द्वंदात्मक भौतिकवाद-
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत मार्क्सवाद का दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है|
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद शब्द प्लेखानोव द्वारा गढ़ा गया|
द्वंदात्मक भौतिकवाद में दो शब्द हैं-
द्वंदात्मक- यह उस प्रक्रिया को स्पष्ट करता है, जिसके अनुसार सृष्टि का विकास हो रहा है|
भौतिकवाद- यह सृष्टि के मूल तत्व या सार तत्व (Essence) को सूचित करता है, भौतिकवाद के अनुसार सृष्टि का सार तत्व जड़ पदार्थ (Matter) है|
द्वंदवाद-
द्वंद्ववाद पद्धति का सर्वप्रथम प्रयोग सुकरात के संवादो में हुआ है|
द्वंदवाद हेगेलवादी दर्शन का मुख्य विचार है|
एंजेल्स ने इसके उदय का श्रेय हेराक्लिटस को दिया है| हेराक्लिटस ने कहा है कि “हर चीज है भी और नहीं भी, हर चीज में बहाव होता है, उसमें लगातार परिवर्तन होता है, वह लगातार उदित होती है और अस्त होती है| सब कुछ बढ़ता रहता है, कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है|”
हेगेल ने इस सिद्धांत का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया| हेगेल ने द्वंद्ववाद को इतिहास की प्रक्रिया और विकास पर लागू किया है|
कार्ल मार्क्स हेगेल की इस बात से सहमत है कि निरंतर गति व परिवर्तन द्वंदवाद के कारण होता है| लेकिन कार्ल मार्क्स ने आदर्श के बजाय वास्तविक, मानसिक के बजाय सामाजिक और मन के बजाय पदार्थ पर जोर दिया है|
कार्ल मार्क्स का मुख्य विचार दर्शन का इतिहास नहीं है, बल्कि आर्थिक उत्पादन का इतिहास है|
भौतिकवाद-
भौतिकवाद के आरंभिक संकेत प्राचीन यूनानी दार्शनिक डेमोक्रेट्स और एपिक्यूरस के चिंतन में मिलते हैं| इनके मत में प्राकृतिक प्रक्रियाएं और मानवीय अनुभव रिक्त स्थान में निर्विकार परमाणुओं या अविभाज्य पदार्थ- कणो की व्यवस्था और पुन: व्यवस्था की अभिव्यक्ति मात्र है|
17वीं सदी में थॉमस हॉब्स ने यांत्रिक भौतिकवाद का सिद्धांत दिया| हॉब्स के मत में सारी सजीव वस्तुएं प्राकृतिक यंत्र है और सामाजिक संस्थाएं कृत्रिम प्राणियों के समान है|
मार्क्स का संपूर्ण राजनीतिक दर्शन द्वंदात्मक भौतिकवाद पर आधारित है|
कार्ल मार्क्स ने आर्थिक उत्पादन एवं विनिमय वाले सामाजिक तथा भौतिक विश्व पर द्वंद्ववाद लागू किया है|
यद्यपि मार्क्स का द्वंदात्मक भौतिकवाद, हीगल के द्वंदवाद पर आधारित है, लेकिन हीगल के द्वंदवाद को मार्क्स ने बिल्कुल उलट दिया| इस संबंध में मार्क्स कहता है कि “मैंने हीगल के द्वंदात्मक को, जो सिर के बल खड़ा था, उसे पैर के बल खड़ा कर दिया|”
जहा हीगल के द्वंद्ववाद का आधार चिंतन या विचार है, वही मार्क्स के द्वंद्ववाद का आधार भौतिक पदार्थ है
मार्क्स के अनुसार भौतिक जगत की वस्तुएं तथा घटनाएं परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रहती है| भौतिक जगत में परिवर्तन होता है तथा परिवर्तन से भौतिक जगत का विकास होता है, यह विकास द्वंद की वजह से होता है| तथा इस द्वंद के तीन अंग होते हैं-
वाद
प्रतिवाद
संश्लेषण या संवाद|
कार्ल मार्क्स के अनुसार वाद समाज की एक साधारण स्थिति है, जिसमें कोई अंतर्विरोध नहीं पाया जाता है| थोड़े समय बाद वाद से असंतुष्ट होकर उसकी प्रतिक्रिया के स्वरूप प्रतिवाद उत्पन्न हो जाता है| वाद और प्रतिवाद में अंतर्विरोध के फलस्वरुप एक समझौता हो जाता है, इससे नए विचार संवाद या संश्लेषण की उत्पत्ति होती है| बाद में यह संश्लेषण भी वाद बन जाता है और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है|
गेहूं का दाना वाद, अंकुरण प्रतिवाद, फिर बाली से अनेक दानों का निकलना संवाद होता है|
पूंजीवाद वाद है, सर्वहारा वर्ग का अधिनायक तंत्र प्रतिवाद है, तथा साम्यवाद की स्थापना संवाद है|
इस प्रकार मार्क्स का भौतिक द्वंदवाद, विकासवाद का सिद्धांत है| |
मार्क्स के अनुसार भौतिक पदार्थ स्वतः ही गतिशील होते हैं| मार्क्स के शब्दों में “पदार्थ जो हमें बाहर से हमें जड़ या स्थिर दिखाई देता है, वे स्थिर न होकर अपनी सक्रिय प्रकृति के कारण गतिशील होते है|” उसकी यह गतिशीलता ही उसे उर्ध्वमुखी परिवर्तनशीलता की ओर ले जाती है|”
Note- मार्क्स पदार्थ को सक्रिय मानते हैं, जो अपने आंतरिक द्वंद से अपने आप परिवर्तित होता है, जबकि हॉब्स पदार्थ को निष्क्रिय मानते हैं, जिसे बदलने के लिए बाह्य प्रेरणा व दबाव आवश्यक होता है|
मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की निम्न विशेषताएं हैं-
संपूर्ण विश्व में प्राकृतिक एकता है-
मार्क्स के मत में प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ एक दूसरे से संबंधित तथा परस्पर पर निर्भर है|
वस्तुओं की गतिशीलता-
प्रकृति का प्रत्येक कण रेत के छोटे कण से लेकर सूर्य पिंड तक सभी गतिशील है और उसने परिवर्तन होता रहता है|
वस्तुओं में परिवर्तन के प्रकार-
मार्क्स के मत में वस्तुओं में परिवर्तन मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों प्रकार का होता है| जैसे- गेहूं के एक दाने के अंकुर से कई दानों में बदलना मात्रात्मक परिवर्तन है तो पानी का बर्फ में बदलना गुणात्मक परिवर्तन है|
प्रकृति में यह परिवर्तन द्वंद के कारण होता है, अर्थात वाद, प्रतिवाद, संश्लेषण या संवाद|
क्रांतिकारी प्रक्रिया-
गुणात्मक परिवर्तन के आने को क्रांतिकारी प्रक्रिया माना जाता है| वस्तु में गुणात्मक परिवर्तन धीरे-धीरे न होकर शीघ्रता के साथ तथा अचानक होते हैं|
प्रत्येक वस्तु का आंतरिक विरोध होता है- प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष होते हैं- एक सकारात्मक तथा दूसरा नकारात्मक पक्ष| इन दोनों का निरंतर संघर्ष ही विकास क्रम है|
मार्क्स के अनुसार प्रत्येक नयी अवस्था अपनी पहली अवस्था से उन्नत होती है| मार्क्स के शब्दों में “इतिहास की प्रत्येक नयी अवस्था पिछली अवस्था से बेहतर है|”
इसलिए मार्क्सवाद को प्रगतिवादी सिद्धांत कहते हैं|
द्वंदात्मक भौतिकवाद की आलोचना
द्वंदात्मक भौतिकवाद की निम्न आलोचनाएं की जाती है-
वेपर “द्वंदात्मक की धारणा अत्यंत गूढ़ एवं अस्पष्ट है, इसको मार्क्स ने कहीं भी स्पष्ट नहीं किया है|”
लेनिन “हीगल के आदर्शवाद का अध्ययन किए बिना मार्क्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद को नहीं समझा जा सकता|”
सेबाइन ने आलोचनात्मक रूप में मार्क्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद को नैतिक स्वच्छंदतावाद कहा है|
संघर्ष को विश्वव्यापी नियम अथवा ऐतिहासिक विकास का आधार मानना अनूपयुक्त है|
केर्युहंट “द्वंद्ववाद यद्यपि हमें मानव विकास के इतिहास में मूल्यवान क्रांतियों का दिग्दर्शन कराता है तथापि मार्क्स का यह दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता कि सत्य का अनुसंधान करने के लिए यही एकमात्र पद्धति है|
विकास का आधार केवल भौतिक शक्तियों को मानना उपयुक्त नहीं है|
मार्क्स जीवन के केवल एक पक्ष आर्थिक पक्ष पर ही बल देता है|
हेगेल व कार्ल मार्क्स के द्वंदवाद में अंतर-
हेगेल एक आदर्शवादी था, उसके द्वंदवाद का आधार चेतना या आत्मा या विचार या आध्यात्मिक था| जबकि कार्ल मार्क्स यथार्थवादी था, उसके विचार का आधार भौतिक पदार्थ था|
हेगेल की दृष्टि में इतिहास ‘एक देवी आयोजन के द्वारा विश्व आत्मा की क्रमिक अभिव्यक्ति’ है| कार्ल मार्क्स ने विश्व आत्मा के विचार को काल्पनिक कहा है तथा उसके स्थान पर विशुद्ध भौतिक तत्व की महत्ता की स्थापना की है|
हेगेल के मत में राष्ट्रों के मध्य संघर्ष होता है, जबकि मार्क्स के मत में वर्गों के मध्य संघर्ष होता है|
हेगेल और कार्ल मार्क्स दोनों यह स्वीकार करते हैं कि जब तक सामाजिक विकास अपने चरम लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाता, तब तक प्रत्येक सामाजिक अवस्था अस्थिर होती है| हेगेल के मत में अंतिम विकास या चरम लक्ष्य (संवाद) राष्ट्र-राज्य की स्थापना है, जबकि कार्ल मार्क्स के मत में अंतिम विकास (संवाद) तर्कसंगत उत्पादन प्रणाली (Rational Mode of Production) अर्थात वर्ग विहीन, राज्य विहीन साम्यवाद की स्थापना है|
हेगेल के द्वंदात्मक चेतनवाद का खंडन करते हुए मार्क्स ने तर्क दिया की जड़ तत्व की उत्पत्ति चेतन तत्व से नहीं होती है, बल्कि चेतना स्वयं जड़ तत्व के विकास की एक अवस्था है| मार्क्स “मानवीय चेतना उसके सामाजिक अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती है, इसके विपरीत उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना का निर्धारण करता है|”
एंजेल्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के तीन बुनियादी नियम बताए हैं-
परिणाम से गुण की और परिवर्तन (Transformation of Quantity to Quality)-
मात्रा में परिवर्तन से वस्तुओं के गुण में परिवर्तन होना|
जैसे- पानी का बर्फ में बदलना अर्थात जब पानी को जब लगातार ठंडा किया जाता है अर्थात तापमान की मात्रा में परिवर्तन किया जाता है, तो पानी बर्फ में बदल जाता है अर्थात उसके गुण में परिवर्तन हो जाता है|
परस्पर विरोधी तत्वों की अंतर व्याप्ति (Interpenetration of Opposite)-
प्रत्येक वस्तुओं में दो परस्पर विरोधी गुण या तत्व एक साथ जुड़े रहते हैं|
जैसे लोहे में कठोरता के साथ कोमलता भी पाई जाती है, जिसके कारण उसे मन चाहे आकार में ढाल सकते हैं|
निषेध का निषेध (Negation of Negation)-
द्वंद्ववाद की प्रक्रिया में कोई भी तत्व अपने विरोधी तत्व से टकराकर अपनी आरंभिक अवस्था में वापस नहीं पहुंचता है, बल्कि वाद और प्रतिवाद के संघर्ष से नए तत्व संवाद का आविर्भाव होता है तथा संवाद वाद की तुलना में उन्नत होता है|
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