समसामयिक प्रवृत्तियां (Contemporary trends)- परंपरावाद (Traditionalism)
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात जब राजनीतिक चिंतन प्रमुख रूप से अनुभववादी एवं वैज्ञानिक बनता जा रहा था, तब कुछ विचारक परंपरागत आदर्शवादी चिंतन पर बल दे रहे थे|
परम्परावादी ऐसे विचारक है, जो वर्तमान में यथास्थिति के समर्थक हैं तथा परंपरागत दृष्टिकोण के सभी नियमों में पूर्ण आस्था रखते हैं|
राजनीति के अध्ययन में दार्शनिक दृष्टिकोण प्राचीनतम है, लेकिन प्रत्यक्षवाद व शक्ति, राजनीतिक विज्ञान और औद्योगिकी के प्रभाव के कारण इस परंपरा का क्रमश: ह्रास हुआ है|
प्रबोधयुग में विवेक और बुद्धि की प्रतिष्ठा स्थापित करके इस परंपरा को पुन: प्रभावशाली बनाने का प्रयास कांट, हीगल तथा अन्य आदर्शवादियों ने किया, किंतु उसे अपनी पूर्व स्थिति प्राप्त नहीं हो सकी|
इस परंपरा को सबसे गहरा धक्का व्यवहारवादी दृष्टिकोण के उदय से लगा है|
अनेक विचारकों ने विविध मूल्यों एवं आदर्शों का प्रतिपादन किया है| जैसे नेल्सन, हरसल आदि ने समानता, बोसांके, हाकिंग आदि ने स्वतंत्रता, रेडब्रिक, नाथ्रोप, फुलर आदि ने प्रकृति, कोहन ने आनंद, मैकाइवर ने स्वर्णिम नियम तथा विन्डर ने राष्ट्रवाद को एक परम मूल्य के रूप में रखा है|
परंपरावादियों ने दार्शनिक दृष्टिकोण को पुन: स्थापित करने पर बल दिया तथा आधुनिक राजनीति विज्ञान का विरोध किया|
व्यवहारवादी रॉबर्ट डहल इनको परानुभववादी कहता है|
प्रमुख नव परंपरावादी विचारक-
1.लियो स्ट्रास 2. एरिक वोएगलिन 3. माइकल ऑकशॉट
4.बर्टेन्ड डी जूवेनेल 5.हन्ना आरेण्ट 6.सिबली
7. दांते जर्मिनो 8 मेटलैंड 9. बक्ल
लियो स्ट्रास (1899- 1973)-
लियो स्ट्रॉस एक जर्मन-अमेरिकी राजनीतिक दार्शनिक था| उनका जन्म जर्मनी में हुआ और बाद में वे अमेरिका चले गए|
अमेरिकी राजविज्ञानी लियो स्ट्रास शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे है तथा दार्शनिक संप्रदाय के प्रमुख प्रवक्ता रहे हैं|
पुस्तक-
Natural Right and History 1955
What is Political Philosophy 1959
सामान्यतः स्ट्रास प्लेटो और अरस्तु की परंपरागत राजनीतिक विचारधारा का समर्थन एवं प्रतिपादन करता है|
लियो स्ट्रास के अनुसार राजनीतिक चिंतन कभी भी मूल्यों का परित्याग नहीं कर सकता है| स्वयं ‘राजनीतिक’ शब्द एक उद्देश्य को लिए हुए|
स्ट्रास ने प्लेटो, अरस्तु से लेकर बर्क और नीत्से तक के चिंतन का उपयोग राजनीतिक दर्शन के आलोचनात्मक इतिहास को लिखने में किया है| इसके माध्यम से उसने प्राकृतिक अधिकार, विवेक, प्रजातांत्रिक समाज, शिक्षा आदि पर नए प्रकार के विचार रखें हैं|
परम्परागत राजनीतिक दर्शन की पुनर्स्थापना-
स्ट्रॉस का मानना था, कि आधुनिक राजनीतिक विज्ञान अनुभवजन्य और मूल्य-तटस्थ हो गया है| वे चाहते थे, कि राजनीतिक दर्शन को फिर से प्लेटो और अरस्तू जैसी परंपरा से जोड़ा जाए|
दर्शन और राजदर्शन-
स्ट्रास दर्शनशास्त्र और राजनीतिक दर्शन के मध्य घनिष्ठ संबंध मानता है|
उनके अनुसार राजदर्शन, दर्शनशास्त्र का एक भाग है|
स्ट्रास राजनीतिक दर्शन को राजनीतिक दर्शन के इतिहास से स्थापन्न नहीं करना चाहता है, क्योंकि उनका मानना है कि ऐसा करना राजनीतिक दर्शन के पतन की निशानी है|
स्ट्रास ने राजनीतिक दर्शन का उपयोग राजनीतिक चिंतन की एक विशेष शाखा के रूप में किया है|
स्ट्रास “राजनीतिक दर्शन राजनीतिक वस्तुओं, अधिकारों एवं राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति के बारे में जानने का सच्चा प्रयास है|”
स्ट्रास सुकरात की परंपरा का निर्वहन करते हुए व्यक्तियों के मत को ज्ञान में परिवर्तित करना चाहता है, जो अंतिम रूप से विवेकी हो और सत्य हो| स्ट्रास के शब्दों में “एक महान राजनीतिज्ञ राजनीतिक प्रक्रियाओ के बारे में सामान्य व्यक्ति की तुलना में अधिक ध्यान रखता है|
इस प्रकार राजनीतिक दर्शन चैतन्य, सुसंगत एवं अनवरत प्रयास है, जिसके माध्यम से राजनीतिक मान्यताओं के बारे में मत को ज्ञान से स्थापन्न किया जा सके|
स्ट्रास यह मानता की सुकरात राजनीतिक दर्शन की परंपरा स्रोत है|
राजदर्शन की वर्तमान दुरावस्था-
स्ट्रास के अनुसार राजदर्शन अत्यंत दुरावस्था में है| उसकी विषय सामग्री, पद्धतियों, कार्यों आदि के विषय में बड़े मतभेद पाए जाते हैं| अनेकानेक कारणों से राजदर्शन खंड-खंड हो गया है| पहले तो दर्शन और विज्ञान अलग-अलग कर दिए गए है| फिर अदर्शनशास्त्रीय या विद्ज्ञानेतर राजदर्शन में अंतर किया गया| राजदर्शन से पूर्वसंबंधित अनेक विषय अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र तथा समाजमनोविज्ञान के नाम से अलग हो गए हैं| शेष भाग आजकल इतिहास के दार्शनिकों ने अपने अधिकार में कर लिया है| इसलिए अब राजदर्शन नाम की कोई वस्तु ही नहीं रह गई है|
स्ट्रास राजदर्शन की वर्तमान दुरावस्था का जिम्मेदार आधुनिक राजनीतिक विज्ञान विशेष रूप से इतिहासवाद व प्रत्यक्षवाद को मानता है|
स्ट्रास ने इतिहासवाद व प्रत्यक्षवाद की आलोचना की है|
स्ट्रास के मत में मूल्यों को समाज विज्ञान से बहिष्कृत करने के लिए प्रत्यक्षवाद उत्तरदायी है|
स्ट्रास के अनुसार “मूल्यात्मक निर्णय किए बिना मानवीय प्रघटनाओ को देखने की बढ़ती हुई प्रवर्ति का मानव की नैतिक वरीयताओं पर गहरा दुष्प्रभाव पड़ा है| इस स्थिति को मूल्यात्मक नाशवाद कहा जा सकता है|
अधिकांश समाज- विज्ञानी सत्य एवं सत्यनिष्ठा के प्रति आबद्ध होने के अतिरिक्त प्राय: प्रजातंत्र के प्रतिपादक भी होते हैं| प्रजातंत्र में मूल्य होते हैं| अत: उनकी नैतिक तटस्थता का कोई अर्थ नहीं रह जाता|
राजविज्ञान यह मानकर चलता है कि कुछ वस्तुएं राजनीतिक होती है और कुछ अराजनीतिक| उद्देश्य या लक्ष्य को सामने रखे बिना राज्य, समाज या नागरिक समुदाय तथा उसे संबंधित राजनीतिक विषयों की व्याख्या नहीं की जा सकती है|
इस तरह वैज्ञानिक ज्ञान में विश्वास भी पूर्वधारणाओ पर आधारित होता है| स्ट्रास ने इसे पूर्ववैज्ञानिक (Prescientific) ज्ञान कहा है|
प्रत्यक्षवाद आवश्यक रूप से समाज विज्ञानो को इतिहासवादिता की ओर ले जाता है, इतिहासवादिता में फसकर अनेक बार समाज-विज्ञानी तथ्य और मूल्यों को एकाकार कर देते हैं|
इतिहासवादिता से प्रभावित विचारक समाज और मानव चिंतन को इतिहास प्रसूत मानने के कारण अच्छे समाज की धारणा पर विचार करना महत्वपूर्ण नहीं मानते हैं| उनके लिए इतिहासप्रसूत स्थितियां भाग्य की तरह अटल होती है|
नवीन राजविज्ञान मूल्यों अथवा वरीयताओं का औचित्य सिद्ध करने का कार्य राजदर्शन को सौंप देता है| नवीन राजविज्ञान इस कार्य को विचारवादी मानता है| स्ट्रास इसको मैक्यावलीय विचारों से भी अधिक त्रुटिपूर्ण मानता है| स्ट्रास के अनुसार “इसका दुष्प्रभाव उस नीरो से भी अधिक घातक है, जो रोम को जलते देखकर बांसुरी बजाता है, क्योंकि नवीन समाज-विज्ञानी यह नहीं जानता है कि वह बांसुरी बजा रहा है और वह यह भी नहीं जानता कि रोम जल रहा है|”
शास्त्रीय समाधान-
स्ट्रास प्लेटो और अरस्तु के विचारों को परंपरागत, किन्तु शाश्वत समाधानों के रूप में देखता है|
अरस्तु के लिए राजविज्ञान और राजदर्शन एक ही है| दर्शन या विज्ञान को वह सैद्धांतिक और क्रियात्मक भागों में बांटता है|
नवीन राजविज्ञान भी मूल्यों को मुक्त समाज, समूह, क्रीडा के नियम आदि धारणाओं द्वारा पिछले द्वार से घुसाता रहा है|
स्ट्रास तथ्य और मूल्यों की एकता में विश्वास करता है|
नवीन राजविज्ञान हठधर्मितापूर्ण नास्तिकता पर आश्रित है, क्योंकि नवीन राजनीति विज्ञान समाजशास्त्रीय एवं मनोविज्ञानात्मक सिद्धांतों का प्रयोग करता है, किंतु धर्म के समाजशास्त्र जैसे विषय को ईश्वर संबंधी मान्यता को स्वीकार किए बिना नहीं समझा जा सकता है|
स्ट्रास यह मानता है कि ईश्वर सीधे ही मनुष्य को अपना साक्षात्कार करा सकता है| वह अपनी मान्यताओं के समर्थन में अरस्तु के विचारों को देता है|
प्राकृतिक विधि-
स्ट्रास ने अनुभववादी समाज वैज्ञानिकों की भौतिकतावादी धारणाओं को असिद्ध करने के लिए प्राकृतिक विधि का सूक्ष्म विश्लेषण किया है |
इस धारणा के अनुसार मनुष्य के पारस्परिक संबंधों को नियत करने वाली एक अपरिवर्तनीय, शाश्वत और निरपेक्ष व्यवस्था है| जिसका अस्तित्व ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी से रहा है|
स्ट्रास का मत है कि ‘राजनीति और नैतिकता का आधार प्राकृतिक अधिकार होना चाहिए, न कि केवल सापेक्षतावाद या ऐतिहासिक परिस्थितियाँ|’
प्राकृतिक विधि अतीत काल में अनेक बार विस्मृत, अदृश्य और लुप्त हुई है-
प्रथम बार यह ईसाई धर्म की ईश्वरीय विधि के कारण चतुर्थ शताब्दी में लुप्त हुयी| जिसे तेरहवीं शताब्दी में एक्विना द्वारा आधिकारिक रूप से ईसाई धर्मशास्त्रों में पुन: स्थापित किया गया|
दूसरी बार, 16 वीं और 17वीं शताब्दी में संप्रभुता सिद्धांत के सम्मुख प्राकृतिक विधि अप्रकाशित रही, किन्तु शीघ्र ही लॉक, ग्रोशियस आदि ने प्राकृतिक विधि को वास्तविक शक्ति के रूप में प्रतिपादित किया|
तीसरी बार, ह्यूम, कांट, बर्क, बेंथम, मिल, ऑस्टिन, वान सेवाइन, मेन आदि ने प्राकृतिक विधि को पूरी तरह का उखाड़ दिया, फिर भी यह विधि कांट के निरपेक्ष आदेश में (जिसमें नैतिक विधि को स्वयं व्यक्ति के भीतर माना गया है), जीवित रही| प्राकृतिक विधि का अस्तित्व फिक्टे, हीगल, और ग्रीन के विचारो में दिखता है|
स्ट्रास के अनुसार इस सर्वव्यापक प्राकृतिक विधि की धारणा को सबसे अधिक हानि वैज्ञानिक पद्धति के समर्थको तथा अनुभववादियों के द्वारा हुई, जिनमे प्रमुख सिमेल, रिकर्ट, जैलिनेक, वेबर, रेडब्रक, कैल्सन, मेरियम आदि प्रमुख है|
स्ट्रास ने ऐतिहासिक संप्रदाय की इस बात के लिए आलोचना की है, कि उसने स्थानीय और अस्थाई विधियों को शाश्वत प्राकृतिक विधि की तुलना में मूल्यवान और आकर्षक समझा है|
वैज्ञानिकों के लिए सत्य एक निरपेक्ष मूल्य है, लेकिन स्ट्रास ऐसे निरपेक्ष मूल्यों को सर्वाधिकारवाद के विरुद्ध सबसे बड़ी गारंटी मानता है|
एज़ोटेरिक (Esoteric Writing) और एक्सोटेरिक (Exoteric) लेखन (छिपा हुआ बनाम खुला लेखन)-
स्ट्रास के अनुसार कई प्राचीन दार्शनिक खुले तौर पर कुछ और लिखते थे, लेकिन असल विचार (मंतव्य को) गुप्त रूप से छुपाते थे, ताकि तत्कालीन समाज या सत्ता से टकराव न हो|
मूल्यांकन-
स्ट्रास कैटलिन और बार्कर की तरह मूल्यों के अस्तित्व में निरंतरता देखता है| उसमें अरस्तु के नियतिवाद तथा प्लेटो के आदर्शवाद का मिश्रण पाया जाता है|
स्ट्रास के अनुसार कोई भी महत्वपूर्ण सामाजिक अध्ययन मूल्य निरपेक्ष नहीं हो सकता है तथा मूल्य निरपेक्षता गंदे नाले की विजय के समान है|
स्ट्रास ने नवीन राजविज्ञान, उसके चिंतन, पद्धतियों, प्रविधियों और मान्यताओ की शास्त्रीय राजदर्शन की विचारधारा के आधार पर कटु आलोचना की है|
स्ट्रास की प्रतिक्रिया प्रत्यक्षवाद और प्रारंभिक व्यवहारवाद के प्रति अधिक है|
स्ट्रास द्वारा राजनीति के परंपरा प्रणाली विज्ञान को अत्यधिक महत्व देने के कारण तथा शास्त्रीय विचारकों के चिंतन को सभी चिंतन का स्रोत मानने के कारण रूढ़िवादी विचारक भी माना जाता है|
अमेरिकी राजनीतिक परिदृश्य में नव उदारवाद के राजनीतिक दर्शन का स्रोत भी स्ट्रास को माना जाता है|
एरिक वोएगलिन (1901- 1985)-
एरिक वोएगलिन एक जर्मन-अमेरिकी राजनीतिक दार्शनिक थे|
प्रमुख रचनाएँ
The New Science of Politics 1952
Order and History (पाँच खंडों में, प्रथम खंड 1956)
वैज्ञानिक पद्धति और राजविज्ञान: नई धारणा
एरिक वोएगलिन की प्रमुख पुस्तक The New Science of Politics 1952 वैज्ञानिक एवं आनुभाविक परंपरा के विरुद्ध एक तीव्र प्रतिक्रिया है|
वोएगलिन के लिए विज्ञान, दर्शन और सिद्धांत में अधिक अंतर नहीं है|
वोएगलिन तथ्यों और मूल्यों के मध्य प्रचलित अंतर को स्वीकार तो करता है, किंतु उनके अनुसार मूल्यों के लिए किसी पृथक पद्धति की आवश्यकता नहीं है| वह मूल्यों का अध्ययन करने के लिए विज्ञान की धारणा को ही व्यापक बनाते हैं|
नव थोमिस्ट-
वोएगलिन से पहले जेक्स मेरिटेन विज्ञान के विषय में मध्यकालीन शास्त्रीय परंपरा का प्रतिपादन करता है|
मेरिटेन के अनुसार विज्ञान को केवल आनुभविक-तार्किक विज्ञान मात्र ही नहीं माना जाना चाहिए, उसे अनुभववेतर भी बनाया जाना चाहिए| वैज्ञानिक पद्धति से आध्यात्मशास्त्र को अलग करना त्रुटिपूर्ण है|
इस विचारधारा के प्रतिपादकों को नव थोमिस्ट कहा जाता है|
वोएगलिन भी इसी वर्ग में अकैथोलिक विद्वान है|
इस नवीन दृष्टिकोण के आधार पर वोएगलिन राजविज्ञान की प्राचीन परिस्थिति को पुन: स्थापित करना चाहता है|
वोएगलिन के अनुसार हमें अपने आप को प्रत्यक्षवादी परिप्रेक्ष्य से उन्मुक्त करना होगा|
वोएगलिन के अनुसार वैज्ञानिक पद्धति ही ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन नहीं है, इस विषय में अन्य पद्धतियों को भी स्थान दिया जाना चाहिए|
अंतर विषयक संबंध-
वोगेलिन ने अपने दर्शन में अंतर विषयक संबंधों को महत्वपूर्ण माना है|
इसलिए उनके अध्ययन के क्षेत्र में राजनीतिक विज्ञान के साथ-साथ दर्शन, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र, इतिहास, भाषाविज्ञान, तुलनात्मक धर्म इतिहास भी सम्मिलित है|
मानव दर्शन-
वोएगलिन मुख्य रूप से मानव दर्शन की खोज करता है| वह विभिन्न विषयों की परंपरागत सीमाओं को स्वीकार नहीं करता है|
उनके अनुसार मनुष्य का दर्शन किसी व्यक्ति विशेष की सोच या हित से सीमित नहीं हो सकता है|
इस तरह वोएगलिन अपनी मौलिक धारणाओं से संपूर्णता के दर्शन को प्रतिपादित करने का प्रयास करता है|
राजनीति और आध्यात्मिकता का संबंध-
वोएगलिन का मानना था, कि राजनीति सिर्फ सत्ता या कानून तक सीमित नहीं है| राजनीति का गहरा संबंध मानव की आध्यात्मिक खोज से है|
आदर्शवाद एवं भौतिकवाद-
वोएगलिन मानता है कि स्व की खोज आनुभाविक तथ्यों के आधार पर नहीं की जा सकती| स्व की खोज एक अमूर्त चैतन्य की खोज है|
चेतना के सिद्धांत को निर्मित करते हुए वोगेलिन आदर्शवाद एवं भौतिकवाद दोनों की सीमाओं को इंगित करता है|
वोएगलिन मानता है कि दोनों एक सीमित अर्थ में ही स्वीकार किए जा सकते हैं| जहां भौतिकवाद चेतना की वास्तविकता को स्वीकार नहीं करता है, वहीं आदर्शवाद ‘चेतना द्वारा वास्तविकता को आंतरिक रूप से कैसे प्रभावित किया जाता है, को महत्व नहीं देता है| इस कारण ये दोनों पद्धतियां मानव के दर्शन का निर्माण करने में विफल है|
गूढ़ज्ञानवाद (Gnosticism) की आलोचना-
Order and History पुस्तक में वोगेलिन ने राजनीति में बढ़ते गूढ़ज्ञानवाद के प्रभाव की आलोचना की है|
वोएगलिन के अनुसार गूढ़ज्ञानवाद सत्य का एक ऐसा प्रत्यक्ष विजन है, जो विश्लेषणात्मक प्रक्रिया से बाहर है और इसके आधार पर वास्तविकता को पूर्ण रूप से समझने का दावा किया जाता है| यह वास्तविकता को अपनी दृष्टि से देखता है और उससे परे भी चला जाता है| यह एक अंधविश्वास की तरह राजनीति पर हावी होता है और जिसका स्वरूप कोई धर्म हो सकता है या विचारधारा|
वोएगलिन ने साम्यवाद और नाजीवाद को आधुनिक समय में ऐसे ही गूढ़ज्ञानवाद से प्रभावित राजनीतिक चिंतन बताया है|
ये दावा करती हैं कि उनके पास पूर्ण ज्ञान है और वे धरती पर स्वर्ग बना सकती हैं, यह सोच खतरनाक है और टोटलिटेरियनिज़्म को जन्म देती है|
ऑर्डर और डिसऑर्डर (Order and Disorder)-
समाज तभी टिकाऊ है, जब उसमें आध्यात्मिक और नैतिक ऑर्डर हो|
जब लोग सिर्फ भौतिकवाद, शक्ति या विचारधारा पर निर्भर होते हैं, तो समाज असंतुलित (disorder) हो जाता है|
सत्य की खोज (Quest for Truth)-
वोएगलिन कहते हैं कि इंसान हमेशा सत्य और उत्कृष्ट की खोज में रहता है| यह खोज राजनीति और संस्कृति का आधार होनी चाहिए|
सापेक्षवाद की आलोचना-
वोएगलिन ने सापेक्षवाद की तीव्र आलोचना की है|
वोएगलिन मैक्स वेबर को सापेक्षवाद का प्रमुख प्रतिनिधि मानता है|
यद्यपि वोगेलिन मैक्स वेबर के महत्व को स्वीकार करते हुए कहता है कि ‘वह एक बीते युग और एक नए युग- प्रारंभ के बीच का विचारक था’ , किंतु उसे उसका सापेक्षवाद पसंद नहीं था|
वोएगलिन के अनुसार वेबर प्रत्यक्षवादी युग के अंत तथा आध्यात्मवादी शोध युग के प्रारंभ के मध्य पैदा हुआ था|
वोएगलिन के अनुसार वेबर समस्त मूल्यों को समान मानता है| उसकी (वेबर की) यह धारणा है, कि विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति, मूल्यों को समझने अथवा उनसे संबंधित विवादों का समाधान करने के विषय में हमारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकती|
वोएगलिन वेबर के विचारों में असंगति भी पता है| एक ओर तो वेबर ने मार्क्स की भौतिकतावादी व्याख्या को अपनी वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक गवेषणा के आधार पर गलत सिद्ध कर दिया है, दूसरी और उसने मार्क्स के मूल्यों के विषय में अपना मंतव्य अभिव्यक्त किया है|
परंतु अर्नाल्ड ब्रेख्त ने बताया है कि वेबर ने कभी भी मूल्यों की समानता का प्रतिपादन नहीं किया है| ऐसा कहना (वेबर समस्त मूल्यों को समान मानता है) वैज्ञानिक मूल्य सापेक्षवाद, विशेषत: वेबर के विचारों को गलत ढंग से प्रतिपादित करना है|
प्रजातिवाद का विरोध-
वोएगलिन ने प्रथम महायुद्ध के पश्चात उभरे प्रजातिवाद का विरोध किया है तथा उसके दुष्परिणामो का व्यापक विवेचन किया है|
अन्य तथ्य-
वोएगलिन दार्शनिक के साथ-साथ रचनात्मक विचारक भी है|
वोएगलिन ने विज्ञान और दर्शन में तालमेल बैठाने का प्रयास किया है|
वोएगलिन अपने दार्शनिक चिंतन में ज्ञान मीमांसात्मक प्रश्नों की अपेक्षा सत्ता मीमांसात्मक प्रश्नों को अधिक महत्व देता है|
वोएगलिन ने अपनी पुस्तक Order and History में ऐतिहासिक संदर्भ में समाज में स्थापित व्यवस्था का परीक्षण किया है|
ऐसा कहा जाता है कि 1973 में डबलिन आयरलैंड में भाषण देते हुए वोगेलिन ने भविष्यवाणी की थी, कि ‘अगले दशक में सोवियत यूनियन अपने अन्तर्निहित संकट के कारण टूट जाएगा|’
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