संप्रभुता/Sovereignty
राज्य के चार तत्वों जनसंख्या, भूभाग, सरकार व संप्रभुता में से संप्रभुता सबसे महत्वपूर्ण व राज्य का अनिवार्य तत्व है|
संप्रभुता शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द Sovereignty का हिंदी रूपांतरण है|
Sovereignty शब्द लैटिन भाषा के 2 शब्दों से बना है-
Super का अर्थ सर्वोच्च होता है तथा
Anus का अर्थ शक्ति होता है| अतः Sovereignty का अर्थ सर्वोच्च शक्ति है|
प्रभुसत्ताधारी चाहे राजा हो, मुख्य कार्यकारी हो, कोई सभा हो, वह केवल अपनी इच्छा से कानून की घोषणा कर सकता है, आदेश जारी कर सकता है और राजनीतिक निर्णय कर सकता है, ये कानून, आदेश, निर्णय उसके अधिकार क्षेत्र में आने वाले सब लोगों पर बाध्यकारी होते हैं|
प्रभुसत्ता को राज्य की सर्वोच्च कानूनी सत्ता भी कहा जा सकता है|
प्रभुसत्ता की संकल्पना प्रभुसत्ताधारी की इच्छा को सर्वोच्च शक्ति के रूप में मान्यता देती है, इसलिए प्रभुसत्ता असीम और स्थायी शक्ति है|
प्रभुसत्ता को निरंकुश शक्ति मानना उचित नहीं है क्योंकि प्रभुसत्ता का प्रयोग करते समय रीति-रिवाजों, सामाजिक मूल्यों, न्याय, सामान्य हित का ध्यान रखा जाता है|
ऐतिहासिक विकास-
इस सिद्धांत की उत्पत्ति 16 वीं सदी में मानी जाती है| 16वीं सदी में ज्यां बोदाँ (राष्ट्रीय प्रभुसत्ता), 17वी सदी में ह्यूगो ग्रेशियस (अंतर्राष्ट्रीय प्रभुसत्ता), 18वीं सदी में J.J रूसो (लोकप्रिय प्रभुसत्ता) और 19वी सदी में जॉन आस्टिन (एकल प्रभुसत्ता) ने इस सिद्धांत की व्याख्या की|
संप्रभुता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांसीसी विचारक ज्यां बोदाँ ने 1576 में अपनी पुस्तक Six book concerning Republic में किया अतः बोदाँ को प्रभुसत्ता का जनक कहा जाता है|
बोदाँ ने संप्रभुता के लिए फ्रेंच शब्द सोवरेनिटे का प्रयोग किया|
बोदाँ के अनुसार “प्रभुसत्ता नागरिकों एवं प्रजाजनों पर राज्य की सर्वोच्च शक्ति है, जो कानून के नियंत्रण से परे है|”
राष्ट्रीय संप्रभुता का जनक बोदाँ व अंतरराष्ट्रीय प्रभुसत्ता का जनक ग्रोशियस है|
सेबाइन ने अपनी कृति ए हिस्ट्री ऑफ़ पोलिटिकल थ्योरी में बोदाँ की प्रभुसत्ता पर तीन बंधन बताए हैं जो उसे पूर्ण संप्रभुता नहीं बनने देते-
ईश्वरीय कानून या प्राकृतिक कानून
देश के संवैधानिक कानून व परंपरा
संपत्ति का अधिकार
सेबाइन “बोदा ने संप्रभुता पर जो प्रतिबंध लगाए थे, थॉमस हॉब्स ने उनसे पूर्णत: मुक्त कर दिया|”
ज्यां बोदाँ ने राज्य को परिवारों और उनकी मिली-जुली संपदा का ऐसा संगठन बताया है जहां सर्वोच्च शक्ति और विवेक का शासन चलता है|
बोदाँ, ग्रेशियस, हॉब्स, रूसो और आस्टिन के सिद्धांत को प्रभुसत्ता का एकलवादी सिद्धांत कहा जाता है| क्योंकि इसके अनुसार राज्य ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो समाज के लिए कानून बनाती है| कानून की दृष्टि से राज्य की सत्ता असीम, अनन्य, सर्वोच्च है| राज्य की बाह्य एवं आंतरिक मामलों में सर्वोच्च शक्ति होती है|
वेस्टफेलिया की संधि (जर्मनी) 1648- इस संधि द्वारा धार्मिक युद्धों का अंत हुआ तथा राष्ट्र-राज्यों का जन्म व व्यवहारिक प्रभुसत्ता का जन्म हुआ|
प्रभुसत्ता की परिभाषाएं -
विलोबी “प्रभुसत्ता राज्य की सर्वोच्च इच्छा है|”
वुडरो विल्सन “प्रभुसत्ता वह शक्ति है जो सदा सक्रिय रहकर कानून बनाती है और उसका पालन करवाती है|”
ग्रेशियस “प्रभुसत्ता सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति है, यह उस व्यक्ति में निहित है जिसके कार्यों पर किसी दूसरे का नियंत्रण नहीं होता और जिसकी इच्छा का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता|”
बर्गेस “प्रभुसत्ता जनता तथा जनता के सभी संगठनों के ऊपर मौलिक, निरंकुश और असीमित शक्ति है|”
जेलिनेक “संप्रभुता राज्य का वह गुण है, जिसके द्वारा राज्य अपनी इच्छा तथा शक्ति के अतिरिक्त और किसी कानून से सीमित नहीं है|”
गार्नर ने अपनी पुस्तक ‘इंट्रोडक्शन टू पॉलीटिकल साइंस’ में लिखा है “प्रभुसत्ता राज्य की ऐसी विशेषता है जिसके कारण वह कानून की दृष्टि से केवल अपनी इच्छा से बंधा होता है, अन्य किसी इच्छा से नहीं, कोई अन्य शक्ति उसकी अपनी शक्ति को सीमित नहीं कर सकती|”
डयूगिट “संप्रभुता राज्य की आज्ञा देने की शक्ति है| वह राज्य के रूप में संगठित राष्ट्र की इच्छा है| इसे राज्य की सीमा के अंदर सब व्यक्तियों को बिना शर्त आदेश देने का अधिकार है|”
लॉस्की “प्रभुसत्ताधारी वैधानिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय से उच्चतर है वह सभी को अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए बाध्य कर सकता है|”
प्रभुसत्ता के पक्ष/ आयाम-
दो पक्ष हैं-
आंतरिक संप्रभुता- राज्य अपने अधीन क्षेत्र में सर्वोच्च होता है| तथा राज्य के अधीन सभी होते हैं, राज्य किसी के अधीन नहीं होता है|
बाह्य संप्रभुता- इसका अर्थ है कि राज्य बाह्य मामलों में पूरी तरह से स्वतंत्र है|
प्रभुसत्ता की विशेषताएं-
प्रभुसत्ता की निम्न विशेषताएं है-
सर्वोच्चता/ पूर्णता-
संप्रभुता सर्वोच्च, पूर्ण व असीमित है| यह राज्य के अंदर एवं बाहर पूर्ण व सर्वोच्च है|
सार्वभौमिकता/ सर्वव्यापकता-
संप्रभुता अपने राज्यक्षेत्र के हर व्यक्ति, कानून, व्यवस्था, सेना, विदेशनीति, दूतावास आदि सब पर लागू होती है|
स्थायित्व-
प्रभुसत्ता स्थायी होती है, यह कभी नष्ट नहीं होती है|
प्रभुसत्ता के नष्ट होने का अर्थ है, राज्य का समाप्त होना|
राजा, राष्ट्रपति या अन्य प्रभुसत्ताधारी की मृत्यु या त्यागपत्र देने पर इसका स्थानांतरण अन्य व्यक्ति में हो जाता है, समाप्त नहीं होती है|
अदेयता-
राज्य द्वारा प्रभुसत्ता को अन्य किसी को नहीं दिया जा सकता, ऐसा करने का अर्थ है प्रभुसत्ता का अंत|
अविभाज्यता-
प्रभुसत्ता के टुकड़े नहीं किए जा सकते है| प्रभुसत्ता के टुकड़े का अर्थ है राज्य के टुकड़े करना|
गेटेल के शब्दों “यदि प्रभुसत्ता का विभाजन हुआ तो इसका अर्थ है राज्य का विभाजन|”
प्रभुसत्ता के विभिन्न रूप या प्रकार -
नाममात्र की तथा वास्तविक प्रभुसत्ता-
इस प्रकार की प्रभुसत्ता संसदीय शासन प्रणाली में पाई जाती है|
नाममात्र का संप्रभु वह होता है जिसके नाम से शासन के समस्त कार्य किए जाते हैं| जैसे भारत - का राष्ट्रपति, ब्रिटेन का सम्राट
वास्तविक संप्रभु वह होता है जिसके द्वारा वास्तव में शासन किया जाता है- जैसे ब्रिटेन व भारत के प्रधानमंत्री व मंत्रीपरिषद|
विधि अनुसार (वैधानिक) और तथ्य अनुसार प्रभुसत्ता-
विधि के अनुसार/ वैधानिक प्रभुसत्ताधारी- वह होता है जो कानूनी दृष्टि से प्रभुसत्ता का अधिकारी हो| सामान्य परिस्थितियों वही वास्तविक प्रभुसत्ताधारी होता है|
तथ्य अनुसार प्रभुसत्ता- कुछ असाधारण परिस्थितियों में प्रभुसत्ता ऐसे व्यक्तियों के संगठन के हाथ में आ जाति है, जिसे कानूनी प्रभुसत्ता के रूप में मान्यता न दी गई हो| ऐसी प्रभुसत्ता को तथ्यानुसार प्रभुसत्ता कहते हैं|
उदाहरण- किसी देश में विधि अनुसार प्रभुसत्ता किसी सम्राट, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मंत्रिपरिषद या संसद के हाथ में हो परंतु तथ्यानुसार प्रभुसत्ता किसी लुटेरे, तानाशाह, सिद्ध पुरुष के हाथ में रहे|
जब किसी देश में क्रांति होती है तो तब ही विधि अनुसार तथा तथ्य अनुसार प्रभुसत्ता सामने आती है|
राजनीतिक संप्रभुता
राजनीतिक संप्रभुता लोकतंत्र में पाई जाती है| लोकतंत्र में कानूनी प्रभुसत्ता के पीछे एक और संप्रभुता होती है उसे राजनीतिक प्रभुसत्ता कहते हैं| उदाहरण के लिए लोकतंत्र में कानून बनाने की शक्ति संसद की है, अतः संसद कानूनी प्रभुसत्ता है| लेकिन संसद की सत्ता का मूल स्रोत जनता होती है| संसद अपनी इच्छा का प्रतिनिधित्व न करके जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है अतः जनता राजनीतिक संप्रभु होती है|
A.V डायसी “विधिवेता जिस प्रभुसत्ताधारी को मान्यता देता है, उसके पीछे एक दूसरा प्रभुसत्ताधारी छिपा रहता है जिसके सामने कानूनी प्रभुसत्ताधारी को झुकना पड़ता है|”
डायसी “वही शक्ति राजनीतिक संप्रभु है जिसकी इच्छा को अंतिम रूप में राज्य के नागरिक मानते हैं|”
गिलक्राइस्ट “राजनीतिक संप्रभुता उन प्रभावशाली शक्तियों का योग है जो कानून के पीछे रहती है|”
गेटेल “राजनीतिक संप्रभुता के स्थान पर सार्वजनिक इच्छा या जनमत शब्दों का प्रयोग होना चाहिए|”
लोकप्रिय प्रभुसत्ता-
जब हम यह स्वीकार करते हैं कि राजनीतिक प्रभुसत्ता सर्वसाधारण में निहित है जब उसे लोकप्रिय प्रभुसत्ता कहा जाता है|
लोकप्रिय प्रभुसत्ता का विचार साधारणत: नैतिक आधार पर जनसाधारण को प्रभुसत्ता का उपयुक्त पात्र मानता है|
लोकप्रिय प्रभुसत्ता के आरंभिक संकेत रोमन साम्राज्य में मिलते हैं|
प्राचीन रोमन विचारक मार्कस तुलियस सिसरो ने यह मान्यता रखी कि राजनीतिक सत्ता का मूल स्रोत संपूर्ण राज्य की जनता में ढूंढा जा सकता है|
मार्सिलिओ ऑफ़ पेडुआ ने भी पोप की सत्ता को चुनौती देते हुए लोकप्रिय प्रभुसत्ता का विचार रखा| सर्वसाधारण की सर्वोपरि सत्ता के सिद्धांत को ही मर्सिलियो ने गणतंत्रवाद के रूप में मान्यता दी|
लोकप्रिय प्रभुसत्ता के विचार की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति जे.जे रूसो के चिंतन में मिलती है| उसके अनुसार प्रभुसत्ता सामान्य इच्छा में निहित है|
ब्राइस “लोकप्रिय प्रभुता लोकतंत्र का आधार और पर्याय है|”
गिलक्राइस्ट “लोकप्रिय प्रभुता व्यक्तिगत शासन की सत्ता के विपरीत जनसमुदाय की सत्ता है|”
लोकप्रिय प्रभुसत्ता की अनिवार्य शर्तें-
सार्वजनिक मताधिकार
विधानमंडल पर सर्वसाधारण के प्रतिनिधियों का नियंत्रण
राष्ट्र के वित्त पर जन प्रतिनिधियों के सदन का नियंत्रण
Note- लोकप्रिय प्रभुसत्ता का सिद्धांत प्रभुसत्ता की कानूनी संकल्पना को नैतिक और दार्शनिक आधार प्रदान करता है|
ऑस्टिन का प्रभुता सिद्धांत या प्रभुता का एकलवादी सिद्धांत-
प्रभुसत्ता का कानूनी सिद्धांत जॉन ऑस्टिन की महत्वपूर्ण देन है| ऑस्टिन जो इंग्लैंड के प्रसिद्ध विधिवेता है, ने अपनी पुस्तक Lecturers on Jurisprudence 1832 में संप्रभुता सिद्धांत की व्याख्या की है|
प्रभुसत्ता की व्याख्या करते हुए ऑस्टिन लिखते हैं कि “यदि कोई निश्चित मानव प्रभु (श्रेष्ठ व्यक्ति) जो ऐसे किसी अन्य श्रेष्ठ व्यक्ति की आज्ञा पालन करने का आदी नहीं है, समाज के बहुत बड़े भाग से अपनी आज्ञा का पालन सहज रूप से करा लेता है तो वह निश्चित मानव प्रभु (श्रेष्ठ व्यक्ति) प्रभुसत्ताधारी है और वह समाज राजनीतिक और स्वतंत्र समाज है|
ऑस्टिन ने सकारात्मक कानून का सिद्धांत प्रस्तुत किया है| उसके अनुसार कानून सामाजिक संबंधों का नियमन करता है| कानून का ध्येय न्याय तथा जन कल्याण के साधन जुटाना है| कानून प्रभुसत्ताधारी की इच्छा की अभिव्यक्ति होता है| राज्य के विधान मंडल को कानून का निरन्तर संशोधन करने का अधिकार होना चाहिए|
ऑस्टिन प्राकृतिक कानून का खंडन करता है क्योंकि इनकी उत्पत्ति ऐसे स्रोत से नहीं होती है जो निर्णय करने में समर्थ हो तथा प्राकृतिक कानून का उल्लंघन होने पर दंड भी नहीं दिया जा सकता है|
Note- ऑस्टिन के पश्चात एकल प्रभुसत्ता की व्याख्या डायसी, ब्राइस, होलेंड आदि ने भी की, इन्हें नव ऑस्टिनवादी कहा जाता है|
ऑस्टिन ने कानून की निम्न विशेषताएं बताई है-
इसकी उत्पत्ति ऐसे स्रोत से होनी चाहिए जो निर्णय करने में समर्थ हो|
इसमें किसी आदेश की अभिव्यक्ति होनी चाहिए|
यह प्रमाणिक होना चाहिए अर्थात इसका उल्लंघन करने पर दंड का विधान होना चाहिए|
ऑस्टिन के अनुसार सकारात्मक कानून ऐसा कानून है जिसे किसी प्रभुतासंपन्न व्यक्ति या व्यक्तियों के समुदाय ने स्वाधीन राजनीतिक समाज के किसी सदस्य सदस्यों के लिए निर्धारित किया हो| बस शर्त यह है कि कानून बनाने वाला व्यक्ति या व्यक्तियों का समुदाय सर्वसत्तासंपन्न या सर्वोच्च हो|
ऑस्टिन के प्रभुसत्ता की निम्न विशेषताएं है -
प्रभुसत्ता राज्य का बुनियादी और अनिवार्य लक्षण है, इसके बिना समाज राज्य का रूप धारण नहीं कर सकता है|
यह सिद्धांत राज्य को समाज के लिए कानून बनाने का अनन्य अधिकार देता है|
प्रभुसत्ता एक निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह में होती है| वह व्यक्ति या व्यक्ति समूह सर्वोच्च होता है|
यह व्यक्ति या व्यक्ति समूह समाज के किसी भी व्यक्ति के अधीन नहीं होता है|
इस व्यक्ति या व्यक्ति समूह को समाज के बड़े भाग की आज्ञाकारिता प्राप्त होनी चाहिए|
प्रभुसत्ता का आदेश ही कानून है|
प्रभुसत्ता पूर्ण, सार्वभौम, अदेय, स्थायी व अविभाज्य है|
राज्य सर्वोच्च है किसी अन्य व्यक्ति या संस्था के प्रति उत्तरदायी नहीं है|
राज्य को नागरिकों की अनन्य निष्ठा प्राप्त होनी चाहिए|
ऑस्टिन के सिद्धांत की आलोचना -
ब्राइस के अनुसार ऑस्टिन का प्रभुसत्ता का सिद्धांत आधुनिक राज्यों के लिए अव्यवहारिक है| यह केवल दो ही प्रकार के राज्यों पर लागू हो सकता है-
एक सर्वशक्तिमान विधानमंडल वाले राज्यों में जैसे- ब्रिटेन|
दूसरा सर्वशक्तिमान निरंकुश राजाओं वाले शासन में जैसे- जार युगीन रूस|
ऑस्टिन का सिद्धांत संघ सरकारों वाले राज्यों में लागू नहीं हो सकता क्योंकि वहा केंद्र व राज्यों के मध्य शक्ति विभाजन होता है|
सर हेनरीमेन ने अपनी पुस्तक Early History of Institutions में इस सिद्धांत की आलोचना की है| हेनरी का मत है कि केवल राज्य के आदेश ही कानून का एकमात्र स्रोत नहीं है इसके अलावा धर्म, परंपराएं, रीति -रिवाज तथा चरित्र आदि भी कानून के स्रोत होते हैं| हेनरीमेन ने पंजाब के महाराणा रणजीत सिंह का उदाहरण देते लिखा कि सर्वशक्तिमान होते हुए भी रणजीत सिंह ने परंपराओं, लोकमान्यताओं आदि को महत्व दिया है|
डयुग्वी “राज्य कानून का निर्माण नहीं करता बल्कि कानून राज्य का निर्माण करता है|
यह सिद्धांत शक्ति तत्व पर अत्यधिक बल देता है तथा निरंकुशता को प्रोत्साहन देता है|
मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है|
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