मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत-
मार्क्सवाद में अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत वर्ग संघर्ष का तार्किक आधार है|
मार्क्स अपनी पुस्तक ‘दास कैपिटल’ व Value, Price and Profit में अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत का विवेचन करता है|
यह मार्क्सवाद का आर्थिक आधार है|
इस सिद्धांत से मार्क्स ‘पूंजीवादी प्रणाली में पूंजीपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण किस प्रकार किया जाता है, की व्याख्या करता है|
मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत पर रिकार्डो का प्रभाव पड़ा है| मार्क्स ने अर्थशास्त्र की मीमांसा की ‘अमूर्त पद्धति’ रिकार्डो से ग्रहण की है|
इस संबंध में वेपर का कथन है कि “मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत रिकार्डो के सिद्धांत का ही व्यापक रूप है, जिसके अनुसार किसी भी वस्तु का मूल्य उसमें निहित श्रम की मात्रा के अनुपात में होता है, बशर्त कि हैं यह श्रम उत्पादन की क्षमता के वर्तमान स्तर के तुल्य हो|”
सेबाइन ने अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत के महत्व में लिखा है कि “अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत एक ऐसा मूल तत्व है जो पूंजीवाद की ह्रदय हिला देने वाली विभीषिकाओ को उद्घाटित करता है| यह सिद्धांत इतना तर्कपूर्ण और ठोस है कि इसे चुनौती नहीं दी जा सकती और स्वीकार कर लेने पर पूंजीवाद की हम किसी भी आधार पर रक्षा नहीं कर सकते|”
मार्क्स के अनुसार वस्तुओं के दो तरह के मूल्य हो सकते हैं-
प्रयोग या उपयोग मूल्य- इसका अर्थ वस्तु की उपयोगिता से है| जैसे वायु, जल उपयोगी है, लेकिन इन पर मानव श्रम खर्च नहीं होता तो ऐसी वस्तु का प्रयोग मूल्य होगा |
विनिमय मूल्य- किसी वस्तु का विनिमय मूल्य तब होगा, जब उसमें मानव श्रम लग जाता है| जैसे- एक पंखे के निर्माण में मजदूर के श्रम का व्यय होता है|
Note- मार्क्स के मत में श्रम का माप उसकी अवधि से होता है|
मार्क्स के अनुसार उत्पादन के चार तत्व हैं- भूमि, श्रम, पूंजी और संगठन| इनमें से तीन तत्व भूमि, पूंजी और संगठन वास्तविक उत्पादन की कोई क्षमता नहीं रखते हैं, केवल श्रम ही ऐसा तत्व है जो समाज के लिए मूल्य का सृजन करता है| क्योंकि इन तीनों में जो कुछ लगाया जाता है ये उसी का पुनरुत्पादन मात्र करते हैं|
मार्क्स का कहता है कि प्रत्येक वस्तु का मूल्य उस पर लगे श्रम के अनुपात में होता है| यह श्रम (वेतन) श्रमिक को मिलता है, लेकिन यह वस्तु बाजार में श्रमिक के श्रम से ज्यादा कीमत पर बेची जाती है|
श्रमिक को प्राप्त श्रम तथा वस्तु की बाजार के कीमत के अंतर को ही मार्क्स अतिरिक्त मूल्य कहता है, जिसे बिना कुछ किए पूंजीपति बीच में हड़प जाता है|
अर्थात अतिरिक्त मूल्य उन दो मूल्यों का अंतर है जिन्हें एक मजदूर पैदा करता है और जिसे वह वास्तव में पाता है|
अतिरिक्त मूल्य को कार्ल मार्क्स ने ‘बेईमानी की कमाई’ भी कहा है|
उदाहरणार्थ- मजदूरी का लौह नियम के अनुसार दैनिक मजदूरी दर ₹5 है| कारखाने में काम करने वाला मजदूर उसे दी जाने वाले मजदूरी के मूल्य की वस्तु 4 घंटे में ही बना लेता है, किंतु कारखाने का मालिक उससे 8 घंटे काम लेता है| इस प्रकार मजदूर दिन भर में ₹10 के मूल्य की वस्तु उत्पादित करता है लेकिन उसको ₹5 ही मिलते हैं तथा ₹5 पूंजीपति की जेब में जाते हैं जो अतिरिक्त मूल्य है|
अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत में मार्क्स तीन नियमों का प्रतिपादन करता है-
पूंजी का संचय सिद्धांत- पूंजीपति सदैव पूंजी के संचय में लगे रहते हैं|
पूंजी के केंद्रीयकरण का सिद्धांत- पूंजी पर कुछ ही व्यापारियों का एकाधिकार होता है|
कष्टों की वृद्धि का सिद्धांत- पूंजीपति, श्रमिकों का शोषण करते हैं, जिससे उनके कष्टों में वृद्धि हो जाती है|
कार्ल मार्क्स “पूंजीवाद का इतिहास पूंजीपतियों द्वारा अधिशेष मूल्य को बढ़ाने के संघर्ष तथा श्रमिक वर्ग का इस वृद्धि के विरुद्ध प्रतिरोध का इतिहास है|”
अतिरिक्त मूल्य सिद्धांत की आलोचना-
केवल श्रम ही उत्पादन और मूल्य का एकमात्र स्रोत नहीं है|
संपूर्ण अतिरिक्त मूल्य पूंजीपति का लाभ नहीं है- कार्ल मार्क्स अतिरिक्त मूल्य को पूंजीपति का लाभ मानता है, जबकि पूंजीपति को अनेक बातों के लिए धनराशि व्यय करनी पड़ती है| जैसे पूंजी का ब्याज, मशीनों की गिसावट, श्रमिकों की बीमारी, बीमा राशि आदि|
मानसिक श्रम की उपेक्षा|
यह सिद्धांत आर्थिक कम और श्रमिकों के शोषण का राजनीतिक प्रचारक अधिक है| मैक्स बियर “इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करना असंभव है, कि मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत एक आर्थिक सत्य होने के बजाय एक राजनीतिक और सामाजिक नारा है|”
कार्ल मार्क्स का मौलिक सिद्धांत नहीं है| कोकर “यह वास्तव में एक अंग्रेजी सिद्धांत था, जिसका प्रतिपादन 19 वीं सदी में सर विलियम पेंटी किया था| सेबाइन “अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत ब्रिटिश शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के श्रम सिद्धांत का विस्तार मात्र है|”
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