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ब्रिटेन की संसद / Britain Parliament In Hindi || BY Nirban PK Sir

 
    ब्रिटेन की संसद / Britain Parliament

    • ब्रिटेन की संसद को संसदों की जननी कहा जाता है। 

    • मुनरो “ब्रिटिश संविधान संविधानो का जनक और ब्रिटिश संसद संसदो की जननी है|” 

    • संसद राजमुकुट, लार्ड सभा और लोकसदन से मिलकर बनती है

    • ब्रिटिश संसद में दो सदन है- लॉर्ड सभा (House of Lords) तथा लोकसदन (House of Commons)|

    • लोकसदन को निम्न सदन और लॉर्ड सभा को उच्च सदन कहा जाता है। 


    संसद की सम्प्रभुता (Sovereignty of Parliament)-

    • ब्रिटेन में संसदीय सर्वोच्चता का सिद्धान्त प्रचलित है। 

    • ब्रिटेन में संसदीय संप्रभुता है अर्थात यहां संसद सर्वोच्च है न की सर्वोच्च न्यायालय और संविधान|

    • ब्रिटेन की संसद विश्व की सबसे शक्तिशाली संसद है|

    • ब्रिटेन में संसद ही संप्रभु है और यही शासन-तन्त्र को संचालित तथा नियन्त्रित करती है। वैधानिक या कानूनी रूप में संसद् किसी भी प्रकार से मर्यादित नहीं है। 

    • ब्रिटेन में एकात्मक शासन व्यवस्था होने करने के कारण ब्रिटिश संसद एकमात्र कानून निर्माण करने वाली सत्ता है| जबकि संघात्मक शासन व्यवस्था में कानून निर्माण की शक्ति का विभाजन संघीय व्यवस्थापिका और राज्यों की व्यवस्थापिका के बीच होता है|

    • उसकी कानून निर्माण सत्ता सर्वोपरि, असीमित और निरंकुश है। 

    • ब्रिटेन का संविधान एक लचीला संविधान है, अत: ब्रिटिश संसद किसी भी कानून में परिवर्तन कर सकती है अथवा रद्द कर सकती है|

    • ब्रिटिश संसद राजपद को समाप्त कर सकती है तथा राजा को अपदस्थ भी कर सकती है। 

    • ब्रिटेन में न्यायिक पुनरावलोकन के सिद्धान्त का प्रचलन नहीं होने से संसद पर न्यायपालिका का बन्धन नहीं है। 

    • ब्रिटेन में संवैधानिक विधि तथा साधारण विधि में भी किसी तरह का भेद नहीं किया गया है। यह स्थिति भी ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता स्थापित करने में सहायक बनी है। 

    • वैधानिक रूप से संसद सब कुछ कर सकती है, चाहे उसका काम पागलपन का हो या बुद्धि का| 

    • संसदीय सम्प्रभुत्ता के मुख्य प्रतिपादक- सर एडवर्ड कोक, डीलोमे, जे.ए.आर. मेरियट तथा डायसी आदि। 


    • सर एडवर्ड कोक (Sir Edward Coke) "संसद् की शक्ति और अधिकार-क्षेत्र इतने महान, श्रेष्ठ एवं अनियन्त्रित हैं, कि उस पर किसी व्यक्ति का, किन्हीं कारणों का और किसी भी बाधा का बंधन नहीं है।" 

    • डिलोमे (Delome) “ब्रिटिश विधान-वेत्ताओं का यह आधारभूत सिद्धान्त है, कि संसद स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बना देने के अतिरिक्त सब कुछ कर सकती है।" 

    • जे. ए. आर. मेरियट (J.A.R, Marriott) "किसी भी दृष्टि से देखें, ब्रिटिश विधानमंडल विश्व में सबसे अधिक मनोरंजक और महत्वपूर्ण है। इससे प्राचीन विधान-मण्डल अन्य कोई नहीं है, इसका अधिकार क्षेत्र सबसे अधिक विस्तृत है और इसकी शक्ति असीम है। यह धार्मिक और लौकिक सभी मामलों में विधि-निर्माण की सर्वोच्च सत्ता है।”

    • डायसी (Dicey) "ब्रिटिश संसद् वैधानिक दृष्टि से इतनी शक्तिशाली है कि वह एक शिशु को प्रौढ़ करार दे सकती है, किसी भी व्यक्ति को मरणोपरांत भी राजद्रोही सिद्ध कर सकती है, गैर-कानूनी सन्तान को कानूनी ठहरा सकती है, और यदि उचित समझे तो किसी भी व्यक्ति को अपने ही मामले में न्यायाधीश बना सकती है।" 


    • डायसी के अनुसार संसद् की सम्प्रभुता से अभिप्राय यह है कि- 

    1. संसद् कोई भी कानून बना सकती है; 

    2. संसद किसी भी कानून को निरस्त कर सकती है। 

    3. ब्रिटिश संविधान में कोई ऐसा सीमा-चिन्ह नहीं है, जिससे यह निर्णय हो सके कि कौनसा कानून मौलिक है तथा कौनसा अमौलिक|

    4. ब्रिटिश कानून ऐसे किसी भी अधिकार को मान्यता प्रदान नहीं करता, जो संसद द्वारा निर्मित किसी भी नियम को रद्द कर दे, अथवा अवैधानिक ठहरा दे

    5. संसद् की सम्प्रभुता राजा के स्वामित्व या शासन (Dominion) के प्रत्येक भाग पर व्याप्त है। 


    • ब्रिटेन संसद द्वारा पारित ऐसे कानून, जो ब्रिटिश संप्रभुता का बोध कराते हैं- 

    1. 1701 के उत्तराधिकार सम्बन्धी नियम (Act of Settlement, 1701) ने राजा के दैवी अधिकार (Divine Right of Kings) को अमान्य ठहरा दिया और सम्राट-पद के उत्तराधिकारी के निर्णय के संसद के अधिकार को मान्य कर दिया। 

    2. 1717 के 'सप्तवर्षीय कानून' (Septennial Act) द्वारा लोकसभा की अवधि तीन वर्ष से बढ़ाकर सात वर्ष कर दी गई| 

    3. 1911 तथा 1949 के संसदीय अधिनियमों द्वारा लॉर्ड-सभा के अधिकार कम करके लोकसदन को सर्वप्रमुख सदन बना दिया गया। 


    संसद की सम्प्रभुता की परिसीमाएँ एवं मूल्यांकन (Limitations and Evaluation of the Sovereignty of Parliament)-

    • वैधानिक रूप से पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न होते हुए भी संसद की शक्ति पर व्यावहारिक दृष्टि से अनेक परम्पराओं और राजनीतिक यथार्थताओं का बन्धन है, जो उसकी सम्प्रभुता को सीमित बनाते है|


    • संसदीय सम्प्रभुता पर निम्नांकित बन्धन हैं-

    1. जनमत-

    • संसदीय सम्प्रभुता पर जनमत व्यावहारिक प्रतिबन्ध है। 

    • यह ध्यान रखना पड़ता है कि विधि कहीं प्राकृतिक नियमों, जनता की इच्छा और परम्पराओं के विरुद्ध न हो|


    1. नैतिक बंधन-

    • वैधानिक दृष्टि से संसद संप्रभु है, लेकिन व्यवहार में संसद के द्वारा नैतिक धारणाओं के विरुद्ध किसी कानून का निर्माण नहीं किया जा सकता है| 

    • जेनिंग्स “यदि कोई विधानमंडल यह निर्णय करें कि नीली आंखों वाले बच्चों की हत्या कर दी जाए तो ऐसे बच्चों को बचा रखना गैर कानूनी काम होगा, परंतु कोई पागल विधान मंडल ही ऐसा करेगा और पागल जनता ही उसे मानेगी|”


    1. मन्त्रिमण्डल की शक्ति-

    • समय की कमी और कार्य की अधिकता के कारण संसद अपनी असीमित शक्तियों का पूर्ण उपभोग नहीं कर पाती। 

    • मन्त्रिमण्डल उसका नेतृत्व करता है। विधि-निर्माण, वित्त-नियन्त्रण तथा प्रशासकीय मामलों में मन्त्रिमण्डल का बोल-बाला रहता है। जब तक मन्त्रिमण्डल का सदन में बहुमत है, तब तक वह संसद् का सेवक नहीं, वरन् स्वामी होता है। 


    1. प्रदत्त विधान-

    • संसद कार्य-भार की अधिकता और समयाभाव के कारण संसद विधि-निर्माण सम्बन्धी कुछ कार्य अन्य संस्थाओं को सौंप देती है, जिसे प्रदत विधान कहा जाता है| जैसे-

    1. राजा अपने एकांतिक अधिकार के आधार पर आज्ञाएँ निकालता है, जिन्हें सपरिषद आदेश (Orders-in Council) कहते हैं। 

    2. संसद् ऐसे कानून भी पारित कर देती है, जिसके द्वारा मन्त्री, विभाग या किसी संस्था को नियम निर्माण का अधिकार प्राप्त हो जाता है, इसे प्रदत विधान कहते हैं|


    1. निर्वाचक मण्डल-

    • वास्तविक सम्प्रभुता संसद् में नहीं, अपितु निर्वाचक मंडल (Electorate) में निहित है। निर्वाचकगण ही संसद को चुनते हैं और वे ही उसे हटा भी सकते हैं। अतः संसद् को निर्वाचकों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुए ही अपना कार्य करना पड़ता है। 


    1. संसद् का अधिकार

    • संसद् अपनी सम्प्रभुता और जीवन-काल को स्वयं भी निश्चित कर सकती है। संसद् ने ही अपने अधिनियम, 1911 (Parliament Act of 1911) द्वारा अपना जीवन-काल 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया था। 

    • संसद की सम्प्रभुता पर इस अर्थ में भी अंकुश है कि वह अपने कार्यकाल में तब तक वृद्धि नहीं कर सकती, जब तक कि वह राष्ट्र की मौन सहमति प्राप्त न कर ले। 

    • द्वितीय महायुद्धकाल में राजनीतिक दलों और राष्ट्र के मौन समर्थन के बल पर ही संसद् ने अपना कार्यकाल लगभग 8 वर्ष कर दिया था। 


    1. वेस्टमिंस्टर परिनियम 1931-

    • यह परिनियम भी संसद की प्रभुसत्ता को सीमित करता है| 

    • इस परिनियम में यह उल्लेख है कि 1931 के बाद ब्रिटिश संसद अधिराज्यों के लिए कोई भी अधिनियम उस समय तक नहीं बनाएगी, जब तक की किसी अधिराज्य की संसद द्वारा ब्रिटिश संसद से इस हेतु प्रार्थना न की जाए| 


    1. विधि का शासन-

    • ब्रिटेन में संसद् की सम्प्रभुता और विधि का शासन (Rule Law) दोनों एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं। 

    • विधि के शासन का अर्थ है, कि देश का आम कानून सब पर लागू होता है। किसी के पास कोई मनमानी शक्ति नहीं है और कानून के समक्ष सभी नागरिक समान हैं। 

    • संसद् की सम्प्रभुता तभी तक है, जब तक विधि का शासन लागू रहता है। संसद् उसका उल्लंघन नहीं कर सकती। 


    1. अन्तर्राष्ट्रीय कानून-

    • संसद् यद्यपि वैधानिक रूप से अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के विरुद्ध विधियों का निर्माण कर सकती है, किन्तु व्यवहार में उसे उनका आदर करना पड़ता है

    • वेस्ट रैण्ड गोल्ड माइनिंग कम्पनी बनाम सम्राट' वाद में यह स्वीकार कर लिया गया था कि "जो कुछ सभ्य राष्ट्रों ने निर्णय किया है, वह हमारे देश में भी माना जाना चाहिए।" 


    1. संसद् का संगठन-

    • संसद् की सम्प्रभुता एवं शक्ति संसद के स्वयं के संगठन से मर्यादित हो गई है। 

    • संसद की रचना तीन अवयवों के मिलने से हुई- लोकसदन, लॉर्ड-सभा तथा राजा। 

    • आज राजा की शक्ति औपचारिक मात्र रह गई है तथा लॉर्ड-सभा लगभग शक्तिहीन हो गई है। 

    • व्यवहारतः लोकसदन ही संसद् की शक्तियों का प्रतीक है, किन्तु फिर भी विधि-निर्माण में विशेष प्रक्रियाओं को अपनाने के कारण ये तीनों अवयव किसी न किसी रूप में एक-दूसरे को नियन्त्रित करते हैं तथा शक्तियों को केवल लोकसदन में केन्द्रीभूत होने से रोकते हैं। 


    1. अन्तर्राष्ट्रीय संगठन- 

    • संसदीय सम्प्रभुता पर अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी व्यवहारतः प्रतिबन्ध का कार्य करते हैं। 

    • संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित प्रस्तावों को ब्रिटेन द्वारा भी मान्यता दी जाती है । 

    • राष्ट्रमण्डल की भावना के अनुरूप भी ब्रिटिश संसद आचरण करती है। इससे भी ब्रिटिश संसद की शक्तियाँ आंशिक रूप से सीमित होती हैं।


    1. ब्रिटेन के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध-

    • ब्रिटेन के अन्य राष्ट्रों के साथ सम्बन्ध भी ब्रिटिश संसद की स्थिति को सीमित करते हैं। 

    • वह अपने मित्र-राष्ट्रों के विरुद्ध कोई विधि नहीं बनाती है तथा ऐसा कोई कार्य नहीं करती है, जिसे कि इन सम्बन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। 


    • लेस्ली स्टीफेन “संसद आंतरिक एवं बाहरी दोनों रूप में सीमित है|”



    लॉर्ड-सभा (House of Lords) 

    • लॉर्ड-सभा संसार की सर्वाधिक प्राचीन विधान निर्मात्री सभा है। 

    • यह लोकसदन से भी अधिक प्राचीन है। 

    • लार्ड सभा को इंग्लैंड की लोकतांत्रिक प्रणाली में एक कुलीनतंत्रीय संस्था कहा जा सकता है, क्योंकि इसकी सदस्यता का प्रमुख आधार वंशगत है|

    • इसको नॉर्मन एंजिवन काल की 'महान् परिषद्' (The Magnum Concilium or the Great Council) की उत्तराधिकारिणी माना जा सकता है। 

    लॉर्ड-सभा की रचना-

    • लॉर्ड-सभा विश्व की सबसे बड़ी विधायी संस्था है। 

    • लार्ड सभा की सदस्य संख्या निश्चित नहीं है, क्योंकि इसमें सम्राट, प्रधानमंत्री की सिफारिश पर जितने नवीन सदस्य आवश्यक समझे नियुक्त कर सकता है| 

    • अवकाश प्राप्त प्रधानमंत्री, लोकसदन के अवकाश प्राप्त अध्यक्ष, अवकाश प्राप्त सेनापति और वायसराय, उच्च कोटि के न्यायवेत्ताऔर साहित्य, विज्ञान तथा कला में प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्तियों को इसमें नियुक्त किया जाता है| 

    • वर्तमान में लॉर्ड सभा की कुल सदस्य संख्या लगभग 785 है| 


    संवैधानिक सुधार कानून 2005 के बाद अब लार्डसभा में केवल तीन प्रकार के सदस्य हैं, जो निम्न है-

    1. आध्यात्मिक या धार्मिक लॉर्ड-

    • इनकी संख्या 26 है, जो निश्चित है| 

    • ये लोग पीयर नहीं होते, वरन धर्मगुरु (The Lords Spiritual) होते हैं। 

    • इनमें से पाँच तो एक कैण्टबरी का आर्कबिशप, एक यार्क का आर्कबिशप, एक लन्दन का आर्कबिशप, एक डरहम का बिशप और एक विंचेस्टर का बिशप होता है|

    • शेष 21 पदों पर इंग्लैण्ड के वरिष्ठ (Senior) बिशपों की नियुक्ति की जाती है।


    1. वंशगत या पैतृक पीयर-

    • ऐसी सदस्यता वंश-परम्परा के आधार जेष्ठ पुत्र को प्राप्त होती है, जिसकी आयु कम से कम 21 वर्ष की होनी चाहिए। 

    • इन सदस्यों की पाँच श्रेणियाँ हैं- बैरन (Baron), विस्काउंट (Viscount), अर्ल (Earl), मार्क्विस (Marquis) और ड्यूक (Dukese)

    • दिसंबर 1999 में पारित अधिनियम में वंशानुगत सदस्यता समाप्त कर दी गई| अपवाद स्वरूप वर्तमान में 92 वंशानुगत सदस्य है| 

    • दिसंबर 1999 में पारित अधिनियम के अनुसार वंशगत पियरों की तीन श्रेणियां है-

    1. दलीय साथी पियरों से निर्वाचित किए जाने वाले सदस्य

    2. वे पदाधिकारी जिन्हे संपूर्ण सदन निर्वाचित करता है

    3. राजघराने के सदस्य-

    • ये लार्ड सभा के प्रथम श्रेणी के सदस्य होते हैं। 

    • इनकी इनकी संख्या 4 है। 

    • ये सदस्य लॉर्ड-सभा की बैठकों में प्राय :शामिल नहीं होते हैं|


    1. आजीवन पीयर-

    • 1958 के 'Life Peerages Act' के अनुसार इनकी नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर सम्राट या महारानी करती है|

    • ये आजीवन काल (75 वर्ष) लिए नियुक्त होते हैं|

    • पारदर्शिता लाने के लिए वर्ष 2000 से House of Lords Appointment Commission  बना दिया गया है|

    • महिलाएं भी आजीवन पीयर्स बन सकती है|

    • आजीवन पीयर्स को People पियर्स भी कहा जाता है|

    • सरकार पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध आरोपित नहीं किया गया है. कि कितनी संख्या तक ऐसे पीयर मनोनीत किए जाएंगे। 

    • इन सदस्यों में सेना, कला, संस्कृति अथवा शिक्षा आदि क्षेत्रों के विशिष्ट व्यक्तियों को मनोनीत किया जाता है|

    • इस वर्ग के अन्तर्गत प्रायः वयोवृद्ध नेताओं की नियुक्ति की जाती है। 

    • उक्त अधिनियम के अधीन इंग्लैण्ड की भद्र महिलाओं और पुरुषों को लॉर्ड-सभा का सदस्य बनाया जाता है। 

    • आजीवन पीयरों को कोई वेतन नहीं मिलता, उन्हें केवल मार्ग-व्यय मिलता है। 

     

    • आजीवन पियर्स व वंशानुगत लार्ड को लौकिक लॉर्ड (Temporal Lords) कहा जाता है| 


    • Note- स्कॉटलैण्ड के प्रतिनिधि पीयर- 

    • स्कॉटलैण्ड के प्रतिनिधि पीयरों का निर्वाचन 1707 के स्कॉटलैण्ड और इंग्लैण्ड के एकीकरण कानून के उपबन्धों के अनुसार होता है। 

    • इस कानून द्वारा यह व्यवस्था की गई थी कि स्कॉटलैण्ड लॉर्ड-सभा के लिए 16 सदस्य भेजेगा जिनका निर्वाचन स्कॉटलैण्ड के पीयर करेंगे। 

    • 1963 ई. की नई व्यवस्था के अनुसार स्कॉटलैण्ड के सभी पीयर लॉर्ड-सभा में स्थान प्राप्त कर सकते हैं | 

    • 1707 के स्कॉटलैण्ड और इंग्लैण्ड के एकीकरण अधिनियम में यह व्यवस्था नहीं थी कि नए पीयर भी होंगे, अतः पुराने पीयर धीरे-धीरे समाप्त हो गए। 


    • Note- विधि-लॉर्ड या साधारण अपील लॉर्ड (लॉर्ड आफ अपील)-

    • विधि-लॉर्ड या साधारण अपील लॉडों की संख्या 9 थी। 

    • ये जीवन भर के लिए चुने जाते थे। 

    • इन लॉडों के कारण ही लॉर्ड-सभा सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय के रूप में कार्य करती थी। 

    • 1876 के अधिनियम के अनुसार इनकी नियुक्ति विधि-विशेषज्ञों, न्यायाधीशों में से की जाती है। 

    • संवैधानिक सुधार कानून 2005 के द्वारा लॉर्ड आफ अपील की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया| 


    • Note- आयरलैण्ड के प्रतिनिधि पीयर-

    • आयरलैंड के प्रतिनिधि पीयर अब लॉर्ड-सभा में नहीं रहे हैं। 

    • 1932 में आयरलैण्ड के स्वतन्त्र हो जाने के बाद से नवीन आयरिश पीयरों का मनोनयन बन्द हो जाने से इनकी संख्या निरन्तर घटती गई। 

    • 1958 में केवल एक आयरिश पीयर रह गया तथा उसकी भी 1961 में मृत्यु होने से इस वर्ग का प्रतिनिधित्व समाप्त हो गया। 


    • इस प्रकार लॉड-सभा की रचना में वंशानुगत, नियुक्ति और निर्वाचन (अब केवल वंशानुगत, नियुक्ति) तीनों ही सिद्धान्तों का समन्वय है| 

    • स्कॉटलैण्ड के प्रतिनिधि पीयर चुनाव द्वारा सदस्य बनते थे|

    • न्यायिक और धार्मिक लॉर्डो की नियुक्ति होती है। 

    • पीयर पहले स्वयं राजा द्वारा नियुक्त किये जाते थे, किन्तु अब ('Life Peerages Act' 1958 के अनुसार) इनकी द्वारा प्रधानमन्त्री के परामर्श से राजा द्वारा की जाती है। 

    • 'Life Peerages Act' 1958 के अनुसार स्त्रियों भी लॉर्ड-सभा की सदस्य हो सकती हैं, इससे पहले यह पुरुष प्रधान सदन था। 

    • 1958 से पूर्व लार्ड सभा के लगभग 90% सदस्य वंश परंपरागत थे, लेकिन अब लगभग 12% सदस्य ही वंश परंपरागत है| शेष 1958 के अधिनियम के बाद बनाए गए आजीवन पीयर्स है| 

    • लार्ड सभा के आजीवन पीयर्स ही लार्ड सभा की बैठकों में पूरी रूचि से भाग लेते हैं| 

    • एक बार लार्ड बनने पर वह इस पद और उपाधि का आजीवन उपयोग करता है। 

    • 1963 के पीयरएज एक्ट के अनुसार अब एक वंशानुगत लॉर्ड अपनी उपाधियों का परित्याग कर सकता है और लोकसदन का चुनाव लड़ सकता है।  

    • सामान्यतः सम्राट के जन्म-दिवस पर, नव-वर्ष पर तथा राज्याभिषेक और संसद्-विघटन के दिवस पर लॉर्ड बनाने का सम्मान दिया जाता है। 

    • वैसे जब प्रधानमन्त्री आवश्यक समझे उसके परामर्श से सम्राट यह सम्मान प्रदान कर सकता है। लार्ड बनाए जाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। 


    लार्ड सभा सदस्यों के विशेषाधिकार और निर्योग्यताएँ-

    • विशेषाधिकार-

    • लॉर्ड-सभा के सदस्यों को विचार अभिव्यक्त करने, संसद् का अधिवेशन बुलाने, सदन के बहुमत दल के निर्णयों के विरुद्ध संसद् की पत्रिकाओं में लिखित विरोध प्रकाशित करने आदि के विशेषाधिकार (Privileges) हैं। 

    • लार्ड सभा के सभी सदस्यों को भाषण की स्वतंत्रता है| उनके द्वारा सदन में कही गई किसी बात के आधार पर उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है, और ना ही संसद के सत्र के समय उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है| 

    • लार्ड सभा के सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से सम्राट से सार्वजनिक विषयों पर वार्ता करने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन लोकसदन के सदस्य केवल स्पीकर के माध्यम से ही सम्राट तक बात पहुंचा सकते हैं| 


    • निर्योग्यताएँ

    • उन्हें संसदीय चुनाव में मताधिकार प्राप्त नहीं है|

    • वे लोकसदन के चुनाव के लिए प्रत्याशी के रूप में खड़े नहीं हो सकते थे। 

    • 1963 के पीयरएज एक्ट पारित होने के बाद उपाधि का परित्याग करके निर्वाचन द्वारा लोकसदन की सदस्यता ग्रहण की जा सकती है। 

    • पीयरएज का एक बार परित्याग कर देने का निर्णय वापस नहीं लिया जा सकता| 

    • यदि कोई पियर लोक सेवा अधिकारी है, तो उसे लार्ड सभा में बैठने का तो अधिकार है, किंतु भाषण देने व मतदान में भाग लेने का अधिकार नहीं है| 


    • वेतन-

    • संसदीय कार्य के लिए पीयरों को कोई वेतन नहीं मिलता, किन्तु यदि वे सब बैठकों में से एक-तिहाई बैठकों में शामिल हों तो उन्हें मार्ग या यात्रा-व्यय दिया जाता है। 

    • 1957 से लार्ड सभा के सदस्यों के लिए दैनिक भत्ते की व्यवस्था की गई तथा जनवरी 1995 से लार्डो को 32 पोंड प्रतिदिन के हिसाब से उपस्थित भत्ता या दैनिक भत्ता मिलता है| 


    लार्ड सभा की गणपूर्ति और कार्य-प्रणाली 

    • लार्ड सभा वेस्टमिनिस्टर स्थित अपने वैभवशाली भवन में एकत्रित होती है| 

    • संसद् के दोनों सदनों का प्रारम्भ और सत्रावसान साथ-साथ होता है। 

    • लॉर्ड-सभा का अधिवेशन लगभग सप्ताह में केवल चार दिन सोमवार से गुरुवार तक होता है और वह भी लगभग 2 घण्टे प्रतिदिन| 

    • सदन में उपस्थिति बहुत ही कम होती है। 

    • 1957 के सुधार अधिनियम के परिणामस्वरूप अब औसत उपस्थिति 120 हो गई है

    • सभा के कोरम की पूर्ति केवल 3 सदस्यों की उपस्थिति से हो जाती है | 

    • विधि पारित करते समय 30 सदस्यों की उपस्थिति आवश्यक है। 

    • लॉर्ड-सभा के विवाद प्रायः उच्च-स्तरीय होते हैं। इसकी समिति पद्धति लोकसदन की समिति पद्धति से सरल है। एक समिति तो पूरे सदन की है और दूसरी एक स्थायी जो प्रथम समिति द्वारा पारित विधेयकों में संशोधन करती है|

    • समकालीन और प्रवर समितियाँ भी होती है, जो विशेष प्रकार के कानूनों पर विचार करती है। 


    • दो स्थायी आदेश (Two Standing Orders) है- एक के अनुसार कोई भी सदस्य एक ही विषय पर दो बार भाषण नहीं दे सकता। दूसरे आदेश के अधीन वाद-विवाद विषय से भिन्न अथवा असम्बद्ध नहीं हो सकता। 


    लॉर्ड सभा का संगठन- 


    लॉर्ड चांसलर (Lord Chancellor)-

    • 2005 के संवैधानिक सुधार अधिनियम से पहले लॉर्ड-सभा का सभापतित्व लॉर्ड चांसलर (Lord Chancellor) करता था| 

    • वह सदन का पदेन अध्यक्ष (Speaker) होता था। 

    • यह कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका तीनों अंगों का सदस्य हुआ करता था|

    • कार्यपालिका के रूप में यह प्रधानमंत्री की कैबिनेट में विधि व न्याय मंत्री होता था, जो प्रधानमंत्री की सिफारिश पर सम्राट द्वारा नियुक्त किया जाता था|

    • विधायिका के रूप में लॉर्ड चांसलर ही लार्ड सभा की अध्यक्षता किया करता था|

    • न्यायपालिका के रूप में यह अपील के सर्वोच्च न्यायालय (जो 9 लार्ड्स से मिलकर बनता था) का मुखिया होता था|

    • वर्तमान में लॉर्ड चांसलर केवल कैबिनेट का सदस्य (विधि व न्याय मंत्री) ही होता है|

    • सदन में अनुशासन सम्बन्धी अधिकार सम्पूर्ण सभा को सम्मिलित रूप से प्राप्त था, न कि लॉर्ड चांसलर को। 

    • सदस्यगण सभापति को सम्बोधित न करके सदन को सम्बोधित करते हैं अर्थात् 'माई लॉर्डस' (My Lords) कहकर अपना भाषण शुरू करते हैं। 

    • लॉर्ड चांसलर को निर्णायक मत देने का अधिकार नहीं होता था। 

    • उसकी शक्तियाँ लोकसदन के अध्यक्ष की शक्तियों से बहुत कम थी। 


    लॉर्ड सभा का स्पीकर-

    • 2005 के संवैधानिक सुधार अधिनियम के बाद से लार्ड स्पीकर लार्ड सभा की अध्यक्षता करता है|

    • 2005 से लार्ड स्पीकर का चुनाव लार्ड्स मिलकर करते हैं|

    • कोई व्यक्ति केवल दो बार ही लार्ड स्पीकर बन सकता है|

    • अब लार्ड सभा में भी लोक सदन के समान निर्वाचित अध्यक्ष है| 

    • लार्ड सभा के स्पीकर को लोक सदन के स्पीकर के समान ही सदन को अनुशासित और नियंत्रित करने का अधिकार प्राप्त है| 


    • राजा की तरफ कुछ अन्य ऐसे पीयरों की नियुक्ति भी होती है, जो अध्यक्ष की अनुपस्थिति में अध्यक्ष का कार्य करते हैं, उन्हें उपाध्यक्ष (Deputy Speaker) कहा जाता है | 


    लॉर्ड सभापति-

    • लॉर्ड-सभा की समितियों का एक लॉर्ड सभापति (Lords Chairman of the Committee) होता है| जिसके कार्य वही होते हैं, जो लोकसदन की अर्थोपाय समिति के चेयरमैन (Chairman of the Committee of Ways and Means) के होते हैं।

    • लॉर्ड सभापति ‘सारे सदन की समिति' का सभापति होता है।


    जेंटलमैन अशर ऑफ दी ब्लैक रॉड व सारजेंट एट आर्म्स-

    • सदन के स्थायी कर्मचारियों में सदन का लिपिक (Clerk of the House), जेंटलमैन अशर ऑफ दी ब्लैक रॉड (Gentleman Usher of the Black Rod) व सारजेंट एट आर्म्स  (Sergeant-at-arms) प्रमुख होते हैं। 



    1911 ई. के संसदीय अधिनियम के मुख्य प्रावधान और लॉर्ड सभा की स्थिति पर इसका प्रभाव- 

    • 1911 ई. के संसदीय अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नांकित हैं-

    1. यदि कोई धन-विधेयक, जो लोकसदन में पास होने के बाद अधिवेशन समाप्त होने के कम से कम एक मास पूर्व, लॉर्ड सभा को भेजा गया हो तथा लॉर्ड सभा के पास आने के एक महीने के अन्दर लॉर्ड सभा द्वारा स्वीकृत नहीं किया गया हो तो वह विधेयक राजा के समक्ष रख दिया जाएगा और उसके हस्ताक्षर हो जाने पर अधिनियम बन जाएगा (लॉर्ड सभा की स्वीकृति के बिना ही)।

    2. कोई विधेयक धन-विधेयक है या नहीं इस बात का निश्चय स्पीकर (लोकसदन के अध्यक्ष) द्वारा ही किया जाएगा। उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में अपील नहीं हो सकती।

    3. कोई भी अन्य लोक-विधेयक, जिसे लोकसदन तीन बार पास कर देता है और जो लॉर्ड-सभा के पास प्रत्येक बार अधिवेशन समाप्त होने के कम से कम एक मास पहले रख दिया जाता है, यदि उस सभा द्वारा प्रत्येक बार अस्वीकृत कर दिया जाता है तो वह विधेयक, बिना लार्ड-सभा की स्वीकृति के ही राजा के हस्ताक्षर हो जाने पर कानून बन जाएगा। 

    4. लोकसदन का कार्यकाल अधिक से अधिक पाँच वर्ष होगा| पहले लोकसदन का कार्यकाल सात वर्ष का था। 


    • इस अधिनियम ने लार्ड सभा से उसकी महत्वपूर्ण शक्तियां छीन ली और वैधानिक विषयों में शक्ति सन्तुलन समाप्त कर दिया। 

    • धन-विधेयकों के के संबंध में इस अधिनियम द्वारा लॉर्ड सभा को सर्वथा उपेक्षित बना दिया। 

    • विधायकीय क्षेत्र में (धन-विधेयकों को छोड़कर) अब लॉर्ड सभा के पास केवल विलंबित निषेधाधिकार (Suspensive Veto) ही शेष रहा था, अर्थात किसी विधेयक को पास होने में लार्ड सभा केवल दो वर्ष के लिए विलम्बित कर सकती थी| किन्तु 1948 में मजदूर या श्रमिक दल की सरकार द्वारा इस अवधि को घटाकर एक वर्ष कर दिया गया। 

    1949 का संसदीय अधिनियम- 

    • 10 सितम्बर, 1947 को लोकसदन द्वारा एक विधेयक पारित किया गया, जो लॉर्ड सभा द्वारा लगातार तीन अधिवेशनों में अस्वीकार किए जाने के बावजूद 1949 ई. में अधिनियम बन गया | 

    • यह अधिनियम ही 1949 ई. के संसदीय अधिनियम (Parliamentary Act, 1949) के नाम से विख्यात हुआ। 

    • इस अधिनियम द्वारा यह उपबन्धित किया गया कि यदि कोई गैर-वित्तीय विधेयक लोकसदन द्वारा एक वर्ष में दो बार पारित कर दिया जाए तो वह लॉर्ड सभा के विरोध करने पर भी पारित समझा जाएगा तथा सम्राट के हस्ताक्षर से अधिनियम का रूप प्राप्त कर लेगा। 

    • इस प्रकार 1949 के संसदीय अधिनियम द्वारा लॉर्ड सभा की गैर-वित्तीय विधेयकों के सम्बन्ध में दो-वर्षीय विलम्बकारी-शक्ति घटाकर केवल एक वर्ष कर दी गई। 

    • इस समय ब्रिटेन में मजदूर या श्रमिक दल की सरकार थी| 


    • 1911 और 1949 ई. के संसदीय अधिनियमों के प्रावधानों के कारण लार्ड सभा आज एक शक्तिहीन संस्था हो गई है। 

    • ऑग एवं जिंक के अनुसार "अब स्थिति यह हो गई है कि लार्ड सभा द्वितीय सदन नहीं, वरन् दूसरे दर्जे का सदन हो गया है।”

    • रैमजे म्योर ने तो यहाँ तक कहा कि "लॉर्ड सभा पर अंकुश लगाकर उसको शक्तिहीन कर दिया गया है। उसके सदस्य अपने दुर्भाग्य पर रो रहे हैं और लोकसदन में अपने मित्रों से शक्ति को फिर से स्थापित करने की योजना कर रहे हैं| किन्तु इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि किसी सरकार के विरुद्ध उद्दण्डता करने की लॉर्ड सभा में अब भी बहुत सामर्थ्य है।" 


    लॉर्ड सभा के अधिकार और कार्य-

    लॉर्ड सभा की शक्तियां और अधिकार निम्न है-

    1. विधायी कार्य-

    • 1911 ई. के संसदीय अधिनियम के पूर्व लॉर्ड सभा को लोकसदन के समकक्ष ही विधि-निर्माण के अधिकार प्राप्त थे, परन्तु इस अधिनियम ने लार्ड सभा की शक्तियों को अत्यन्त सीमित कर दिया। 

    • आज उसका कार्य प्रायः विधेयकों का पुनः वाचन करना, आलोचना करना व संशोधन करना मात्र रह गया है। 

    • वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में तो यह बात भी लागू नहीं होती। वित्त विधेयक लॉर्ड सभा में प्रस्तावित नहीं किए जाते तथा लोकसदन का अध्यक्ष ही निर्णय करता है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं। लॉर्ड सभा को वित्त विधेयक में संशोधन करने का भी अधिकार प्राप्त नहीं है। लोकसदन द्वारा पारित होने के एक माह के बाद वित्त-विधेयक निश्चित रूप से स्वीकृति हेतु भेज दिया जाता है, चाहे लॉर्ड सभा उसे स्वीकार करे या न करे। 

    • अन्य विधेयक किसी भी सदन में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। 

    • अन्य विधेयकों पर लार्ड सभा संशोधन का सुझाव दे सकती है, लेकिन लोक सदन लार्ड सभा द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को उचित के आधार पर ही स्वीकार करती है, किन्तु अन्तिम निर्णय लोकसदन का ही होता है। 

    • यदि लॉर्ड सभा किसी विधेयक को संशोधित करके भेजे तो लोकसदन को यह अधिकार है कि उन संशोधनों को स्वीकार करे अथवा न करे।

    • 1949 के संशोधन अधिनियम के द्वारा यह निश्चित कर दिया गया है कि लार्ड सभा लोकसदन द्वारा पारित किसी विधेयक को केवल एक बार अस्वीकृत कर सकता है, पर यदि लॉर्ड सभा द्वारा अस्वीकृत ऐसे विधेयक को लोकसदन दूसरी बार पारित कर देता है, और इसमें एक वर्ष का समय व्यतीत हो जाता है तो वह विधेयक राजा की स्वीकृति के पश्चात् कानून बन जाता है, चाहे लॉर्ड सभा ने उसे स्वीकार किया हो या नहीं किया हो।

    • इससे स्पष्ट है कि लॉर्ड सभा की स्थिति आज केवल विलम्ब करने वाली सभा की है, उसके पास विधि-निर्माण सम्बन्धी अधिकार नहीं है | 


    1. सांविधिक उपनियमों तथा आदेशों पर विचार संबंधी कार्य-

    • लॉर्ड सभा का एक अन्य कार्य सांविधिक उपनियमों तथा आदेशों (Statutory Rules and Orders) पर विचार करना है| 

    • कार्यपालिका अधिकारियों को संसदीय अधिनियमों के अन्तर्गत विस्तृत नियम और उपनियम बनाने का अधिकार है तथा लॉर्ड सभा उनकी वैधानिकता की जाँच करती है।। 


    1. कार्यपालिका से सम्बन्धित कार्य और अधिकार-

    • लार्ड सभा को लोकसदन की तरह यह अधिकार है कि वह शासन के प्रत्येक पहलू पर सरकार से सूचना प्राप्त करे और सरकार की नीतियों और कार्यों पर स्वतन्त्रतापूर्वक वाद-विवाद कर सकता है।

    • मन्त्रिमण्डल के कुछ सदस्य (लगभग 4) भी लॉर्ड सभा से लिए जाते हैं। लॉर्ड चांसलर आवश्यक रूप से मन्त्रिमण्डल का सदस्य होता है। 


    1. न्यायिक कार्य व अधिकार- 

    • न्यायिक शक्तियाँ का प्रयोग लार्ड सभा के सभी सदस्यों द्वारा न होकर केवल विधि लॉर्ड्स (Law Lords) द्वारा किया जाता है। 

    • न्यायिक क्षेत्र में लोकसदन को कोई अधिकार प्राप्त नहीं है| 

    • लॉर्ड सभा ग्रेट ब्रिटेन व आयरलेंड का अन्तिम अपीलीय न्यायालय है | 

    • विधि लॉर्ड्स का न्यायिक कार्य सामान्यतः पुनरावेदन सम्बन्धी है और आंशिक रूप में प्रारम्भिक भी है। 

    • मौलिक या प्रारम्भिक अधिकार क्षेत्र में यह पीयरों पर विद्रोह या धोखेबाजी के मुकदमे चला सकती है तथा लोकसदन द्वारा लगाए गए अभियोगों या महाभियोगों (Impeachments) की जाँच करती है। 

    • पुनरावेदन अथवा अपीलीय (Appellate) क्षेत्र में यह अपील का उच्चतम न्यायालय है। यहाँ ग्रेट ब्रिटेन तथा उत्तरी आयरलैण्ड के मुकदमों की अपील आती है और इसका निर्णय अन्तिम होता है। 

    • विधि लॉर्ड्स का अध्यक्ष लॉर्ड चांसलर होता है। 


    1. विचारात्मक एवं आलोचनात्मक कार्य-

    • लॉर्ड सभा विधायी निकाय के रूप में इतनी उपयोगी नहीं है, जितनी विचारक निकाय के रूप में है| 

    • लॉर्ड-सभा में ख्याति प्राप्त तथा अनुभवी व्यक्ति होते हैं| जो विदेशी तथा साम्राज्य सम्बन्धी मामलों में पारंगत होते हैं। 

    • अतः राष्ट्रीय नीति पर लॉर्ड-सभा में वाद-विवाद प्रायः उच्चकोटि का तथा सुचारु रूप से होता है और लोकसदन जैसी संघर्षमय स्थिति इसमें नहीं होती। 

    • यह सदन प्रस्तावों पर अधिक वाद-विवाद करती है, विधेयकों पर कम। 

    • लॉर्ड-सभा देश की समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करती है और लोकसदन में जल्दबाजी में पारित किए गए विधेयकों पर पुनरीक्षण का कार्य करती है |

    • लोकसदन प्रायः इसके सुझावों और विचारों का आदर करता है।

    लार्ड सभा का मूल्यांकन-

    • लॉर्ड सभा के पक्ष और विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-

     

    लॉर्ड सभा के विपक्ष में तर्क- 

    • लॉर्ड सभा का विरोध सबसे अधिक मजदूर दल द्वारा होता है। मजदूर दल में प्रायः ओबियस या सीयेज का यह कथन सुना जाता है कि "यदि द्वितीय सदन प्रथम सदन से सहमत नहीं होता तो उपद्रवी है, और यदि सहमत होता है तो व्यर्थ है।"
    • जे. आर. क्लाइंस (J. R.Clynes) के शब्दों में मजदूर दल का मत है कि "लॉर्ड-सभा एक ऐसी संस्था है, जिसको ठीक से सुधारा नहीं जा सकता। उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए।" 


    • इस सदन की आलोचना में निम्नांकित तर्क दिये जाते हैं- 

    1. अप्रजातान्त्रिक-

    • लॉर्ड-सभा अप्रजातान्त्रिक है, जिसके लगभग 90 प्रतिशत सदस्य (1958 के बाद घटकर वर्तमान में 20%) बड़े-बड़े जागीरदार और कुलीन घराने के व्यक्ति हैं। ये सदस्य निर्वाचित नहीं होते हैं, बल्कि वंशानुगत होते हैं। 

    • संगठन की दृष्टि से उसमें समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं पाया जाता।

    • ऑगस्टाइन बिरेल (Augustine Birrell) के शब्दों में, "लॉर्ड-सभा अपने अतिरिक्त किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करती।" 

    • लोकतंत्रीय सिद्धांत के अनुसार द्वितीय सदन भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होना चाहिए, परंतु ब्रिटेन में लार्डसभा के गठन का आधार निर्वाचन न होकर मनोनयन है| 


    1. धनिकों व निहित स्वार्थों का गढ़-

    • लॉर्ड-सभा धनिकों और निहित स्वार्थों का समूह है, जिसमें सार्वजनिक कम्पनियों के संचालकों को अधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त है। यह सभा वस्तुतः महान् उद्योगों और व्यापारिक संस्थानों द्वारा शासित होती है। 

    • इसी कारण लार्ड सभा को धनिको की सभा कहा जाता है| 

    • कार्टर के अनसार "लॉर्ड-सभा केवल धन एवं विशेषाधिकार का प्रतिनिधित्व ही नहीं करती, बल्कि वह तो स्वयं धन और विशेषाधिकार का दुर्ग है।" 

    • रैम्जे म्योर के अनुसार “लार्ड सभा पूंजीपतियों का एक रक्षक दुर्ग है|”


    1. एक दल की प्रभुता

    • लॉर्ड-सभा में सदैव अनुदार (Conservative) दल का ही प्रभुत्व रहता है। 

    • जेनिंग्स ने लॉर्ड-सभा को ‘अनुदार दल की जड़’ कहा है। 

    • यही कारण है कि जब शासन-सत्ता रूढ़िवादी दल के हाथ में होती है तो लॉर्ड-सभा हर बात में लोकसदन का समर्थन करती है, किन्तु जब सरकार अन्य किसी दल की होती है तो यह लोकसदन के प्रायः सभी कार्यों का विरोध करती है।

    • मेरियट के शब्दों में, "जब अनुदार दल की सरकार होती है तो लॉर्ड सभा गूंगे कुत्ते की तरह व्यवहार करती है और अन्य अवसरों पर खुंखार भेड़िये की तरह पेश आती है।" 


    1. सदस्यों की अधिकता व उदासीनता -

    • लार्ड सभा में सदस्यों की संख्या इतनी अधिक है कि यदि उनमें से अधिकांश सभा की कार्यवाही में भाग लें तो कार्य-संचालन ही कठिन हो जाए पर इससे भी बड़ा दोष यह है कि व्यवहार में सभा के अधिकांश सदस्य इसकी बैठकों में अनुपस्थित रहते हैं और अपने विधायी कर्तव्यों के प्रति कोई रुचि प्रदर्शित नहीं करते। 


    1. दोषपूर्ण संसदीय प्रक्रिया-

    • सदन की गणपूर्ति (Quorum) केवल तीन सदस्यों से हो जाती है, जबकि लोकसदन की गणपूर्ति की संख्या 40 है। 

    • विश्व के किसी भी द्वितीय सदन के इतने कम सदस्यों की उपस्थिति से सभा की कार्यवाही नहीं चल सकती|


    1. विधायी और कार्यकारी शक्तियों की निरर्थकता-

    • लॉर्ड-सभा का कार्यपालिका पर कोई नियन्त्रण नहीं है, क्योंकि मन्त्रिमण्डल केवल लोक सदन के उत्तरदायी है । 

    • विधि-निर्माण के क्षेत्र में भी उसकी शक्तियाँ अत्यन्त सीमित है।


    1. विलम्ब करने की शक्ति हानिकारक-

    • लॉस्की एवं लैंसडान का कहना है कि लॉर्ड-सभा कार्य को ठीक से नहीं कर रही है। विधेयक-अवरोध या विलम्ब की शक्ति का प्रयोग करने में निष्पक्ष नहीं रहती। लॉर्ड-सभा के सदस्य सदैव अनुदार-दल का समर्थन करते हैं और मजदूर-दल का विरोध करते हैं। 

    • संकटकाल में लॉर्ड-सभा अपनी इस शक्ति के दुरुपयोग के कारण सरकार को कुछ समय के लिए पंगु व निष्प्रभावी बना सकती है।


    1. विधेयकों को दोहराने की शक्ति अनावश्यक- 

    • लॉर्ड-सभा का एक कार्य लोकसदन की विवेकहीन शीघ्रता को रोकना और विधेयकों को दोहराना है|

    • लॉस्की उसके इस कार्य की दो कारणों से आलोचना करता है-

    1. लॉर्ड-सभा अपनी इस शक्ति के प्रयोग में सदैव मजदूर दल की उपेक्षा करती है| 

    2. लॉर्ड-सभा एक निर्वाचित सदन नहीं है, अतः उसके विरोध को जनता की अनुमति प्राप्त नहीं रहती। 


    1. द्वितीय सदन के रूप में अनुपयोगिता- 

    • अनेक लेखकों के अनुसार द्वितीय सदन के रूप में लार्ड सभा अनुपयोगी और हानिकारक संस्था है| 

    • ग्रीव्स के अनुसार लार्डसभा की अनुपयोगिता के तीन कारण है-

    1. अब व्यवहार में लोक सदन स्वयं विधि निर्माण कार्य के लिए एक द्वितीय सदन है| प्रथम सदन तो कैबिनेट और प्रशासन है, जो विधेयकों का प्रारूप तैयार करता है| 

    2. लॉर्डसभा अनावश्यक विलंब करने का कार्य करती है| 

    3. लार्ड सभा का विधेयकों के दोहराने से संबंध है| यह कार्य विधेयकों का प्रारूप बनने वाले और कानून के विशेषज्ञों की एक समिति द्वारा अच्छे प्रकार से किया जा सकता है| 


    • चर्चिल “लार्ड सभा अप्रतिनिधिक, अनुत्तरदायी एवं अनुपस्थिति संस्था है|”


    लॉर्ड-सभा के पक्ष में तर्क-

    • लॉर्ड-सभा के पक्ष में निम्नांकित तर्क दिए जाते हैं-


    1. लोकतन्त्र की सुरक्षा-

    • लॉर्ड-सभा लोकतन्त्र की सुरक्षा के लिए आवश्यक है, ताकि व्यवस्थापन पर किसी एक संस्था अथवा दल का एकाधिकार न रहे तथा लोगों की स्वतन्त्रता एवं उनके मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें। 


    1. लोकसदन की विवेकहीन शीघता व उत्साह पर नियन्त्रण-

    • कार्य की अधिकता, समय की कमी, दलगत दबाव, कानूनी बारीकियों का अल्प ज्ञान आदि के कारण लोकसदन के सदस्य विधेयकों पर पूरी तरह वाद-विवाद और विचार-विमर्श नहीं कर पाते। 

    • किन्तु लॉर्ड-सभा के सदस्य अपने विस्तृत और लम्बे अनुभव के कारण.गलत मार्ग पर जाते हुए लोकसदन का सही मार्ग-दर्शन कर सकते हैं। 

    • ऑग एवं जिंक "अनेक अवसरों पर द्वितीय सदन ने राष्ट्रीय इच्छा की व्याख्या प्रथम सदन से अधिक उपयुक्त की है और कई बार देश को जल्दबाजी एवं अविवेकपूर्ण कानूनों से बचाया है।"


    1. लोक सदन द्वारा पारित विधेयकों पर पुनर्विचार-


    1. विधि-निर्माण में सहायक-

    • विधि-निर्मात्री सदन के रूप में लॉर्ड-सभा की महत्वपूर्ण भूमिका है। साधारण विधेयक पहले लॉर्ड-सभा में भी प्रस्तावित किए जाते हैं और लोकसदन प्राय: सामान्य वाद-विवाद के बाद ही उन्हें पारित कर देती है। इस तरह लोकसदन के समय की बचत हो जाती है और उसका काम भी हल्का हो जाता है।

    • मार्टिन लिंडसे “लार्ड सभा के व्यवस्थापन संबंधी कार्य की समाप्ति से लोक सदन का कार्य बहुत (लगभग दुगुना) बढ़ जाएगा|


    1. योग्यता का भण्डार-

    • लॉर्ड-सभा एक गुणवन्त व्यक्तियों का सदन है जिसमें आध्यात्मिक, बौद्धिक और भौतिक प्रतिभा वाले व्यक्ति सदस्य होते हैं। 

    • फाइनर के अनुसार, "लॉर्ड-सभा के सदस्य पक्षपातपूर्ण राजनीति से पृथक रहकर अपनी सेवाएँ अर्पित करते हैं। उनके लिए यह सम्भव इसलिए है, क्योंकि वे सामान्य निर्वाचन पर आश्रित नहीं रहते और लोकसभा के सदस्यों की तरह कार्यभार से दबे न रहने के कारण उन्हें सोच-विचार का पर्याप्त समय मिलता है।" 


    1. जनमत को प्रभावित करने का साधन-

    • लॉर्ड-सभा में दलीय अनुशासन एवं वाद-विवाद सम्बन्धी प्रतिबन्ध न होने से सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर खुलकर विचार-विनिमय होता है, अतः यह सदन जनमत को प्रभावित करने का एक महत्वपूर्ण साधन है।

    • एंड्रे मेथिओट “लॉर्डसभा लोकमत को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण प्रभाव रखती है|”


    1. ब्रिटिश जनता के स्वभाव के अनुकूल

    • लॉर्ड-सभा की उपयोगिता इस दृष्टि से भी है, कि यह सदन अंग्रेज लोगों के स्वभाव के अनुकूल है। 

    • अंग्रेजों को परम्परागत संस्थाओं से प्रेम है। उनका रूढ़िवादी चरित्र अतीतकाल से चली आ रही गौरवपर्ण संस्था (लॉर्ड-सभा) के अन्त की अनुमति नहीं देता। 

    • हैरिसन “ब्रिटेन में द्वितीय सदन कायम है, क्योंकि वह सदा ही रहा है|”


    • फाइनर “लार्ड सभा सार्वजनिक वाद-विवाद के लिए विश्व के विशिष्टतम स्थलों में से एक है, क्योंकि इसे विधेयक नीति यां प्रशासन पर किसी भी स्थिति में वाद-विवाद करने का अधिकार है| इसकी सदस्यता का एक बड़ा बाग ज्ञान और राजनीतिक, सामाजिक, व्यवसायिक अनुभवों की दृष्टि से अपेक्षाकृत श्रेष्ठ है|”

    लॉर्ड-सभा में सुधार -

    1. सर्वदलीय सम्मेलन के सुझाव 1949-

    • 1949 के संसदीय अधिनियम द्वारा लार्डसभा की रचना में कोई सुधार नहीं किया गया था तथा यह सोचा गया कि सभी दलों की सहमति से लार्डसभा की योजना तैयार की जानी चाहिए| 

    • अत: 1949 में सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें लार्ड सभा में सुधार के लिए निम्न सुझाव दिए गए-

    1. वंश परंपरागत सदस्यता का अंत कर दिया जाए| 

    2. व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और सार्वजनिक सेवा के आधार पर संसदीय लॉर्ड नियुक्त किए जाएं| 

    3. संसदीय लार्डो में कुछ राजवंश के सदस्य और आध्यात्मिक लार्ड भी सम्मिलित हो| 

    4. लार्डो को लोकसदन के सदस्यों की भांति वेतन दिया जाए| 

    5. महिलाओं को लार्डसभा के सदस्यता प्रदान की जाए| 

    6. जो पियर संसदीय लार्डो की श्रेणी में नहीं आ सके, उन्हें लोकसदन के लिए मतदान का अधिकार और निर्वाचित होने का अधिकार दिया जाए| 


    • लेकिन यह योजना कार्यरूप में परिणत नहीं हो सकी| 


    1. मजदूर दल का श्वेत पत्र 1968-

    • 1968 में मजदूर दल की सरकार ने एक श्वेत पत्र प्रकाशित किया| 

    • श्वेत पत्र में प्रकाशित योजना काउद्देश्य- लोक सदन को वास्तविक स्वतंत्रता प्रदान करना और लार्ड सभा को प्रजातांत्रिक दिशा प्रदान करना| 

    • इस योजना में कहा गया कि लार्डसभा की दो श्रेणियां होनी चाहिए-

    1. मत देने वाले सदस्य (Voting Peers)

    2. मत न देने वाले सदस्य (Non-Voting Peers)


    • सदस्यता के संबंध में उत्तराधिकार की व्यवस्था का अंत कर दिया जाना चाहिए|

    • मत देने वाले सदस्यों को वेतन दिया जाना चाहिए| 

    • लार्ड सभा को केवल 6 माह तक ही देर लगाने का अधिकार होना चाहिए| 


    • सदस्यों के विरोध के कारण यह योजना वापस ले ली गई थी| 


    1. 1958 का जीवन-पर्यन्त पीयर अधिनियम (Life Peerages Act, 1958)-

    • इस अधिनियम के आधार पर तीन मुख्य सुधार किए गए-

    1. कुछ सीमित संख्या के जीवनपर्यन्त पीयर (Life Peers) रखे गए, 

    2. स्त्रियों को भी पीयर बनाने की व्यवस्था की गई,

    3. सदस्यों के लिए कुछ दैनिक भत्ता आरम्भ किया गया। 


    1. पीयरऐज एक्ट (Peerage Act), 1963)-

    • इस अधिनियम के अन्तर्गत ये सुधार किए गए-

    1. पैतृक लॉर्ड जीवन भर के लिए अपने लॉर्ड पद का परित्याग कर सकते हैं, किन्तु उत्तराधिकारी को लॉर्ड पद फिर से मिल सकता है। 

    2. स्कॉटलैण्ड के सभी पीयर लॉर्ड-सभा के सदस्य बना दिए गए|. 

    3. आयरलैण्ड के पीयरों को लोकसदन का चुनाव लड़ने का अधिकार दिया गया| 

    4. महिला लॉडॉ को भी ये सब अधिकार प्रदान किए गए। ये क्रान्तिकारी परिवर्तन थे।


    1. पीयरऐज एक्ट 2000-

    • मजदूर दल की सरकार ने पीयरऐज एक्ट 2000 पारित करके यह निश्चित कर दिया कि भविष्य में पुश्तैनी लॉर्ड का देहांत हो जाने पर उसके पुत्र या उत्तराधिकारी को लॉर्ड नहीं बनाया जाएगा| 


    लोकसदन (House of Commons) 

    • लोकसदन संसार का सबसे पुराना प्रतिनिधि सदन है। 

    • इंग्लैण्ड की व्यवस्थापिका के रूप में यह इतना महत्वपूर्ण है कि बोलचाल में हम इसे प्रायः संसद का पर्यायवाची मान लेते हैं। 

    • 1948 ई. के प्रतिनिधित्व-कानून पारित होने के बाद से लोकसदन अब पूर्णतः एक प्रतिनिधि सभा के रूप में परिवर्तित हो गया। 

    • ब्रिटिश शासन व्यवस्था के अंतर्गत संसद की संप्रभुता का जो सिद्धांत है, आज उसका तात्पर्य लोकसदन की प्रभुसत्ता से है| 

    • सर रॉबर्ट वालपोल “जब कोई मंत्री संसद से परामर्श लेता है, तो वह लोकसदन से ही परामर्श लेता है| जब सम्राट संसद को विघटित करता है, तब वह लोकसदन को ही विघटित करता है|”

    • न्यूमैन “संसद की प्रभुसत्ता लोक सदन में निवास करती है|”


    लोकसदन की सदस्य संख्या

    • वर्तमान में लोकसदन की सदस्य संख्या 646 है, जिसमें ब्रिटेन 529, स्कॉटलैंड 59, वेल्स 40, उत्तरी आयरलैंड 18 है|

    • लोकसदन के सभी सदस्य पृथक्-पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों में ‘एक व्यक्ति एक मत' के आधार पर वयस्क मताधिकार द्वारा चुने जाते हैं। 

    • बहुमत प्रणाली फर्स्ट पास्ट द पोस्ट  सिस्टम के आधार पर चुनाव होते हैं तथा 1872 से ब्रिटेन में गुप्त मतदान की प्रणाली को अपना लिया गया है| 

    • 1969 के अधिनियम के अनुसार ब्रिटेन में वयस्क मताधिकार की आयु 18 वर्ष है। ब्रिटेन में पहले कुछ बहुल-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र भी थे, किन्तु 1948 से सभी निर्वाचन क्षेत्र एक-सदस्यीय हैं। 

    • विदेशियों, देशद्रोहियों, घोर अपराध के लिए दण्डित व्यक्तियों और पागल या दिवालिये प्रमाणित व्यक्तियों को मताधिकार प्राप्त नहीं है। 

    • चुनाव में अवैधानिक कार्य करने वाले व्यक्तियों को 5 वर्ष के लिए मताधिकार से वंचित कर देने का प्रावधान है। 


    लोकसदन की सदस्यता के लिए योग्यता-

    • ब्रिटिश राज्य के सभी स्त्री-पुरुष, चाहे वे साम्राज्य के किसी भी भाग में निवास करते हों, निम्नांकित पात्रताओं को पूरा करने पर प्रत्याशी बन सकते हैं- 

    1. U K का नागरिक हो|

    2. उनका नाम किसी भी निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं की सूची में हो,

    3. उनकी आयु कम से कम 21 वर्ष हो| 

    4. वे राष्ट्र तथा देश के प्रति निष्ठा की शपथ लेने को तैयार हों।

     

    • परन्तु 1957 के लोकसदन अयोग्यता अधिनियम केअनुसार निम्नलिखित व्यक्ति लोकसदन की सदस्यता के योग्य नहीं हैं-

    1. जो लॉर्ड-सभा के सदस्य हैं, (किन्तु 1963 के अधिनियम के अनुसार लॉर्ड-सभा का सदस्य लॉर्डशिप त्याग कर लोकसदन के लिए चुनाव लड़ सकता है।) 

    2. जो नाबालिक है। 

    3. जो विदेशी, पागल, दिवालिया या फौजदारी कानून के अनुसार दण्डित हों।

    4. जो उत्तरी आयरलैंड, इंग्लैंड तथा स्कॉटलैंड चर्च के पादरी हो अथवा रोमन कैथोलिक चर्च के पादरी हो,

    5. जो स्कॉटलैंड या ब्रिटेन के पीयर हो| 

    6. जो नगरों के मेयर और काउन्टियों के शैरिफ हैं। 

    7. जो क्राउन के वेतनभोगी तथा राजकीय सेवा में नियुक्त व्यक्ति हों। 

    8. जो सरकारी ठेकों या अन्य प्रकार से सरकार द्वारा लाभान्वित होते हैं। 


    लोकसदन का कार्यकाल-

    • सामान्यतः लोकसदन का कार्यकाल पाँच वर्ष है, लेकिन संकटकाल में इसका कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है। 

    • यह राजा का विशेषाधिकार है, कि वह प्रधानमन्त्री की प्रार्थना पर अवधि के पूर्व ही उसे विघटित या भंग कर दे। 


    लोकसदन का संगठन- 

    • चुनाव के लगभग दो सप्ताह में ही नई संसद का अधिवेशन आहूत कर लिया जाता है। 

    • जब संसद् का प्रथम अधिवेशन बुलाया जाता है तो लॉर्ड-सभा का एक संदेशवाहक, जिसे 'जैण्टिलमैन अशर ऑफ दि ब्लेक रॉड (Gentleman Usher of the Black Rod) कहते हैं, सब सदस्यों को लॉर्ड-सभा में जाने के लिए आह्वान करता है । 

    • वहाँ पर लॉर्ड चांसलर लोकसदन के सदस्यों को अपना अध्यक्ष (Speaker) चुनने के लिए कहता है। 

    • अध्यक्ष के अतिरिक्त सदन में अन्य पदाधिकारी भी चुने जाते हैं। 

    • इन संसदीय अधिकारियों में अर्थोपाय समिति का अध्यक्ष (Chairman of the Committee of the Ways & Means), उपाध्यक्ष (Deputy Speaker) प्रमुख होते हैं। 

    • संसदीय स्थायी अधिकारियों में सदन का लिपिक (Clerk of the House), सारजेण्ट एट आर्म्स (Sergeant at Arms) व चेपलैन (Chaplain) प्रमुख होते हैं। 

    • सदन के लिपिक के कार्यों की प्रकृति बहुमुखी है। यह सदन की आज्ञाओं पर हस्ताक्षर करता है, लॉर्ड-सभा को भेजे जाने वाले विधेयकों को पृष्ठांकित (Endorse) करता है, सदन की कार्यवाही का लेखा रखता है और अध्यक्ष की सहायता से सरकारी पत्रिका (Official Journal) तैयार करता है|

    • सारजेण्ट एट आर्म्स का कार्य सदन की प्रतिष्ठा को बनाए रखना है| वह सदन की सब आज्ञाओं को लागू करवाता है| द्वारपाल एवं संदेशवाहकों को संदेश देता है तथा सदन के अधिपत्रों (Warrants) पर अमल करता है। 


    लोकसदन की गणपूर्ति (Quorum)-

    • लोक सदन की गणपूर्ति 40 सदस्यों से होती है। 

    • प्रचलित पद्धति के अनुसार लोक सदन का वर्ष में कम से कम एक अधिवेशन अवश्य होता है, क्योंकि कुछ विधेयक एक बार में केवल एक ही वर्ष के लिए पारित किए जाते हैं। 


    लोकसदन के अधिवेशन व कार्यवाही सम्बन्धी कुछ प्रमुख नियम 

    • संसद के अधिवेशन वेस्टमिंस्टर भवन (Palace of the Westminster) में होते है|

    • दोनों सदन अलग-अलग बैठते हैं| 

    • कुछ विशेष अवसरों पर दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन भी होते हैं| जैसे- संसद् के उद्घाटन के समय तथा राजकीय सन्देशों, भाषणों को सुनने के लिए| 

    • लोकसदन के अधिवेशन सप्ताह में प्रथम 5 दिन होते हैं। शनिवार को साधारणतया अवकाश रहता है|

    • वर्ष भर में लोकसदन कम से 160 दिन बैठती है। 

    • संकटकाल में संसद् को कभी भी आमन्त्रित किया जा सकता है। 


    लोकसदन के सदस्यों के वेतन, भत्ते तथा विशेषाधिकार 

    • लोकसदन के सदस्यों को नियमित वेतन तथा वार्षिक भत्ता प्रदान प्रदान किया जाता है। 

    • उन्हें बिना किराए के रेल-यात्रा की सुविधा भी प्राप्त है, किन्तु उन्हें अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों के समान ऑफिस या क्लर्क आदि की सुविधा प्राप्त नहीं है। 

    • 1965 में लोकसभा के सदस्यों के लिए पेंशन की भी व्यवस्था की गई| जो व्यक्ति कम से कम 10 वर्ष तक लोकसभा का सदस्य रह चुका है, तो उसे 65 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर पेंशन मिलती है| 


    • इसके अतिरिक्त लोकसदन के सदस्यों को निम्नलिखित विशेषाधिकार प्राप्त है-

    1. सदस्यों को सदन में भाषण की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त है। सदन में कहीं गई किसी बात के लिए उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। 

    2. सदन का अधिवेशन आरम्भ होने के 40 दिन पूर्व और अधिवेशन समाप्त होने के 40 दिन बाद तक की अवधि में किसी भी सदस्य को दीवानी मामले में बंदी नहीं बनाया जा सकता है। 

    3. लोकसदन के सदस्यों का सामूहिक रूप से ब्रिटिश सम्राट के पास पहुंचने का अधिकार, अर्थात् वे स्पीकर के माध्यम से अपनी बात सम्राट तक पहुँचा सकते हैं। 

    4. सदस्यों को अपनी कार्यवाही पर नियन्त्रण का अधिकार है और यदि सदन चाहे तो अपनी गुप्त कार्यवाही भी चला सकता है। 

    5. लोकसदन किसी सदस्य की अयोग्यता के सम्बन्ध में अपना निर्णय दे सकता है और इस आधार पर सदस्य का चुनाव निरस्त कर सकता है। 

    6. यदि कोई व्यक्ति सभा के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करता है, तो सदन स्वयं उसे दण्डित कर सकता है। 


    लोकसदन की शक्तियाँ और कार्य- 

    • लोक सदन की निम्न शक्तियां व कार्य है-


    1. लोकसदन के व्यवस्थापन सम्बन्धी अधिकार व कर्तव्य-

    • ब्रिटेन में संसद का अर्थ है- राजा, लॉर्ड-सभा एवं लोकसदन

    • किन्तु व्यवहारतः इसकी शक्तियों का उपभोग लोकसदन ही करता है, क्योंकि लोकप्रिय सम्प्रभुता इसी में निहित है| 

    • लोकसदन ही मूलतः वह संस्था है, जिसे साधारण और संवैधानिक दोनों प्रकार के कानून-निर्माण करने का अधिकार है। 

    • विधि-निर्माण के क्षेत्र में अन्तिम निर्णय लोकसदन को ही प्राप्त है। लॉर्ड-सभा केवल विधेयकों के कानून का रूप लेने में कुछ विलम्ब कर सकती है। 

    • धन-विधेयकों पर लॉर्ड-सभा को केवल एक महीना और साधारण विधेयकों पर एक वर्ष का स्थगन विशेषाधिकार प्राप्त है । 

    • राजा की स्वीकृति देने की शक्ति औपचारिक-मात्र है। 

    • लोकसदन की शक्ति पर न्यायिक पुनरावलोकन जैसा कोई बन्धन नहीं है।


    1. लोकसदन के वित्तीय अधिकार व कर्तव्य-

    • वित्त-विधेयको की स्थापना लोकसदन में ही हो सकती है। उसको ही बजट के सम्बन्ध में एकाधिकार प्रात है|

    • राजकीय बजट का निर्माण मन्त्रिमण्डल द्वारा किया जाता है। वित्त मन्त्री (Chancellor of Exchequer) द्वारा ही उसे लोकसदन में प्रस्तुत किया जाता है|

    • कोई भी धन विधेयक राजा की सिफारिश पर ही लोकसदन में प्रस्तुत किया जा सकता और राजा की सिफारिश व्यवहार में मन्त्रिमण्डल की ही सिफारिश होती है। 

    • जब तक राजमुकुट की ओर से माँग न की गई हो, वह न तो कोई वित्तीय अनुदान पास कर सकती है और न कोई कर ही लगा सकती है। 

    • बजट पेश हो जाने के बाद भी लोकसदन को उसमें कटौती करने का या उसे अस्वीकार करने का ही अधिकार है। वह अपनी ओर से व्यय में कोई वृद्धि नहीं कर सकती और न कोई नवीन व्यय या कर प्रस्तावित कर सकती है। 

    • दलीय बहुमत के कारण मन्त्रिमण्डल किसी भी वित्तीय विधेयक या बजट को प्रायः उसी रूप में पारित करा लेता है, जिस रूप में वह उसे प्रस्तुत करता है| 

    • लोकसदन अर्थोपाय अथवा उपायों और साधनों की समिति में वाद-विवादों तथा वित्तीय अधिनियम द्वारा धन एकत्र करने पर नियन्त्रण रखती है| 

    • लोकसदन सप्लाई समिति विनियोजन अधिनियम (Appropriation Act) और कम्पट्रोलर तथा ऑडिटर जनरल के द्वारा धन के विनियोग पर नियन्त्रण रखती है|

    • लोकसदन सार्वजनिक हिसाब-किताब की समिति के द्वारा हिसाब-किताब की जाँच करती है और प्रश्नों पर वाद-विवाद के द्वारा व्यय करने के तरीकों की आलोचना करती है।


    1. लोकसदन के कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकार एवं कर्तव्य-

    • लॉस्की ने लिखा है कि “सरकार बनाना तथा उसे राज-काज करने का नियमित अधिकार प्रदान करना या न करना लोकसदन का ऐसा प्रमुख कार्य है, जिस पर अन्य सब कार्य निर्भर करते हैं।”

    • सांसदात्मक प्रजातंत्र होने के कारण ब्रिटिश कार्यपालिका पर पूर्ण नियंत्रण लोकसदन का है, लार्ड सभा का नहीं| 

    • लोक सदन मन्त्रिमण्डल से कुछ मामलों की जानकारी मात्र प्राप्त कर सकता है। 

    • केवल लोक सदन ही मंत्रिमंडल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव ला सकता है|

    • मंत्रिमंडल लोकसदन के प्रति उत्तरदायी होती है तथा लोकसदन मंत्रिमंडल को भंग कर सकता है| 

    • लोकसदन के सदस्य मंत्रियो से प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं| वे मंत्रिमंडल के विरुद्ध काम रोको प्रस्ताव या निंदा प्रस्ताव ला सकते हैं| 

    • व्यवहार में नीति-निर्माण सम्बन्धी अधिकांश निर्णय मन्त्रिमण्डल द्वारा लिए जाते हैं, लोकसदन की स्वीकति केवल औपचारिक होती है। 


    1. लोकसदन द्वारा जनता की शिकायतों का निवारण- 

    • लोकसदन के सदस्य जनता के प्रतिनिधि हैं। वे जनता की शिकायतों को सदन के माध्यम से सरकार तक पहुँचाते हैं|


    1. शासन को मर्यादित रखकर लोकतंत्र की रक्षा करना-

    • लोकसदन के द्वारा शासन को मर्यादित रखने के लिए प्रश्न पूछने, निंदा प्रस्ताव और आलोचना प्रस्ताव का सहारा लिया जाता है| 

    • लोकसदन के इन्हीं कार्यों के कारण विंस्टन चर्चिल ने इसे स्वतंत्रता की रक्षा का दुर्ग कहा है तथा जेनिंग्स ने इसे आलोचना का मंच व लोकमत का केंद्र कहा है| 


    1. जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करना-

    • बैजहाट के अनुसार लोकसदन का एक महत्वपूर्ण कार्य शैक्षणिक है| 

    • लोकसदन में हुए वाद-विवाद जनता की राजनीतिक शिक्षा के महत्वपूर्ण साधन है| 

    • न्यूमैन “संसद शासक और शासितों के बीच होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया का केंद्र बिंदु है, जिसके द्वारा भी एक-दूसरे को प्रभावित करते है|”


    1. कुशल राजनीतिज्ञों का चयन-

    • लोकसदन भावी राजनीतिज्ञों के चयन और प्रशिक्षण का स्थान है, क्योंकि कोई व्यक्ति ब्रिटेन के सार्वजनिक क्षेत्र में ख्याति प्राप्त करना चाहता है, तो उसे लोकसदन में अपनी योग्यता प्रदर्शित करनी चाहिए| 

    • न्यूमैन “संयुक्त राज्य अमेरिका में राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त करने के लिए अनेक मार्ग हैं, परंतु ब्रिटेन में एक ही (लोकसदन) मार्ग है|”


    लोकसदन का अध्यक्ष (Speaker of the House of Commons)- 

    • ब्रिटिश लोकसदन के अध्यक्ष को 'स्पीकर' (Speaker) कहा जाता है| 

    • 1936 ई. में सर टॉमस हंगरी फोर्ड ने सबसे पहले इस पद को वैधानिक रूप से ग्रहण किया था। 

    • ‘स्पीकर' का शाब्दिक अर्थ है- बोलने वाला| उसे स्पीकर इसलिए कहा प्रारम्भ में वह राजा और प्रजा के बीच एक कड़ी के रूप में था। वह जनता का प्रवक्ता था जिसके द्वारा जनता की आवाज राजा के सम्मुख पहुँचाई जाती थी|

    • 1919 ई. के लन्दन गजट के अनुसार लोकसदन के अध्यक्ष का पद लॉर्ड प्रेसीडेण्ट (Lord President) के बाद आता है। वह वेस्टमिंस्टर भवन में रहता है| पदमुक्त होने के बाद उसे पीयर (Peer) बनाया जा सकता है। स्पीकर के अधिकार और उसकी शक्ति को सभी दल मानते हैं। 


    अध्यक्ष की स्थिति-

    • ब्रिटिश संविधान में लोकसदन के अध्यक्ष का पद महान् गौरव और शक्ति का पद है, क्योंकि-

    1. लोकसदन का अध्यक्ष सदन की कार्यवाही को निष्पक्षता तथा न्यायपूर्ण ढंग से सम्पादित करता है। 

    2. अध्यक्ष पद एक प्राचीन और गौरवमय पद है, जिसका संसद् के साथ ही विकास हुआ है। 

    3. निर्वाचन होने के बाद भी अध्यक्ष सदन के अन्दर और बाहर पूर्णतः निर्दलीय व्यवहार करता है| वह सदन के सभी दलों को समान रूप से बोलने का अवसर प्रदान करता है। 


    • ऑग व जिंक “अध्यक्ष सभा के अंदर ही नहीं, अपितु बाहर भी दलबंदी की छाया से अलग रहता है|”

    • मुनरो “जहां तक मनुष्य के लिए संभव है, वहां तक लोकसदन अध्यक्ष अपने सभी कार्यों में पूर्णतया निष्पक्ष और दलबंदी से परे होता है|”

    • क्लिप्टन ब्राउन “अध्यक्ष के रूप में मैं न तो सरकार का आदमी हूं और न विरोधी दल का| मैं लोक सदन का आदमी हूं और उससे भी बढ़कर पीछे बैठने वालों का आदमी हूं|”

    • फाइनर “पिछले 150 वर्षों का यही प्रयत्न रहा है, कि अध्यक्ष को लोकसदन के नियम और विधियों का मूर्तिमान रूप बनाया जाए और उसमें रंचमात्र भी दलबंदी नहीं रहने दी जाए|” 

    • इर्स्किन मे (Erskine May) ने लिखा है कि "लोकसदन का अध्यक्ष सदन की शक्ति, उसकी कार्यवाही और उसकी शान के सम्बन्ध में सदन का प्रतिनिधि माना जाता है। वह सदन का अत्यन्त विशिष्ट व्यक्ति होता है।"

    • एस गार्डन “स्पीकर का पद विश्व के सर्वाधिक सम्मानप्रद, गौरवपूर्ण और कठिन कर्त्तव्यों वाले पदों में से एक है|”

    • H मॉरिसन “स्पीकर सदन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सदस्य है|”

    अध्यक्ष का निर्वाचन- 
    • प्रारम्भ में राजा ही अध्यक्ष की नियुक्ति करता था, किन्तु आज उसकी स्वीकृति औपचारिक है। 

    • वर्तमान में अध्यक्ष का निर्वाचन लोकसदन के सदस्यों द्वारा सदन के प्रथम अधिवेशन के प्रथम दिन को ही किया जाता है। 

    • प्रधानमन्त्री और विपक्षी दल के नेता परस्पर विचार द्वारा किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष पद के लिए चयन करते हैं, जो सरकारी दल और प्रतिपक्षी दल दोनों को ही मान्य हो। 


    • चुनाव के बाद अध्यक्ष अपने पद की शपथ लेता है। अध्यक्ष के चुनाव की पुष्टि बाद में सम्राट द्वारा होती है।

    • अध्यक्ष का निर्वाचन लोकसदन की अवधि के लिए ही जाता है|

    Note- किन्तु परम्परा के अनुसार पुराने ही अध्यक्ष का निर्वाचन उस समय तक निर्विरोध रूप से होता रहता है, जिस समय तक वह कार्य करने को तैयार हो। यह पद्धति इतनी मान्य है कि अध्यक्ष के निर्वाचन-क्षेत्र से कोई अन्य उम्मीदवार प्रायः कभी खड़ा नहीं होता। इसलिए कहा जाता है कि ‘एक बार अध्यक्ष सदैव के लिए अध्यक्ष’ होता है। 


    • अध्यक्ष पद को निष्पक्ष रखने के लिए सामान्यतः निम्नलिखित परम्पराओं का पालन किया जाता है- 

    1. अध्यक्ष संसद् की पूर्ण अवधि के लिए निर्वाचित होता है। फ्रांस में यह केवल एक सत्र के लिए निर्वाचित होता है। 

    2. अध्यक्ष उस समय तक बार-बार चुना जाता है, जब तक कि उसकी मृत्यु नहीं हो जाती या वह स्वयं त्याग-पत्र नहीं दे देता। 

    3. अध्यक्ष का निर्वाचन सर्वसम्मति से होता है और उसे चुनाव लड़ना नहीं पड़ता। 

    4. अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद वह अपने दल से सम्बन्ध-विच्छेद कर देता है|

    5. उसे अपने निर्वाचन-क्षेत्र की परवाह करने की आवश्यकता नहीं होती। 

    6. वह वाद-विवादों में भाग नहीं लेता। 

    7. अध्यक्ष का निर्णायक मत होता है, किन्तु इसका प्रयोग वह बहुत कम करता है और जब करता है तो यथास्थिति को बनाए रखने के लिए ही। 

    8. वह सदन में और सदन के बाहर निष्पक्ष व्यवहार करता है। 


    अध्यक्ष के अधिकार व शक्तियां- 

    • ब्रिटेन में लोकसदन के अध्यक्ष के निम्न अधिकार व शक्तियां हैं। 

    1. लोकसदन का प्रतिनिधित्व-

    • अध्यक्ष सदन के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। 

    • सदन प्रतिनिधि के रूप में उसकी शक्तियों और कार्य निम्नानुसार हैं- 


    1. अध्यक्ष सदन और राजा के बीच मध्यस्थ का काम करता है।अध्यक्ष ही वित्त विधेयकों को राजा के सम्मुख स्वीकृति के लिए प्रस्तुत करता है। राजा की ओर से यदि कोई संदेश सदन अर्थात् लोकसदन को दिया जाता है तो उसे भी अध्यक्ष ही पढ़कर सुनाता है।

    2. लोकसदन और लॉर्ड-सभा के पारस्परिक सम्बन्धों और व्यवहारों में भी अध्यक्ष लोकसदन का प्रतिनिधित्व करता है। वित्त-विधेयकों को लॉर्ड-सभा में प्रस्तुत करना उसी का कार्य है। 

    3. बाह्य जगत में भी अध्यक्ष ही लोकसदन का नेतृत्व करता है| जो संसदीय प्रतिनिधि मण्डल विदेश जाते हैं उनका नेतृत्व प्रायः वही करता है।


    1. लोकसदन की अध्यक्षता-

    • अध्यक्ष की वास्तविक और मुख्य शक्तियाँ लोकसदन की अध्यक्षता से सम्बन्धित निम्नांकित हैं- 


    1. लोकसदन के 'कोरम' को अध्यक्ष सुनिश्चित करता है। 

    2. वह सदन की बैठकों का सभापतित्व करता है|

    3. बिना अध्यक्ष की आज्ञा के कोई भी सदस्य भाषण नहीं दे सकता और न किसी विधेयक के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट कर सकता है। अध्यक्ष ही निश्चित करता है कि कौनसा सदस्य बोलेगा। समस्त भाषण, वक्तव्य और प्रश्न उसी को सम्बोधित करके किए जाते हैं। 

    4. अध्यक्ष का एक महत्वपूर्ण कार्य यह है कि सदस्यों की वाद-विवाद की उचित व्यवस्था तथा क्रम का निर्धारण करना है। 

    5. अध्यक्ष वाद-विवाद को समाप्त करने के लिए कंगारू समापन लाता है| 

    6. अध्यक्ष सदन में व्यवस्था और अनुशासन बनाए रखना है| परंपरानुसार अशांत सदन में यदि अध्यक्ष खड़ा हो जाता है, तो पूर्ण शांति छा जाती है| डिजरैली “अध्यक्ष की पोशाक की खड़खड़ाहट ही गड़बड़ को शांत करने के लिए पर्याप्त होती है|”

    7. अध्यक्ष को निर्णायक मत (Casting Vote) देने का अधिकार है।

    8. वह किसी प्रश्न या 'काम रोको' प्रस्ताव को उस स्थिति में ठुकरा सकता है, जब वह उन्हें सभा के नियमों के विरुद्ध समझता हो।

    9. अध्यक्ष सारजेण्ट-एट-आर्मस की सहायता से सदन में अनुशासन रखता है| 

    10. अव्यवस्था बढ़ जाने पर वह सभा बैठक स्थगित कर सकता है।

    11. अध्यक्ष लोकसदन में अल्पसंख्यकों के हितों का भी रक्षक होता है। 

    12. लोकसदन की प्रतिष्ठा और गरिमा को बनाये रखने का दायित्व भी उसी का है। उसकी अनुमति के बिना कोई भी सदस्य गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। 


    1. लोकसदन सम्बन्धी प्रशासन-

    • अध्यक्ष लोकसदन के स्पीकर विभाग का प्रधान होता है। इस विभाग में सदन का क्लर्क, लाइब्रेरियन और कुछ अन्य सेवक होते हैं। 

    • अध्यक्ष यह देखता है कि लोकसदन की कार्यवाही का प्रकाशन ठीक रूप से होता रहे। 

    • वह राष्ट्रमण्डलीय स्पीकर सम्मेलनों की भी अध्यक्षता करता है। 

    • बाहर से आने वाले शिष्ट मंडलों का स्वागत भी करता है।

    • कौनसा विधेयक किस समिति के पास भेजा जाए, इसका निर्णय अध्यक्ष ही करता है| 


    • लोकसदन अध्यक्ष के विविध कार्यो और शक्तियों के बारे में जेनिंग्स ने कहा है कि “अध्यक्ष के सम्मान और आदर को उसकी शक्ति तथा कार्यों को बनाकर प्रकट करना संभव नहीं है|” 


    दलीय सचेतक (The Party Whips)-

    • अर्थ- व्हिप शब्द का संबंध शिकार से है तथा इस शब्द का प्रयोग कुत्तों के प्रबंधक के लिए किया जाता है, जो कोड़ो के द्वारा शिकारी कुत्तों को सही मार्ग पर रखते थे| 

    • इस तरह दलीय सचेतक अपने-अपने दल के सदस्यों को अनुशासन और नियंत्रण में रखते हैं| 

    • सत्तारूढ़ का मुख्य सचेतक संसदीय सचिव होता है और उसे राजकोष से वेतन मिलता है| अन्य सचेतको को कोई वेतन नहीं मिलता है| 

    • सतरूढ दल का मुख्य सचेतक प्रधानमंत्री के निकट संपर्क में रहता है| केयर के शब्दों में “दलीय सचेतक को प्रधानमंत्री के बांह, आंख और कान कहा जा सकता है|”

    • G M कार्टर “संसदीय पद्धति की प्रभावदायकता लोकसदन के अध्यक्ष के समान ही दलीय सचेतकों पर भी निर्भर करती है|”


    दलीय सचेतक कार्य-

    1. दलीय सचेतक सदन की गणपूर्ति बनाये रखता है| 

    2. यह सदस्यों को उनकी उपस्थिति के संबंध में आवश्यक आदेश जारी करता है| 

    3. वह सदस्यों को मत देने के संबंध में सूचित करता है| 

    4. वह मंत्रियों तथा दलीय सदस्यों के बीच संपर्क स्थापित रखता है| 

    5. वह वाद-विवाद को सुव्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं तथा अध्यक्ष को सूचित करते हैं, कि उनके दल की ओर से किन्हे बोलने के लिए आमंत्रित किया जाए| 

    6. दोनों प्रमुख दलों के सचेतक सदन की कार्यवाही के संबंध में योजना बनाते हैं| 



    समापन-

    • लोकसदन में वाद-विवाद को समाप्त करने के लिए जिस प्रक्रिया को अपनाया जाता है, उसी को समापन कहते हैं|

    • समापन के तीन प्रमुख रूप हैं-

    1. साधारण समापन

    2. गिलोटिन अथवा विभागीय समापन

    3. कंगारू समापन 



    ब्रिटिश समिति प्रणाली

    • ब्रिटेन में विधि-निर्माण के कार्यों का सम्पादन करने के लिए विविध समितियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 

    • ब्रिटिश समिति प्रणाली का प्रादुर्भाव महारानी एलिजाबेथ प्रथम समय हुआ। 


    समितियों के प्रकार-

    • लोकसदन की विविध समितियाँ हैं, जिनमें से प्रमुख समितिया निम्न हैं-

    1. सम्पूर्ण सदन की समिति (The Committee of the Whole House) 

    2. विशिष्ट अथवा प्रवर समितियों (Select Committees) 

    3. स्थायी समितियों (Standing Committees) 

    4. गैर-सरकारी विधेयक समितियों (Comminees on Private Bills)

    5. संयुक्त या सम्मिलित समितियों (Joint Committees) 


    • इनके अतिरिक्त (Parliamentary Party Committees, The Scottish Standing and Grand Committees तथा The Welsh Grand Committees भी हैं। 


    1. सम्पूर्ण सदन की समिति- 

    • यह सबसे प्रमुख समिति है तथा इसमें सदन के समस्त सदस्य सम्मिलित होते है।

    • इसमें और सदन में अन्तर केवल यही होता है कि-

    1. अध्यक्ष लोकसदन की अध्यक्षता करता है, जबकि समिति की अध्यक्षता इसके (समिति) द्वारा निर्वाचित सभापति करता है।

    2. समिति का सभापति अध्यक्ष की कुर्सी पर नहीं बैठता, बल्कि टेबुल के पास रखी सदन के लिपिक (Clerk) की कुर्सी पर बैठता है। 

    3. अध्यक्ष की शक्ति की प्रतीक गदा (Mace) भी मेज से हटा कर उसके नीचे रख दी जाती है । 

    4. सदन से भिन्न समिति में किसी प्रस्ताव के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं रहती । 

    5. समिति में एक सदस्य चाहे जितनी बार बोल सकता है। सदन के समान इसमें बोलने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता और न ही पूर्व प्रश्न के प्रस्ताव द्वारा वाद-विवाद समाप्त किया जा सकता है। 


    • सम्पूर्ण सदन की समिति में मुख्य रूप से वित्त-विधेयक ही विचारार्थ लिए जाते हैं।

    • सभी वित्त-विधेयकों के प्रायः दो भाग होते है- 

    1. एक भाग का सम्बन्ध व्यय से होता है और 

    2. दूसरे भाग का सम्बन्ध आय से होता है। 

    • सम्पूर्ण सदन की समिति जब व्यय से सम्बन्धित भाग पर विचार करती है तब उसे सम्भरण समिति (Committee of Supply) कहा जाता है और जब आय से सम्बन्धित भाग पर विचार करती है तब उसे उपाय व साधन समिति या अर्थोपाय समिति (Committee of Ways and Means) के नाम से सम्बोधित किया जाता है। 


    • वित्त-विधेयकों के अतिरिक्त निम्नलिखित विधेयक भी सम्पूर्ण सदन की समिति में भेजे जाते हैं-

    1. ऐसे विधेयक जो अस्थायी आदेश की पुष्टि करते हो

    2. ऐसे विशेष विधेयक जिनके बारे में सदन यह निश्चित करता है कि ये विधेयक सम्पूर्ण सदन की समिति के सामने प्रस्तुत किए जाएँ। 


    • जब समिति का कार्य समाप्त हो जाता है, तब समिति वापस सदन के रूप में बदल जाती है। अर्थात गदा (Mace) मेज पर रख दी जाती है, अध्यक्ष पुनः अपना स्थान ग्रहण कर लेता है और सदन का कार्य प्रारम्भ हो जाता है। 

    • समिति एक अस्थायी निकाय (Body) होती है, जो आवश्यकतानुसार किसी भी दिन नियुक्त की जा सकती है। 


    1. विशिष्ट या प्रवर समितियाँ-

    • वित्त विधेयकों के अतिरिक्त अन्य सार्वजनिक विधेयकों के लिए विशिष्ट या प्रवर समितियों होती हैं। 

    • ये दो प्रकार की हैं-

    1. तदर्थ विशिष्ट समितियाँ (Selection Committees)- तदर्थ समितियाँ अस्थायी होती हैं और विधेयक के विचार की समाप्ति साथ ही इनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। 

    2. सत्रीय विशिष्ट समितियाँ (Sessional Committees)- सत्रीय विशिष्ट समितियाँ सदन द्वारा प्रत्येक सत्र के आरम्भ में नियुक्त की जाती हैं और सत्र के अन्त तक चलती हैं। इनमें से कुछ समितियों के नाम हैं- प्रवर समिति, लोक-लेखा समिति, स्थायी आदेश समिति, विशेषाधिकार सम्बन्धी समिति, संविधिक विलेख प्रवर समिति|


    • लोकसदन स्वयं निर्णय करता है, कि कौन-कौनसी विशिष्ट समितियाँ बनायी जाएँ और वही उन समितियों के लिए सदस्यों के नामों का चयन भी करता है। 


    1. स्थायी समितियाँ- 

    • विशिष्ट समितियों से अधिक महत्वपूर्ण स्थायी समितियाँ हैं। 

    • इससे कम से कम 10 तथा अधिक से अधिक 15 तक विशेषज्ञ होते हैं। 

    • स्थायी समितियों प्रत्येक संसद् गठन के पश्चात् प्रथम अधिवेशन पर बना दी जाती है, तब तक बनी रहती है जब तक कि उस संसद का सत्र समाप्त न हो जाए।

    • स्थायी समितियों में से प्रत्येक की सदस्य संख्या 20 होती है, किन्तु किसी विशेष विधेयक के विचारार्थ इनमें 30 तक और सदस्य नियुक्त किए जा सकते हैं, अर्थात् इनके सदस्यों की संख्या 50 तक हो सकती 

    • नए सदस्यों की नियुक्ति तत्सम्बन्धी विधेयक के प्रति उसके ज्ञान और अनुभव के आधार पर होती है।

    • सभी राजनीतिक दलों के सदस्य इन समितियों में उसी अनुपात से जाते हैं जिस अनुपात में सदन में उनकी संख्या होती है| 


    1. संयुक्त समितियाँ-

    • कभी-कभी लॉर्ड-सभा और लोकसदन दोनों सदनों की संयुक्त समितियों की भी नियुक्ति होती है।


    1. गैर-सरकारी विधेयक समितियाँ-

    • गैर-सरकारी विधेयकों के परीक्षण के लिए गैर-सरकारी विधेयकों की समिति होती हैं।

    • इन समितियों की कार्य-प्रणाली विशिष्ट या प्रवर समितियों जैसी है। 

    • इनकी नियुक्ति का भार चयन-समिति पर है। 

    • ये समिति स्थायी होती हैं। 

    • लोकसदन द्वारा निर्मित ऐसी समितियों में चार सदस्य तथा लॉर्ड-सभा द्वारा निर्मित ऐसी समितियों में पाँच सदस्य होते हैं। 

    • ये उन गैर-सरकारी विधेयकों का परीक्षण करती हैं, जिनका द्वितीय वाचन (Second Reading) में विरोध किया जाता है। 

    • ये समितियों अर्द्ध-न्यायिक पद्धति (Quasi-Judicial Line) पर कार्य करती हैं।



    विधि-निर्माण प्रक्रिया 

    • ब्रिटिश साम्राज्य के लिए कानूनों का निर्माण संसद का सबसे प्रमुख कार्य है। 

    • विधेयकों के प्रकार- दो प्रकार

    1. सार्वजनिक विधेयक

    2. निजी विधेयक 


    • सार्वजनिक विधेयक भी दो प्रकार के होते है-

    1. प्राइवेट मेंबर्स विधेयक 

    2. सरकारी विधेयक


    • सरकारी विधेयक भी दो प्रकार के होते हैं-

    1. सामान्य विधेयक

    2. वित्त विधेयक


    सार्वजनिक विधेयक-

    • सार्वजनिक विधेयक वे होते हैं, जिनका सम्बन्ध देश की सम्पूर्ण जनता से या जनता के बहुत बड़े भाग से होता है| उदाहरणार्थ कर सम्बन्धी विधेयक, प्रशासनिक विधेयक, मताधिकार सम्बन्धी विधेयक, अनिवार्य शिक्षा सम्बन्धी विधेयक आदि । 

    • सार्वजनिक विधेयकों के 2 भेद होते हैं

    1. गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयक (Private Member's Bills)

    • जब कोई सार्वजनिक विधेयक प्राइवेट, अर्थात् व्यक्तिगत या गैर-सरकारी सदस्य द्वारा प्रस्तुत किया जाता है तो उसे गैर-सरकारी सदस्यों का विधेयक कहा जाता है।

    • इस प्रकार के विधेयकों पारित होना बहुत कठिन होता है।


    1. सरकारी विधेयक (Government Bills)-

    • उन सार्वजनिक विधेयकों को, जिन्हें सरकार द्वारा अर्थात् मन्त्रिमण्डल के किसी सदस्य द्वारा प्रस्तावित किया जाता है, सरकारी विधेयक कहा जाता है। 

    • इन विधेयकों को संसद से पारित कराना सरकार का उत्तरदायित्व होता है। 


    • सरकारी विधेयक भी दो भागों में बाँटे जा सकते हैं-

    1. वित्त-विधेयक- वित्त विधेयक मन्त्रिमण्डल के सदस्य द्वारा राजा की सिफारिश पर लोकसदन में प्रस्तावित किए जाते हैं| इन्हें लॉर्ड-सभा में प्रस्तावित नहीं किया जा सकता। कौन-सा विधेयक वित्त विधेयक है इसका निर्णय अध्यक्ष (Speaker) करता है।


    1. साधारण अथवा अवित्तीय विधेयक- वित्त विधेयकों के अतिरिक्त जो सार्वजनिक विधेयक सरकार द्वारा प्रस्तावित होते हैं, वे अवित्तीय या साधारण विधेयक कहलाते हैं। 

    व्यक्तिगत या असार्वजनिक या निजी विधेयक-

    • ये वे विधेयक हैं, जिनका सम्बन्ध सम्पूर्ण देश की जनता से न होकर किसी स्थान-विशेष की जनता से अथवा किसी संस्थान या संस्था से होता है| 

    • उदाहरणार्थ- वह विधेयक जो किसी नगरपालिका या निगम से सम्बन्धित हो या विशेष प्रकार के मजदूरों के हितों के लिए हो या किसी विशेष स्थान पर सुधार-योजना के लिए हो, 

    • ऐसे विधेयक प्रायः नगरपालिकाओं और नगर-निगमों जैसी स्थानीय संस्थाओं द्वारा प्रार्थना-पत्रों के माध्यम से प्रस्तुत किए जाते हैं। 


    सार्वजनिक विधेयकों (वित्त-विधेयकों के अतिरिक्त) से सम्बन्धित विधि-निर्माण प्रक्रिया-

    • इन विधेयकों की विधि-निर्माण प्रक्रिया क्रमशः निम्नलिखित स्तरों (Stages) में पूरी होती है-


    1. प्रस्तुतीकरण एवं प्रथम वाचन- 

    • ब्रिटेन में विधेयक का प्रस्तुतीकरण तथा प्रथम वाचन एक साथ ही होता है। 

    • कोई भी सार्वजनिक विधेयक सैद्धान्तिक रूप में किसी भी संसद् सदस्य द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, परन्तु व्यवहार में सभी महत्वपूर्ण सार्वजनिक विधेयक सरकार की ओर से किसी न किसी मन्त्री द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं। 

    • वित्त-विधेयक अनिवार्यतः वित्तमन्त्री द्वारा ही प्रस्तुत होता है और वह भी लोकसदन में ही। 

    • अन्य विधेयक संसद् के दोनों सदनों में से किसी भी सदन में प्रस्तावित किए जा सके हैं, परन्तु महत्वपूर्ण विधयकों को प्रायः लोकसदन में ही प्रस्तावित करने की प्रथा है।


    • विधेयकों को प्रस्तुत करने की तीन विधियाँ प्रचलित हैं-

    1. साधारण प्रस्तुतीकरण 

    2. दस मिनट के नियम का प्रस्तुतीकरण 

    3. विधेयक की व्यवस्था पर प्रकाश डालने वाला प्रस्तुतीकरण 


    1. साधारण प्रस्तुतीकरण के अन्तर्गत विधेयक के प्रस्तावक को विधेयक प्रस्तुत करने से पूर्व कोई भाषण नहीं देना पड़ता। वह केवल विधेयक को प्रस्तुत कर सूचना सदन के लिपिक (Clerk of the House) को दे देता है।


    1. 10 मिनट के नियम के प्रस्तुतीकरण का प्रयोग सरकार द्वारा विवादपूर्ण और महत्व के विधेयकों के लिए किया जाता है। प्रस्तावक को और विपक्ष के एक सदस्य को थोड़े समय के लिए यह अवसर दिया जाता है कि प्रस्तावक विधेयक का उद्देश्य और उसका महत्व तथा विपक्ष उसकी आलोचना संक्षेप में सदन के सम्मुख व्यक्त करें। 


    1. विधेयक की व्यवस्था पर प्रकाश डालने वाले प्रस्तुतीकरण के अन्तर्गत प्रस्तावक अपने विधेयक के सिद्धान्तों और उसके लाभों को स्पष्ट करते हुए एक लम्बा भाषण देता है और यह प्रस्ताव रखता है कि सदन में विधेयक को प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। 


    1. द्वितीय वाचन-

    • प्रथम वाचन के पश्चात् जब विधेयक छप जाता है. तब वह सूची (Calendar) पर आ जाता है। विधेयक के दूसरे वाचन के लिए एक तारीख निश्चित कर दी जाती है। इस तारीख को प्रस्तावक यह प्रस्ताव करता है कि विधेयक को दूसरी बार पढ़ा जाए।

    • द्वितीय वाचन के समय विधेयक पर वास्तविक वाद-विवाद किया जाता है। इस वाचन में विधेयक के शीर्षक, उद्देश्य, प्रयोजन और सिद्धान्तों पर खुलकर वाद-विवाद किया जाता है। विधेयक के सिद्धान्तों और उसकी अच्छाइयों एवं बुराइयों पर विचार होता है।

    • इस अवस्था में कोई संशोधन नहीं हो सकता। सदन सम्पूर्ण को स्वीकृत या अस्वीकृत कर देता है।


    1. समिति स्तर-

    • द्वितीय वाचन के बाद विधेयक किसी समिति के सुपुर्द किया जाता है। 

    • यदि यह वित्त-विधेयक है तो सम्पूर्ण सदन की समिति में भेजा जाता है, अन्यथा शेष सभी विधेयकों को अध्यक्ष द्वारा प्रायः स्थायी समितियों में से किसी एक में भेज दिया जाता है।

    • समिति में विधेयक के अंग-प्रत्यंग पर विचार किया जाता है और इसकी धाराओं व उपधाराओं पर पूर्ण रूप से बहस की जाती है । 

    • समिति में विचार अनौपचारिक होता है। 

    • समिति द्वारा विधेयक में संशोधन सुझाए जा सकते हैं यद्यपि उन्हें स्वीकार करना या न करना सदन की इच्छा पर निर्भर करता है।


    1. प्रतिवेदन स्तर

    • समिति स्तर के बाद प्रतिवेदन स्तर (Report Stage) आता है। 

    • सम्पूर्ण सदन की समिति के पश्चात् यह स्तर केवल औपचारिक रह जाता है, 

    • लेकिन अन्य समितियों के विचारोपरान्त इस स्तर पर पर्याप्त वाद-विवाद होता है। सीधे तृतीय वाचन के स्तर पर उसी दिन आ जाते हैं। 


    1. तृतीय वाचन-

    • तृतीय वाचन विधेयक के जीवन का सदन में अन्तिम स्तर है।

    • इस पर भी वाद-विवाद होता है और और विधेयक के सिद्धांतों पर विचार किया जाता है| 

    • इसका उद्देश्य होता है कि संशोधित विधेयक को एक बार अंतिम रूप से फिर से देख लिया जाए, उसकी परीक्षा कर ली जाए और तभी उसको अंतिम स्वीकृति प्रदान की जाए| 


    1. विधेयक का द्वितीय सदन में जाना

    • एक सदन द्वारा पारित होने पर विधेयक दूसरे सदन में भेज दिया जाता है। 

    • सदन का लिपिक विधेयक को दूसरे सदन में ले जाता है। 

    • दूसरे सदन में भी फिर वही सब स्तर प्रथम वाचन, द्वितीय वाचन, समिति स्तर, प्रतिवेदन स्तर तथा तृतीय वाचन होता है| समितियों और विशिष्ट समितियों का प्रयोग नहीं किया जाता, वरन् सम्पूर्ण सदन-समिति का प्रयोग होता है। 


    1. राजा की स्वीकृति-

    • विधेयक के जीवन का अन्तिम स्तर राजकीय स्वीकृति का होता है, जो केवल औपचारिक है। 

    • यदि दूसरा सदन विधेयक को स्वीकृति दे देता है, तो विधेयक को राजा के हस्ताक्षर के लिए भेजा जाता है|

    • राजा की स्वीकृति के बाद विधेयक कानून बन जाता है एवं उसे संविधि-पुस्तक (Statute Book) में लिख दिया जाता है। 



    दोनों सदनों में मतभेद-

    • यदि दोनों सदनों में विधेयक को लेकर मतभेद रहता है तो उसे दूर करने के लिए निम्नांकित दो विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं-

    1. दोनों सदनों के कुछ प्रतिनिधि, जो प्रबन्धक (Managers) कहलाते हैं, अपने सम्मेलन द्वारा मतभेदों को समाप्त करने का प्रयास करते हैं। इस सम्मेलन में लोकसदन के प्रबंधकों की संख्या लॉर्ड-सभा के प्रबन्धकों की संख्या से दुगुनी होती है। 

    2. यदि पहली विधि या उपाय से भी दोनों सदनों के मतभेद समाप्त न हो तो 1949 में संशोधित 1911 के संसदीय अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार कार्यवाही करके लोकसदन विधेयक पारित करा सकता है| जिसके अनुसार लॉर्ड-सभा लोक सदन द्वारा पारित विधेयक को अधिक से अधिक एक वर्ष विलम्बित कर सकती है और उसके बाद राजा के हस्ताक्षर से विधेयक स्वतः कानून बन जाता है।" 


    पिंग पोंग-

    • जब तक दोनों सदनों में विधेयक पर मतभेद होने पर समझौता नहीं होता है तब तक कोई विधेयक प्रत्येक सदन के बीच आगे पीछे होता है, तो उसे पिंग पोंग कहा जाता है| 

    व्यक्तिगत सदस्यों के सार्वजनिक प्रस्तावों और विधेयकों से सम्बन्धित प्रक्रिया-

    • कुछ सार्वजनिक विधेयक गैर-सरकारी या व्यक्तिगत सदस्यों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हैं। इन पर विचार शुक्रवार को ही होता है | 

    • सदस्यगण अपने पर्चे लिपिक (Clerk) की सन्दूक में, जो मेज पर रखा रहता है, डाल देते हैं|

    • लिपिक उन पर्चो को एक-एक करके खींचता है, जिसका पर्चा पहले खिंच जाता है, वही सदस्य अपना विधेयक सत्र के पहले शुक्रवार को प्रस्तुत करता है, दूसरे पर्चे वाला दूसरे शुक्रवार को और तीसरा तीसरे शुक्रवार को आदि। इस प्रकार लगभग सब शुक्रवारों का गैर-सरकारी सदस्यों (Private members) के विधेयकों हेतु उपयोग होता है। 


    असार्वजनिक व्यक्तिगत विधेयकों से सम्बन्धित विधि-निर्माण प्रक्रिया- 

    • व्यक्तिगत विधेयक प्रायः नगरपालिकाओं और नगर-निगमों जैसी स्थानीय संस्थाओं द्वारा प्रार्थना-पत्रों के माध्यम से प्रस्तुत किए जाते हैं और इनका सम्बन्ध सार्वजनिक हित-साधन न होकर विशिष्ट-हित साधन होता है। 


    • इन विधेयकों के पारित होने की निम्नलिखित प्रक्रियाएँ हैं- 

    1. प्रत्येक विधेयक किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है और यह प्रायः संसद् के बाहर के व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा भेजा जाता है। 


    1. विधेयक प्रस्तावित करने के लिए मसविदे के साथ-साथ एक याचना-पत्र (Petition) भी भेजना अनिवार्य है। 


    1. विधेयक से सम्बन्धित याचना-पत्र संसद के दोनों सदनों के एक अधिकारी जिसे ‘असार्वजनिक विधेयकों के प्रार्थना-पत्र का परीक्षक’ कहते है, द्वारा देखा जाता है|


    1. द्वितीय वाचन में विधेयक के सिद्धान्तों पर विस्तारपूर्वक विवाद होता है और यदि विधेयक बिना किसी विरोध के पारित हो जाता है, तो उसे 'निर्विरोध विधेयकों की समिति’ में भेज दिया जाता है। यदि द्वितीय वाचन में विधेयक का विरोध होता है तो उसको व्यक्तिगत विधेयकों की विभिन्न समितियों में से किसी एक समिति के सुपुर्द कर दिया जाता है| 


    • इसके बाद की प्रक्रिया सार्वजनिक विधेयकों की तरह की होती है



    वित्त-विधेयकों से सम्बन्धित विधि-निर्माण प्रक्रिया-

    • वित्त-विधेयक वे विधेयक होते हैं जिनका सम्बन्ध करारोपण, परिवर्तन या निरस्त करने और सार्वजनिक कोष के नियोजन से होता है|

    • वित्त-विधेयक अनिवार्यतः लोकसदन में प्रस्तावित किए जाते हैं। लोकसदन वित्त-विधेयकों को संशोधित या अस्वीकृत कर सकता है, किन्तु जब अनुदान के लिए मांग की जाए, जब वह अपेक्षित राशि को कम या अस्वीकार तो कर सकती है पर उससे बढ़ा नहीं सकती| 


    • वित्त-विधेयकों की विधि-निर्माण सम्बन्धी प्रक्रिया निम्नलिखित है-

    1. सभी वित्त-विधेयक राजा या रानी की सिफारिश पर सरकार की ओर से वित्त मन्त्री द्वारा लोकसदन में प्रस्तुत किए जाते हैं। 

    2. द्वितीय वाचन में सिद्धान्तों के स्वीकार होने के उपरान्त वित्त-विधेयक संपूर्ण सदन की समिति में विचारार्थ प्रस्तुत होते हैं। जब सम्पूर्ण सदन की समिति विधेयक के व्यय से सम्बन्धित भाग पर विचार करती है तब वह संभरण समिति कहलाती है, और जब वह विधेयक के आय के साधनों से सम्बन्धित भाग पर विचार करती है तब उसे अर्थोपाय या उपाय व साधन समिति कहा जाता है। 

    3. वित्त-विधेयक भी विधि-निर्माण-प्रक्रिया की उन समस्त सीढ़ियों को पार करता है जो सार्वजनिक विधेयकों के लिए निर्धारित हैं। 

    4. लोकसदन से पारित होने के बाद वित्त-विधेयक लॉर्ड-सभा में जाते हैं जो उन्हें पारित करने में अधिक से अधिक एक माह का समय ले सकती है। इस अवधि में लॉर्ड-सभा यदि विधेयक को पारित नहीं करती तो भी विधेयक सम्राट या साम्राज्ञी के पास भेज दिया जाता है और उसके हस्ताक्षर के बाद अधिनियम का रूप धारण कर लेता है। 

    अस्थायी आदेश- 

    • असार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत विधेयकों की विधि-निर्माण-प्रणाली के दोषों को अस्थायी आदेशों (Provisional Orders) द्वारा दूर करने का प्रयत्न किया गया है|

    • संसद् विभिन्न सरकारी विभागों को यह अधिकार दे देती है, कि वे व्यक्तिगत हितों की पूर्ति के लिए अस्थायी आदेश जारी करते रहें, ताकि लोगों को संसद को याचिकाएँ भेजने की आवश्यकता न पड़े। 


    • प्रायः निम्न अस्थायी आदेश जारी किए जाते हैं-

    1. कुछ आदेशों का प्रभावी होने के लिए संसद की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं पड़ती।

    2. कुछ आदेश शुरू से ही प्रभावी हो जाते हैं, परन्तु उन्हें संसद के समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक है|

    3. कुछ आदेश ऐसे है, जिन्हें प्रभावी बनाने के लिए 40 दिन पूर्व संसद के दोनों सदनों के सम्मुख लाना आवश्यक होता है| 

    4. कुछ आदेश केवल तभी तक प्रभावी रहते हैं, जब तक कोई बाहरी निकाय आपत्ति न करे। 

    5. आदेश हर हालत में अस्थायी होते हैं और तब तक प्रभावी नहीं होते जब तक वे स्थायी आदेश पुष्टिकरण अधिनियम का अंग बनकर संसद द्वारा पारित न हो जाएं|

    संसदीय विपक्ष या प्रतिपक्ष

    • ब्रिटेन में विपक्ष का बड़ा सम्मान है। सरकार विपक्ष का पूर्ण आदर करती है और उसे ‘राजा का विरोधी दल' कहा जाता है। 

    • विपक्ष से आशा की जाती है कि उसका विरोध शान्तिपूर्ण, संवैधानिक, उत्तरदायित्व पूर्ण ढंग से हो। 

    • राजा या रानी द्वारा संसद् का उद्घाटन करते समय विपक्ष का नेता प्रधानमन्त्री के साथ खड़ा होता है। 

    • वह अपना 'छाया मन्त्रिमण्डल' भी बनाता है।


    फादर ऑफ द हाउस ऑफ द कॉमन- यह भारत के प्रोटेम स्पीकर की तरह होता है|

    बेबी ऑफ द हाउस- सबसे कम उम्र का सांसद


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