श्री अरविंद घोष (Aurobindo Ghosh)- (1872-1950)
जीवन परिचय-
जन्म- 15 अगस्त 1872, कलकता में
पिता- कृष्णधन घोष एक चिकित्सक थे तथा पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के विशेष भक्त थे, अतः अरविंद को भाषा, रहन-सहन एवं विचारों से अंग्रेज बनाना चाहते थे|
माता- स्वर्णलता
अरबिंदो घोष को ‘राष्ट्रवाद का महान उन्नायक’ माना जाता है|
अरविंद भारतीय पुनर्जागरण और भारतीय राष्ट्रवाद की महान विभूति थे|
अरविंद ने एक राजनीतिक नेता तथा लेखक के रूप में प्राचीन वेदांत तथा आधुनिक यूरोपीय राजनीतिक दर्शन के समन्वय पर बल दिया|
रोमा रोलां ने अरविंद को ‘भारतीय दार्शनिकों का सम्राट एवं एशिया तथा यूरोप की प्रतिभा का समन्वय’ कहा है|
डॉ फ्रेडरिक स्पजलबर्ग ने उन्हें ‘हमारे युग का पैगंबर’ कहा है|
अरविंद बीसवीं सदी के आरंभ में बंगाल प्रांत में हुए उग्र आध्यात्मिक एवं धर्म प्रधान राष्ट्रवाद या उग्र राष्ट्रवाद के प्रतिनिधि थे|
अरविंद राजनीतिक जीवन की शुरुआत में क्रांतिकारी तथा गरम दल से संबंधित थे|
श्री अरविंद की प्रारंभिक शिक्षा दार्जिलिंग के कॉन्वेंट स्कूल में संपन्न हुई|
1879 ई. शिक्षा के लिए पहले मैनचेस्टर तथा बाद में लंदन गये|
1889 में कैंब्रिज के किंग्स कॉलेज से ग्रेजुएशन किया|
1892 में शास्त्रीय ट्रिपास प्रथम श्रेणी से पास किया|
1890 में I.C.S लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन घुड़सवारी की परीक्षा में भाग न लेने के कारण चयनित नहीं हो सके|
1892 में इंग्लैंड प्रवास काल के दौरान ‘लोटस’ तथा ‘डोगरस’ जैसी गोपनीय क्रांतिकारी संस्थाओं के सदस्य बने, इनके सदस्यों को भारत की मुक्ति तथा पुनर्निर्माण की शपथ लेनी पड़ती थी| इन्हें ‘गुप्त समाज’ भी कहते हैं|
अरविंद घोष ने इंग्लैंड में कैंब्रिज मजलिस की भी सदस्यता ग्रहण की थी|
1893 में भारत लौट आये|
1893 से 1910 तक अरविंद ने वड़ोदरा में बड़ौदा महाविद्यालय तथा नेशनल कॉलेज कोलकाता में अध्यापन का कार्य किया|
अरविंद ने 1902 के कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में भाग लिया तथा 1904 के मुंबई अधिवेशन में भी भाग लिया|
बनारस के 1905 के अधिवेशन में लाला लाजपत राय के निष्क्रिय प्रतिरोध के कार्यक्रम से प्रभावित हुए|
1905 में बंग-भंग आंदोलन में भाग लिया तथा गरमपंथी नेता के रूप में लाल-पाल-बाल के साथ मिलकर कार्य किया| अरविंदो का प्रसिद्ध नारा था “नियंत्रण नहीं, तो सहयोग नहीं|”
अरविंद प्रथम राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति को आवश्यक माना था|
कांग्रेस के 1906 के कलकाता अधिवेशन में भी अरविंद ने सक्रिय रूप से भाग लिया|
अरविंद को 1908 से 1910 के बीच मुजफ्फरपुर बम कांड व मानिकटोल्ला बम कांड में आरोपी बनाया गया|
वे अनुशीलन समिति से संबंधित अलीपुर बम कांड के मामले में 1908 में जेल गये|
1910 में जेल से रिहा होने के बाद में फ्रांसीसी बस्ती में पांडिचेरी में चले गए तथा 1910 में प्रत्यक्ष राजनीति को छोड़कर पांडिचेरी में ‘ऑरविले’ नामक आश्रम बनाया, तथा 1950 अपनी मृत्यु तक यही जीवन व्यतीत किया| और यहां रहते हुए आध्यात्मिक राष्ट्रवाद, मानवीय एकता व विश्व संघ जैसे विचारों का प्रचार-प्रसार करते रहे|
5 दिसंबर 1950 को पांडिचेरी में अरविंद की मृत्यु हो गई|
डॉ राधाकृष्णन, अरविंद को भारतीय राजनीतिक विचारको में सुयोग्यतम एवं सर्वोत्कृष्ट बताते थे|
टैगोर ने अरविंद के बारे में कहा है कि “भारत अरविंद के माध्यम से संसार को अपना संदेश देगा| वे भारतीय संस्कृति के मसीहा हैं|”
वे गरमपंथी विचारधारा के समर्थक थे और बंकिम चंद्र चटर्जी के आनंद मठ व कृष्ण चरित्र से प्रभावित थे|
अरविंद पहले क्रांतिकारी, फिर उग्र राष्ट्रवादी, अंत में अध्यात्मिक राष्ट्रवादी बन गये|
लॉर्ड मिंटो ने अरविंद घोष के बारे में कहा है कि “अरविंदो भारत का सबसे खतरनाक व्यक्ति है|”
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