आर्थिक-प्रशासन पर कौटिल्य के विचार-
प्राचीन भारतीय राजनीतिशास्त्री होने के बावजूद भी कौटिल्य ने धर्म की तुलना में अर्थ को प्रधानता दी है|
कौटिल्य के अनुसार “सुख का आधार धर्म है, किंतु स्वयं धर्म का आधार अर्थ (धन) है|”
कौटिल्य ने अर्थ को नैतिक एवं भौतिक सुखों का आधार माना है|
कौटिल्य ने राजनीति एवं अर्थ की घनिष्ठता को स्वीकारा है|
कौटिल्य के अनुसार अर्थ से राज्य के विभिन्न अंग (प्रकृतिया) बलवान बनती है, अर्थ के द्वारा प्रजाजन (जनपद) का पालन संभव होता है, दुर्ग एवं सेना शक्तिशाली बनती है, मित्र संतुष्ट होते हैं और शत्रु भी मित्र बन जाते हैं|
आय के प्रकार- कौटिल्य ने आय के तीन प्रकार बताएं हैं-
वर्तमान- जो आय प्रतिदिन प्राप्त होती है|
पर्युषित- जो शत्रु राज्य से प्राप्त धन हो|
अन्यजात- जुर्माने के रूप में प्राप्त आय
सामान्य काल में आय के साधन- सामान्य काल में कौटिल्य के अनुसार आय के 7 साधन है-
दुर्ग संबंधी आय- इसमें शुल्क, दंड (जुर्माना), राजकीय कारखानों से उत्पन्न वस्तुओं की बिक्री से होने वाली आय, देवालयों से होने वाली आय शामिल है|
जनपद संबंधी आय- इसमें निम्न को शामिल किया जाता है-
भाग- खेती की उपज से प्राप्त आय
सीता- राजकीय भूमि से प्राप्त आय
विवीत- सरकारी चाराग्रहो से प्राप्त आय
बलि- धनिक व्यक्तियों से प्राप्त उपहार
नदीपाल- नदी के घाट पर उतराई से प्राप्त आय
कर- अधीनस्थ राज्यों से प्राप्त वार्षिक धन|
खानि संबंधी आय- खानों से प्राप्त विभिन्न धातुओं, लवणों, रत्नों की बिक्री से प्राप्त आय
सेतु संबंधी आय- सिंचाई कर से प्राप्त आय
वन संबंधी आय- वनों से प्राप्त आय
ब्रज- पशुओं की बिक्री पर लगाए कर से प्राप्त आय
वणिक पथ संबंधी आय- व्यापार के मार्गों से प्राप्त होने वाली आय
इनके अलावा अस्वाभाविक धन (लावारिस संपत्ति)- जिस संपत्ति का कोई स्वामी या उत्तराधिकारी ना हो तो वह राज्य की संपत्ति हो जाएगी|
आपातकाल में आय के साधन-
आपातकाल के समय के लिए आय के संबंध में कौटिल्य ने दो बातें कही है-
अकाल, दुर्भिक्ष, महामारी के समय प्रजाजन को करो में राहत देनी चाहिए|
बाह्य आक्रमण या युद्ध के समय करो में वृद्धि की जानी चाहिए|
Note- करो में वृद्धि राजा की सहमति से ही की जानी चाहिए|
Note- कौटिल्य ने धार्मिक अंधविश्वासों का लाभ उठाकर प्रजाजन से धन संग्रह को उचित माना है, तथा धन संग्रह में गुप्तचरो के प्रयोग को भी उचित माना|
व्यय के प्रकार-
कौटिल्य ने चार प्रकार के व्यय बताएं है-
नित्य व्यय- प्रतिदिन होने वाले व्यय, स्थायी प्रकृति के|
नित्योत्पादिक व्यय- पहले से तय नित्य व्यय से होने वाला अधिक व्यय, अर्थात नित्य व्यय से उत्पन्न व्यय
लाभ व्यय- लाभ प्राप्ति के लिए किए जाने वाला खर्च
लाभोत्पादिक व्यय- पहले से तय लाभ व्यय से होने वाला अधिक व्यय अर्थात लाभ व्यय से उत्पन्न व्यय
व्यय की प्रमुख मदे- कौटिल्य ने व्यय की मदे निम्न बतायी है-
देवपूजा- देवालयों, यज्ञशालाओं के लिए खर्च
पितृपूजा- वेदपाठी ब्राह्मणों एवं अन्य श्रेष्ठ विद्वानो के निर्वाह पर होने वाला खर्च
स्वस्तिवाचन- शांति एवं नैतिक उत्पादन के लिए प्रयत्नशील आचार्यों, पुरोहितों पर होने वाला खर्च
अंतपुर- राजमहल के लिए होने वाला खर्च
महानस- समस्त राज परिवार व राज-महल के पशु-पक्षियों पर होने वाला खर्च
दुत-प्रवर्तन- समस्त राजदूतो व गुप्तचरों पर होने वाला खर्च
गौ-मंडल- पशुधन के लिए होने वाला खर्च
भृति- समस्त भृतियों का वेतन|
विष्टि- राज्य के मजदूरों व कुलियों पर होने वाला खर्च|
Note- कौटिल्य ने इस आदर्श पर बल दिया है, कि कोष वृद्धि का मूल उद्देश्य प्रजा पालन होना चाहिए|
कौटिल्य ने भू-स्वामी को क्षेत्रक कहा है तथा काश्तकार को उपवास कहा है|
अर्थशास्त्र में 10 प्रकार की भूमियों का वर्णन किया गया है|
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