की देख-रेख करने वाला प्रधान अधिकारी होता था| 
- अंतर्वेशिक (अंतरवंशिक)- यह अंतः पुर की रक्षा व्यवस्था का प्रधान अधिकारी होता था, और राजवंश के गृह-कार्यों का भी प्रबंध देखता था| 
- प्रशास्त/ प्रशास्ता- यह कारागार का प्रधान अधिकारी होता था| 
- समाहर्ता- यह राज्य के आय-व्यय की देखरेख करने वाला प्रधान अधिकारी था| वह करो का संग्रह करता था और जनपद में शांति व्यवस्था भी स्थापित करता था| 
- सन्निधाता- यह राज-कोष का प्रधान अधिकारी होता था| 
- प्रदेष्टा- यह फौजदारी न्यायालय (कंटक शोधन) का सर्वोच्च न्यायधीश होता था| इसका कार्य न्याय कार्य के अलावा राजकीय कर्मचारियों के आचरण पर नजर रखना तथा भ्रष्ट अधिकारियों को दंडित करना भी था| 
- नायक- यह पैदल सेना का प्रधान अधिकारी होता था| 
- पौर- यह नगर प्रशासन का प्रधान अधिकारी था| 
- व्यवहारिक (धर्मस्थ)- यह धर्मस्थीय न्यायालय का प्रधान न्यायधीश था| 
- कर्मान्तिक- यह खानो तथा उद्योगों का प्रधान अधिकारी था| 
- आटविक- राज्य की वन संपदा की देख-रेख व प्रबंध करने वाला अधिकारी| 
- दंडपाल- सेना के भरण-पोषण करने वाले प्रधान अधिकारी 
- दुर्गपाल- राज्य में स्थित सभी दुर्गों का प्रधान अधिकारी| 
- अंतपाल (राष्ट्रांतपाल)- राज्य की सीमा की रक्षा करने वाला प्रधान अधिकारी और सीमा स्थित दुर्गों का भी प्रधान होता था| 
विभिन्न विभागाध्यक्ष-
- इन तीर्थों के अंतर्गत विभिन्न प्रशासनिक विभागों की स्थापना की गई| प्रत्येक विभाग का प्रमुख अधिकारी, अध्यक्ष होता था जो तीर्थ के नियंत्रण व निर्देशन में कार्य करता था| 
- कुल 26 विभागाध्यक्षो का वर्णन कौटिल्य ने किया है| 
- प्रमुख विभागाध्यक्ष- 
- हस्ताध्यक्ष- गज सेना का अध्यक्ष 
- अश्वाध्यक्ष- अश्व सेना का अध्यक्ष 
- रथाध्यक्ष- रथ सेना का अध्यक्ष 
- पत्याध्यक्ष- पैदल सेना का अध्यक्ष 
- नौकाध्यक्ष- नौका विभाग का प्रमुख अधिकारी 
- देवताध्यक्ष- देवालय विभाग का अध्यक्ष 
- अक्षपटलाध्यक्ष- राज्य के लेखा विभाग का अध्यक्ष 
- पण्याध्यक्ष- व्यापार एवं क्रय-विक्रय विभाग का अध्यक्ष 
- पौतवाध्यक्ष (यौतवाध्यक्ष)- माप-तौल विभाग का अध्यक्ष 
- कुप्याध्यक्ष- राज्य के वन-विभाग का अध्यक्ष 
- मानाध्यक्ष- भूमि एवं काल (कैलेंडर) के माप विभाग का अध्यक्ष 
- शुल्काध्यक्ष- शुल्क विभाग का अध्यक्ष 
- सूत्राध्यक्ष- वस्त्र एवं कवच (चमड़े के कवच) विभाग का अध्यक्ष 
- सीताध्यक्ष- कृषि विभाग का अध्यक्ष 
- सुराध्यक्ष- आबकारी विभाग का अध्यक्ष 
- सूनाध्यक्ष- पशु वधशाला (बूचड़खाना) विभाग का अध्यक्ष 
- गणिकाध्यक्ष- वेश्याओं एवं नर्तकियों से संबंधित विभाग का अध्यक्ष 
- गौ-अध्यक्ष- राज्य के पशु विभाग का अध्यक्ष 
- मुद्राध्यक्ष- यह राज्य के आवागमन विभाग का अध्यक्ष है| यह राज्य में आने वाले अथवा राज्य से बाहर जाने वाले व्यक्तियों को मुद्रा से अंकित पहचान पत्र प्रदान करता था| 
- विविताध्यक्ष- चारागाह विभाग का अध्यक्ष 
- कोषाध्यक्ष- राज्य के कोषग्रह का अध्यक्ष 
- आयुधगाराध्यक्ष- यह राज्य के अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण एवं उनके भंडार का प्रबंध करने वाला सर्वोच्च अधिकारी 
- स्वर्णाध्यक्ष- सोने के खानों के प्रबंधन से संबंधित अधिकारी 
- लक्षणाध्यक्ष- टकसाल विभाग का अध्यक्ष 
- आकराध्यक्ष- राज्य के खनिज विभागों का अध्यक्ष 
- मंत्रीपरिषदाध्यक्ष- कौटिल्य ने इसके कार्यों का उल्लेख नहीं किया है अनुमानत: वह या तो मंत्रिपरिषद के सचिव के रूप में कार्यकर्ता होगा या प्रधानमंत्री ही मंत्रीपरिषदाध्यक्ष होता होगा| 
कौटिल्य की प्रशासनिक व्यवस्था की विशेषता-
- कौटिल्य द्वारा वर्णित प्रशासनिक व्यवस्था प्रजा-कल्याणकारी राज्य व्यवस्था की अवधारणा के अनुरूप है| कौटिल्य ने प्रशासन में पद-सोपान की व्यवस्था स्वीकारी है| कर्मचारियों के चयन, पदोन्नति, आचार संहिता आदि की विस्तृत व्यवस्था स्वीकारी है 
- डॉ. बेनी प्रसाद “अर्थशास्त्र में वर्णित प्रशासनिक व्यवस्था हिंदू राज्यशास्त्र के साहित्य में सर्वोत्कृष्ट हैं, जिसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रह गई है|” 
कौटिल्य के अनुसार स्थानीय प्रशासन-व्यवस्था -
- पुर या नगर का प्रशासन-
- पुर (नगर) का सर्वोच्च अधिकारी नागरिक या नगराध्यक्ष होता था, जिसका कार्य नगर में शांति व्यवस्था बनाए रखना तथा समस्त राजकीय एवं प्रशासनिक कार्यों का प्रबंध करना था| 
- इसके अधीन प्रदेष्टा का नामक अधिकारी होता था, इसका प्रमुख कार्य नगर के सभी राज्य कर्मचारियों के आचरण पर नजर रखना और भ्रष्ट कर्मचारियों को दंडित करना था| 
- कौटिल्य ने प्रशासनिक दृष्टि से नगर को भागों (वार्डो) में बांटा, और प्रत्येक वार्ड के प्रमुख अधिकारी को स्थानिक कहा| 
- स्थानिक के अधीन गोप नामक छोटे कर्मचारी होते थे, गोप का प्रमुख कार्य 20 कुटुंबो से संबंधित प्रशासनिक दृष्टि से आवश्यक समस्त जानकारी एकत्र करना था| 
- ग्राम प्रशासन -
- ग्रामीण प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी| 
- ग्राम- जिसमें किसान एवं शुद्रो की संख्या अधिक हो ऐसे कम से कम 100 तथा अधिक से अधिक 500 घरों का एक ग्राम होगा| 
- स्थानीय-100 ग्रामों के समूह के बीच स्थापना| 
- खार्वटिक- 200 ग्रामों के समूह के बीच स्थापना| 
- द्रोणमुख- 400 ग्रामों के समूह के बीच स्थापना| 
- संग्रहण- 800 ग्रामों के समूह के बीच स्थापना| 
आर्थिक-प्रशासन पर कौटिल्य के विचार-
- प्राचीन भारतीय राजनीतिशास्त्री होने के बावजूद भी कौटिल्य ने धर्म की तुलना में अर्थ को प्रधानता दी है| 
- कौटिल्य के अनुसार “सुख का आधार धर्म है, किंतु स्वयं धर्म का आधार अर्थ (धन) है|” 
- कौटिल्य ने अर्थ को नैतिक एवं भौतिक सुखों का आधार माना है| 
- कौटिल्य राजनीति एवं अर्थ की घनिष्ठता को स्वीकारा है| 
- कौटिल्य के अनुसार अर्थ से राज्य के विभिन्न अंग (प्रकृतिया) बलवान बनती है, अर्थ के द्वारा प्रजाजन (जनपद) का पालन संभव होता है, दुर्ग एवं सेना शक्तिशाली बनती है, मित्र संतुष्ट होते हैं और शत्रु भी मित्र बन जाते हैं| 
- आय के प्रकार- कौटिल्य ने आय के तीन प्रकार बताएं हैं- 
- वर्तमान- जो आय प्रतिदिन प्राप्त होती है| 
- पर्युषित- जो शत्रु राज्य से प्राप्त धन हो| 
- अन्यजात- जुर्माने के रूप में प्राप्त आय 
- सामान्य काल में आय के साधन- सामान्य काल में कौटिल्य के अनुसार आय के 7 साधन है-
- दुर्ग संबंधी आय- इसमें शुल्क, दंड (जुर्माना), राजकीय कारखानों से उत्पन्न वस्तुओं की बिक्री से होने वाली आय, देवालयों से होने वाली आय शामिल है|
- जनपद संबंधी आय- इसमें निम्न को शामिल किया जाता है-
- भाग- खेती की उपज से प्राप्त आय 
- सीता- राजकीय भूमि से प्राप्त आय 
- विवीत- सरकारी चाराग्रहो से प्राप्त आय 
- बलि- धनिक व्यक्तियों से प्राप्त उपहार 
- नदीपाल- नदी के घाट पर उतराई से प्राप्त आय 
- कर- अधीनस्थ राज्यों से प्राप्त वार्षिक धन| 
- खानि संबंधी आय- खानों से प्राप्त विभिन्न धातुओं, लवणों, रत्नों की बिक्री से प्राप्त आय
- सेतु संबंधी आय- सिंचाई कर से प्राप्त आय
- वन संबंधी आय- वनों से प्राप्त आय
- ब्रज- पशुओं की बिक्री पर लगाए कर से प्राप्त आय
- वणिक पथ संबंधी आय- व्यापार के मार्गों से प्राप्त होने वाली आय
- इनके अलावा अस्वाभाविक धन (लावारिस संपत्ति)- जिस संपत्ति का कोई स्वामी या उत्तराधिकारी ना हो तो वह राज्य की संपत्ति हो जाएगी| 
- आपातकाल में आय के साधन-
आपातकाल के समय के लिए आय के संबंध में कौटिल्य ने दो बातें कही है-
- अकाल, दुर्भिक्ष, महामारी के समय प्रजाजन को करो में राहत देनी चाहिए| 
- बाह्य आक्रमण या युद्ध के समय करो में वृद्धि की जानी चाहिए| 
- Note- करो में वृद्धि राजा की सहमति से ही की जानी चाहिए| 
- Note- कौटिल्य ने धार्मिक अंधविश्वासों का लाभ उठाकर प्रजाजन से धन संग्रह को उचित माना है, तथा धन संग्रह में गुप्तचरो के प्रयोग को भी उचित माना| 
व्यय के प्रकार-
- कौटिल्य ने चार प्रकार के व्यय बताएं है- 
- नित्य व्यय- प्रतिदिन होने वाले व्यय, स्थायी प्रकृति के| 
- नित्योत्पादिक व्यय- पहले से तय नित्य व्यय से होने वाला अधिक व्यय अर्थात नित्य व्यय से उत्पन्न व्यय 
- लाभ व्यय- लाभ प्राप्ति के लिए किए जाने वाला खर्च 
- लाभोत्पादिक व्यय- पहले से तय लाभ व्यय से होने वाला अधिक व्यय अर्थात लाभ व्यय से उत्पन्न व्यय 
व्यय की प्रमुख मदे- कौटिल्य ने वयय की मदे निम्न बतायी है-
- देवपूजा- देवालयों, यज्ञशालाओं के लिए खर्च 
- पितृपूजा- वेदपाठी ब्राह्मणों एवं अन्य श्रेष्ठ विद्वानो के निर्वाह पर होने वाला खर्च 
- स्वस्तिवाचन- शांति एवं नैतिक उत्पादन के लिए प्रयत्नशील आचार्यों, पुरोहितों पर होने वाला खर्च 
- अंतपुर- राजमहल के लिए होने वाला खर्च 
- महानस- समस्त राज परिवार व राज-महल के पशु-पक्षियों पर होने वाला खर्च 
- दुत-प्रवर्तन- समस्त राजदूतो व गुप्तचरों पर होने वाला खर्च 
- गौ-मंडल- पशुधन के लिए होने वाला खर्च 
- भृति- समस्त भृतियों का वेतन| 
- विष्टि- राज्य के मजदूरों व कुलियों पर होने वाला खर्च| 
- Note- कौटिल्य ने इस आदर्श पर बल दिया है कि कोष वृद्धि का मूल उद्देश्य प्रजा पालन होना चाहिए| 
विधि व्यवस्था पर कौटिल्य के विचार-
विधि के स्रोत-
- कौटिल्य ने विधि के चार स्रोत माने है- 
- धर्म (वेद एवं स्मृति)- सत्य पर आधारित 
- व्यवहार- साक्षियों पर आधारित 
- चरित्र (सदाचार)- सामाजिक जीवन (रीति-रिवाज, परंपरा) पर आधारित 
- राजाज्ञा- शासन पर आधारित 
- Note- कानून के ये चारों स्रोत राष्ट्र के वैधानिक जीवन का आधार तथा राष्ट्र के चार पैर है| 
- चारों का स्वीकार्यताक्रम न्यून से अधिक- धर्म से अधिक व्यवहार, व्यवहार से अधिक चरित्र, चरित्र से अधिक राजाज्ञा स्वीकारणीय है| 
- कौटिल्य ने कानून के अन्य स्रोतों की तुलना में राजाज्ञा को कानून का सर्वश्रेष्ठ स्रोत माना है| तथा धार्मिक कानून पर लौकिक को श्रेष्ठ माना है| 
न्याय व्यवस्था पर कौटिल्य के विचार-
- कौटिल्य के अनुसार राजा का प्रमुख दायित्व प्रजा पर न्यायपूर्वक शासन करना है तथा जो राजा अपनी प्रजा को न्याय दिलाने में असमर्थ होता है वह शीघ्र ही राज्य सहित नष्ट हो जाता है| 
- न्यायपालिका के प्रकार -
कौटिल्य ने कानून व मुकदमों के आधार पर दो प्रकार के न्यायालय बताए हैं
- धर्मस्थीय (2) कण्टक शोधन 
- धर्मस्थीय न्यायालय- कौटिल्य ने धर्मस्थीय न्यायालयो के न्याय क्षेत्र में प्रजाजन के आपसी संबंधों में उत्पन्न विवादों को स्थान दिया है| कौटिल्य ने इन्हें व्यवहार कहा है| सामान्यतः इसमें दीवानी मुकदमो को शामिल किया गया है| 
धर्मस्थीय न्यायालय में प्रस्तुत होने वाले विवाद निम्न है-
(1) संविदा (इकरारनामा) (2) विवाह-संबंध (3) परिवार संपत्ति का विभाजन (4) वास्तुक (मकान खेत आदि की बिक्री व निर्माण) (6) ऋण एवं ब्याज (7) धरोहर (8) दास (9) स्वामी व नौकर (10) व्यापारिक साझेदारी (11) दान (12) क्रय एवं विक्रय (13) साहस (डकैती चोरी, हत्या) (14) वाक्पारूष्य (गाली, गलोच या मानहानि) (15) दंड पारूष्य (मारपीट, आघात) (16) द्युत (जुआ) (17) प्रकीर्णक (उपरोक्त से संबंधित विविध विवाद)
धर्मस्थीय न्यायालय के न्यायधीश ‘धर्मस्त’ कहलाते हैं|
- कण्टक शोधन- अर्थशास्त्र में ऐसे व्यक्ति जो अपने कार्यों से राजा, प्रजा व राज्य को हानि पहुंचाते हैं कण्टक कहलाते हैं| इनको खत्म करना ही कंटक शोधन है| सामान्यतः इसमें फौजदारी मुकदमों को शामिल किया गया है| 
- इसमें प्रस्तुत होने वाले विवाद निम्न है- 
- सार्वजनिक शांति व व्यवस्था (2) शिल्पीओं से संबंधित विवाद (3) व्यापारियों से प्रजा की रक्षा (4) दैवी विपदाओ के प्रतिकार में असहयोग करना (5) सामाजिक व धार्मिक नियमों का उल्लंघन (6) कन्या, युवती को दूषित करना (7) रिश्वत, धन का गबन (8) कपट, जालसाजी ठगी द्वारा धन कमाना (9) आशुमृतक- परीक्षा संबंधी विवाद (10) राजद्रोह| 
- Note- कण्टक शोधन न्यायालय के न्यायाधीश प्रदेष्टा कहलाते हैं| 
- कण्टक शोधन व धर्मस्थलीय न्यायालयों की 4 शाखाओं की स्थापना का उल्लेख अर्थशास्त्र में है- 
- जनपद संधि न्यायालय- दो ग्रामों के बीच स्थापित न्यायालय 
- संग्रहण न्यायालय- दस ग्रामों के बीच स्थापित न्यायालय 
- द्रोणमुख न्यायालय- चार सौ ग्रामों के बीच स्थापित न्यायालय 
- स्थानीय न्यायालय- आठ सौ ग्रामों के बीच स्थापित न्यायालय 
Note- प्रत्येक न्यायालय के विरुद्ध अपील सीधे राजा के पास की जा सकती है|
दंड व्यवस्था पर कौटिल्य का विचार-
- कौटिल्य के अनुसार समाज में सुव्यवस्था की रक्षा के लिए न्याय की आवश्यकता होती है, किंतु दंड के अभाव में न्याय व्यवस्था प्रभावहीन हो जाती है 
- दंड व्यवस्था का उद्देश्य अपराधी से निर्दोष की रक्षा करना है, न कि समाज में भय की स्थापना करना है| 
- कौटिल्य ने सुधारात्मक, निवारक, प्रतिकारात्मक तीनों ही प्रकार के दंड को स्वीकारा है| 
- सुधारात्मक दंड- अपराधी का अंत न करके अपराध वृत्ति का अंत करना| 
- निवारक दंड- अपराधी को दंड दिया जाए तो उसे लोग दृष्टांत के रूप में ग्रहण करें| 
- प्रतिकारात्मक दंड- इस दंड का उद्देश्य जिस व्यक्ति के साथ अपराध हुआ है उसकी हानी की पूर्ति करना| 
- कौटिल्य ने दंड के विवेकपूर्ण प्रयोग पर बल दिया है| 
- कौटिल्य ने समुचित दंड के लिए कहा है अर्थात न अधिक तथा न कम दंड| 
- कौटिल्य ने दंडित करने के तीन तरीके बताए हैं - 
- शारीरिक दंड (2) आर्थिक दंड (3) कारावास 
- शारीरिक दंड में शारीरिक सजाएं, यातनाएं तथा मृत्यु दंड शामिल है| 
 पर-राष्ट्र संबंध पर कौटिल्य के विचार-
- अर्थशास्त्र में वर्णित ‘पर राष्ट्रो संबंधों’ के विवरण को दो भागों में बांटा जा सकता है- 
- पर-राष्ट्र संबंधों का नीतिगत एवं सैद्धांतिक पक्ष 
- पर-राष्ट्र संबंधों का संस्थागत एवं व्यवहारिक पक्ष 
पर-राष्ट्र संबंधों का नीतिगत एवं सैद्धांतिक पक्ष-
- इसमें निम्न को शामिल किया जाता है - (1) मंडल सिद्धांत (2) षड्गुणनीति (3) नीति या कूटनीति के चार उपाय 
राज्य-मंडल (मंडलयोनि) सिद्धांत-
राज्य मंडल के 12 राज्य राज्य शामिल है जो, निम्न है-
- विजिगिषु राज्य- जो राजा अपने राज्य का विस्तार करने की कामना एवं प्रयत्न करता है, उसे विजिगिषु राजा और राज्य को विजिगिषु राज्य कहा है| यह राष्ट्रमंडल के केंद्र में होता है| 
- अरि राज्य (शत्रु राज्य)- जिस दिशा में विजिगिषु राजा अपना राज्य विस्तार करना चाहता है, उस दिशा का पड़ोसी राज्य| 
- मित्र राज्य- अरि राज्य से आगे का राज्य| यह विजिगिषु का मित्र होता है, अरि राज्य के खिलाफ विजिगिषु को सहायता देने के लिए तत्पर रहता है| 
- अरिमित्र राज्य- यह मित्र राज्य के आगे का राज्य है| यह अरि राज्य का मित्र होता है| 
- मित्र-मित्र राज्य- अरि मित्र से आगे का राज्य| यह मित्र राज्य का मित्र होता है| 
- अरिमित्र- मित्र राज्य- यह मित्र-मित्र राज्य से आगे का राज्य होता है| यह अरिमित्र का मित्र होता है| 
- पाष्णिग्राह राज्य- यह पीछे की दिशा वाला पड़ोसी राज्य होता है, विजिगिषु राज्य का शत्रु होता है| अरि राज्य व पाष्णिग्राह राज्य दोनों मित्र होते हैं| हो सकता है कि जब विजिगिषु अरि राज्य पर आक्रमण करें तो पाष्णिग्राह राज्य विजिगिषु पर आक्रमण कर सकता है| 
- आक्रन्द राज्य- पाष्णिग्राह के पीछे स्थित पड़ोसी राज्य| यह विजिगिषु का मित्र तथा पाष्णिग्राह का शत्रु होता है| 
- पाष्णिग्राहासार राज्य- आक्रन्द राजा के पीछे स्थित पड़ोसी राज्य है| विजिगिषु का शत्रु होता है| 
- आक्रांदासार राज्य- पाष्णिग्राहासार राज्य के पीछे स्थित पड़ोसी राज्य है| यह विजिगिषु राज्य का मित्र होता है| 
- मध्यम राज्य- यह विजिगिषु के बगल में होता है| इसकी सीमा विजिगिषु और अरिराज्य दोनों से लगती है| यह दोनों राज्यों से शक्तिशाली राज्य होता है| दोनों की सहायता करने में तथा मुकाबला करने में समर्थ होता है| 
- उदासीन राज्य- यह विजिगिषु से दूर स्थित राज्य होता है| इसकी सीमा विजिगिषु, अरि एवं मध्यम तीनों से ही नहीं लगती है| यह राज्य इन तीनों राज्यों को आपसी राजनीति के प्रति सामान्यतः उदासीन होता है| तथा तीनों से शक्तिशाली भी होता है| जब इन तीनों राज्यों में सहयोग पूर्ण संबंध होते हैं तो उदासीन राज्य इनकी सहायता करता है, किंतु जब इन तीनों राज्यों में प्रतिकूल संबंध होते हैं तो उदासीन राज्य प्रत्येक का मुकाबला करने में समर्थ होता है| 
- मुख्य तथा आधारभूत राज्य- 
- विजिगिषु राज्य 
- अरि राज्य 
- मध्यम राज्य 
- उदासीन राज्य 
- कौटिल्य ने संपूर्ण राज्य मंडल का निर्माण चार उपमंडलो के सहयोग से बताया है- 
- विजिगिषु राज्य मंडल (प्रथम मंडल)- इसमें विजिगिषु एवं उसके सभी मित्र राज्य शामिल है| जो है– विजिगिषु राज्य, मित्र राज्य, मित्र-मित्र राज्य, आक्रन्द राज्य, आक्रांदासार राज्य, (केंद्रीय भूमिका विजिगिषु राज्य) 
- अरि राज्य मंडल (द्वितीय मंडल)- इसमें विजिगिषु राज्य का अरि राज्य एवं अरि राज्य के मित्र राज्य शामिल है| जो है- अरि राज्य, अरिमित्र राज्य, अरिमित्र- मित्र राज्य, पाष्णिग्राह राज्य, पाष्णिग्राहासार राज्य| (केंद्रीय भूमिका अरि राज्य) 
- मध्यम राज्य मंडल (तृतीय मंडल)- इसमें मध्यम राज्य, विजिगिषु राज्य, अरि राज्य होते हैं केंद्रीय भूमिका मध्यम राज्य की होती है| 
- उदासीन राज्य मंडल (चतुर्थ मंडल)- इसमें उदासीन, मध्यम, विजिगिषु, अरि राज्य शामिल है| 
- कौटिल्य के अनुसार युद्ध में लिप्त होना राज्य के लिए स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी है| 
- कौटिल्य के अनुसार इन 12 राज्यों में प्रत्येक की छ: प्रकृतिया होती है| जिसमें एक मुख्य (राज्य) प्रकृति तथा शेष पांच द्रव्य प्रकृतिया होती है| क्योंकि एक राज्य में 6 प्रकृति तो कुल 12 राज्यों में 72 प्रकृतिया होती है| 
- मुख्य प्रकृति- राजा (राज्य) 
- द्रव्य प्रकृति- (1) अमात्य (2) जनपद (3) दुर्ग (4) कोष (5) दंड| 
- कौटिल्य ने विजिगिषु की तीन शक्तियां एवं उनसे जुड़ी हुई सिद्धियां बताइ है| 
- मंत्र शक्ति- यह विजिगिषु के ज्ञान तथा सूझ-बुझ पर आधारित है| 
- प्रभु शक्ति- यह कोष तथा सैन्य बल पर आधारित है| 
- उत्प्ताह शक्ति- पराक्रम, साहस, मनोबल पर आधारित है| 
षड्गुण मंत्र या षड्गुण नीति-
- कौटिल्य ने विदेश संबंधों के संचालन के लिए छ: नीतियां बतायी है - 
- संधि- शांति बनाए रखने के लिए, शत्रु अथवा मित्र से संधि करना| 
- विग्रह- जब राजा पर्याप्त शक्तिशाली हो तो उसे विग्रह की नीति अपनाई जानी चाहिए, अर्थात युद्ध करने का निर्णय करना| 
- अभियान- अभियान का सामान्य अर्थ है ‘सेना का गमन’ अर्थात शत्रु पर आक्रमण करने की नीति| जब विग्रह (युद्ध करने का निर्णय) कर लिया जाता है तब अभियान नीति (आक्रमण करना) की जाती है| 
- आसन- कौटिल्य ने इसके लिए ‘उपेक्षा’ शब्द का भी प्रयोग किया है| आसन नीति उदासीनता या तटस्थता की नीति है| 
- संश्रय- अन्य राजा के पास शरण लेने की नीति| 
- द्वैधीभाव- एक राजा से संधि तथा दूसरे राजा से विग्रह (युद्ध करना) की नीति एक साथ अपनाना| 
- कौटिल्य की षड्गुण नीति व्यवहारिक एवं यथार्थवादी है| 
- एक बुद्धिमान राजा को परिस्थितियों के अनुसार इसमें एक नीति की पालना करनी चाहिए| 
कूटनीति या नीति के चार उपाय-
- कौटिल्य ने कूटनीति के चार उपायों का उल्लेख किया है| ये चार उपाय राज्य की रक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी है- 
- साम- साम का अर्थ है अपने सद या शिष्ट व्यवहार से अन्य को संतुष्ट करना| यह शक्तिशाली राजा के प्रति उपयुक्त नीति है|
- दाम/ दान नीति- इसमें धन देकर शक्तिशाली राजा को संतुष्ट किया जाता है ताकि आक्रमण ना करें तथा निर्बल राजा को वश में किया जाता है|
- भेद नीति- भेद का अर्थ है फूट डालना| इसके द्वारा शत्रु राजा और उसके सहायकों में फूट डाली जाती है|
- दंड नीति- दंड नीति का अर्थ है बल प्रयोग| जब साम, दाम, भेद नीति काम न करें, तब सबसे अंत में इस नीति का प्रयोग करना चाहिए| इसमें बल प्रयोग के द्वारा शत्रु राज्य पर अधिपत्य स्थापित किया जाता है|
परराष्ट्र संबंधों का संस्थागत एवं व्यावहारिक पक्ष-
- इसमें निम्न को शामिल किया जा सकता है- 
- दूत व्यवस्था (2) गुप्तचर व्यवस्था (3) युद्ध 
दूत व्यवस्था-
- कौटिल्य ने दूत को राजा का मुख कहा जाता है| 
- कौटिल्य ने तीन प्रकार के दूतो का उल्लेख किया है- 
(1) निसृष्टार्थ (2) परिमितार्थ (3) शासनहर
- निसृष्टार्थ- वे राजदूत है, जो अपनी विवेक-बुद्धि से राजा की ओर से निर्णय करने की शक्ति रखते हैं| 
- परिमितार्थ- वे राजदूत, जिनकी शक्ति बहुत सीमित होती है, जिन्हें किसी विशेष उद्देश्य के लिए भेजा जाता है| 
- शासनहर- वे राजदूत, जिन्हें केवल अपने राजा का संदेश दूसरे राजा को पहुंचाने के लिए भेजा जाता है| 
- दूत राजाओं के बीच संदेशों का आदान प्रदान करते हैं| 
- दूत गुप्तचर का भी कार्य करते हैं| 
- ये दूसरे राज्य की आंतरिक स्थिति (सैन्य शक्ति, जनमत स्थिति आदि) की जानकारी अपने राजा को देते है| 
- राजदूत का प्रमुख कार्य शत्रु राज्य में रहते हुए अपने राज्य के हितों की रक्षा एवं वृद्धि करना है| 
- राजदूत शत्रु राज्य में फूट के बीज बोकर भी अपने राज्य के हितों की वृद्धि करता है| 
गुप्तचर व्यवस्था-
- कौटिल्य ने गुप्तचर को राजा का नेत्र कहा है| 
- गुप्तचर राज्य के अंदर एवं बाहर दोनों जगह होने चाहिए| 
- राज्य के अंदर नियुक्त गुप्तचर का राज्य के अंदर सभी अमात्य व अधिकारियों के बारे में, राजा के बारे में प्रजा के विचार, भ्रष्टाचार आदि का पता लगाना तथा राजा का यश फैलाना प्रमुख कार्य है| 
- राज्य के बाहर नियुक्त गुप्तचरो का कार्य शत्रु राज्य की आंतरिक स्थिति, सैनिक शक्ति की जानकारी प्राप्त करना, शत्रु का वध करना, शत्रु राज्य में फूट डालना, शत्रु राज्य के अमात्य व प्रजा को राजा के विरुद्ध करना आदि है| 
- कौटिल्य ने आंतरिक एवं बाह्य प्रशासन की दृष्टि से गुप्तचारों के दो प्रमुख वर्ग बताए हैं- 
- संस्था 
- संचार 
- सत्री- ये एक विशेष प्रकार के गुप्तचर हैं जिन्हें बाल्यकाल से ऐसा प्रशिक्षण दिया जाता था कि वे साधु या ज्योतिषी के वेश में प्रजा के बीच पहुंचकर सूचनाएं प्राप्त कर सकें| 
युद्ध-
- कौटिल्य ने विजिगिषु राजा के सामने चक्रवर्ती सम्राट का आदर्श रखा है, किंतु चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए युद्ध को अंतिम विकल्प माना है| 
- कौटिल्य ने तीन प्रकार के युद्ध बताएं हैं-
- प्रकाश युद्ध या धर्म युद्ध- युद्ध के नियम व आचार संहिता का पालन करके युद्ध करना| 
- कूट युद्ध- छल-कपट से युद्ध करना| 
- तूष्णीं युद्ध- शत्रु को विष ओषधि, धोखा देकर उसका वध करना| 
- कौटिल्य ने तीन प्रकार के विजेता (विजिगिषु) राजाओं का उल्लेख किया है-
- धर्म विजयी- जो गौरव व प्रतिष्ठा के लिए युद्ध करता है तथा शत्रु के आत्म-समर्पण से संतुष्ट हो जाता है| 
- लोभ विजयी- जो धन, भूमि आदि की प्राप्ति के लिए युद्ध करता है| 
- असुर विजयी- जो भूमि, द्रव्य, कोष, स्त्री आदि का पूर्ण हरण करता है तथा पराजित राजा और उनके पुत्र के वध से ही संतुष्ट होता है| 
- कौटिल्य ने धर्म विजयी राजा को सर्वश्रेष्ठ तथा असुर विजयी राजा को सर्वाधिक निकृष्ट माना है| 
- कौटिल्य ने पराजित राजा के प्रति उदार एवं मानवीय व्यवहार का निर्देश दिया है| 
कौटिल्य और मैक्यावली का तुलनात्मक अध्ययन-
- कौटिल्य प्राचीन भारतीय विचारक है, जबकि मैक्यावली आधुनिक यूरोपियन (इटली) विचारक है| 
- कोटिल ने धर्म के महत्व को स्वीकारा है लेकिन अर्थ से गौण माना है, जबकि मैक्यावली ने धर्म को राजनीति से पृथक रखा है| 
- कौटिल्य छोटे-छोटे राज्यों में बटे भारत को एकता के सूत्र में एक शक्तिशाली राजा के नेतृत्व में बांधना चाहता है, उसी प्रकार मैक्यावली भी छोटे-छोटे टुकड़ों में बटे इटली को एक कुशल राजा के नेतृत्व में एकता में बांधना चाहता है| 
- कौटिल्य के अनुसार राजा को सच्चरित्र, धर्मपरायण व नैतिकता युक्त होना चाहिए केवल आपधर्म के अंतर्गत इसका उल्लंघन कर सकता है, जबकि मैक्यावली के अनुसार राजा को सच्चरित्र होना जरूरी नहीं है| 
- कौटिल्य के अनुसार उत्तम साध्य के लिए साधन भी उचित होने चाहिए, केवल आपधर्म के समय अनैतिक साधन अपनाए जा सकते हैं, जबकि मैक्यावली के अनुसार केवल साध्य उत्तम होना चाहिए साधन अनैतिक हो सकता है| 
- कौटिल्य के अनुसार राजा को शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए साम, दाम, भेद, दंड की नीति अपनायी जानी चाहिए, जबकि मैक्यावली के अनुसार राजा को शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए सिंह की तरह पराक्रमी और लोमड़ी की तरह धूर्त होना चाहिए| 
- मैक्यावली केवल 2 पशुओं (सिंह और लोमड़ी) के गुण राजा को सीखने की सलाह देता है जबकि कौटिल्य विभिन्न पशु-पक्षियों से 20 गुण सीखने की सलाह देता है| 
- मैक्स वेबर “कौटिल्य का अर्थशास्त्र सही रूप में उग्र मैकियावलीवाद का उदाहरण है, इसकी तुलना में मैक्यावली का प्रिंस अहानिकारक है|” 
- प्रोफेसर मधुकर श्याम चतुर्वेदी “मैक्यावली के विचारों की कौटिल्य के दृष्टिकोण से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों विचारकों के मध्य समानता सतही है, वास्तविकता नहीं|” 
गणतंत्र पर कौटिल्य के विचार
- कौटिल्य के मत में गणतंत्र से प्राप्त होने वाली सहायता; सेना, मित्र तथा लाभ से प्राप्त होने वाली सहायता से बेहतर है| 
- कौटिल्य ने दो प्रकार के गणतंत्र का उल्लेख किया है- 
- जिन्हें व्यापार तथा हथियारों का विशेष अनुभव 
- जिन्हें राजा की पदवी प्राप्त हो 
कौटिल्य का धर्म दर्शन-
- कौटिल्य ने धर्म को 4 रूपों में वर्गीकृत किया है- 
- धर्म एक सामाजिक कर्तव्य के रूप में| 
- धर्म सत्य पर आधारित नैतिक कानून के रूप में| 
- धर्म एक नागरिक कानून के रूप में| 
- धर्म, कर्मकांडों के निर्वहन के रूप में 
राजधर्म-
- अर्थशास्त्र में स्वयं राजा के धर्म ‘राजधर्म’ की विस्तृत चर्चा की गई है| जो निम्न है- 
- राजा को प्रजा रक्षा तथा प्रजा पालन के अपने दोनों दायित्वों का सत्यनिष्ठा से निर्वाह करना चाहिए| 
- राजा को प्रजा के जीवन व संपत्ति की रक्षा करनी चाहिए| 
- कानून तथा व्यवस्था बनाए रखनी चाहिए| 
- अपराधियों को दंड देना चाहिए| 
- निष्पक्ष न्याय व्यवस्था की स्थापना करना| 
अपादधर्म-
- कौटिल्य ने कुछ मामलों में राजा को धर्म के अनुसार कार्य न करने की छूट दी है अर्थात अनैतिक कार्य करने की छूट दी है जो निम्न है- 
- दुष्ट एवं द्रोही राजकुमार को स्त्री, शराब या शिकार के बहाने पकड़कर बंद कर दिया जाए अथवा जंगली जातियों के किसी सरदार को उसके खिलाफ भड़काकर या विद्रोही सामंतों के द्वारा उसे धोखे से मारने का प्रबंध किया जाए| 
- भ्रष्ट अधिकारियों को मारा जा सकता है| 
- विरोधी नगरों, कुलो तथा गांवो को समाप्त किया जा सकता है| 
- विरोधियों को समाप्त करने के लिए उनके बीच कलह कराई जाए तथा उनको धोखे से, जहर द्वारा या अन्य साधन से मरवा दिया जाना चाहिए| 
- अंतर्राजीय संबंधों के निर्वहन में भी अनैतिक तथा धूर्ततापूर्ण उपाय अपनाए जा सकते हैं| 
कौटिल्य से संबंधित कुछ अन्य तथ्य-
- कौटिल्य ने राजनीतिक अलगाव को मृत्यु तुल्य मानते हुए मित्र को ‘राज्य की परम आवश्यक प्रकृति’ माना है| 
- कौटिल्य ने दो प्रकार के मित्र बताएं- 
- सहज मित्र 
- कृत्रिम मित्र 
धर्म विजय की अवधारणा- विजिगीषु शासक द्वारा पराधीन राजाओं द्वारा अधीनता की स्वीकृति मात्र से संतुष्ट हो जाना चाहिए|

 
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