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राष्ट्रवाद के संबंध अरविंद के विचार // Arvind's views on nationalism // By Nirban PK Yadav Sir || In Hindi

    राष्ट्रवाद के संबंध अरविंद के विचार-


    • इन्होंने अपनी पुस्तक ‘लोटस टेंपल’ में राष्ट्रवाद संबंधी विचार दिए हैं|

    • श्री अरविंद आरंभ में उग्र राष्ट्रवाद के प्रणेता थे और बाद में पांडिचेरी चले जाने के बाद उनका राष्ट्रवाद पूरी तरह आध्यात्मिक राष्ट्रवाद हो गया| 


    आध्यात्मिक राष्ट्रवाद

    • इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी कहा जाता है|

    • अरविंद ने राष्ट्रवाद में भारत की आत्मा का चित्र स्पष्ट किया है| अरविंद की राष्ट्रीयता एक धार्मिक भावना से ओतप्रोत थी अर्थात ईश्वर की वाणी मानव आत्मा की अभिव्यक्ति थी|

    • अरविंद के अनुसार राष्ट्र किसी राजनीतिक तत्व का नाम नहीं है, बल्कि वह तो प्रभावी दैवत्य है- एक भवानी भारती, स्वयं में भारत मा| अर्थात अरविंद राष्ट्र को एक जीती-जागती देवी मानते हैं| अरविंद के मत में मातृभूमि के लिए किया गया त्याग किसी कुर्बानी से कम नहीं होता है|

    • अरविंद ने देशवासियों को भारत माता की रक्षा और सेवा के लिए सभी प्रकार के कष्टों को सहने की मार्मिक अपील की है| 

    • अरविंद की राष्ट्रवाद की संकल्पना आध्यात्मिक, धार्मिक, एक विश्वास, एक आस्था है|

    • 1907 में अरविंद ने वंदे मातरम में लिखा कि “राष्ट्रवाद राष्ट्र के समस्त अंगों की एक दैवी एकता प्राप्त करने की एक भावनात्मक प्रेरणा है|”

    • 1908 में अरविंद ने अपने भाषण में कहा कि “राष्ट्रवाद कोरा राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, राष्ट्रवाद एक धर्म है, जो ईश्वर की देन है|”

    • श्री अरविंद के राष्ट्रवाद का मूल मंत्र था कि ‘भारत माता के पैरों में पड़ी बेड़ियां को काटना अर्थात विदेशी शासन से मुक्त कराना उसकी संतान का परम कर्तव्य है|

    • अरविंद ने चेतावनी दी कि यदि हम अपना यूरोपीयकरण करेंगे तो हम अपनी आध्यात्मिक क्षमता, अपना बौद्धिक बल, अपनी राष्ट्रीय लचक और आत्मा पुनरुद्धार की शक्ति को सदा के लिए खो बैठेंगे|

    • अरविंद का मत था कि ईश्वरी शक्ति से व्याप्त संपूर्ण राष्ट्र जागृत होकर उठ खड़ा होगा, तो कोई भी भौतिक शक्ति उसका प्रतिकार नहीं कर सकेगी| 

    • अरविंद के मत में मानव जाति के आध्यात्मिक जागरण में भारत को अनिवार्य भूमिका निभानी है और यह तभी हो सकेगा, जब भारत स्वाधीन होगा|

    • अरविंद के मत में राष्ट्रवाद का उद्देश्य पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति है|

    • अरविंद के शब्दों में “स्वराज्य की प्राप्ति ईश्वर में विश्वास के द्वारा ही की जा सकती है|”

    • अरविंद के मत में सच्ची राष्ट्रीयता सनातन धर्म है| 

    • अरविंद के राष्ट्रवाद को कुछ लोग संकीर्ण हिंदू राष्ट्रवाद कहते हैं, लेकिन अरविंद की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा भी बहुत उदात्त थी| अरविंद का कहना था कि “हिंदू धर्म शाश्वत है, यह सार्वभौमिक धर्म है जो सबको समेटता है| एक सीमित, संकीर्ण और सांप्रदायिक धर्म तो अल्पकाल तक ही जीवित रह सकता है पर हिंदू धर्म में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं है, इस धर्म में हमें सत्य की अनुभूति होती है|”

    • विपिन चंद्र पाल “अन्य नेताओं के लिए राष्ट्रवाद केवल एक बौद्धिक मान्यता अथवा आकांक्षा है, वही अरविंद के लिए राष्ट्रवाद उनकी आत्मा का सर्वोत्तम मनोभाव है|”

    • रोनाल्ड शो ने अपनी पुस्तक The heart of Aryavarta में लिखा है “अरविंद घोष ने अराजकता के भयावह वातावरण में धर्म का स्पूर्तिदायी प्रभाव फूंकने के लिए अन्य किसी भी व्यक्ति से अधिक कार्य किया है|”


    Note - प्रो V P वर्मा, श्री अरविंद के राष्ट्रवाद को व्यक्ति के विकास हेतु संकीर्ण की अपेक्षा सार्वभौम बताते हैं|

    राज्य संबंधी विचार-

    • अरविंद की राज्य संबंधी विचारधारा विकासवादी है| वे लोक कल्याणकारी समाजवादी विचारधारा के समर्थक थे|

    • वे राज्य को एक यंत्र मानते हैं, जिसके द्वारा मानव मस्तिष्क पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया जाता है|

    • अरविंद “राज्य एक सुविधा है| हमारे सामूहिक विकास की भद्दी सुविधा इसे कभी भी स्वयं में साध्य नहीं बनाया जा सकता|”



    स्वाधीनता पर श्री अरविंद के विचार- 

    • जैसे व्यक्ति के विकास एवं समृद्धि के लिए वैयक्तिक स्वतंत्रता अनिवार्य हैं, वैसे ही राष्ट्र की शक्ति के संपूर्ण विकास तथा पूर्णता के लिए स्वशासन जरूरी है| 

    • विदेशी शासन (अंग्रेजों के शासन) के अंतर्गत कुछ ही वर्गों का विकास हुआ, जबकि अधिकांश वर्ग पिछड़े हैं| 

    • लेकिन स्वशासन के अंतर्गत अर्थात शिवाजी के अंतर्गत मराठों ने तथा गुरु गोविंद सिंह के अंतर्गत सिखों ने अधिकांश लोगों के हित के लिए कार्य किया था|

    • लोक सेवा (अफसरशाही) स्वरूप में विदेशी हैं|

    • विदेशी शासन, स्वशासन का विरोधी है|

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