न्याय (Justice)
न्याय शब्द अंग्रेजी शब्द Justice का हिंदी रूपांतरण है| Justice शब्द लैटिन भाषा के Justia से बना है,जिसका अर्थ जोड़ना या बांधना है|
अर्थात न्याय कानून, अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के मूल्यों को आपस में जोड़ता है|
न्याय की संकल्पना प्राचीन काल से राजनीतिक चिंतन का विषय रही है|
न्याय का परंपरागत दृष्टिकोण-
पश्चिम परंपरा में न्याय के स्वरूप की व्याख्या के लिए न्यायपरायण व्यक्ति (Justman) अर्थात सच्चरित्र मनुष्य के गुणों पर विचार किया गया है| व्यक्ति में उन सद्गुणों की तलाश की जाती है जो व्यक्ति को न्याय की ओर ले जाते हैं अर्थात सद्गुण ही न्याय है|
भारतीय परंपरा में न्याय के लिए मनुष्य के धर्म को प्रमुखता दी गई है, अर्थात धर्म के अनुसार कार्य करना ही न्याय है|
पश्चिम व भारतीय दोनों ही परंपराओं में मनुष्य के कर्तव्य पालन को न्याय माना है, अर्थात व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करें, दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप ना करें तो समाज में न्याय व्यवस्था अपने आप स्थापित होगी|
इस प्रकार परंपरागत दृष्टिकोण प्रचलित व्यवस्था को बनाए रखना ही न्याय मानता है|
न्याय का आधुनिक दृष्टिकोण-
आधुनिक युग में न्याय का अर्थ न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करना है|
इसका उद्देश्य प्रचलित व्यवस्था को बनाए रखना नहीं है, जबकि आधुनिक चेतना के अनुरूप सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देना है|
Note- जहां परंपरागत दृष्टिकोण का मुख्य सरोकार व्यक्ति के चरित्र से था, वहां आधुनिक दृष्टिकोण का मुख्य सरोकार सामाजिक न्याय से है|
सामाजिक न्याय-
सामाजिक न्याय का अर्थ मुख्यतः समाज के वंचित वर्गों की दशा सुधारने की मांग करना है, जिससे वंचित वर्ग को सम्मान पूर्ण जीवन जीने का अवसर मिल सके|
आधुनिक युग में न्याय की मुख्य समस्या यह है, कि सामाजिक जीवन के अंतर्गत विभिन्न व्यक्ति या समूह के प्रति वस्तुओं, सेवाओं, अवसरों, लाभो, शक्ति, सम्मान, दायित्वों, बाध्यताओं के आवंटन का उचित आधार क्या होना चाहिए?
न्याय का स्वरूप हमेशा बदलता रहा है इसलिए पॉटर ने कहा है कि “न्याय एक ऐसा लोटा है जिसके कोई पेंदा नहीं है|”
न्याय की परिभाषाएं-
प्लेटो “न्याय सर्वोच्च सद्गुण है|”
अरस्तु “न्याय वह संपूर्ण सद्गुण है, जो हम आपसी व्यवहार में प्रदर्शित करते हैं|”
जॉन रॉल्स “न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम सद्गुण है|”
डेविड ह्यूम “न्याय के उदय का एकमात्र आधार सार्वजनिक उपयोगिता है|”
जे एस मिल “न्याय नैतिक दावा या नैतिक मूल्यों की श्रेणियां है|”
D D रफेल “न्याय उस व्यवस्था का नाम है, जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की भी रक्षा होती है और समाज की मर्यादा भी बनी रहती है|”
बार्कर “हम मानवीय संबंधों के साथ-साथ शब्दों के संश्लेषण तथा एक मूल्य को दूसरे मूल्य के साथ जोड़ने में न्याय का प्रयोग कर सकते हैं|”
जे एस मिल “न्याय नैतिक मूल्यों की उन निश्चित श्रेणियों का नाम है जो मानव जाति के कल्याण के लिए आवश्यक अवस्थाओं से संबंधित हैं और इसलिए न्याय जीवन पथ प्रदर्शन के लिए किसी भी अन्य नियम से अधिक महत्वपूर्ण है|”
प्लेटो “अपनी योग्यता अनुसार निर्धारित कार्यों को व्यक्ति द्वारा करना ही न्याय है|”
सेबाइन “न्याय एक ऐसा बंधन है जो व्यक्तियों को सामंजस्य पूर्ण समाज के रूप में एकत्रित करता है| ऐसे समाज में हर व्यक्ति अपनी क्षमता और प्रशिक्षण के अनुसार अपना जीवन कार्य पूरा करता है|”
पोलीमार्कस “न्याय प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित अधिकार देने में है|”
C E मेरियम “न्याय मान्यताओं एवं प्रक्रियाओं का वह योग है, जिसके द्वारा हर व्यक्ति को वह कुछ दिया जाता है जिससे उचित अस्तित्व संबंधी सहमति होती है|”
थ्रेसीमैक्स “ न्याय शक्तिशाली का हित है|”
कांट “न्याय हर व्यक्ति की बाहरी स्वतंत्रता है, जो अन्य व्यक्तियों की स्वतंत्रता द्वारा सीमित है|”
एक्विनास “न्याय प्रत्येक व्यक्ति को उसके अपने अधिकार देने की निश्चित और सनातन इच्छा है|”
सालमंड “न्याय का अर्थ हर व्यक्ति को उसका हिस्सा प्रदान करना है|”
डेविड ह्यूम “न्याय का अर्थ नियमों का पालन है, क्योंकि अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि ये नियम सर्वहित के आधार हैं|”
जॉन रॉल्स “न्याय को सामाजिक संस्थाओं का पहला सदगुण समझना चाहिए और मूल क्षेत्र जिस पर यह कार्य करता है वह वस्तुओं का वितरण है|”
इस प्रकार न्याय की एक निश्चित परिभाषा देना संभव नहीं है| अर्नाल्ड ब्रेख्त ने अपनी पुस्तक राजनीति सिद्धांत (Political Theory) में कहा है कि “न्याय एक ऐसा बर्तन है जिसके कई तल हैं|”
न्याय के रुप या प्रकार-
न्याय के निम्न प्रकार है-
नैतिक न्याय-
नैतिक न्याय की मूल धारणा नैतिकता पर आधारित है|
नैतिक न्याय के अनुसार कुछ सर्वव्यापक, अपरिवर्तनीय तथा अंतिम प्राकृतिक नियम है, जो व्यक्तियों के आपसी संबंधों को निर्धारित करते हैं|
इन प्राकृतिक नियमों के आधार पर जीवन व्यतीत करना ही नैतिक न्याय है|
इसमें व्यक्ति के सदाचरण को नैतिक न्याय कहा जाता है|
भूतकाल से वर्तमान तक सभी चिंतकों ने सत्य, करुणा, अहिंसा, वचनबद्धता, उदारता आदि गुणों को नैतिक न्याय माना है|
इसके प्रमुख समर्थक प्लेटो, कांट हैं|
कानूनी या वैधानिक न्याय-
यह न्याय उन नियमों, उपनियमों, कानूनों पर आधारित है जिसका अनुसरण नागरिक स्वभाविक रूप से करते हैं|
कानूनी न्याय की धारणा दो बातों पर बल देती है-
सरकार द्वारा निर्मित कानून न्यायोचित होने चाहिए|
सरकार द्वारा ऐसे कानूनों को न्याय पूर्ण ढंग से लागू करना चाहिए, तथा कानूनों के उल्लंघन की स्थिति में निष्पक्ष दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए|
कानूनी न्याय कानून के समक्ष समता, विधि का समान संरक्षण, विधि की उचित प्रक्रिया, विधि का शासन, विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर बल देता है|
कानूनी अवधारणा डायसी के विधि के शासन पर आधारित है|
प्रमुख समर्थक- स्टोइक, सिसरो, सेंट ऑगस्टाइन, डायसी
राजनीतिक न्याय-
राजनीतिक न्याय समानता पर आधारित है|
एक राजव्यवस्था में सभी नागरिकों को समान अधिकार व समान अवसर प्राप्ति पर बल देता है, तथा किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष को विशेष अधिकार प्रदान करने पर रोक लगाता है|
राजनीतिक न्याय प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था में ही प्राप्त किया जा सकता है|
राजनीतिक न्याय के लिए संवैधानिक शासन आवश्यक है|
राजनीतिक न्याय के कुछ साधन निम्न है-
व्यस्क मताधिकार
विचार, भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
बिना किसी भेदभाव के सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार
भेदभाव रहित समान अवसर की प्राप्ति
सार्वजनिक नीति निर्धारण में प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहभागिता
सार्वजनिक शक्ति का प्रयोग सबके हित में किया जाए
सामाजिक न्याय-
राज्य के सभी नागरिकों के साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान, मूल वंश आदि के आधार पर भेदभाव न करना ही सामाजिक न्याय है|
प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त हो|
राज्य द्वारा व्यक्ति के विकास तथा अच्छे जीवन की आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करनी चाहिए|
राज्य नीति निर्धारण करते समय ऐसे विधायी व प्रशासनिक नियमों का निर्माण करें जो एक समतामूलक समाज की स्थापना करने में सहायक हो|
सामाजिक न्याय सभी व्यक्तियों के कल्याण पर आधारित है|
डीन रोस्को पॉन्ड सामाजिक न्याय को लोक कल्याणकारी राज्य का प्रतीक मानता है|
जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक Justice as Fairness 1985 तथा A Theory of Justice में सामाजिक न्याय पर बल दिया है|
आर्थिक न्याय-
आर्थिक न्याय आर्थिक समानता पर बल देता है, तथा आर्थिक संसाधनों के उचित वितरण पर बल देता है|
आर्थिक न्याय आर्थिक विषमता को समाप्त करने पर अर्थात गरीब-अमीर के बीच की खाई को कम करने पर बल देता है|
न्याय के विविध आयाम
न्याय के निम्न आयाम है-
वितरणात्मक न्याय
समानुपातिक न्याय
प्रक्रियात्मक न्याय व तात्विक न्याय
प्राकृतिक न्याय
वितरणात्मक न्याय-
इसका संबंध सामाजिक व आर्थिक संसाधनों के वितरण से है, अर्थात पद, प्रतिष्ठा, धन, संपदा आदि का वितरण|
वितरणात्मक न्याय के संबंध में विभिन्न विचारको के अलग-अलग विचार हैं जो निम्न है-
अरस्तु के अनुसार- वितरणात्मक न्याय का सर्वप्रथम प्रयोग अरस्तू ने किया था| अरस्तु के अनुसार राज्य व्यक्ति की योग्यतानुसार संसाधनों का वितरण करें अर्थात अधिक योग्य व क्षमता वाले व्यक्तियों को ज्यादा संसाधन दिए जाएं तथा कम योग्यता व क्षमता वालों को कम संसाधन दिए जाएं|
मार्क्सवादियों के अनुसार- क्षमता अनुसार कार्य दिया जाए तथा आवश्यकतानुसार संसाधनों का वितरण किया जाए|
उदारवादी व स्वेच्छातंत्रवादियों के अनुसार- क्षमता के अनुसार संसाधनों का वितरण
समतावादियों के अनुसार- क्षमता व आवश्यकता में सामंजस्य के अनुसार वितरण किया जाए
समानुपातिक/ आनुपातिक न्याय-
समानुपातिक न्याय अरस्तु से संबंधित है|
इसका अर्थ योग्यता व क्षमता के अनुसार पद, प्रतिष्ठा, धन, संपदा का वितरण करने से है अर्थात समान लोगों के साथ समान व्यवहार तथा असमान लोगों के साथ असमान व्यवहार करना|
इसमें संसाधनों का आवंटन रेखा गणितीय अनुपात में किया जाता है|
प्रक्रियात्मक व तात्विक न्याय-
प्रक्रियात्मक न्याय-
इसके अंतर्गत वैधानिक व राजनीतिक न्याय आते हैं|
यह एक औपचारिक न्याय है, जिसमें प्रक्रिया को महत्वपूर्ण माना जाता है परिणामों को नहीं|
अर्थात वस्तुओं, सेवाओं, पदों, संपदा के आवंटन या वितरण की प्रक्रिया निष्पक्ष हो चाहे उसके परिणाम कैसे भी हो|
इसमें योग्य व्यक्ति को अधिक तथा कम योग्य को कम संसाधन प्राप्त होंगे|
पूंजीवादी व्यवस्था में यह न्याय पाया जाता है|
प्रमुख समर्थक-
परंपरागत उदारवादी- जॉन लॉक, स्पेंसर, एडम स्मिथ
स्वेच्छातंत्रवादी- नॉजिक, हेयक, बर्लिन, फ्रीडमैन
तात्विक न्याय-
यह अनौपचारिक न्याय है|
इसका संबंध सामाजिक व आर्थिक न्याय से है|
इसमें परिणामों को महत्वपूर्ण माना जाता है ना की प्रक्रिया को|
अर्थात अच्छे परिणाम परिणाम प्राप्त करने के लिए दलितों, मजदूरों, गरीबों, महिलाओं, बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रक्रिया से छेड़छाड़ की जा सकती है|
तात्विक न्याय अवसर की समता संकल्पना पर आधारित है|
प्रमुख समर्थक- मार्क्सवादी विचारक
Note- आधुनिक उदारवादी व समतावादी कल्याणकारी राज्य का समर्थन करते हैं तथा प्रक्रियात्मक न्याय व तात्विक न्याय के सम्मिश्रण पर बल देते हैं|
प्राकृतिक न्याय-
प्राकृतिक न्याय में वे नियम व मान्यताएं आती हैं, जो मानव मात्र के लिए उपयोगी होती हैं तथा जिनका पता व्यक्ति अपने विवेक से कर सकता है|
इसका वर्णन संविधान में होना जरूरी नहीं है|
जैसे-
कोई भी व्यक्ति स्वयं के मामले में न्यायाधीश नहीं होगा|
मनमाना दंड नहीं दिया जा सकता|
किसी व्यक्ति को बिना सुनवाई दंडित नहीं किया जाएगा| आदि
विभिन्न विचारको के न्याय संबंधी विचार-
प्राचीन काल में न्याय संबंधी विचार
प्लेटो के न्याय संबंधी विचार (नैतिक न्याय का सिद्धांत)-
प्लेटो ने न्याय सिद्धांत का अपनी पुस्तक रिपब्लिक की पुस्तक II, III, IV में विश्लेषण किया है|
प्लेटो न्याय सिद्धांत को अत्यंत महत्व देते हुए अपनी पुस्तक Republic का उपशीर्षक Concerning of Justice (कंसर्निंग जस्टिस) रखा है|
रिपब्लिक को न्याय मीमांसा ग्रंथ भी कहा जाता है|
प्लेटो के अनुसार न्याय माननीय आत्मा का गुण है|
प्लेटो तात्कालिक यूनानी समाज में प्रचलित परंपरागत न्याय सिद्धांत, न्याय का उग्रवादी/ शक्ति सिद्धांत, न्याय का व्यवहारवादी/ कारणता सिद्धांत का खंडन करके अपना न्याय सिद्धांत प्रस्तुत करता है|
न्याय का परंपरावादी सिद्धांत-
प्रतिपादक- सेफेलस तथा उसका पुत्र पोलीमार्क्स
सेफेलस “अपने व्यक्तव्यो और कार्यों में सच्चा होना (सत्य बोलना) तथा देवताओं और मनुष्य के प्रति ऋण चुकाना न्याय है|”
पोलीमार्क्स “मित्रों के साथ मित्रता/भलाई तथा शत्रु के साथ शत्रुता/बुराई करना ही न्याय है|”
न्याय का उग्रवादी सिद्धांत-
प्रतिपादक- थ्रेसीमैक्स
थ्रेसीमैक्स “न्याय शक्तिशाली का हित/स्वार्थ/लाभ है|
न्याय का व्यवहारवादी/ कारणता सिद्धांत-
प्रतिपादक- ग्लाकान
ग्लाकान “न्याय भय शिशु है”
न्याय शक्तिशाली का हित न होकर दुर्बल वर्ग का हित है| दुर्बल वर्ग शक्तिशाली वर्ग के भय से समझौता करते हैं कि न अन्याय करेंगे और न करने देंगे|
प्लेटो इन सबका खंडन करता है|
प्लेटो के अनुसार माननीय आत्मा में तीन तत्व पाए जाते हैं-
ज्ञान/विवेक
साहस
भूख/तृष्णा
मानवीय आत्मा में इनमें से किसी एक तत्व की प्रधानता होती है और प्रधान तत्व के अनुसार व्यक्ति द्वारा कार्य करना ही न्याय है|
विवेक/ज्ञान दार्शनिक का गुण है, जो शासन का कार्य करें| प्लेटो ने दार्शनिक को राजा बनाने की बात की है जो सुशासन के लिए आवश्यक है|
साहस का गुण सैनिक वर्ग में पाया जाता है, जो समाज व राज्य की रक्षा का कार्य करें|
भूख या तृष्णा गुण उत्पादक वर्ग का है, जो उत्पादन संबंधी कार्य करें|
यह तीनों वर्ग अपने आत्मिक गुण के अनुसार कार्य करें तथा एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप ना करें तो समाज में चौथे सद्गुण न्याय की स्थापना होती है|
प्लेटो के न्याय सिद्धांत को श्रम विभाजन/ कार्य विशेषीकरण/ अहस्तक्षेप का सिद्धांत कहते हैं|
प्लेटो न्याय को दो भागों में विभक्त करता है-
व्यक्तिगत न्याय- मानवीय आत्मा के तीनों गुणों द्वारा अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना व्यक्तिगत न्याय है|
सामाजिक न्याय- जब तीनों वर्ग अपना अपना कार्य करें, एक दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप ना करें तो वह सामाजिक न्याय होगा|
इबेस्टीन “न्याय के विचार विमर्श में प्लेटो के राजनीतिक दर्शन के सभी तत्व विद्यमान है|
फोस्टर ने अपनी पुस्तक Masters of Political Thought 1941 में कहा है कि “प्लेटो के सामाजिक न्याय का विचार वस्तुपरक है|” इन्होंने प्लेटो की न्याय अवधारणा को आर्किटेक्टोनिक जस्टिस या रचना प्रकल्प न्याय की संज्ञा दी है|
कार्ल पॉपर-
कार्ल पॉपर ने प्लेटो के न्याय दर्शन के संबंध में कहा है कि “जब सर्वज्ञ दार्शनिक राजा ही इस न्याय व्यवस्था को चलाएगा तो उससे सर्वाधिकारवादी नैतिकता व सर्वाधिकारवादी न्याय प्रचलित होगा|”
कार्ल पॉपर ने प्लेटो के न्याय सिद्धांत को मिथक के दुरुपयोग की संज्ञा देते हुए आलोचना की है पॉपर के अनुसार इससे कठोर वर्ग विभेद के परिणाम सामने आएंगे, इस विभेद को शिक्षा और मूल्यों के आधार पर उचित ठहराने का काम किया गया है|
अरस्तु का न्याय संबंधी विचार-
अरस्तु ने अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स में न्याय संबंधी विचार दिए है|
अरस्तु के अनुसार न्याय का अर्थ नेक कार्य का व्यवहार के रूप में प्रकट होना है, अर्थात नैतिक गुणों की अभिव्यक्ति ही न्याय है|
अरस्तु के अनुसार “अन्याय तब उत्पन्न होता है जब से समान को असमान समझा जाने लगे तथा असमान को सामान समझा जाने लगे|”
अरस्तु के अनुसार न्याय के लिए समान के साथ समान व्यवहार तथा असमान के साथ असमान व्यवहार किया जाना चाहिए|
अरस्तु दो प्रकार का न्याय बताता है-
पूर्ण/ सामान्य न्याय (General justice)
विशेष न्याय (Particular Justice)
पूर्ण/ सामान्य न्याय (General justice)-
अरस्तु अच्छाई के सभी सद्गुणों (virtues) तथा समग्र साधुता या सात्विकता (Righteousness) को संपूर्ण न्याय मानता है|
अतः सामान्य न्याय से आशय पड़ोसी के प्रति किए जाने वाले भलाई के सभी कार्यों से है|
लेकिन व्यवहार में ऐसा संभव नहीं है|
विशेष न्याय-
विशेष न्याय से अरस्तु का तात्पर्य भलाई या सद्गुण के विशेष रूपों से है|
विशेष न्याय को भी अरस्तु दो भागों में बांटता है-
वितरणात्मक न्याय (Distributive Justice)
प्रतिवर्ती/ संशोधनात्मक/ सुधारात्मक न्याय (Rectificatory or Corrective justice)
वितरणात्मक न्याय-
यह शक्ति व संसाधनों के वितरण से अर्थात सम्मान, धन, संपदा, पदों के वितरण से संबंधित न्याय है|
इसके अनुसार संसाधनों के वितरण में आनुपातिक समानता होनी चाहिए, अर्थात संसाधनों का वितरण योग्यता या सद्गुण के आधार पर होना चाहिए|
आनुपातिक समानता या न्याय का अर्थ है कि जो जिस मात्रा में राज्य की सेवा करें या जो जिस मात्रा में सद्गुणी है उसी अनुपात में उसे सम्मान, धन, पदों का वितरण किया जाना चाहिए|
वितरणात्मक न्याय विधायिका का विचार क्षेत्र है अर्थात कानून बनाकर संसाधनों का वितरण किया जाए|
वितरण रेखागणितीय अनुपात में होना चाहिए, अर्थात प्रत्येक को बराबर नहीं देकर योग्यता अनुसार कम या ज्यादा देना चाहिए|
सुधारात्मक/ संशोधनात्मक/ प्रतिवर्ती न्याय-
यह अपराध के संबंध में दंड देने से संबंधित न्याय है|
यह न्याय न्यायपालिका से संबंधित है|
सुधारात्मक न्याय में अंकगणितीय अनुपात का ध्यान रखा जाता है अर्थात समान अपराध के लिए समान दंड दिया जाना चाहिए|
सुधारात्मक न्याय भी दो प्रकार का होता है-
ऐच्छिक सुधारात्मक न्याय- विभिन्न संधि या समझौतो को तोड़ने पर न्यायालय द्वारा निर्णय करना|
अनैच्छिक सुधारात्मक न्याय- एक नागरिक द्वारा दूसरे नागरिक को कष्ट या क्षति पहुंचाने पर न्यायालय द्वारा अपराधी को दंड देना|
Note- न्याय के दोनों क्षेत्रों में अरस्तु यथास्थिति का समर्थक है| अरस्तु न्याय के क्षेत्र में रूढ़िवादी है|
प्लेटो व अरस्तु के न्याय में मुख्य अंतर-
प्लेटो का न्याय कर्तव्य पर बल देता है तो अरस्तु का न्याय अधिकारों पर|
प्लेटो का न्याय श्रम विभाजन व कार्य विशेषीकरण से संबंधित है जबकि अरस्तु का न्याय राज्य के द्वारा किए जाने वाले अधिकारों के विभाजन से संबंधित है|
मध्यकाल में न्याय संबंधी विचार
सेंट ऑगस्टाइन के न्याय संबंधी विचार-
सेंट ऑगस्टाइन ने अपनी पुस्तक ‘द सिटी ऑफ गॉड’ 426 AD में न्याय संबंधी विचार दिए हैं|
सेंट ऑगस्टाइन “जिन राज्यों में न्याय विद्यमान नहीं है, वे केवल चोर उच्चक्को की खरीद-फरोख्त है|”
सेंट ऑगस्टाइन ने अपने ईश्वरीय राज्य के सिद्धांत में न्याय को महत्वपूर्ण माना है|
सेंट ऑगस्टाइन परिवार, लौकिक राज्य और ईश्वरीय राज्य के संदर्भ में न्याय की विवेचना करते हैं|
सेंट ऑगस्टाइन के अनुसार व्यक्ति द्वारा ईश्वरीय राज्य के प्रति कर्तव्य पालन ही न्याय है|
सेंट ऑगस्टाइन “न्याय वह सद्गुण है, जो प्रत्येक को उसका सही हक प्रदान करता है|”
ईश्वर की प्राप्ति प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है, अतः वही राज्य न्यायी है जो नागरिकों में ईश्वर के प्रति निष्ठा और प्रेम की भावना उत्पन्न करें|
थॉमस एक्विनास के न्याय संबंधी विचार-
थॉमस एक्विनास कानून व न्याय को परस्पर संबंधित मानते हुए न्याय की निम्न परिभाषा देते हैं “न्याय एक व्यवस्थित और अनुशासित जीवन व्यतीत करने तथा उन कर्तव्यो का पालन करने में निहित है, जिनकी व्यवस्था मांग करती है|”
थॉमस एक्विनास समानता को न्याय का मौलिक तत्व मानते हैं|
Note- मध्यकाल में राजनीतिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषता चर्च व राज्य के मध्य संघर्ष की थी| अतः इस युग में न्याय के संबंध में दो धारणाएं थी-
चर्च, न्याय का स्त्रोत है-
समर्थक- पॉप गलेसियस, सेंट ऑगस्टाइन, थॉमस एक्विनास
राज्य, न्याय का स्रोत है
समर्थक- मार्सेलिया डी पाडूआ, दांते, एलिवीरा, मेकियावेली
आधुनिक काल में न्याय संबंधी विचार-
डेविड ह्यूम-
“न्याय का अर्थ नियमों की पालना मात्र है, क्योंकि अनुभव से यह सिद्ध हो चुका है कि ये नियम सर्वहित का आधार है|”
अतः सर्वहित या सार्वजनिक उपयोगिता न्याय का एकमात्र स्रोत है|
जर्मी बेंथम-
इसके अनुसार अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख ही न्याय है|
अर्थात सार्वजनिक वस्तुओं, सेवाओं आदि का वितरण उपयोगिता के आधार पर होना चाहिए जिसका सूत्र ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ है|
जे एस मिल-
मिल ने न्याय को सामाजिक उपयोगिता का सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना है|
मिल ने कहा है कि मनुष्य अपने लिए सुरक्षा की कामना करते हैं इसलिए वे ऐसे नैतिक नियम स्वीकार कर लेते हैं जिनमें दूसरे भी वैसे ही सुरक्षा का अनुभव कर सकें|
अतः मिल के अनुसार उपयोगिता ही न्याय का मूलमंत्र है|
समकालीन विचारको के न्याय संबंधी विचार-
जॉन रॉल्स (समतावादी विचारक) के न्याय संबंधी विचार (सामाजिक-समझौता न्याय सिद्धांत)-
जॉन रॉल्स द्वारा रचित पुस्तकें-
A theory of Justice 1971
Justice as fairness 2001
Political Philosophy and Justice theory 2012
जॉन रॉल्स पर रचित पुस्तकें-
Idea of Justice- अमर्त्य सेन
John Rouls of Justice theory- B N राय
Thesis of John Rouls- दधीचि
जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत के विभिन्न नाम- शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय, न्याय का सामाजिक समझौता सिद्धांत, न्याय का वितरणात्मक सिद्धांत, अंतर के सूत्र का सिद्धांत, क्षतिपूर्ति का सिद्धांत, सामाजिक न्याय का सिद्धांत
जॉन रॉल्स अमेरिकी दार्शनिक समतावादी विचारक हैं, ये अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर थे|
जॉन रॉल्स अपनी पुस्तक ‘A Theory of Justice’ में न्याय का सिद्धांत देता है|
जॉन रॉल्स ने अपनी पुस्तक ‘A Theory of Justice’ में लिखा है कि “जैसे सत्य चिंतन का प्रथम सद्गुण है, वैसे ही न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम सद्गुण है|”
जॉन रॉल्स “न्याय एक राजनीतिक मूल्य नहीं है, बल्कि एक मानक है|”
जॉन रॉल्स के अनुसार न्याय का आधार नैतिकता नहीं, बल्कि विवेकशील चिंतन है|
रॉल्स उपयोगितावाद पर आक्रमण करके, सामाजिक समझौता सिद्धांत को स्वीकार करते हुए उदार समतावादी राज्य का चिंतन दिया है|
रॉल्स ने ‘A Theory of Justice’ में कहा है कि “एक उत्तम समाज में अनेक सद्गुण होते हैं, जिनमें न्याय का स्थान सर्वोच्च होता है|
जॉन रॉल्स ने प्रक्रियात्मक न्याय को तात्विक न्याय या सामाजिक न्याय का साधन बनाकर शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय सिद्धांत दिया है |
जॉन रॉल्स के अनुसार न्याय की समस्या प्राथमिक वस्तुओं के न्याय पूर्ण वितरण की समस्या है|
Note- सामाजिक न्याय की अवधारणा को जे एस मिल ने 19वीं सदी में परिभाषित किया था, लेकिन इसकी विस्तृत व्याख्या जॉन रॉल्स ने की|
जॉन रॉल्स ने अपना न्याय सिद्धांत 1960 के दशक में चलें अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन व नृजातीय संघर्ष (गोरे काले लोगों का संघर्ष) की पृष्ठभूमि में दिया| ये इस संघर्ष को समाप्त करने के लिए अपना न्याय सिद्धांत देते हैं|
जॉन रॉल्स पर प्रभाव-
जॉन रॉल्स लॉक व कांट से प्रभावित थे तथा बेंथम के उपयोगितावाद सिद्धांत की आलोचना करते हैं|
जॉन लॉक का प्रभाव-
जॉन रॉल्स की मूल स्थिति की संकल्पना- अज्ञान का पर्दा, विवेकशील कर्ता/ वार्ताकार आदि संकल्पनाएँ लॉक के सामाजिक समझौते से पहले की प्राकृतिक अवस्था से प्रभावित हैं|
मूल स्थिति की संकल्पना-
जॉन रॉल्स के अनुसार यह एक काल्पनिक स्थिति है, जिसमें मनुष्य अज्ञान के पर्दे (वेल ऑफ इग्नोरेंस) के पीछे बैठे हैं|
इस स्थिति में मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं, हितों, निपुणताओं, योग्यताओं का ज्ञान नहीं होता है|
मूल स्थिति में मनुष्य को समाज में प्रचलित भेदभावों, संघर्षों का ज्ञान नहीं होता है|
परंतु मूलस्थिति में मनुष्य को अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान का ज्ञान होता है तथा न्याय का बोध भी होता है|
मूल स्थिति में मनुष्य पर नैतिकता के बंधन अवश्य होते हैं|
विवेकशील कर्ता/ वार्ताकार -
जॉन रॉल्स ने मूलस्थिति में जिन मनुष्यों की कल्पना की है, वे विवेकशील कर्ता/ वार्ताकार है|
विवेकशील कर्ता स्वार्थपरायण है, लेकिन नैतिक नियमों में बंधे होने के कारण अहंवादी (Egoist) नहीं है| अर्थात उनकी स्वार्थ भावना पर नैतिक भावना का अंकुश रहता है|
विवेकशील कर्ता का सरोकार अपने लिए प्राथमिक वस्तुओं की अधिकतम वृद्धि से है| दूसरों को प्राथमिक वस्तुएं कितनी मिलती हैं इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता|
प्राथमिक वस्तुओं में अधिकार और स्वतंत्रताएं, शक्तियां और अवसर, आय और संपदा तथा आत्म सम्मान के साधन सम्मिलित हैं|
कांट का प्रभाव-
रॉल्स नैतिकता तथा व्यक्ति की गरिमा संबंधी विचार कांट से ग्रहण करता है|
व्यक्ति की गरिमा रॉल्स के न्याय प्रणाली का केंद्र बिंदु है|
रॉल्स के प्रसिद्ध वाक्य-
“उचित शुभ से पहले है|” “The Right is Prior to the good”
“आत्मन साध्य से पहले|” “The Self is Prior to Its Ends”
ये दोनों वाक्य कांट के वाक्य “व्यक्ति स्वयं में साध्य है” से प्रभावित है|
बेंथम की आलोचना-
जॉन रॉल्स बेंथम के ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख’ के सिद्धांत की आलोचना करते हैं, क्योंकि इसमें व्यक्ति विशेष को होने वाली क्षति का ध्यान नहीं रखा जाता है|
यदि अधिकतम व्यक्ति दास प्रथा से सुखी है तो दास प्रथा बेंथम के अनुसार सही होगी, जो गलत है|
जॉन रॉल्स इस संबंध में कहते हैं कि “सुखी लोगों के सुख को कितना ही क्यों न बढ़ा दिया जाए उससे दुखी लोगों के दुख का हिसाब बराबर नहीं किया जा सकता है|”
जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत की विशेषताएं-
जॉन रॉल्स की न्याय संबंधित पुस्तक ए थ्योरी ऑफ जस्टिस 1971 अमेरिका में उस समय प्रकाशित हुई थी, जब वहां अल्पसंख्यक वर्गों (अश्वेत) के लिए समान अधिकारों का आंदोलन अपने उत्कर्ष पर था|
जॉन रॉल्स के न्याय संबंधी विचारों का सर्वप्रथम उल्लेख 1957 मे द जर्नल ऑफ फिलॉसफी में जॉन रॉल्स के लेख न्याय उचितता में मिलता है|
फिर 1963 के न्याय बोध नामक लेख में मिलता है|
फिर 1971 में थ्योरी ऑफ जस्टिस में न्याय सिद्धांत का विस्तृत उल्लेख मिलता है|
जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत की निम्न विशेषताएं हैं-
शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय-
जॉन रॉल्स अपने न्याय सिद्धांत को शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय सिद्धांत कहता है अर्थात प्रक्रियात्मक न्याय व तात्विक न्याय दोनों का समन्वय करता है|
अर्थात जॉन रॉल्स सामाजिक न्याय की स्थापना करता है|
इस प्रकार जॉन रॉल्स पूंजीवादी नहीं, बल्कि कल्याणकारी राज्य का समर्थक है|
न्याय का समझौता सिद्धांत-
जॉन रॉल्स न्याय के समझौता सिद्धांत का समर्थन करता है तथा मूल स्थिति की संकल्पना देता है|
मूल स्थिति में लोग समझौते के द्वारा न्याय के नियम स्वीकार करते हैं|
न्याय का वितरणात्मक सिद्धांत-
जॉन रॉल्स अपने न्याय सिद्धांत में सभी व्यक्तियों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए राज्य द्वारा प्राथमिक वस्तुओं के वितरण की चर्चा करता है|
रॉल्स “ऐसी स्थिति को छोड़कर जब वस्तुओं में असमान वितरण में न्यूनतम सुविधा प्राप्त लोगों को लाभ होता है, अधिकार और स्वतंत्रताएं, शक्ति और अवसर, आय व धन तथा स्वाभिमान के आधार पर सभी प्राथमिक वस्तुओं का समान वितरण होना चाहिए|”
विभेद का सिद्धांत या अंतर सूत्र का सिद्धांत-
विभेद का आधार- हीनतम स्थिति वालों को अधिकतम लाभ दिया जाना चाहिए
जॉन रॉल्स के अनुसार आर्थिक विषमता इस प्रकार हो कि समाज में सबसे कम लाभान्वित व्यक्ति को अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके|
क्षतिपूर्ति का सिद्धांत-
कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए सरकार सकारात्मक कार्यवाही करें| जैसे भारत में अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण
प्रगति व न्याय के द्वंद में न्याय का समर्थन-
रॉल्स “कोई भी समाज जंजीर के समान होता है और कोई भी जंजीर अपनी सबसे कमजोर कड़ी से मजबूत नहीं होती|”
अर्थात शक्तिशाली वर्ग, कमजोर वर्ग के साथ मिलकर ही अवसरों का लाभ ले सकते हैं इसलिए जॉन रॉल्स न्याय के लिए पिछड़े व कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण का समर्थन करता है|
प्रगति के साथ हस्तांतरण शाखा पर जोर-
जॉन रॉल्स प्रगति के लिए पूंजीवादी प्रणाली तथा पिछड़े वर्ग के कल्याण के लिए हस्तांतरण शाखा पर बल देता है|
हस्तांतरण शाखा पिछड़े वर्गों को न्याय प्रदान करने का कार्य करेगी| जैसे मनरेगा, उचित मूल्य की दुकाने आदि|
पूर्ण समाज के विकास पर बल-
जॉन रॉल्स संपूर्ण समाज के विकास पर बल देता है, अर्थात अमीर-गरीब, ऊंचा-नीचा वर्ग आदि के विकास पर बल देता है|
जॉन रॉल्स के न्याय के नियम-
मूल स्थिति में समझौते द्वारा सभी लोग न्याय के तीन नियम स्वीकार करते हैं| जो निम्न है-
समान स्वतंत्रता का नियम-
इसको पहली प्राथमिकता दी गई है|
इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को समान स्वतंत्रता का ऐसा अधिकार मिलना चाहिए, जो दूसरे की वैसी ही स्वतंत्रता के साथ निभ सके|
अवसर की उचित समानता का नियम-
इसको दूसरी प्राथमिकता दी गई है|
इसके अनुसार सामाजिक और आर्थिक विषमताएं इस प्रकार व्यवस्थित की जाएं, कि सभी को समान अवसर प्राप्त हो सके|
भेदमूलक सिद्धांत-
इसको तीसरी प्राथमिकता दी गई है|
इसके अनुसार सामाजिक व आर्थिक विषमताएं इस प्रकार निर्धारित कि जाएं की हीनतम स्थिति वालों लोगों को अधिकतम लाभ प्राप्त हो|
न्याय के प्रकार-
जॉन रॉल्स न्याय के तीन प्रकार बताता है-
पूर्ण प्रक्रियात्मक न्याय-
इसमें प्रक्रिया की उचितता पर बल दिया जाता है, न कि परिणाम पर|
अपूर्ण प्रक्रियात्मक/ तात्विक न्याय-
इसमें परिणाम पर बल दिया जाता है, न कि प्रक्रिया पर
शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय-
इसमें प्रक्रिया की उचितता तथा परिणाम की उचितता दोनों पर बल दिया जाता है|
जॉन रॉल्स ने इसी न्याय सिद्धांत का समर्थन किया है|
जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत की आलोचना-
मार्क्सवादी या समाजवादियों के अनुसार जॉन रॉल्स पूंजीवाद का समर्थक है जो पूंजीवाद में न्याय ढूंढता है जबकि पूंजीवाद में न्याय संभव नहीं है|
स्वेच्छातंत्रवादियों के अनुसार जॉन रॉल्स समानता पर अत्यधिक बल देकर आर्थिक स्वतंत्रता की अवहेलना करता है, जिससे प्रगति की अवहेलना होती है|
समुदायवादियों के अनुसार जॉन रॉल्स अपने न्याय सिद्धांत में सामान्य शुभ को नहीं अपनाता है|
अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक Idea Of Justice में जॉन रॉल्स की निम्न आलोचना की है-
मूल स्थिति काल्पनिक है|
अज्ञान के पर्दे के पीछे की स्थिति अव्यवहारिक है|
अमर्त्य सेन “जॉन रॉल्स बांसुरी तो सबको देता है, लेकिन बजाना किसी को भी नहीं सिखाता है|”
मैकफ़र्सन ने जॉन रॉल्स की आलोचना कर उसे ‘उदार लोकतांत्रिक पूंजीवादी कल्याणकारी राज्य का प्रवक्ता’ कहा है|
जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत की कुछ शब्दावलियाँ-
शब्दकोशीय व्यवस्था-
इसका अर्थ है जब तक न्याय का पहला सिद्धांत तुष्ट नहीं हो जाए, तब तक दूसरे सिद्धांत तक नहीं पहुंचा जा सकता है|
मैक्सीमिन नियमन-
इसका अर्थ है सामाजिक आर्थिक विषमता को तभी बनाए रखा जा सकता है, जब तक उससे सबसे कम लाभान्वित व्यक्ति को लाभ मिले|
विमर्शी तत्व-
ऐसी आरंभिक स्थितियां जिसमें उपयुक्त परिस्थितियां हो और जो व्यक्तियों के सोचे समझे निर्णयों के अनुकूल सिद्धांतों को जन्म देती हो|
रॉबर्ट नॉजिक (स्वेच्छातंत्रवादी विचारक) के न्याय संबंधी विचार-
रॉबर्ट नॉजिक ने अपना न्याय सिद्धांत अपनी पुस्तक ‘एनार्की स्टेट एंड यूटोपिया’ 1974 में दिया है|
ये जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत के आलोचक है तथा कहते हैं कि जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत में राज्य का कार्य क्षेत्र बहुत बढ़ जाता है|
नॉजिक राज्य के न्यूनतम कार्य क्षेत्र का समर्थन करता है तथा आरक्षण के बजाय प्रगति पर बल देता है|
नॉजिक के न्याय सिद्धांत को हकदारी सिद्धांत/ न्याय का अधिकारिता का सिद्धांत/ परिष्कार सिद्धांत कहते हैं|
नॉजिक पर भी जॉन लॉक का प्रभाव था|
नॉजिक के अनुसार व्यक्ति परिश्रम से तथा वैधानिक सीमाओं में रहकर जो धन अर्जित करता है उसी का हकदार होता है|
योग्यता से कमाए धन का पूर्ण रूप से हकदार होता है, सरकार समाज कल्याण के नाम पर उससे वह धन नहीं छीन सकती है, अर्थात सरकार अमीरों पर टैक्स लगाकर गरीबों में वितरण नहीं कर सकती है|
नॉजिक ने न्याय के 2 सिद्धांतों में अंतर किया है-
साध्य मूलक सिद्धांत-
इस सिद्धांत के अनुसार लोगों के अधिकार किन्ही विशेष लक्ष्यों की पूर्ति के उद्देश्य निर्धारित करने चाहिए|
यह सिद्धांत बेंथम के उपयोगितावाद पर आधारित है| नॉजिक इसका आलोचक है|
ऐतिहासिक सिद्धांत-
अन्य नाम- न्याय का हकदारी सिद्धांत, न्याय का अधिकारिता सिद्धांत, न्याय का पात्रता या योग्यता सिद्धांत, परिष्कार का सिद्धांत
नॉजिक ऐतिहासिक सिद्धांत का समर्थन करता है|
परिष्कार का सिद्धांत- इसके अनुसार यदि व्यक्ति की संपत्ति की वर्तमान व्यवस्था अतीत के उचित अभिग्रहण या हस्तांतरण का परिणाम है अर्थात इसमें छल कपट का प्रयोग नहीं हुआ है तो उसे न्यायपूर्ण मान लेना चाहिए| यदि संपत्ति के अनुचित अभिग्रहण के कारण कोई अन्याय हुआ है तो उसका परिष्कार करना चाहिए|
न्याय का अधिकारिता सिद्धांत- नॉजिक के अनुसार यदि पुरानी सारी त्रुटियों को दूर करने की कोशिश करेंगे तो अनेक विवाद पैदा हो जाएंगे, इसलिए प्रचलित व्यवस्था के अंतर्गत जो व्यक्ति जिस-जिस वस्तु का अधिकारी है, उसे उसकी सहमति के बिना किसी दूसरे को हस्तांतरित नहीं किया जाए| इसे अधिकारिता का सिद्धांत कहते हैं|
ऐतिहासिक सिद्धांत की तीन मान्यताएं हैं-
न्यायपूर्ण अधिग्रहण का सिद्धांत-
व्यक्ति अपनी योग्यता के उचित उपयोग से मनचाहा धन कमा सकता है|
न्याय पूर्ण हस्तांतरण का सिद्धांत-
सही तरीके से कमाए गए धन का व्यक्ति जिसे चाहे हस्तांतरण कर सकता है या खर्च कर सकता है|
अन्याय के परिष्कार का सिद्धांत-
अन्याय पूर्ण कमाए गए धन का उचित प्रतिकार किया जाना चाहिए|
नॉजिक के अनुसार न्यायपूर्ण वितरण के लिए यह सूत्र अपनाना चाहिए “हर एक से उतना जितना वह देना चाहिए, हर एक को उतना जितना, उसे कोई देना चाहे|”
नॉजिक “समाज के स्तर पर जो असमानताएं पाई जाती हैं, उन्हें वितरण के स्तर पर बदलने का प्रयास विनाशकारी होगा|”
नॉजिक की आलोचना-
मैकफ़र्सन, हेयक जैसे पूंजीवादी समर्थक नॉजिक को स्वत्वमूलक व्यक्तिवादी कहकर आलोचना करते हैं|
माइकल वाल्जर का न्याय सिद्धांत-
माइकल वाल्जर एक समुदायवादी विचारक हैं, इन्होंने अपनी पुस्तक Spheres of Justice 1983 में न्याय सिद्धांत दिया है|
यह अपना न्याय सिद्धांत जॉन रॉल्स के न्याय सिद्धांत की प्रतिक्रिया स्वरूप देता है|
माइकल वाल्जर के अनुसार न्याय का कोई सार्वभौम नियम नहीं हो सकता है, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय और राजनीतिक न्याय के लिए भिन्न-भिन्न नियम बनाने होंगे|
माइकल वाल्जर “न्याय को अमूर्त व सार्वभौमिक सिद्धांतो के आधार पर नहीं समझा जा सकता|’”
इस प्रकार माइकल वाल्जर बहुलवादी न्याय क्षेत्र का समर्थन करता है|
माइकल वाल्जर सरल समानता और जटिल समानता में अंतर करते है, तथा तर्क देते हैं कि समकालीन समाज में न्याय के प्रवर्तन के लिए जटिल समानता को अपनाना होगा|
सरल समानता सब वस्तुओं को सब लोगों में बराबर बराबर बांट देने की मांग करती है, जो आदिम समाज में पाई जाती थी|
समकालीन समाज में यदि राज्य सरल समानता को लागू करने की कोशिश करेगा, तो उसका स्वरूप निरंकुश हो जाएगा|
जटिल समानता के अनुसार भिन्न-भिन्न सामाजिक वस्तुएं सामाजिक जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में वितरण के लिए बनी है|
अतः न्याय का उद्देश्य है कि भिन्न-भिन्न सामाजिक क्षेत्र में किन-किन वस्तुओं का वितरण किया जाए इसका पता लगाना|
माइकल वाल्जर का न्याय सिद्धांत सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के लिए उपयुक्त नैतिकता के मानदंड निर्धारित करता है|
माइकल वाल्जर का न्याय सिद्धांत विकेंद्रीकृत लोकतंत्र समाजवाद का प्रतिरूप है| इसमें एक सुदृढ़ कल्याणकारी राज्य की व्यवस्था होगी|
माइकल वाल्जर व जॉन रॉल्स के न्याय में अंतर
यह बहुलवादी न्याय क्षेत्र का समर्थन करता है| अर्थात जॉन रॉल्स सभी क्षेत्रों में न्याय के एक ही नियम को लागू करता है जबकि माइकल वाल्जर सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनीतिक न्याय के लिए अलग-अलग नियम की बात करता है|
जॉन रॉल्स का न्याय सिद्धांत सरल समानता पर बल देता है जबकि माइकल वाल्जर का न्याय सिद्धांत जटिल समानता पर बल देता है|
रॉल्स का न्याय सिद्धांत अधिकारों पर बल देता है, वही माइकल वाल्जर का न्याय सिद्धांत कर्तव्य व बंधुता पर बल देता है|
वाल्जर का न्याय सिद्धांत बहुलवादी समाज में ही लागू हो सकता है, अर्थात जहां सत्ता का विकेंद्रीकरण हो|
F A हेयक के न्याय संबंधी विचार-
हेयक एक स्वेच्छातंत्रवादी विचारक है|
हेयक अपनी पुस्तक Law, Legislation and Liberty: The Mirage of Social Justice 1973 में न्याय संबंधी विचार देता है|
हेयक जॉन रॉल्स के सामाजिक न्याय की आलोचना करता है तथा हेयक कहता है कि “सामाजिक न्याय का विचार निरर्थक है, यह मृगमरीचिका है|”
हेयक के मत में न्याय वस्तुत: मनुष्य के आचरण की विशेषता है, कोई समाज न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण नहीं हो सकता|
हेयक कहता है कि जॉन रॉल्स केवल स्वतंत्रता की रक्षा करें, समानता व सामाजिक कल्याण का विचार त्याग दें|
हेयक प्रक्रियात्मक न्याय का कट्टर समर्थक है|
न्याय केवल प्रक्रिया का विषय है, जिसका उद्देश्य स्वतंत्रता को बढ़ावा देना है|
मार्क्सवाद के अनुसार न्याय-
कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स, लेनिन व अन्य मार्क्सवादी विचारक पूंजीवादी व्यवस्था में निहित अन्याय का विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कामगार वर्ग का शोषण पूंजीवाद का स्वाभाविक लक्षण है|
पूंजीवादी व्यवस्था में कोई सुधार करके इस अन्याय को दूर करना संभव नहीं है|
अतः सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए पूंजीवाद को हटाकर उसकी जगह समाजवाद स्थापित करना अनिवार्य है|
कार्ल मार्क्स ने अपनी कृति क्रिटिक ऑफ गोथा प्रोग्राम 1891 में उन समाजवादियों की आलोचना की है, जो पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत उचित वितरण की मांग उठाकर न्याय की स्थापना करना चाहते हैं| कार्ल मार्क्स का मानना है कि पूंजीवाद को हटाकर समाजवाद की स्थापना करके ही न्याय की स्थापना की जा सकती है|
कार्ल मार्क्स कहता है कि पूंजीवाद की समाप्ति के बाद जब साम्यवादी समाज का उदय होगा तो उसमें अभाव और संघर्ष को जन्म देने वाली परिस्थितियां समाप्त हो जाएंगी, तब राज्य और उसके न्यायिक उपकरण की कोई जरूरत नहीं रहेगी|
मार्क्सवाद के अनुसार साम्यवाद में हर एक को उसकी आवश्यकता के अनुसार संसाधन प्राप्त होंगे|
मैंकिटायर के न्याय संबंधी विचार-
मैंकिटायर समकालीन ब्रिटिश समुदायवादी नैतिक दार्शनिक है|
मैंकिटायर ने अपनी कृति After Virtue 1981 में समुदायवाद के सिद्धांत का विस्तृत निरूपण किया है|
मैंकिटायर ने उदारवाद का खंडन करते हुए इसके नैतिक आधार पर ध्यान केंद्रित किया है|
मैंकिटायर ने जॉन रॉल्स के विवेकशील वार्ताकार की परिकल्पना जिसमें विवेकशील वार्ताकार अपने लिए अधिकतम प्राथमिक वस्तुओं का हिस्सा प्राप्त करना चाहते हैं, का खंडन किया है|
मैंकिटायर के अनुसार व्यक्ति का व्यक्तित्व और आत्माभिव्यक्ति सामाजिक और सामुदायिक बंधनों के तंतु जाल में सार्थक होती हैं|
मैंकिटायर ने उदारवादियों की इस मान्यता पर कटाक्ष किया है कि व्यक्ति स्वायत्त नैतिक अभिकर्ता है, जो सामाजिक संदर्भ से दूर हट कर अपना कार्य करता है|
मैंकिटायर के अनुसार व्यक्ति का व्यक्तित्व उस सामाजिक चलन की छत्रछाया में पनपता है, जिसके माध्यम से वह संपूर्ण सद्गुण अर्जित करता है|
मैंकिटायर ने अपनी कृति Whose justice? Which Rationality? 1988 के अंतर्गत समुदायवादी मान्यताओं के आधार पर न्याय एवं सद्गुण की नई संकल्पना विकसित की है|
इनके अनुसार व्यक्ति समाज में रहकर ही न्याय प्राप्त कर सकता है| समाज के सामान्य हित में ही व्यक्ति का हित तथा न्याय है|
माइकल सैंडल के न्याय संबंधी विचार-
माइकल सैंडल ने अपनी पुस्तक लिबरलिज्म एंड द लिमिट ऑफ जस्टिस 1982 के अंतर्गत जॉन रॉल्स की कृति ए थ्योरी ऑफ जस्टिस की तर्क प्रणाली पर विशेष रूप से प्रहार किया है|
जॉन रॉल्स ने ऐसी मूल स्थिति की संकल्पना दी है, जिसमें विवेकशील वार्ताकार न्याय के सिद्धांतों का पता लगाने के लिए एकत्रित होते हैं| यह अज्ञान के पर्दे के पीछे होते हैं तथा ये समाज से कटे हुए होते हैं| सैंडल कहता है कि समाज से कटकर न्याय के सिद्धांतों का पता नहीं लगाया जा सकता|
सैंडल ने तर्क दिया है कि व्यक्ति के चरित्र को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि वह किस समय, स्थान और संस्कृति की नींव पर खड़ा है| मनुष्य के इस रूप को समझने के बाद ही कोई राजनीतिक सिद्धांत ऐसे नियमों, संस्थाओं और प्रथाओं का निर्माण कर सकता है जो न्यायपूर्ण समाज की आधारशिला सिद्ध होंगे|
सैंडल ने जॉन रॉल्स की इस मान्यता का भी खंडन किया है कि ‘न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम सद्गुण है|’ सैंडल ने तर्क दिया कि न्याय अपने आप में कोई मूल्य नहीं है, बल्कि यह केवल प्रतीकात्मक सदगुण है| न्याय की मांग वहां उठाई जाती है जहां परोपकार या सुदृढ़ता जैसे उदात्त सद्गुणों का अभाव पैदा हो जाता है|
सिसरो के न्याय संबंधी विचार-
सिसरो “उच्चतम न्याय के बिना कोई भी गणराज्य किसी भी परिस्थिति में कायम नहीं रखा जा सकता|”
सिसरो ने न्याय की व्याख्या करने में नैतिक दृष्टिकोण अपनाया है|
उनके अनुसार न्याय वह सद्गुण है, जो व्यक्ति और राज्य के जीवन में शाश्वत और अपरिवर्तनशील बना रहता है|
न्याय के बिना साहस और ज्ञान निरर्थक हो जाते हैं| जो व्यक्ति या राज्य साहस का प्रदर्शन करते हैं किंतु न्याय पूर्ण आचरण नहीं करते हैं, वे पशुवत प्रवृत्तियों और क्रूरता के शिकार हो जाते हैं|
ज्ञानी व्यक्ति या राज्य न्याय से पृथक रहकर सफलता की प्राप्ति नहीं कर सकते|
विलियम गोडविन के न्याय संबंधी विचार-
विलियम गोडविन ने अपनी कृति इंक्वायरी कंसर्निंग पॉलीटिकल जस्टिस 1793 के अंतर्गत यह विचार रखा है कि ‘नृशंसतंत्रीय सरकार और संपत्ति का विषमतामूलक स्वामित्व ऐसी व्यवस्था को जन्म देते हैं, जिसमें एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का शोषण करने लगता है|’
विलियम गोडविन इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बदलने का आह्वान करते है|
इनका मत है कि जब तक राज्य को हटाकर, स्वैच्छिक प्रबंधों का जाल नहीं बिछाया जाता, तब तक समाज में न्याय स्थापित करना संभव नहीं होगा|
इनको प्रबुद्ध अराजकतावादी विचारक कहा जाता है|
विम किमलिका के न्याय संबंधी विचार-
विम किमलिका कनाडा के विद्वान और बहुसंस्कृतिवादी विचारक हैं|
किमलिका ने न्याय का समूह सिद्धांत दिया है|
इनका मानना है कि अल्पसंख्यक समूह को राज्य से अधिक सुरक्षा की आवश्यकता होती है, क्योंकि वे बहुसंख्यको की तुलना में कम संरक्षित होते हैं| इस तरह इन्होंने विशेष रूप से अल्पसंख्यक समूहों के अधिकारों को उदारवादी चिंतन के व्यक्तिवादी दर्शन से जोड़ने का प्रयास किया है|
किमलिका अच्छे और बुरे अल्पसंख्यक अधिकारों में अंतर करता है-
बुरे अल्पसंख्यक अधिकार- ये अधिकारों को सीमित करते है|
अच्छे अल्पसंख्यक अधिकार- ये व्यक्तिगत अधिकारों को बढ़ावा देते हैं|
किमलिका अपनी कृति जस्टिस इन पॉलीटिकल फिलासफी 1992 में लिखते हैं कि “न्याय का अर्थ केवल समाज की गलतियां सुधारना नहीं होता है|”
यह सही है कि न्याय विवादों को हल करता है, किंतु इससे भी महत्वपूर्ण है कि यह व्यक्ति को आदर देता है जो व्यक्ति का एक साध्य होने के नाते उसका है|
अधिकारों के माध्यम से न्याय सामाजिक समुदाय में प्रत्येक व्यक्ति की समान प्रतिष्ठा और स्थिति को मान्यता प्रदान करता है|
सुसेन मोलर ओकिन के न्याय संबंधी विचार-
ये नारीवादी दार्शनिक है|
पुस्तक- जस्टिस, जेंडर एंड फैमिली 1989
इनका मत है कि न्याय के संदर्भ में परिवार की आंतरिक स्थिति और परिवार में अन्याय पर शायद ही कोई विचार किया गया हो|
इनके मत में आमतौर पर राजनीतिक दार्शनिकों द्वारा परिवार को निजी दायरे से जुड़ा माना जाता रहा है| साथ ही न्याय को ऐसे विचार के रूप में देखा जाता रहा है जो सार्वजनिक दायरे से जुड़ा हुआ है|
इनके मत में यह मान्यता इस बात की उपेक्षा करती है कि परिवार और उसकी कार्यप्रणाली काफी हद तक सार्वजनिक दुनिया के कानूनों और संस्थाओं से बनी होती है|
ओकिन का तर्क है कि ‘न्याय का वह हर सिद्धांत अधूरा है, जो परिवार में असमानताओं को लेकर चुप है|’
अर्नाल्ड ब्रेख्त की न्याय संबंधी की धारणा-
अर्नाल्ड ब्रेख्त ने अपनी पुस्तक पोलिटिकल थ्योरी 1959 में न्याय के सिद्धांत की विवेचना की है|
ब्रेख्त “न्याय की धारणा, वांछित स्थिति के प्रति हमारे स्वभाव पर निर्भर करती है और यह तो एक ऐसे बर्तन की भांति है, जिसके कई तल होते हैं|
अर्नाल्ड ब्रेख्त ने न्याय के दो रूपों पर चर्चा की है-
परंपरागत न्याय
अपरंपरागत न्याय
अर्नाल्ड ब्रेख्त ने न्याय के 5 सार्वलौकिक और स्थिर आधार तत्व बताएं-
सत्य
मूल्यों के आधारभूत क्रम की सामान्यता- विभिन्न मामलों के विषय में विचार करते हुए हमारे द्वारा न्याय की एक ही धारणा को लागू किया जाना चाहिए|
कानून के समक्ष समानता या मूल्य प्रणाली की व्यापकता
स्वतंत्रता- स्वीकृत प्रणालियों की आवश्यकता से परे स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं होना
प्रकृति की अनिवार्यताओं के प्रति सम्मान- जो कार्य व्यक्ति की क्षमता के बाहर हैं और जो कार्य प्रकृति की ओर से व्यक्ति के लिए संभव नहीं है, उन्हें करने के लिए व्यक्ति को मजबूर करना न्याय भावना के विरुद्ध है|
न्याय का उपाश्रित वर्गीय या सबाल्टर्न (Subaltern) दृष्टिकोण-
उपाश्रित शब्द का अर्थ है निम्न श्रेणी का व्यक्ति|
सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में यह शब्द उन लोगों का संकेत देता है, जो जाति, वर्ग, आयु, लिंग, पद या अन्य किसी आधार पर दूसरों के अधीन होते हैं|
अतः उपाश्रित वर्ग का मुख्य लक्षण सामाजिक पराधीनता है|
यह समाज के उपेक्षित वर्ग हैं, जिनके उद्धार की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया|
न्याय के उपाश्रित वर्गीय दृष्टिकोण के समर्थक विचारको का मानना है कि न्याय की प्रमुख विचारधाराओं ने समाज के उपाश्रित वर्ग के न्याय की बात नहीं की है|
न्याय के उपाश्रित वर्गीय दृष्टिकोण के समर्थकों का मत है कि उपाश्रित वर्ग का न्याय उपाश्रित वर्ग पर कानूनी, राजनीति, आर्थिक और वैचारिक आधिपत्य को समाप्त करना है|
रंजीत गुहा, पार्थ चटर्जी, डी अर्नाल्ड, गायत्री चक्रवती, सुनील खिलनानी इसके प्रमुख समर्थक विद्वान है|
न्याय का एकीकृत सिद्धांत-
यह सिद्धांत समकालीन अमेरिकी राजनीतिक दार्शनिक नैंसी फ्रेजर द्वारा प्रस्तुत किया गया है|
नैंसी फ्रेजर पश्चिमी समाज में प्रचलित न्याय सिद्धांत और चार्ल्स टेलर जैसे समुदायवादियों के न्याय संबंधी विचारों की आलोचना करती है|
यह मान्यता की राजनीति, पुनर्वितरण की राजनीति, प्रतिनिधित्व की राजनीति के मध्य एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने पर बल देते हुए न्याय की स्थापना की पक्षधर है|
वैश्विक न्याय-
जॉन रॉल्स, थॉमस पोगे
वैश्विक न्याय की समकालीन समझ जॉन रॉल्स की पुस्तक ‘The Law of People 1993’ से प्रभावित है|
इस पुस्तक में जॉन रॉल्स ने अपने सामाजिक समझौते के सिद्धांत को वैश्विक स्तर पर लागू करने का प्रयास किया था, लेकिन थॉमस पोगे ने रॉल्स की आलोचना की तथा कहा की जॉन रॉल्स वैश्विक न्याय में भेदमुलक सिद्धांत को नकारते हैं|
न्याय और सामाजिक परिवर्तन-
आधुनिक युग में न्याय की मांग साधारणत: सामाजिक परिवर्तन की मांग से जुड़ी है| इस संदर्भ में न्याय शब्द सामाजिक न्याय का पर्याय बन जाता है|
डी डी रफेल “सामाजिक न्याय शब्द प्राय सुधारकों के मुंह से सुनने को मिलता है| जो लोग वर्तमान व्यवस्था से संतुष्ट हैं, वे इस शब्द को संदेह की दृष्टि से देखते हैं|
नेहरू “लाखों-करोड़ों लोगों के लिए मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण का स्रोत उसका वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं है, परंतु सामाजिक न्याय के प्रति उसकी तत्परता है|”
न्याय के मानदंड या कसौटी-
आधुनिक लोकतांत्रिक समाजों में न्याय के निम्न प्रमुख मानदंड निश्चित किए गए हैं-
डेजर्ट (Desert)
योग्यता
आवश्यकता
समानता
डेजर्ट (Desert)-
डेजर्ट शब्द फ्रांसीसी शब्द डेसर्टे (Deserte) से निकला है, जिसका अर्थ है उचित रूप से लायक होना|
इसका अर्थ है कि एक पुरुष या स्त्री को उसकी अपनी कोशिशों और कार्यों के कारण ही पुरस्कार या सजा मिलती है|
योग्यता-
योग्य लोगों को ही पुरस्कार मिलना चाहिए|
आवश्यकता-
इसका अर्थ है कि लोगों की क्षमता में अंतर होने के बावजूद भी उनकी जरूरतों को पूरा किया जाना चाहिए|
समानता- सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए तथा सभी के लिए अवसर की समता होनी चाहिए|
बार्कर ने न्याय के चार स्रोत बताएं हैं-
प्राकृतिक
धार्मिक
आर्थिक
नैतिक
अन्य प्रमुख तथ्य-
यूनानी- नैतिक न्याय
मध्यकालीन- धार्मिक न्याय
उदारवादी- अधिकारों की रक्षा के रूप में न्याय
उपयोगितावादी- अधिकतम व्यक्तियों की अधिकतम खुशी के रूप में न्याय
न्याय का समझौता सिद्धांत- जॉन रॉल्स
न्याय का अधिकारिता सिद्धांत- रॉबर्ट नोजिक
आर्थिक समानता के रूप में न्याय- मार्क्सवादी
स्त्रियों की दशा के सुधार के रूप में न्याय- नारीवादी
उपाश्रित वर्गीय दृष्टिकोण- उपाश्रित वर्गों की स्थिति में सुधार के रूप में न्याय
न्याय का एकीकृत सिद्धांत- मान्यता की राजनीति, पुनर्वितरण की राजनीति, प्रतिनिधित्व की राजनीति के समन्वय के रूप में न्याय
न्याय का सामर्थ्य आधारित दृष्टिकोण- अमर्त्य सेन व मार्था नेसबॉम
न्याय का समूह सिद्धांत- किमलिका
वैश्विक न्याय- जॉन रॉल्स व थॉमस पोगे
न्याय का बहुलवादी सिद्धांत- माइकल वाल्ज़र
लैंगिक न्याय का सिद्धांत- सुसेन मॉलर ओकिन
अंत पीढ़ी न्याय- डेरेक परफिट, हरित राजनीति व संपोषणीय विकास
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