जीवन परिचय-
जन्म-
5 मई 1818 ई. में
पश्चिमी जर्मनी/ प्रशा के राइनलैंड के एक नगर ट्रीविज में, यहूदी परिवार में हुआ|
पिता- हर्चेल मार्क्स, जो वकील थे|
जब कार्ल मार्क्स 6 वर्ष के थे, तब इनके पिता ने यहूदी मत का त्याग करके ईसाई धर्म में दीक्षा ले ली| इस धर्म परिवर्तन का कार्ल मार्क्स पर प्रभाव पड़ा है| इसी कारण कार्ल मार्क्स धार्मिक चेतना का विरोधी था तथा यहूदियों की कटु आलोचना की है और अंततः धर्म को अफीम और उत्पादन शक्तियों के अनुरूप मतवाद की संज्ञा दी है
सन 1835 में कार्ल मार्क्स को न्यायशास्त्र (कानून) के अध्ययन के लिए बोन विश्वविद्यालय भेजा गया| यही पर कार्ल मार्क्स एक उच्च परिवार की लड़की जेनी वान वेस्टफेलेन के प्रेम में पड़ गए|
लेकिन 1836 में कानून का अध्ययन छोड़ बर्लिन विश्वविद्यालय में दर्शन, अर्थशास्त्र व इतिहास का अध्ययन शुरू कर दिया| यहां पर मार्क्स हीगल के दर्शनशास्त्र से प्रभावित हुआ|
बर्लिन विश्वविद्यालय में कार्ल मार्क्स यंग हिगेलियन्स नामक संगठन का सदस्य बन गया|
सन 1841 में जेना विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की उपाधि प्राप्त की| डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी थीसिस का शीर्षक “ग्रीक विचारक एपीक्यूरस व डेमोक्रिटस की दार्शनिक व्यवस्था का तुलनात्मक अध्ययन था|
1842 में ‘रेहनिश टाइम्स’ का संपादक बन गया|
कार्ल मार्क्स 1843 में समाजवाद के अध्ययन के लिए पेरिस चला गया|
पेरिस में रहकर कार्ल मार्क्स ने हीगल के दर्शनशास्त्र के विरोध में रचित अपने आलोचनात्मक निबंध में लिखा कि जर्मनी की मुक्ति में सर्वहारा वर्ग जीवन रक्त का कार्य करेगा|
इस कारण फ्रांस की सरकार ने कार्ल मार्क्स को पेरिस से निष्कासित कर दिया| यहां से वह बूर्सेल्स गया तथा साम्यवादी लीग का सदस्य बन गया|
पेरिस और बूसेल्स के प्रवास-काल में मार्क्स का संपर्क अनेक विद्वानों से हुआ| जो निम्न है- आदर्श साम्यवादी केबेट, दार्शनिक अराजकतावादी प्रोधां, साम्यवादी अराजकतावादी बैकुनिन, क्रांतिकारी कवि हीन, क्रांतिकारी देशभक्त मैजिनी का मंत्री वुल्फ, फ्रेडरिक एंजिल्स|
फ्रेडरिक एंजिल्स कपड़े के एक उद्योगपति का पुत्र था, जिनके कारखाने इंग्लैंड व जर्मनी दोनों में थे तथा कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिलस 1844 में मिले थे और दोनो घनिष्ठ मित्र बन गए|
इसमें कार्ल मार्क्स सिद्धांत निर्माता और एंजिल्स उसका प्रचारक व संगठन कर्ता था| इन दोनों की मित्रता को 19 वी सदी की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण साहित्यक मित्रता कहा जाता है|
एंजिल्स ने मार्क्स की आर्थिक कठिनाइयों में सहयोग किया| कार्ल मार्क्स ने भी एंजिल्स के ऋण को स्वीकार करते हुए अपने समाजवादी सिद्धांत को हमारा सिद्धांत (Our theory) की संज्ञा दी है|
बूर्सेल्स में मार्क्स और एंजिल्स ने मिलकर 1848 में साम्यवादी लीग के प्रचार के लिए सुप्रसिद्ध ग्रंथ Communist Manifesto तैयार किया|
1849 में कार्ल मार्क्स लंदन बस गया तथा मृत्यु तक वही रहा| कार्ल मार्क्स का अधिकांश जीवन दरिद्रता में बीता|
1864 में प्रथम समाजवादी अंतर्राष्ट्रीय संघ स्थापित हुआ| उसकी प्रमुख प्रेरणा मार्क्स से मिली थी|
1883 में कार्ल मार्क्स की मृत्यु हो गयी|
एंजेल्स ने मार्क्स की मृत्यु को सर्वहारा वर्ग का सबसे बड़ा नुकसान कहा है| इनकी मृत्यु पर एंजेल्स ने लिखा कि “मानव जाति एक रत्न से वंचित हो गई है और वह भी हमारे युग के महानतम रत्न से|”
कार्ल मार्क्स ने अपना अधिकांश समय एक निर्वासित व्यक्ति के रूप में व्यतीत किया तथा अंतिम समय में वह किसी भी देश का औपचारिक नागरिक नहीं था|
कार्ल मार्क्स की रचनाएं-
On the Jewish question (1843)
Economic and Philosophical Manuscript (1844) या पेरिस पांडुलिपिया
Thesis on Feuerbach 1845
The Holy Family (1845)
The Poverty of philosophy (1847)
The communist manifesto (1848)
Class Struggle in France 1850
The Critique of Political Economy (1859)
Inaugural Address to the international working men's Association (1864)
Value, Price and Profit (1865)
Das Kapital (1867)
The civil War in france (1870-71)
The Gotha program 1875
An introduction to the criticism Hegel's Philosophy of right (1844)
कार्ल मार्क्स व एंजिल्स निम्न पुस्तकों के सह लेखक थे-
The Holy Family (1845)
The German ideology (1845)
The communist manifesto (1848)
On The Jewish Question 1843-
इस पुस्तक में कार्ल मार्क्स ने विचार दिया कि ‘पैसा ईश्वर से महत्वपूर्ण है, धन मनुष्य के श्रम एवं जीवन का सार है| यह सार उस पर प्रभुत्व जमाता है और मनुष्य उस धन की पूजा करता है|’
Economic and Philosophical Manuscript 1844-
इसमें मार्क्स ने निम्न विचार दिया-
मानव का सार श्रम है|
व्यक्ति अपनी नैतिक क्षमता, तर्क बुद्धि व विचारों के कारण नहीं, बल्कि श्रम करने की क्षमता के कारण पशुओं से अलग है|
श्रम करने की क्षमता का तात्पर्य है- प्रकृति के साथ मानव की अंतक्रिया|
यह कृति 1932 तक अज्ञात थी| 1932 में इसका प्रकाशन पहली बार हुआ|
The German Ideology 1845-
इसमें द्वंदात्मक भौतिकवाद का वर्णन है|
इसमें विचारधारा को छदम चेतना या मिथ्या चेतना कहा है|
Thesis on Feuerbach (1845)-
इस पुस्तक में कार्ल मार्क्स ने कल्पनालोकी समाजवादियों की आलोचना की है|
कार्ल मार्क्स “समस्या व्याख्या की नहीं, बल्कि दुनिया बदलने की है|”
कार्ल मार्क्स ने इस पुस्तक में लिखा है कि “दर्शन का अंतिम कार्य केवल वास्तविकता को समझना नहीं है, बल्कि उसे बदलना भी है| अपने कार्य द्वारा मनुष्य वर्तमान परिस्थितियों में आमूल परिवर्तन कर सकता है|”
Communist Manifesto (1848)-
यह ग्रंथ साम्यवादी दर्शन और क्रांति प्रक्रिया का मूल आधार है| जिसमें सर्वहारा वर्ग की क्रांति की भविष्यवाणी की गई है|
इस ग्रंथ का यह पहला वाक्य ही यूरोप के शासकों में भय का संचार कर देता है कि “साम्यवाद का भूत यूरोप भर में व्याप्त हो रहा है| इस भूत को भगाने के लिए पॉप और जार, मेटरनिख और गीजाट, फ्रांस के क्रांतिकारी और जासूस सब मिल गए हैं, लेकिन यह बढ़ता ही जा रहा है|”
इसी ग्रंथ में उन्होंने लिखा है कि “दुनिया के मजदूरों संगठित हो जाओ, अपनी बेड़ियों और दासता के सिवाय तुम कुछ नहीं खोओगे तथा एक नई दुनिया प्राप्त करोगे|”
इस पुस्तक में कार्ल मार्क्स ने लिखा है कि “मजदूरों का कोई देश नहीं होता है|”
इसी पुस्तक में कार्ल मार्क्स ने लिखा है कि “राज्य पूंजीपतियों की कार्य समिति है|”
Critique of Political Economy (1859)-
इसमें आर्थिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है|
Das Kapital 1867-
कार्ल मार्क्स का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ है| मार्क्स का संपूर्ण परिचय इस ग्रंथ में मिलता है| इस पुस्तक को ‘समाजवादी साहित्य पर सर्वश्रेष्ठ प्रमाणिक ग्रंथ’, ‘साम्यवादी सिद्धांतों की आधारशिला’, ‘श्रमिकों का ग्रंथ’, ‘ धनीको का दिमाग ठंडा करने वाला नुस्खा’ कहा जाता है|
इस ग्रंथ का मूल विचार यह है-
उत्पादन के साधनों के केंद्रीकरण के फलस्वरुप मजदूरों का सामाजिकरण होता है|
मजदूरों का पूंजीवादी ढांचे से मेल नहीं बैठता है तथा पूंजीवादी ढांचा तोड़ दिया जाता है|
जिससे व्यक्तिगत संपत्ति समाप्त हो जाती है और शोषण करने वाले खत्म कर दिए जाते हैं|
पूंजीवादी युग की जगह औद्योगिक समाज का निर्माण होता है, जिसमें भूमि और संपत्ति के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व रहता है|
Das capital के तीन Volume है-
Volume-1 (1867)
Volume-2 (1885)
Volume-3 (1894)
Note- Das Kapital, प्रथम खंड (1867) मार्क्स जीवनकाल में प्रकाशित किया गया था, लेकिन मार्क्स की 1883 में मृत्यु हो गई। कैपिटल, खंड द्वितीय (1885) और कैपिटल, खंड III (1894), जिसका संपादन मार्क्स के दोस्त एवं सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स ने किया और मार्क्स के काम के रूप में प्रकाशित किया।
Note- अपनी मृत्यु के समय (1883), मार्क्स ने दास कैपिटल, खंड IV के लिए पांडुलिपि तैयार की थी, जो उनके समय, 19वीं सदी के अधिशेष मूल्य के सिद्धांतों का एक महत्वपूर्ण इतिहास है| दार्शनिक कार्ल कॉटस्की (1854-1938) ने मार्क्स के अधिशेष-मूल्य आलोचना का एक आंशिक संस्करण प्रकाशित किया| और बाद में Theorien uber den Mehrwert (अधिशेष मूल्य के सिद्धांत, 1905-1910) के रूप में एक पूर्ण, तीन-खंड संस्करण प्रकाशित किया|
Critique the Gotha program 1875
1875 में जर्मनी के गोथा शहर में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने सार्वभौमिक मताधिकार, संघ की स्वतंत्रता काम के घंटो का निर्धारण, स्वास्थ्य के अधिकार आदि समाजवादी मांगों का निर्धारण किया, जिसको गोथा प्रोग्राम कहा जाता है| मार्क्स ने इसकी आलोचना की|
इसमें मार्क्स ने यूरो साम्यवाद, जो लोकतांत्रिक साम्यवाद के समतुल्य था, की आलोचना की है|
इसमें मार्क्स ने सर्वहारा की तानाशाही का समर्थन किया है|
समाचार पत्र-
कार्ल मार्क्स ने जर्मनी के ‘राइन समाचार’ पत्र में लेख लिखें| ‘जर्मन- फ्रांसीसी वार्षिकी’ का संपादन किया| पेरिस से जर्मन भाषा में निकलने वाले समाचार पत्र ‘आगे बढ़ो’ में भी इनके लेख प्रकाशित हुए| लंदन आने के बाद ‘न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून’ में सप्ताह में उनके दो लेख छपने लगे थे|
मार्क्स पर प्रभाव-
मार्क्स पर जर्मन दार्शनिक हीगल और फ्यूरेबेक (Feuerbach), फ्रांसीसी समाजवादियों, ब्रिटिश समाजवादियों व अर्थशास्त्रियों का प्रभाव पड़ा है|
निस्बेट “कार्ल मार्क्स ने तीन तत्वों को मिलाया- जर्मन दर्शन, फ्रांसीसी राजनीतिक विचार व इंग्लिश अर्थशास्त्र|”
कार्ल मार्क्स ने जर्मन दर्शन से हीगल से द्वंदवाद तथा फ्यूरेबेक (फायरबाख) से भौतिकवाद लिया है| फ्यूरेबेक (फायरबाख) से भौतिकवाद के अलावा नास्तिकता व धर्म र्विरोध का विचार भी लिया|
कार्ल मार्क्स “फ्यूरेबेक का भौतिकवाद भद्दा भौतिकवाद है|”
हीगल से कार्ल मार्क्स ने यह विचार ग्रहण किया है कि इतिहास का निरंतर और युक्तियुक्त विकास हो रहा है|
कार्ल मार्क्स और हीगल दोनों ने इतिहास की व्याख्या द्वंदात्मक पद्धति से की है, लेकिन हीगल का इतिहास का वर्णन आदर्शात्मक है तथा कार्ल मार्क्स का इतिहास का वर्णन भौतिक है अर्थात आर्थिक शक्तियों द्वारा इतिहास का वर्णन|
कार्ल मार्क्स पर फ्रांसीसी समाजवाद का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा है| जिसमें केबेट, सेंट साइमन, प्रोधां शामिल है|
कार्ल मार्क्स ने फ्रांसीसी राजनीति से क्रांतिकारी परंपरा व रेडिकल परिवर्तन का विचार लिया|
कार्ल मार्क्स, केबेट के साम्यवाद से प्रभावित था, इसी कारण ब्रुसेल्स में स्थापित कम्युनिस्ट लीग को समाजवादी की अपेक्षा साम्यवादी कहना अधिक उपयुक्त समझा|
सेंट साइमन ने श्रम के महत्व को स्पष्ट किया था और कहा था कि श्रम करने वाले को ही जीवित रहने का अधिकार है| इसी के आधार पर कार्ल मार्क्स ने वर्ग विहीन समाज की स्थापना का सिद्धांत दिया था|
प्रोधां के ग्रंथ ‘Philosophy of Poverty’ के प्रत्युत्तर में कार्ल मार्क्स ने ‘Poverty of Philosophy’ ग्रंथ की रचना की जिसका उद्देश्य तत्कालीन जर्मन विचारधारा को क्रांतिकारी स्वरूप देना था|
मार्क्स पर ब्रिटिश समाजवादी और अर्थशास्त्रियों ने भी बड़ा प्रभाव डाला था|
कार्ल मार्क्स ने ब्रिटिश परंपरागत अर्थशास्त्रियों की रचनाओं से पूंजीवाद व औद्योगिक क्रांति का विचार ग्रहण किया|
थॉमसन, होंगसकीन व अन्य ब्रिटिश समाजवादियों ने श्रम को मूल्य का एकमात्र स्रोत बताया| इस धारणा का प्रभाव कार्ल मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत पर स्पष्ट दिखाई देता है|
“दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ” का जो नारा कार्ल मार्क्स ने दिया था, ये शब्द कार्ल शैपर के हैं|
“प्रत्येक को उसकी क्षमता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार” का यह सूत्र कार्ल मार्क्स ने प्रौंधा से लिया है|
कार्ल मार्क्स के क्रांति संबंधी विचार तथा राज्य संबंधी विचार फ्रांस की क्रांति से प्रभावित है|
कार्ल मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का सिद्धांत ऑगस्टीन थियरे से लिया है|
कार्ल मार्क्स ने साम्यवाद शब्द केबेट से लिया है| “श्रम सिर्फ गरीब की संपत्ति होती है” यह विचार कार्ल मार्क्स ने केबेट लिया है|
ग्रे के अनुसार “सामान्य व्यक्ति के लिए मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत रिकार्डो के मूल्य सिद्धांत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है|”
प्रो.लास्की “कार्ल मार्क्स ने साम्यवाद को अस्त- व्यस्त स्थिति में पाया और उसे एक आंदोलन का रूप दे दिया| उसके द्वारा साम्यवाद को एक दर्शन मिला और एक दिशा मिली|”
मार्क्स का वैज्ञानिक समाजवाद-
मार्क्स से पहले भी कुछ फ्रांसीसी और ब्रिटिश विचारक भी समाजवाद पर चर्चा कर चुके थे| जिनमें प्रमुख निम्न है- फ्रांस में नायल बाबेफ, सेंट साइमन, चार्ल्स फोरियर, लुइ ब्लांक तथा इंग्लैंड में जॉन दि सिसमंडी, डॉ. हाल, विलियम थॉमसन और रॉबर्ट ओवन|
ये विचारक पूंजीवादी व्यवस्था में विद्यमान धन की विषमता, स्वतंत्र प्रतियोगिता, और आर्थिक क्षेत्र में राज्य की अहस्तक्षेप नीति के कटु आलोचक थे|
इन्होंने विषमता की तो बात की, लेकिन यह विषमता क्यों आई इसका वर्णन नहीं किया| इसलिए कार्ल मार्क्स ने अपने से पूर्व के समाजवादियों को स्वपनलौकिय समाजवादी कहा है|
काल्पनिक समाजवादी (Utopian Socialist) शब्द का पहली बार प्रयोग फ्रांसीसी अर्थशास्त्री जेरोम ब्लांकी (Jerome Blanqui) ने अपनी पुस्तक History of Political Economy में किया था|
मार्क्स के समाजवाद को वैज्ञानिक समाजवाद तथा सर्वहारा समाजवाद कहा जाता है|
मार्क्स का समाजवाद वैज्ञानिक इसलिए है कि यह इतिहास की भौतिक व्याख्या पर आधारित है|
C.E.M जोड़ “कार्ल मार्क्स वास्तविक रूप में समाजवाद के पिता है|”
कैटलिन “मार्क्स का क्रांतिकारी कदम वर्ग संघर्ष पर स्थित है| वर्ग संघर्ष अतिरिक्त मूल्यों के आर्थिक सिद्धांतों पर, आर्थिक सिद्धांत इतिहास की आर्थिक व्याख्या पर, आर्थिक व्याख्या मार्क्स- हीगल के द्वंदात्मक पर और द्वंदात्मक, भौतिकवादी आध्यात्मिक विद्या पर स्थित है|”
कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद के चार आधार स्तंभ है-
द्वंदात्मक भौतिकवाद
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत
अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत
द्वंदात्मक भौतिकवाद-
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत मार्क्सवाद का दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है|
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद शब्द प्लेखानोव द्वारा गढ़ा गया|
द्वंदात्मक भौतिकवाद में दो शब्द हैं-
द्वंदात्मक- यह उस प्रक्रिया को स्पष्ट करता है, जिसके अनुसार सृष्टि का विकास हो रहा है|
भौतिकवाद- यह सृष्टि के मूल तत्व या सार तत्व (Essence) को सूचित करता है, भौतिकवाद के अनुसार सृष्टि का सार तत्व जड़ पदार्थ (Matter) है|
द्वंदवाद-
द्वंद्ववाद पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग सुकरात के संवादो में हुआ है|
द्वंदवाद हेगेलवादी दर्शन का मुख्य विचार है|
एंजेल्स ने इसके उदय का श्रेय हेराक्लिटस को दिया है| हेराक्लिटस ने कहा है कि “हर चीज है भी और नहीं भी, हर चीज में बहाव होता है, उसमें लगातार परिवर्तन होता है, वह लगातार उदित होती है और अस्त होती है| सब कुछ बढ़ता रहता है, कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है|”
हेगेल ने इस सिद्धांत का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया| हेगेल ने द्वंद्ववाद को इतिहास की प्रक्रिया और विकास पर लागू किया है|
कार्ल मार्क्स हेगेल की इस बात से सहमत है कि निरंतर गति व परिवर्तन द्वंदवाद के कारण होता है| लेकिन कार्ल मार्क्स ने आदर्श के बजाय वास्तविक, मानसिक के बजाय सामाजिक और मन के बजाय पदार्थ पर जोर दिया है|
कार्ल मार्क्स का मुख्य विचार दर्शन का इतिहास नहीं है, बल्कि आर्थिक उत्पादन का इतिहास है|
भौतिकवाद-
भौतिकवाद के आरंभिक संकेत प्राचीन यूनानी दार्शनिक डेमोक्रेट्स और एपिक्यूरस के चिंतन में मिलते हैं| इनके मत में प्राकृतिक प्रक्रियाएं और मानवीय अनुभव रिक्त स्थान में निर्विकार परमाणुओं या अविभाज्य पदार्थ- कणो की व्यवस्था और पुन: व्यवस्था की अभिव्यक्ति मात्र है|
17वीं सदी में थॉमस हॉब्स ने यांत्रिक भौतिकवाद का सिद्धांत दिया| हॉब्स के मत में सारी सजीव वस्तुएं प्राकृतिक यंत्र है और सामाजिक संस्थाएं कृत्रिम प्राणियों के समान है|
मार्क्स का संपूर्ण राजनीतिक दर्शन द्वंदात्मक भौतिकवाद पर आधारित है|
कार्ल मार्क्स ने आर्थिक उत्पादन एवं विनिमय वाले सामाजिक तथा भौतिक विश्व पर द्वंद्ववाद लागू किया है|
यद्यपि मार्क्स का द्वंदात्मक भौतिकवाद, हीगल के द्वंदवाद पर आधारित है, लेकिन हीगल के द्वंदवाद को मार्क्स ने बिल्कुल उलट दिया| इस संबंध में मार्क्स कहता है कि “मैंने हीगल के द्वंदात्मक को, जो सिर के बल खड़ा था, उसे पैर के बल खड़ा कर दिया|”
जहा हीगल के द्वंद्ववाद का आधार चिंतन या विचार है, वही मार्क्स के द्वंद्ववाद का आधार भौतिक पदार्थ है
मार्क्स के अनुसार भौतिक जगत की वस्तुएं तथा घटनाएं परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रहती है| भौतिक जगत में परिवर्तन होता है तथा परिवर्तन से भौतिक जगत का विकास होता है, यह विकास द्वंद की वजह से होता है| तथा इस द्वंद के तीन अंग होते हैं-
वाद
प्रतिवाद
संश्लेषण या संवाद|
कार्ल मार्क्स के अनुसार वाद समाज की एक साधारण स्थिति है, जिसमें कोई अंतर्विरोध नहीं पाया जाता है| थोड़े समय बाद वाद से असंतुष्ट होकर उसकी प्रतिक्रिया के स्वरूप प्रतिवाद उत्पन्न हो जाता है| वाद और प्रतिवाद में अंतर्विरोध के फलस्वरुप एक समझौता हो जाता है, इससे नए विचार संवाद या संश्लेषण की उत्पत्ति होती है| बाद में यह संश्लेषण भी वाद बन जाता है और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है|
गेहूं का दाना वाद, अंकुरण प्रतिवाद, फिर बाली से अनेक दानों का निकलना संवाद होता है|
पूंजीवाद वाद है, सर्वहारा वर्ग का अधिनायक तंत्र प्रतिवाद है, तथा साम्यवाद की स्थापना संवाद है|
इस प्रकार मार्क्स का भौतिक द्वंदवाद, विकासवाद का सिद्धांत है| |
मार्क्स के अनुसार भौतिक पदार्थ स्वतः ही गतिशील होते हैं| मार्क्स के शब्दों में “पदार्थ जो हमें बाहर से हमें जड़ या स्थिर दिखाई देता है, वे स्थिर न होकर अपनी सक्रिय प्रकृति के कारण गतिशील होते है|” उसकी यह गतिशीलता ही उसे उर्ध्वमुखी परिवर्तनशीलता की ओर ले जाती है|”
Note- मार्क्स पदार्थ को सक्रिय मानते हैं, जो अपने आंतरिक द्वंद से अपने आप परिवर्तित होता है, जबकि हॉब्स पदार्थ को निष्क्रिय मानते हैं, जिसे बदलने के लिए बाह्य प्रेरणा व दबाव आवश्यक होता है|
मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की निम्न विशेषताएं हैं-
संपूर्ण विश्व में प्राकृतिक एकता है-
मार्क्स के मत में प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ एक दूसरे से संबंधित तथा परस्पर पर निर्भर है|
वस्तुओं की गतिशीलता-
प्रकृति का प्रत्येक कण रेत के छोटे कण से लेकर सूर्य पिंड तक सभी गतिशील है और उसने परिवर्तन होता रहता है|
वस्तुओं में परिवर्तन के प्रकार-
मार्क्स के मत में वस्तुओं में परिवर्तन मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों प्रकार का होता है| जैसे- गेहूं के एक दाने के अंकुर से कई दानों में बदलना मात्रात्मक परिवर्तन है तो पानी का बर्फ में बदलना गुणात्मक परिवर्तन है|
प्रकृति में यह परिवर्तन द्वंद के कारण होता है, अर्थात वाद, प्रतिवाद, संश्लेषण या संवाद|
क्रांतिकारी प्रक्रिया-
गुणात्मक परिवर्तन के आने को क्रांतिकारी प्रक्रिया माना जाता है| वस्तु में गुणात्मक परिवर्तन धीरे-धीरे न होकर शीघ्रता के साथ तथा अचानक होते हैं|
प्रत्येक वस्तु का आंतरिक विरोध होता है- प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष होते हैं- एक सकारात्मक तथा दूसरा नकारात्मक पक्ष| इन दोनों का निरंतर संघर्ष ही विकास क्रम है|
मार्क्स के अनुसार प्रत्येक नयी अवस्था अपनी पहली अवस्था से उन्नत होती है| मार्क्स के शब्दों में “इतिहास की प्रत्येक नयी अवस्था पिछली अवस्था से बेहतर है|”
इसलिए मार्क्सवाद को प्रगतिवादी सिद्धांत कहते हैं|
द्वंदात्मक भौतिकवाद की आलोचना
द्वंदात्मक भौतिकवाद की निम्न आलोचनाएं की जाती है-
वेपर “द्वंदात्मक की धारणा अत्यंत गूढ़ एवं अस्पष्ट है, इसको मार्क्स ने कहीं भी स्पष्ट नहीं किया है|”
लेनिन “हीगल के आदर्शवाद का अध्ययन किए बिना मार्क्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद को नहीं समझा जा सकता|”
सेबाइन ने आलोचनात्मक रूप में मार्क्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद को नैतिक स्वच्छंदतावाद कहा है|
संघर्ष को विश्वव्यापी नियम अथवा ऐतिहासिक विकास का आधार मानना अनूपयुक्त है|
केर्युहंट “द्वंद्ववाद यद्यपि हमें मानव विकास के इतिहास में मूल्यवान क्रांतियों का दिग्दर्शन कराता है तथापि मार्क्स का यह दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता कि सत्य का अनुसंधान करने के लिए यही एकमात्र पद्धति है|
विकास का आधार केवल भौतिक शक्तियों को मानना उपयुक्त नहीं है|
मार्क्स जीवन के केवल एक पक्ष आर्थिक पक्ष पर ही बल देता है|
हेगेल व कार्ल मार्क्स के द्वंदवाद में अंतर-
हेगेल एक आदर्शवादी था, उसके द्वंदवाद का आधार चेतना या आत्मा या विचार या आध्यात्मिक था| जबकि कार्ल मार्क्स यथार्थवादी था, उसके विचार का आधार भौतिक पदार्थ था|
हेगेल की दृष्टि में इतिहास ‘एक देवी आयोजन के द्वारा विश्व आत्मा की क्रमिक अभिव्यक्ति’ है| कार्ल मार्क्स ने विश्व आत्मा के विचार को काल्पनिक कहा है तथा उसके स्थान पर विशुद्ध भौतिक तत्व की महत्ता की स्थापना की है|
हेगेल के मत में राष्ट्रों के मध्य संघर्ष होता है, जबकि मार्क्स के मत में वर्गों के मध्य संघर्ष होता है|
हेगेल और कार्ल मार्क्स दोनों यह स्वीकार करते हैं कि जब तक सामाजिक विकास अपने चरम लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाता, तब तक प्रत्येक सामाजिक अवस्था अस्थिर होती है| हेगेल के मत में अंतिम विकास या चरम लक्ष्य (संवाद) राष्ट्र-राज्य की स्थापना है, जबकि कार्ल मार्क्स के मत में अंतिम विकास (संवाद) तर्कसंगत उत्पादन प्रणाली (Rational Mode of Production) अर्थात वर्ग विहीन, राज्य विहीन साम्यवाद की स्थापना है|
हेगेल के द्वंदात्मक चेतनवाद का खंडन करते हुए मार्क्स ने तर्क दिया की जड़ तत्व की उत्पत्ति चेतन तत्व से नहीं होती है, बल्कि चेतना स्वयं जड़ तत्व के विकास की एक अवस्था है| मार्क्स “मानवीय चेतना उसके सामाजिक अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती है, इसके विपरीत उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना का निर्धारण करता है|”
एंजेल्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के तीन बुनियादी नियम बताए हैं-
परिणाम से गुण की और परिवर्तन (Transformation of Quantity to Quality)-
मात्रा में परिवर्तन से वस्तुओं के गुण में परिवर्तन होना|
जैसे- पानी का बर्फ में बदलना अर्थात जब पानी को जब लगातार ठंडा किया जाता है अर्थात तापमान की मात्रा में परिवर्तन किया जाता है, तो पानी बर्फ में बदल जाता है अर्थात उसके गुण में परिवर्तन हो जाता है|
परस्पर विरोधी तत्वों की अंतर व्याप्ति (Interpenetration of Opposite)-
प्रत्येक वस्तुओं में दो परस्पर विरोधी गुण या तत्व एक साथ जुड़े रहते हैं|
जैसे लोहे में कठोरता के साथ कोमलता भी पाई जाती है, जिसके कारण उसे मन चाहे आकार में ढाल सकते हैं|
निषेध का निषेध (Negation of Negation)-
द्वंद्ववाद की प्रक्रिया में कोई भी तत्व अपने विरोधी तत्व से टकराकर अपनी आरंभिक अवस्था में वापस नहीं पहुंचता है, बल्कि वाद और प्रतिवाद के संघर्ष से नए तत्व संवाद का आविर्भाव होता है तथा संवाद वाद की तुलना में उन्नत होता है|
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या-
ऐतिहासिक भौतिकवाद, द्वंदात्मक भौतिकवाद का पूरक सिद्धांत है, जहां द्वंदात्मक भौतिकवाद मार्क्सवाद का दार्शनिक आधार है तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद अनुभवमूलक आधार है|
इतिहास की भौतिक या आर्थिक व्याख्या कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक A Critique of Political Economy में की है|
मार्क्स ने द्वंदात्मक भौतिकवाद के द्वारा इतिहास व सामाजिक विकास की व्याख्या की है| इसी को ऐतिहासिक भौतिकवाद या इतिहास की भौतिकतावादी व्याख्या या इतिहास की आर्थिक व्याख्या या आर्थिक नियतिवाद या आर्थिक निर्धारणवाद कहते हैं|
वेपर ने कहा है कि “मार्क्स के सिद्धांत का नाम इतिहास की आर्थिक व्याख्या होना चाहिए था, क्योंकि इतिहास में सामाजिक परिवर्तन मार्क्स के अनुसार आर्थिक कारणों से होता है|”
इस सिद्धांत को आर्थिक नियतिवाद भी कहते हैं, क्योंकि मार्क्स के अनुसार मनुष्य पूर्ण रूप से आर्थिक शक्तियों का दास होता है तथा मनुष्य कार्य आर्थिक या भौतिक कारण से करता है|
इस सिद्धांत के अनुसार इतिहास के किसी भी युग में समाज के आर्थिक संबंध समाज की प्रगति का रास्ता तैयार करते हैं तथा आर्थिक संबंध राजनीतिक, कानूनी, सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक संबंधों का स्वरूप निर्धारित करते हैं|
कार्ल मार्क्स “सभी सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक संबंध, सभी धार्मिक तथा कानूनी पद्धतियां, सभी बौद्धिक दृष्टिकोण जो इतिहास के विकास क्रम में जन्म लेते हैं, वे सब जीवन की भौतिक अवस्थाओं (आर्थिक संबंधो) से उत्पन्न होते हैं|”
मार्क्स के अनुसार जो भौतिक अवस्थाएं हैं, वे वास्तव में उत्पादन शक्तियां हैं| उत्पादन शक्तियों में तीन चीजें शामिल हैं-
प्राकृतिक साधन- भूमि, जलवायु, भूमि की उर्वरा शक्ति, खनिज पदार्थ, जल, विधुत शक्ति आदि|
मशीन, यंत्र एवं अतीत की विरासत में मिली हुई उत्पादन कला
युग विशेष में मनुष्य के मानसिक तथा नैतिक गुण|
मार्क्स के अनुसार प्रत्येक देश की राजनीतिक संस्थाएं, उद्योग, व्यापार और कला, दर्शन और रीतियां, आचरण, परंपराएं, नियम, धर्म और नैतिकता भौतिक अवस्थाओं से निर्धारित होती है|
मार्क्स के मत में भौतिक अवस्थाओं का आश्य आर्थिक वातावरण, उत्पादन, वितरण और विनिमय है|
सामाजिक और राजनीतिक क्रांतियां जीवन की भौतिक अवस्थाओं में परिवर्तन के कारण होती है|
मार्क्स अपने ऐतिहासिक भौतिकवाद सिद्धांत को दो क्रांतियों पर लागू करता है-
भूतकाल की क्रांति- यह सामंतवादियों के विरुद्ध बुर्जुआ वर्ग की थी|
भविष्य की क्रांति- यह बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग की होगी, जो ‘समाजवादी कॉमनवेल्थ’ की स्थापना करेगी|
कार्ल मार्क्स “क्रांति सामाजिक परिवर्तन का अनिवार्य माध्यम है|”
मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद सिद्धांत का विश्लेषण निम्न बिंदुओं के द्वारा कर सकते हैं-
मानव क्रिया-कलापों (कार्यों) की आधारशिला उत्पादन प्रणाली है-
मार्क्स अपने सिद्धांत का प्रारंभ इस तथ्य से करता है कि मनुष्य को जीवित रहने के लिए भोजन की आवश्यकता है| अतः भोजन के उत्पादन के लिए कार्य करता है|
उत्पादन शक्तियां-
मार्क्स के अनुसार उत्पादन शक्तियां ऐतिहासिक विकास की निर्णायक आधार है| मार्क्स का कहना है कि “जीवन के भौतिक साधनों के उत्पादन की पद्धति सामाजिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया की स्थिति निर्धारित करती है|”
कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक ‘A critique of Political Economy’ की प्रस्तावना में लिखा है कि “मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना को निर्धारित करता है|”
मार्क्स के मत में सत्य, न्याय, प्रेम, मानवता, दानशीलता आदि अमूर्त धारणाएं सामाजिक या राजनीतिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी नहीं होती है, बल्कि भौतिक वस्तुएं उत्तरदायी होती हैं|
परिवर्तनशील उत्पादन शक्तियां या प्रणाली सामाजिक संबंधों को प्रभावित करती है-
मार्क्स के मत में यदि उत्पादन शक्तियों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक संबंधों में भी परिवर्तन होता है जैसे- हस्तचलित यंत्रों के युग में सामंतवादी समाज था तथा वाष्पशील युग में औद्योगिक पूंजीवादी समाज की स्थापना होती है|
उत्पादन एवं उत्पादन शक्तियों के विकास की द्वंदवादी भावना-
मार्क्स के मत द्वंद्ववाद के कारण ही उत्पादन शक्तियों का विकास होता है| उत्पादन की शक्तियों में तब तक परिवर्तन चलता है, तब तक उत्पादन की सर्वश्रेष्ठ अवस्था नहीं आ जाती|
वेपर के शब्दों में “यह एक आशावादी सिद्धांत है, जो मानव की उत्तरोत्तर प्रगति में विश्वास रखता है, जिसमें अंतिम रूप से मानव की विजय होती है|”
आर्थिक व्यवस्था और धर्म-
मार्क्स के अनुसार “धर्म दोषपूर्ण आर्थिक व्यवस्था का प्रतिबिंब मात्र है| धर्म अफीम के नशे के समान है, अर्थात मनुष्य धर्म के नशे में अपना दुख-दर्द भूल जाता है|
इतिहास का काल विभाजन-
मार्क्स उत्पादन संबंधों अथवा आर्थिक दशाओं के आधार पर इतिहास को 5 युगों में बांटता है-
आदिम साम्यवाद या प्राचीन साम्यवाद का युग- इसमें मनुष्य कंदमूल-फल व शिकार से जीवन निर्वाह करता था, कृषि, पशुपालन का ज्ञान नहीं था| समाज में वर्ग चेतना व वर्ग संघर्ष का अभाव था|
दास युग- इस युग में मनुष्य कृषि, पशु पालन शुरू कर देता है| व्यक्तिगत संपत्ति का उदय होने से समाज दो वर्गों में बट जाता है-
स्वामी वर्ग- जिसके पास भूमि का स्वामित्व होता है|
दास वर्ग- जो स्वामी वर्ग के सभी कार्य करता है तथा स्वामी का गुलाम होता है|
इसी युग में वर्ग संघर्ष का आरंभ हो जाता है, धनी निर्धन का शोषण करता है| वर्ग संघर्ष का कारण वर्ग चेतना है|
सामंतवादी युग- अब शासन राजाओं के हाथ में आ गया| राजाओं ने अपने अधीन सामंतों को भूमि प्रदान की, बदले में सामंत राजा को आर्थिक व सैनिक सहायता देते थे| छोटे-छोटे किसान सामंतों से भूमि लेकर खेती करते थे तथा बदले में लगान देते थे| किसानों को ‘सर्फ’ कहा जाता था| इस युग में सामंत व कृषक में वर्ग संघर्ष का था|
पूंजीवादी युग- सामंतवाद के बाद पूंजीवाद का विकास हुआ| समाज में दो वर्ग बन गए
संपत्ति शाली पूंजीपति वर्ग
संपत्ति विहीन श्रमिक वर्ग
पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण किया गया अतः इन दोनों वर्गों में वर्ग संघर्ष हुआ|
समाजवादी संक्रमणशील युग या श्रमिक वर्ग (सर्वहारा वर्ग) के अधिनायक तंत्र का संक्रमणशील युग-
सर्वहारा का अधिनायकवाद का प्रयोग कार्ल मार्क्स ने अपनी कृतियां ‘दास कैपिटल’ ‘सिविल वार इन फ्रांस’ व ‘क्रिटिक ऑफ गोथा प्रोग्राम’ में किया है|
पूंजीपतियों के शोषण से परेशान श्रमिक वर्ग क्रांति करेंगा, जिसमें पूंजीपतियों की हार व श्रमिकों की विजय होगी| इस संघर्ष में पूंजीपति वाद, श्रमिक प्रतिवाद तथा इनके संश्लेषण से वर्ग विहीन समाज का जन्म होगा|
किंतु इस आदर्श स्थिति से पहले एक संक्रमणशील युग आएगा, जिसमें श्रमिक वर्ग (सर्वहारा वर्ग) का अधिनायक तंत्र स्थापित होगा| यह अधिनायक तंत्र पूंजीपतियों का नाश कर देगा| अर्थात समाजवादी युग में राज्य विद्यमान रहता है|
इस संक्रमणशील युग में सर्वहारा व बुजुर्वा वर्ग विद्यमान रहता है| वर्ग विभेद व वर्ग शोषण भी रहता है| सर्वहारा वर्ग, पूंजीपतियों का शोषण करता है|
लेनिन इसको समाजवादी स्थिति कहता है|
Note- कार्ल मार्क्स ने पेरिस कम्यून को आधुनिक औद्योगिक सर्वहारा का प्रथम महत्वपूर्ण विद्रोह माना है|
जर्मन विचारक बर्नस्टाइन ने सर्वहारा अधिनायकवाद को बर्बर व आराधनावादी बताया है, जो घटिया सभ्यता व संस्कृति का हिस्सा था| उन्होंने मार्क्सवाद में संशोधन करते हुए अधिनायकवाद की जगह प्रतिनिधिक लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य का समर्थन किया है|
बाकुनिन “सर्वहारा की तानाशाही, अंतत: सर्वहारा पर तानाशाही है|”
साम्यवादी युग-
पूंजीपतियों की समाप्ति के बाद में सर्वहारा के अधिनायक तंत्र की समाप्ति हो जाएगी और एक वर्गविहीन समाज की स्थापना होगी|
इस वर्गविहीन आदर्श समाज में राज्य का लोप हो जाएगा, क्योंकि वर्ग संघर्ष समाप्ति के बाद राज्य की आवश्यकता नहीं होगी|
इस वर्गविहीन और राज्य विहीन समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार कार्य करेगा तथा आवश्यकतानुसार प्राप्त करेगा| (क्रिटिक ऑफ गोथा प्रोग्राम में उल्लेख)
इस आदर्श समाज में केवल एक वर्ग श्रमिक वर्ग होगा|
कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखा है कि “साम्यवादी समाज, वर्ग एवं वर्ग संघर्ष से मुक्त एक ऐसा संघ होगा, जिसमें हरेक के मुक्त विकास की शर्त सभी के मुक्त विकास पर लागू होगी|”
Note- एंगेल्स (एंजिल्स) कहते हैं कि “राज्य खत्म नहीं किया जाएगा, वरन विलुप्त हो जाएगा| हासिये, हथोड़े की भांति राज्य अजायबघर में चला जाएगा|”
साम्यवाद के उदय से पहले सामाजिक विकास की सब अवस्थाओं में मनुष्य प्रकृति के निर्विकार नियमों से बंधा रहता है अतः वह विवश होता है, परंतु साम्यवाद की स्थापना हो जाने पर वह इन बंधनों से मुक्त होकर अपने जीवन और समाज को मनचाहा रूप देने के लिए स्वतंत्र हो जाता है|
साम्यवादी समाज की स्थापना ऐसे परिवर्तन का संकेत देगी, जिसमें मनुष्य विवशता लोक (Kingdom of Necessity) से निकलकर स्वतंत्रता लोक (Kingdom of Freedom) में प्रवेश करेगा|
जहां समाजवाद में प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करेगा और कार्य के अनुसार प्राप्त करेगा, परंतु साम्यवाद के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करेगा और अपनी आवश्यकता के अनुसार प्राप्त करेगा|
मानव इतिहास की कुंजी वर्ग संघर्ष है- मार्क्स के इतिहास के काल विभाजन से स्पष्ट है कि समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है|
आधार व अधिसंरचना का रूपक-
मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या के लिए आधार व अधिसंरचना भवन निर्माण से मिलता-जुलता रूपक है|
यहां उत्पादन प्रणाली या समाज की आर्थिक संरचना समाज का आधार या नींव है तथा समाज के कानूनी और राजनीतिक ढांचे तथा सामाजिक चेतना की विभिन्न अभिव्यक्तियां अधिसंरचना है| जैसे- धर्म, नैतिक आदर्श, सामाजिक प्रथाएं, साहित्य, कला, संस्कृति आदि|
समाज का आधार-
उत्पादन प्रणाली (Mode of Production) या समाज की आर्थिक संरचना आधार है|
इसमें दो चीज शामिल है-
उत्पादन शक्तियां (Force of Production)- इसमें दो बातें शामिल है, 1 उत्पादन के साधन (यंत्र और उपकरण) 2 श्रम शक्ति (मानवीय ज्ञान और निपुणताएं)
उत्पादन संबंध- उत्पादन प्रक्रिया में मनुष्यो के संबंध जैसे- स्वामी और दास, जमींदार और किसान, पूंजीपति और श्रमिक
समाज की अधिसंरचना (Superstructure)-
समाज के कानूनी और राजनीतिक ढांचे तथा सामाजिक चेतना की विभिन्न अभिव्यक्तियां अधिसंरचना है|
जैसे- धर्म, नैतिक आदर्श, सामाजिक प्रथाएं, साहित्य, कला, संस्कृति आदि|
इस तर्क के अनुसार सामाजिक विकास के दौरान उत्पादन प्रणाली में जो परिवर्तन होते हैं, उसके परिणामस्वरुप अधिसंरचना में अपने आप परिवर्तन हो जाते हैं| अर्थात आर्थिक संबंध ही अन्य संबंधों को निर्धारित करते हैं|
अर्थात जब उत्पादन प्रणाली या आर्थिक संरचना में परिवर्तन आता है तो समाज के कानूनी, राजनीतिक, सामाजिक ढांचे अर्थात धर्म, नैतिक आदर्श, सामाजिक प्रथाएं, साहित्य, कला, संस्कृति आदि में अपने आप परिवर्तन आ जाता है|
ऐतिहासिक भौतिकवाद की मान्यता है कि उत्पादन की शक्तियों का विकास धीमे-धीमे होता है परंतु जब उनका स्वरूप पूरी तरह से बदल जाता है तब प्रचलित उत्पादन संबंध उन शक्तियो को संभालने में असमर्थ सिद्ध होते हैं तो ऐसी स्थिति में उत्पादन की शक्ति और उत्पादन संबंध में संघर्ष पैदा हो जाता है|
इस संघर्ष में उत्पादन शक्तियां पुराने उत्पादन संबंधो को समाप्त कर नए संबंधों को जन्म देती है|
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के निष्कर्ष-
इतिहास का अध्ययन मानव समाज के विकास के नियम जानने के लिए किया जाता है|
प्रकृति के विकास के नियमों की तरह समाज के विकास के भी कुछ नियम है|
सामाजिक जीवन में परिवर्तन आर्थिक कारणों से होता है|
किसी राष्ट्रीय समाज के विकास की प्रक्रिया में आर्थिक तत्व अर्थात वस्तुओं के उत्पादन, विनिमय और वितरण प्रणाली की भूमिका सबसे प्रधान होती है|
प्रत्येक युग की समस्त सामाजिक व्यवस्था पर उसी वर्ग का आधिपत्य होता है, जिसे उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व प्राप्त होता है|
जब उत्पादन की शक्ति में परिवर्तन होता है, तो सामाजिक संबंधों में परिवर्तन होता है|
वर्ग संघर्ष विकास की कुंजी है|
वर्ग संघर्ष का सिद्धांत-
मार्क्स अपना वर्ग संघर्ष का सिद्धांत अपनी पुस्तक communist Manifesto 1848 में प्रस्तुत करता है|
कार्ल मार्क्स ने वर्ग संघर्ष का सिद्धांत ऑगस्टीन थियरे से लिया है|
मार्क्स का वर्ग संघर्ष सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद का ही एक अंग या पूरक है|
यह मार्क्सवाद का समाजवैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करता है|
मार्क्स समाज की मुख्य इकाई वर्ग को मानता है|
वर्ग का तात्पर्य- कार्ल मार्क्स के मत में जिस समूह के आर्थिक हित एक समान हो उसे वर्ग कहते हैं|
संघर्ष का तात्पर्य- कार्ल मार्क्स के मत में संघर्ष का तात्पर्य लड़ाई नहीं है, बल्कि इसका व्यापक अर्थ है| जैसे- असंतोष, रोष, आंशिक असहयोग, हड़ताल|
द जर्मन आईडियोलॉजी में मार्क्स ने लिखा है कि “वर्ग अपने आप में बुर्जुआ समाज की उपज है|”
Manifesto का आरंभ इस कथन से होता है कि “आज तक के संपूर्ण समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है|
मार्क्स ने दास कैपिटल के खंड 3 (1894) में उल्लेखित किया है कि आदिम साम्यवाद के बाद जो भी व्यवस्थाएं आई, उन सब में समाज दो वर्गों में विभक्त था-
शोषक वर्ग (उत्पादन का स्वामी)- जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व होता है|
शोषित वर्ग (उत्पादन करता)- जो केवल शारीरिक श्रम से उत्पादन करता है|
ये दोनों वर्ग आपस में संघर्षरत रहते है|
वर्ग संघर्ष में शोषित वर्ग, शोषक वर्ग का विरोध करता है, जिसमें समाज में परिवर्तन होता है|
वर्ग संघर्ष का कारण वर्ग चेतना है, क्योंकि जब शोषित वर्ग में वर्ग चेतना जागृत होती है, तो वह शोषक वर्ग के विरुद्ध संघर्ष करता है|
मार्क्स के मत में वर्ग संघर्ष का इतिहास ही मानव जाति का इतिहास है|
मार्क्स ने पूंजीपति वर्ग को बुर्जुवा वर्ग तथा श्रमिक वर्ग को सर्वहारा वर्ग कहा है, जिनमें वर्ग संघर्ष होता है|
पूंजीवादी व्यवस्था में वर्ग चेतना अत्यंत प्रखर हो जाती है, वर्ग स्पष्टत: दो भागों में बँट जाते हैं तथा वर्ग संघर्ष अत्यंत तीव्र हो जाता है|
वर्ग संघर्ष के दौरान राज्य शोषित वर्ग का क्रूर दमन करता है|
कार्ल मार्क्स “मुक्त व्यक्ति और दास, पेट्रिशियन और प्लेबियन, मालिक और अर्द्ध-दास, गिल्ड मालिक और जर्नीमैन, एक शब्द में कहा जाए तो उत्पीड़क व उत्पीड़ित एक दूसरे से संघर्षरत रहे हैं|”
आधुनिक समाज में मार्क्स दो वर्गों की कल्पना करता है, जिसमें वर्ग संघर्ष रहता है-
व्यापारी वर्ग- नगरों में रहने वाले व्यापारी वर्ग, जो नागरिक और राजनीति स्वतंत्रता चाहता है|
औद्योगिक सर्वहारा वर्ग- नगरों में रहने वाला औद्योगिक सर्वहारा वर्ग, जो आर्थिक स्वतंत्रता चाहता है|
मार्क्स का कहना है कि “विश्व के मजदूरों एक हो जाओ| तुम्हारे पास खोने के लिए बेड़ियों के अलावा और कुछ नहीं है और पाने के लिए संसार पड़ा है|”
मार्क्स के मत में वर्ग संघर्ष तब तक जारी रहेगा, जब तक कामगार वर्ग समाज की बागडोर नहीं संभाल लेता है| कामगार वर्ग के बागडोर संभाल लेने के बाद उत्पादन के प्रमुख साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित हो जाएगा, सब लोग कामगार बन जाएंगे, तब समाज शोषण, उत्पीड़न, वर्ग भेद और वर्ग संघर्ष से मुक्त हो जाएगा|
उपरोक्त वर्णन का अर्थ यह नहीं है कि समाज में इन दो वर्गों के अलावा कोई मध्यम वर्ग नहीं था| मार्क्स और एंगेल्स का मत था कि पूंजीवादी युग में इन दो वर्गों के अलावा एक मध्यम वर्ग भी रहता है
एंगेल्स ने दास कैपिटल के खंड 3 के अंतिम अध्याय में लिखा कि ‘इंग्लैंड की वर्ग संरचना अत्यंत विकसित है, परंतु वहां भी मध्यवर्ती एवं संक्रांतिकालीन स्तर है|
लेकिन मार्क्स और एंगेल्स का मत है कि मध्यम वर्ग पूंजीवाद के विस्तार के साथ प्रतिस्पर्धात्मक अर्थव्यवस्था के कारण लुप्त हो जाएगा|
लेकिन बर्नस्टाइन व पोलांजे ने कहा है कि पूंजीवाद के विस्तार के साथ मध्य वर्ग लुप्त नहीं हो रहा है, बल्कि उसका आकार बढ़ रहा है|
वर्ग संघर्ष सिद्धांत की आलोचना-
मानव इतिहास संघर्ष का इतिहास नहीं है|
वर्ग की अस्पष्ट एवं दोषपूर्ण परिभाषा|
समाज में केवल दो ही वर्ग नहीं होते हैं|
मार्क्स की क्रांति संबंधित धारणा गलत सिद्ध हुई, क्योंकि श्रमजीवी क्रांति अभी तक नहीं हुई है|
मार्क्स की भविष्यवाणी का वैज्ञानिक आधार नहीं है| लास्की ने लिखा है कि “हो सकता है पूंजीवाद के विनाश का परिणाम साम्यवाद न हो, बल्कि अराजकता हो जिसमें से एक ऐसे अधिनायक तंत्र का जन्म हो सकता है जिसका कि सिद्धांत में साम्यवादी आदर्शों से कोई संबंध न हो|”
मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत-
मार्क्सवाद में अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत वर्ग संघर्ष का तार्किक आधार है|
मार्क्स अपनी पुस्तक ‘दास कैपिटल’ व Value, Price and Profit में अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत का विवेचन करता है|
यह मार्क्सवाद का आर्थिक आधार है|
इस सिद्धांत से मार्क्स ‘पूंजीवादी प्रणाली में पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण किस प्रकार किया जाता है, की व्याख्या करता है|
मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत पर रिकार्डो का प्रभाव पड़ा है| मार्क्स ने अर्थशास्त्र की मीमांसा की ‘अमूर्त पद्धति’ रिकार्डो से ग्रहण की है|
इस संबंध में वेपर का कथन है कि “मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत रिकार्डो के सिद्धांत का ही व्यापक रूप है, जिसके अनुसार किसी भी वस्तु का मूल्य उसमें निहित श्रम की मात्रा के अनुपात में होता है, बशर्त कि हैं यह श्रम उत्पादन की क्षमता के वर्तमान स्तर के तुल्य हो|”
सेबाइन ने अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत के महत्व में लिखा है कि “अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत एक ऐसा मूल तत्व है जो पूंजीवाद की ह्रदय हिला देने वाली विभीषिकाओ को उद्घाटित करता है| यह सिद्धांत इतना तर्कपूर्ण और ठोस है कि इसे चुनौती नहीं दी जा सकती और स्वीकार कर लेने पर पूंजीवाद की हम किसी भी आधार पर रक्षा नहीं कर सकते|”
मार्क्स के अनुसार वस्तुओं के दो तरह के मूल्य हो सकते हैं-
प्रयोग या उपयोग मूल्य- इसका अर्थ वस्तु की उपयोगिता से है| जैसे वायु, जल उपयोगी है, लेकिन इन पर मानव श्रम खर्च नहीं होता तो ऐसी वस्तु का प्रयोग मूल्य होगा |
विनिमय मूल्य- किसी वस्तु का विनिमय मूल्य तब होगा, जब उसमें मानव श्रम लग जाता है| जैसे- एक पंखे के निर्माण में मजदूर के श्रम का व्यय होता है|
Note- मार्क्स के मत में श्रम का माप उसकी अवधि से होता है|
मार्क्स के अनुसार उत्पादन के चार तत्व हैं- भूमि, श्रम, पूंजी और संगठन| इनमें से तीन तत्व भूमि, पूंजी और संगठन वास्तविक उत्पादन की कोई क्षमता नहीं रखते हैं, केवल श्रम ही ऐसा तत्व है जो समाज के लिए मूल्य का सृजन करता है| क्योंकि इन तीनों में जो कुछ लगाया जाता है ये उसी का पुनरुत्पादन मात्र करते हैं|
मार्क्स का कहता है कि प्रत्येक वस्तु का मूल्य उस पर लगे श्रम के अनुपात में होता है| यह श्रम (वेतन) श्रमिक को मिलता है, लेकिन यह वस्तु बाजार में श्रमिक के श्रम से ज्यादा कीमत पर बेची जाती है|
श्रमिक को प्राप्त श्रम तथा वस्तु की बाजार के कीमत के अंतर को ही मार्क्स अतिरिक्त मूल्य कहता है, जिसे बिना कुछ किए पूंजीपति बीच में हड़प जाता है|
अर्थात अतिरिक्त मूल्य उन दो मूल्यों का अंतर है जिन्हें एक मजदूर पैदा करता है और जिसे वह वास्तव में पाता है|
अतिरिक्त मूल्य को कार्ल मार्क्स ने ‘बेईमानी की कमाई’ भी कहा है|
उदाहरणार्थ- मजदूरी का लौह नियम के अनुसार दैनिक मजदूरी दर ₹5 है| कारखाने में काम करने वाला मजदूर उसे दी जाने वाले मजदूरी के मूल्य की वस्तु 4 घंटे में ही बना लेता है, किंतु कारखाने का मालिक उससे 8 घंटे काम लेता है| इस प्रकार मजदूर दिन भर में ₹10 के मूल्य की वस्तु उत्पादित करता है लेकिन उसको ₹5 ही मिलते हैं तथा ₹5 पूंजीपति की जेब में जाते हैं जो अतिरिक्त मूल्य है|
अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत में मार्क्स तीन नियमों का प्रतिपादन करता है-
पूंजी का संचय सिद्धांत- पूंजीपति सदैव पूंजी के संचय में लगे रहते हैं|
पूंजी के केंद्रीयकरण का सिद्धांत- पूंजी पर कुछ ही व्यापारियों का एकाधिकार होता है|
कष्टों की वृद्धि का सिद्धांत- पूंजीपति, श्रमिकों का शोषण करते हैं, जिससे उनके कष्टों में वृद्धि हो जाती है|
कार्ल मार्क्स “पूंजीवाद का इतिहास पूंजीपतियों द्वारा अधिशेष मूल्य को बढ़ाने के संघर्ष तथा श्रमिक वर्ग का इस वृद्धि के विरुद्ध प्रतिरोध का इतिहास है|”
अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत की आलोचना-
केवल श्रम ही उत्पादन और मूल्य का एकमात्र स्रोत नहीं है|
संपूर्ण अतिरिक्त मूल्य पूंजीपति का लाभ नहीं है- कार्ल मार्क्स अतिरिक्त मूल्य को पूंजीपति का लाभ मानता है, जबकि पूंजीपति को अनेक बातों के लिए धनराशि व्यय करनी पड़ती है| जैसे पूंजी का ब्याज, मशीनों की गिसावट, श्रमिकों की बीमारी, बीमा राशि आदि|
मानसिक श्रम की उपेक्षा|
यह सिद्धांत आर्थिक कम और श्रमिकों के शोषण का राजनीतिक प्रचारक अधिक है| मैक्स बियर “इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करना असंभव है, कि मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत एक आर्थिक सत्य होने के बजाय एक राजनीतिक और सामाजिक नारा है|”
कार्ल मार्क्स का मौलिक सिद्धांत नहीं है| कोकर “यह वास्तव में एक अंग्रेजी सिद्धांत था, जिसका प्रतिपादन 19 वीं सदी में सर विलियम पेंटी किया था| सेबाइन “अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत ब्रिटिश शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के श्रम सिद्धांत का विस्तार मात्र है|”
मार्क्स के पूंजीवाद पर विचार-
पूंजीवाद में व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से उत्पादन किया जाता है, न कि सामाजिक हित की दृष्टि से|
पूंजीवाद में विशाल उत्पादन तथा एकाधिकार की प्रवृत्ति पाई जाती है|
पूंजीवाद कृत्रिम आर्थिक संकटों का जन्मदाता है| जैसे-उत्पादित माल को नष्ट कर माल का कृत्रिम अभाव पैदा करता है|
पूंजीवाद में अतिरिक्त मूल्य पर पूंजीपतियों का अधिकार होता है|
पूंजीवाद में श्रमिक में वैयक्तिक चरित्र का लोप होकर उसका यंत्रीकरण हो जाता है| वह यंत्रों का दास बन जाता है|
पूंजीवाद श्रमिकों में असंतोष पैदा कर उन्हें एकता की ओर अग्रसर करता है|
पूंजीवाद अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक आंदोलन का जन्मदाता है|
पूंजीवाद का नाश निश्चित है|
कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में जहां एक तरफ पूंजीवाद का शोषणकारी व नकारात्मक पहलू पेश किया है, वहीं तीन कारणों के आधार पर इसकी प्रशंसा भी की है, जो निम्न है-
उत्पादन के साधनों व तकनीक में क्रांतिकारी परिवर्तन-
कार्ल मार्क्स ने लिखा है कि “पूंजीवाद की शानदार उपलब्धियों के सामने मिस्र के पिरामिड, रोमन की नहरें और गोथिक भवन फीके पड़ गए हैं| इसने ऐसे अभियान चलाए हैं, जिनके सामने राष्ट्रों के सारे प्रसार और धर्म युद्ध कुछ भी नहीं है|”
बहुराष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों का प्रचार-
राष्ट्रीय सीमाओं के पार कच्चे माल व बाजार की खोज से बहुराष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों का प्रसार होता है|
भौगोलिक सामीप्य व शहरी सभ्यता का विकास
मार्क्स का राज्य सिद्धांत-
राज्य की उत्पत्ति- मार्क्स के अनुसार राज्य की उत्पत्ति इतिहास प्रक्रिया में उस समय होती है, जब व्यक्तिगत संपत्ति की उत्पत्ति होती है तथा समाज संपत्तिवान तथा संपत्तिहीन दो परस्पर विरोधी हितों में बट जाता है| कार्ल मार्क्स समाज की इस अवस्था को दास युग कहता है|
राज्य उत्पत्ति का कारण- जब दास युग में स्वामी वर्ग अत्यधिक प्रभावशाली था, तो उसने अपनी संपत्ति की रक्षा तथा, दासो के दमन के लिए शक्ति का सहारा लिया तथा इस क्रिया द्वारा राज्य की उत्पत्ति हुई| अतः राज्य वर्ग संघर्ष से उत्पन्न संस्था है|
राज्य की प्रकृति- मार्क्स के मत में राज्य प्रकृति में एक वर्ग यंत्र या संस्था है, जिसका निर्माण शोषक वर्ग ने अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए किया, अतः राज्य एक शोषण का यंत्र है|
राज्य एक कृत्रिम संस्था है|
राज्य एक स्वायत्त संस्था नहीं है, बल्कि शोषक वर्ग के अधीन संस्था है|
प्रभुसत्ता- राज्य की प्रभुसत्ता वास्तव में शोषक वर्ग की प्रभुसत्ता है|
राज्य का उद्देश्य- राज्य का उद्देश्य शोषक वर्ग या पूंजीपति वर्ग के हितों की रक्षा करना है|
कार्ल मार्क्स के अनुसार इतिहास के किसी भी युग में पाई जाने वाली राज्य या राजव्यवस्था अपनी सामाजिक व्यवस्था के सापेक्ष होती है|
राज्य-विहीन समाज का उदय- मार्क्स के अनुसार राज्य स्थायी संस्था नहीं है| साम्यवाद में राज्य लुप्त हो जाएगा|
कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में कार्ल मार्क्स ने राज्य को पूंजीपतियों की कार्यसमिति कहा है|
कार्ल मार्क्स “बुजुर्वा लोकतंत्र अवसरानुकूल बुजुर्वा आतंक में बदल जाता हैं|”
Note- एंजिल्स के अनुसार राज्य “एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के दमन के लिए एक यंत्र मात्र है|”
धर्म संबंधी मार्क्स के विचार-
धर्म अफीम के समान है, जिसके नशे से व्यक्ति अपने दुख दर्द भूल जाता है|
धर्म पूंजीपतियों के द्वारा सर्वहारा के शोषण का आधार है|
धर्म वर्ग चेतना को खत्म करता है|
मार्क्स “धर्म पीड़ित लोगों की आह, बेदर्द दुनिया का दर्द तथा आत्मविहीन स्थितियों की आत्मा है| यह जनसाधारण के लिए अफीम है|”
Note- रेमंड आरा ने अपनी पुस्तक The Opinion of intellectuals में लिखा है कि “मार्क्सवाद बुद्धिजीवियों के लिए अफीम है|”
विचारधारा के संबंध में मार्क्स के विचार-
मार्क्स ने विचारधारा को मिथ्या चेतना कहा है|
मार्क्स “यह सर्वहारा के शोषण का आधार है| इसकी आवश्यकता पूंजीवादी समाज को है| सर्वहारा वर्ग को वर्ग चेतना की आवश्यकता है, न कि विचारधारा या मिथ्या चेतना की|”
Note- विचारधारा शब्द का सबसे पहले प्रयोग 1776 में विचारों के समूह के रूप में देसु द ट्रेसी ने किया था|
मार्क्स “विचारधारा उन विचारों का समुच्चय है, जिन्हें प्रभावशाली वर्ग अपने शासन की वैधता स्थापित करने के उद्देश्य से सारे समाज के लिए मान्य बना देता है|”
मार्क्स के अनुसार विचारधारा उन विचारों, विश्वासों व मूल्यों का समूह है, जो एक विशेष वर्ग के हितों को दर्शाते हैं| किसी भी समाज में प्रमुख मूल्य, विचार, विश्वास हमेशा शासक वर्ग के होते हैं, बाकि समाज के सदस्यों के लिए मिथ्या चेतना होते हैं|
विचारधारा विश्वास का विषय है, जो तर्क-वितर्क को समाप्त कर देती है|
उपनिवेशवाद पर मार्क्स के विचार-
मार्क्स ने अपनी रचना Grundrisse में एशियाई समाजों की आरंभिक रूपरेखा प्रस्तुत की है|
मार्क्स ने ‘एशियाटिक मोड ऑफ प्रोडक्शन’ (उत्पादन की एशियाई प्रणाली) के अंतर्गत गैर पूंजीवादी समाजो (गैर यूरोपीय समाजो) में पूंजीवाद के विकास का विश्लेषण किया है|
गैर यूरोपीय (गैर पूंजीवादी) विश्व के बारे में मार्क्स के विचार हेगेल के समान है|
मार्क्स ने गैर यूरोपीय देशों के लिए उत्पादन की एशियाई प्रणाली शब्दावली का प्रयोग किया है|
मार्क्स के मत में एशियाई समाज गतिहीन है| अतः एशियाई समाजों में पूंजीवाद लाने के लिए उन्होंने उपनिवेशवाद को एक सकारात्मक प्रगतिशील शक्ति माना है| उपनिवेशवाद इन देशों में औद्योगिकरण करेगा, जिससे पूंजीवाद आएगा तथा वर्ग संघर्ष होगा|
परंतु मार्क्स ने उपनिवेशवाद का समर्थन नहीं किया है|
भारत की गुलामी व ब्रिटिश उपनिवेशवाद को भी कार्ल मार्क्स ने उपयोगी माना है, क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद औद्योगिकीकरण, तकनीकी विकास, सामाजिक परिवर्तन व वर्ग विभेद पैदा करेगा, जिससे साम्यवादी क्रांति होगी|
पर घरेलू उद्योग व हस्तशिल्प नष्ट करने के कारण उसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद को विनाशकारी भी माना है|
कार्य संबंधी मार्क्स के विचार-
कार्ल मार्क्स “कार्य उतना ही जरूरी है, जितना कि खाना|”
कार्ल मार्क्स “मनुष्य को सोचने से पूर्व खाना चाहिए, खाने हेतु उत्पादन करना होगा और उत्पादन एक मूल कार्यकलाप है|”
मार्क्स के अनुसार मानव Homo faber अर्थात Toll Maker है| इसका तात्पर्य है कि मनुष्य अपनी योग्यता से अपने भाग्य का निर्धारण स्वयं कर सकते हैं, जिस प्रकार टूल मेकर वस्तुओं का निर्माण करता है|”
कार्ल मार्क्स के अनुसार श्रम शक्ति, श्रमिक के मस्तिष्क, मांसपेशियों व नसों के बराबर है|”
मार्क्स के अनुसार “मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता उसके श्रम करने की क्षमता है|”
सेबाइन “मार्क्सवाद ऐसा यूटोपिया (आदर्शलोक) है, जो उदार व मानवीय है|”
मार्क्स के विचारों की धाराएं-
मार्क्स के विचारों की दो धाराएं हैं-
चिरसम्मत मार्क्सवाद या वैज्ञानिक समाजवाद
मार्क्स का मानवतावादी चिंतन
चिरसम्मत मार्क्सवाद का संबंध प्रौढ़ मार्क्स के विचारों से है, जबकि मार्क्स के मानवतावादी चिंतन का संबंध तरुण या युवा मार्क्स के विचारों से है|
युवा मार्क्स व प्रौढ़ मार्क्स के विचारों में अंतर पाया जाता है| लुई अल्थूजर तथा मैक्लेनन ने दो प्रकार के मार्क्स माना है- 1 युवा मार्क्स 2 प्रौढ़ मार्क्स|
मैक्लेनन के अनुसार युवा मार्क्स एवं प्रौढ़ मार्क्स दोनों समान है|
अल्थ्यूसर ने अपनी रचना फॉर मार्क्स में ज्ञान मीमांसीय अंतराल (Epistemological Break) अवधारणा के तहत युवा मार्क्स और प्रौढ़ मार्क्स में अंतर स्थापित किया है| युवा मार्क्स में व्यक्ति मुख्य है एवं प्रौढ़ मार्क्स में वर्ग प्रधान है|
युवा मार्क्स (मार्क्स का मानवतावादी चिंतन)-
मार्क्स का मानवतावादी चिंतन या युवामार्क्स के विचार हमें उनकी रचना ‘आर्थिक व दार्शनिक पांडुलिपिया (Economic and Philosophical Manuscript) या पेरिस पांडुलिपिया ’ (1844) में मिलते हैं|
मार्क्स का मानवतावादी चिंतन या युवा मार्क्स के विचार अलगाव, मानव प्रकृति, नैतिकता व स्वतंत्रता से संबंधित है, अर्थात मानवतावादी चिंतन या प्रकृतिवादी चिंतन मिलता है|
युवा मार्क्स के विचार नव मार्क्सवाद के आधार है|
प्रौढ़ मार्क्स (चिरसम्मत मार्क्सवाद)-
चिरसम्मत मार्क्सवाद मार्क्स के वैज्ञानिक चिंतन की देन है
चिरसम्मत मार्क्सवाद या प्रौढ़ मार्क्स के विचार कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो व उसकी बाद की रचनाओं में मिलते हैं|
चिरसम्मत मार्क्सवाद या प्रौढ़ मार्क्स के विचार वैज्ञानिक समाजवाद, सर्वहारा क्रांति, वर्ग संघर्ष, वर्ग चेतना, बुर्जुवा शोषण का अंत, आर्थिक सिद्धांतों से संबंधित है, अर्थात वैज्ञानिक चिंतन मिलता है|
ये विचार वैज्ञानिक समाजवाद के आधार है|
Grundrisse व Critique of Political Economy आदि रचनाएं युवा व प्रौढ़ मार्क्स के विचारों के बीच पुल का कार्य करती है|
युवा मार्क्स के विचार या मार्क्स का मानवतावादी चिंतन-
युवा काल में मार्क्स मानवतावादी, प्रकृति प्रेमी, स्वतंत्रता प्रेमी था|
युवा मार्क्स के अनुसार साम्यवाद का अर्थ है, निजी संपत्ति और मानवीय परायेपन या अलगाव का नितांत उन्मूलन और स्वयं मानव के लिए मानवीय प्रकृति का यथार्थ विनियोजन|
साम्यवाद पूर्ण विकसित प्रकृतिवाद के रूप में मानववाद है और पूर्ण विकसित मानववाद के रूप में प्रकृतिवाद है|
प्रकृतिवाद- वह स्थिति, जब मनुष्य स्वयं प्रकृति का हिस्सा है तथा प्रकृति के निर्विकार नियमों से बंधा रहता है|
मानववाद- वह स्थिति, जब मनुष्य भौतिक प्रकृति और सामाजिक जीवन के नियमों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है और मनुष्य प्रकृति का दास नहीं रह जाता है, बल्कि अपने नियति का नियंता बन जाता है|
पेरिस पांडुलिपि 1844 में मार्क्स ने पूंजीवाद में मानव की खोई स्वतंत्रता को वापस लाने के लिए निजी संपत्ति के उन्मूलन का समर्थन किया है|
जॉन लुइस (मार्क्सिज्म एन्ड द ओपन माइंड 1976) “मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष की वकालत नहीं करते हैं, बल्कि उसके अस्तित्व को मान्यता देते हैं, उसे जारी नहीं रखना चाहते हैं, बल्कि उनका उद्देश्य इसका अंत कर देना है |”
जॉन लुइस “मार्क्सवाद मानववाद का उच्चतम विकास है| यह एक ऐसी अवस्था है, जिसमें मानवीय उन्नति और मानवीय पराधीनता के बीच युगों पुराने अंतर्विरोध का समाधान हो जाता है| यह उत्पीड़िक वर्ग का अंतिम विद्रोह है| विद्रोह का लक्ष्य मनुष्य की खोई मानवता को ढूंढ निकालना है|”
मार्क्स ने औद्योगिक युग की दो विशेषताएं बताइ है-
प्रौद्योगिकी उन्नति- यह मानव मुक्ति का साधन है| अत: इसका विकास जरूरी है|
पूंजीवादी व्यवस्था- यह बंधन का स्रोत है| अत: इसका विनाश जरूरी है|
अलगाव का सिद्धांत (Entfremdung theory/ एन्टफ्रेमडंग सिद्धांत) (Concept of Alienation )-
अलगाववाद से अभिप्राय व्यक्ति की उस स्थिति से है, जब वह पूंजी तथा संपत्ति के निजी स्वामित्व से पंनपी परिस्थिति में सब मानवीय प्रवृत्तियों तथा गुणों को खो देता है तथा श्रम के प्रति उदासीन हो जाता है|
कार्ल मार्क्स की 1844 की इकोनॉमिक्स एंड फिलोसॉफिक मेनुस्क्रिप्ट्स में उसके श्रम के प्रति उदासीनता संबंधी विचार मिलते हैं|
अलगाव का सिद्धांत कार्ल मार्क्स ने हेगेल से लिया है|
कार्ल मार्क्स का अलगाव का सिद्धांत मुख्य रूप से इकोनॉमिक्स एंड फिलोसॉफिक मेनुस्क्रिप्ट्स 1844 में मिलता है| इसके अलावा थीसिस ऑन फायरबाख व द जर्मन आईडियोलॉजी में भी वर्णन मिलता है|
मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में अलगाव अपनी चरम सीमा पर होता है|
मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था में पनप रहे अलगाववाद को चार स्तरो में व्यक्त किया है-
उत्पाद या रचना से अलगाव
प्रकृति से अलगाव
समाज से अलगाव
स्वयं से अलगाव
अलगाव का शिकार केवल मजदूर ही नहीं बल्कि पूंजीपति भी होता है, क्योंकि वह अत्यधिक पूंजी का संचय करना चाहता है|
कार्ल मार्क्स (द जर्मन आईडियोलॉजी) “साम्यवाद आने पर मैं सुबह में शिकार के लिए जा सकता हूं, दोपहर को मछली पकड़ सकता हूं, शाम को पशुपालन कर सकता हूं और रात के खाने के बाद आलोचना कर सकता हूं, अर्थात में ऐसा कोई भी काम कर सकता हूं ,जिससे मुझे खुशी मिले| मनुष्य के अलगाव व शोषण से मुक्ति की यही अवस्था साम्यवाद है|”
हंगरी के मार्क्सवादी विचारक जार्ज ल्यूकाच ने 20 वी शताब्दी के पहले और दूसरे दशक में पूंजीवादी समाज में परायेपन और जड़वस्तुकरण पर लेखमाला लिखी थी|
वस्तुओं की जड़ पूजा (Fetishism of Commodities)-
इसका वर्णन दास कैपिटल के खंड 1 (1867) में है|
यह विचार अलगाव की संकल्पना के साथ निकट से जुड़ा है, परंतु अलगाव का सिद्धांत मार्क्स के मानवतावादी चिंतन का अंग है, वही वस्तुओं की जड़पूजा का विचार उसके वैज्ञानिक चिंतन का अंग है|
पूंजीवादी व्यवस्था में भिन्न-भिन्न वस्तुओं का उत्पादन करने वाले लोग एक विशेष सामाजिक संबंध से बंध जाते हैं, इसमें स्वयं मनुष्य नगण्य हो जाता है, वस्तु महत्वपूर्ण होती है|
पूंजीवाद में वस्तुओं का परस्पर संबंध मनुष्यों के परस्पर संबंध पर हावी हो जाता है|
मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद में व्यक्ति का महत्व नहीं होता है, बल्कि उसके द्वारा उत्पादित वस्तु का महत्व होता है अर्थात महंगी वस्तु का उत्पादन करने वाले व्यक्ति का महत्व अधिक होता है|
इस तरह पूंजीवाद की आर्थिक प्रणाली मनुष्यों के यथार्थ सामाजिक संबंधों पर वस्तुओं की जड़ पूजा के मिथ्या संबंध की परत चढ़ा देती है|
मार्क्सवाद में जिस तरह विचारधारा मिथ्या चेतना को व्यक्त करती है, वैसे ही वस्तु की जड़पूजा की अवधारणा मिथ्या सामाजिक संबंधों की व्याख्या देती है|
मार्क्स “पूंजीवादी व्यवस्था वस्तु (Commodities) व्यवस्था है|”
स्वतंत्रता की अवधारणा (Concept of Freedom)-
कार्ल मार्क्स की स्वतंत्रता संबंधी अवधारणा अलगाववाद से जुड़ी हुई है|
जहां अलगाववाद होगा वहां स्वतंत्रता नहीं होगी, जहां अलगाववाद जितना कम होता जाएगा वहां स्वतंत्रता उतनी ही मात्रा में बढ़ती जाएगी|
मार्क्स के मत में स्वतंत्रता का अर्थ जीवन को भरपूर जीना है तथा अभाव या विवशता का अंत है|
मार्क्स के मत में स्वतंत्रता साम्यवादी समाज में ही आ सकती है, क्योंकि साम्यवादी समाज में व्यक्ति को योग्यता अनुसार कार्य करना पड़ता है तथा आवश्यकता अनुसार मिलता है|
एंगेल्स ने अपनी कृति एंटी ड्यूरिंग 1878 के अंतर्गत विवशता से स्वतंत्रता की ओर सिद्धांत दिया है| इस सिद्धांत के अनुसार जब तक मनुष्य प्रकृति के नियमों से बंधा होता है, तब तक वह विवश होता है, लेकिन जब मनुष्य प्रकृति के नियमों का ज्ञान प्राप्त कर उनका प्रयोग अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए करने लगता है, तो वह स्वतंत्र हो जाता है|
एंजिल्स के मत में प्रौद्योगिकी से मनुष्य प्रकृति के नियमों का ज्ञान प्राप्त कर अपने उद्देश्यों को पूरा कर सकता है| अतः प्रौद्योगिकी स्वतंत्रता की शक्ति है, लेकिन पूंजीवाद मनुष्य पर बंधन लगाता है, अतः पूंजीवाद विवशता है|
इस तरह मार्क्स और एंगेल्स आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था और प्रौद्योगिकी को तो मानव सभ्यता के लिए वरदान मानते है और इसको बनाए रखना चाहते हैं, परंतु पूंजीवाद को अभिशाप मानते हुए उसको समाप्त करना चाहते हैं|
वही फ्रैंकफर्ट स्कूल के विचारक पूंजीवादी व्यवस्था का विश्लेषण दो रूप में करते हैं- प्रौद्योगिकी प्रभुत्व और आर्थिक शोषण| अत: ये पूंजीवाद व प्रौद्योगिकी दोनों को समाप्त करना चाहते हैं|
फ्रैंकफर्ट स्कूल के विचारक- थियोडोर अडोर्नी, मैक्स हरखाइमर, हर्बट मार्क्यूजे, युर्गेन हेबरमास
4. आत्म प्रेरित व्यवहार की संकल्पना (Concept of Praxis)-
मार्क्सवाद के अंतर्गत आत्मप्रेरित व्यवहार की संकल्पना स्वतंत्रता की संकल्पना के साथ निकट से जुड़ी है|
मार्क्स के मत में मनुष्य अपने विकास की लंबी प्रक्रिया के दौरान प्रकृति की निर्विकार नियमों से बंधा रहता है, तब तक वह आत्म निर्णय में सक्षम नहीं होता है, क्योंकि वह विवश और पराधीन होता है|
लेकिन जब वह सृष्टि के नियमों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब वह इन बंधनों से मुक्त हो जाता है|
अब वह भी विवशता लोक (Kingdom of Necessity) से निकल कर स्वतंत्रता लोक (Kingdom of Freedom) में प्रवेश करता है| जहां प्रगतिहास समाप्त होता है और इतिहास आरंभ होता है|
अब मनुष्य स्वयं इतिहास का निर्माता और अपनी नियति का नियंता बन जाता है| मनुष्य स्वतंत्र रूप से आत्म चिंतन से प्रेरित सृजनात्मक गतिविधि करता है|
मार्क्स ने इस नई गतिविधि को आत्म प्रेरित व्यवहार की संज्ञा दी है| यही से मानववाद आरम्भ होता है|
मानववाद वह स्थिति होती है, जिसमें मानव प्रकृति का दास नहीं होता है, बल्कि आत्म प्रेरित व्यवहार के माध्यम से प्रकृति को अपनी इच्छा के अनुसार ढाल सकता है|
मार्क्स का मूल्यांकन-
महत्व-
मार्क्स को साम्यवादियों ने एक अवतार जैसी प्रतिष्ठा प्रदान की है, वही पूंजीपति वर्ग ने उसे ‘सभ्यता और मैत्री’ का शत्रु कहा है|
मैकाइवर (द वेब ऑफ़ गवर्नमेंट 1965) “समाजवाद की स्थापना से सोवियत रूस में जो आर्थिक प्रगति हुई है, उसमें लोकतांत्रिक अभिलाषाओं की पूर्ति की झलक मिलती है|”
ग्रे “मार्क्स 19 वी शताब्दी का अत्यधिक प्रभावशाली व्यक्ति है|”
सेलिगमैन “शायद रिकार्डों को छोड़कर अर्थ विज्ञान के समूचे इतिहास में मार्क्स से बढ़कर मौलिक, शक्तिशाली और मेधावी व्यक्ति पैदा नहीं हुआ|”
लॉस्की “मार्क्स ने साम्यवाद को कोलाहल से उठाकर एक सशक्त आंदोलन का रूप दिया जो कि सिद्धांतों पर आधारित है|”
वेपर “मार्क्स ने अपने अनुयायियों के लिए धर्म का नवीन स्तर तथा मुक्ति का आनंदमय मार्ग सुस्थिर किया है| उसने ऐसे वर्ग का सृजन किया है जो हमारी पृथ्वी पर ही है|”
हंट “समाज विज्ञानों के सभी आधुनिक लेखक मार्क्स के प्रति ऋणी है, चाहे वे स्वीकार या न करें|”
वेपर “मार्क्स ने धर्म और विज्ञान के संयोग से युग की महान सेवा की है|”
कार्ल मार्क्स को ‘श्रमिकों का मसीहा’ भी कहा जाता है|”
कार्ल मार्क्स व एंजेल्स की मित्रता के संबंध में मैक्सी का कथन “दोनों के बीच एक ऐसी मित्रता की शुरुआत हुई, जिसका अंत इतिहास की एक असाधारण बौद्धिक और आध्यात्मिक भागीदारी बन गयी|”
आलोचना-
मार्क्सवाद क्रांति का संदेश देकर हिंसा को बढ़ावा देता है|
कार्ल पॉपर व इसाह बर्लिन ने कार्ल मार्क्स को काल्पनिक दार्शनिक के रूप में अस्पष्ट, खतरनाक, तार्किक रूप से असंबंध बताया है|
मार्क्सवाद स्वयं एक विचारधारा बन गया है, जिसके कारण कार्ल पॉपर ने अपनी रचना ओपन सोसायटी एंड इट्स एनीमीज 1945 में प्लेटो, हेगेल तथा कार्ल मार्क्स को खुले समाज का शत्रु कहा है|
कार्ल पॉपर “मार्क्स का वैज्ञानिक समाजवाद न सिर्फ समाज के बारे में गलत था, बल्कि विज्ञान के बारे में भी गलत था|
बर्लिन “इसमें शक नहीं है कि कार्ल मार्क्स अति महान थे, लेकिन वे फासीवाद, सत्तावाद व कल्याणकारी राज्य के उदय की घोषणा नहीं कर पाए| पूंजीवाद का भी उनका विश्लेषण अधिक से अधिक 19वीं सदी के पूंजीवाद पर लागू होता है|”
कोइस्लेर “मार्क्स ईश्वर था, जिसने निराश किया|”
कैटलिन “कार्ल मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धांत ही आधुनिक कष्टों, रोगों व यहां तक कि फासीवाद का जन्मदाता है|”
फ्रांसीसी फुकुयामा (The End of History and the Last Man 1992)“कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित ऐतिहासिक भौतिकवाद कूड़ेदान में चला गया है|”
केर्युहंट “कार्ल मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत किसी भी रूप में मूल्य का सिद्धांत नहीं है, बल्कि वास्तव में यह शोषण का सिद्धांत है |”
सेबाइन ने कार्ल मार्क्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद को नैतिक स्वच्छंदतावाद कहा है|
हेबरमास ने साम्यवाद को उदासीन, रोमांटिक व यूटोपियन बताया है तथा इसे निष्कासित प्रवचन कहा है|
H B एक्टन ने अपनी कृति The Illusion of Epoch 1955 में मार्क्सवाद लेनिनवाद को युग भ्रम कहा है|
कार्ल मार्क्स से संबंधित कुछ अन्य तथ्य-
वर्ग संघर्ष का विचार कार्ल मार्क्स ने ऑगस्टिन थियरे से लिया है|
कार्ल मार्क्स ने पहली बार आर्थिक आधार पर समाज को दो वर्गों में विभाजित किया|
कार्ल मार्क्स मूलत: दार्शनिक व ऐंगल्स अर्थशास्त्री था|
कार्ल मार्क्स “मैं इतना जानता हूं कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूं|”
मार्क्स पहला समाजवादी नहीं है, बल्कि पहला वैज्ञानिक समाजवादी है|
मार्क्स के प्रयासों से पूरे विश्व में साम्यवादी क्रांति के प्रसार के लिए लंदन में 1864 में International Workingmen’s Association (IWA) का निर्माण किया, जो विश्व में प्रथम अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ के नाम से विख्यात है|
मार्क्स ने फायरबाख के भौतिकवाद की आलोचना करते हुए उससे भद्दा भौतिकवाद कहा है|
टेलर ने कार्ल मार्क्स की रचना द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो को बाइबल की भांति पवित्र कहा है|
कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो को साम्यवाद की बाइबल या सर्वहारा की बाइबल या श्रमिकों की बाइबिल भी कहा जाता है|
सर्वहारा का अधिनायकवाद शब्द में कार्ल मार्क्स ने अधिनायकवाद शब्द जनरल लुई यूजीन काबयाना से लिया है|1850 तक मार्क्स अधिनायकवाद के स्थान पर सर्वहारा का शासन शब्द इस्तेमाल करता था|
कार्ल मार्क्स सर्वहारा को पूंजीवाद का कब्रिस्तान कहता है|
रॉबर्ट ओवन ने 1827 में कोऑपरेटिव मैगजीन में सबसे पहले सोशलिस्ट या समाजवाद शब्द का प्रयोग किया था|
कार्ल कॉटस्की को मार्क्सवाद का पोप कहा जाता है|
मार्क्सवाद से संबंधित विचारधाराए-
परंपरागत मार्क्सवाद (Classical Marxism)-
समर्थक- लेनिन, ट्राटस्की, स्टालिन, रोजा लक्जमबर्ग, कार्ल कॉटस्की, माओ, फिदेल कास्त्रो आदि|
परंपरागत मार्क्सवाद के अन्य रूप-
संशोधनवादी समाजवाद या विकासवादी समाजवाद (Evolutionary Socialism)-
समर्थक- एडवर्ड बर्नस्टाइन (जर्मनी)
फेबियन वाद (U K)-
समर्थक- सिडनी वेब, ब्रिटिश वेब, ग्राहम वैलेस, हेराल्ड लॉस्की, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, एनी बेसेंट आदि|
श्रम संघवाद (Syndicalism)-
समर्थक- जॉर्ज सोरल (फ्रांस)
श्रेणी समाजवाद-
समर्थक- G D S कॉल (U K)
अराजकतावाद-
समर्थक- प्रौधां, मिखाइल बकुनिन, क्रोपोकटिन आदि|
नव मार्क्सवाद (Neo Marxist)-
नव मार्क्सवाद के प्रकार-
आलोचनात्मक सिद्धांत-
फ्रैंकफर्ट स्कूल (जर्मनी) से संबंधित
जनक- हरखाइमर
समर्थक- हरखाइमर, हरबर्ट मार्क्यूजे, थियोडोर एडोर्नी, एरिक फ्रॉम, हेबरमास, जार्ज ल्यूकॉच, वाल्टर बेंजामिन आदि|
अस्तित्ववादी-
समर्थक- जीन पॉल सार्त्र
संरचनावादी-
जनक- अल्थ्यूजर
समर्थक- लुई अल्थ्यूजर, निकोल्स पोलांजा, मोरिस गोडलियर
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