महात्मा गांधीजी के राजनीतिक विचार-
धर्म व राजनीति-
गांधीजी ने धर्म व राजनीति की घनिष्ठता पर बल देते हुए राजनीति के आध्यात्मिकरण की आवश्यकता पर बल दिया है|
गांधीजी के मत में धर्म व राजनीति अप्रथक्करणीय है|
गांधीजी ने धर्म व नैतिकता को राजनीति के साथ मिलाया तथा इसे ‘सत्य की प्रभुसत्ता’ कहा|
गांधीजी के अनुसार “वे लोग जो यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई लेना देना नहीं है, वे नहीं जानते कि धर्म का अर्थ क्या है|”
गांधीजी “मेरे लिए धर्म विहीन राजनीति का कोई अस्तित्व नहीं है| राजनीति धर्म के अधीन है| धर्म से अलग हुई राजनीति मृत्यु-जाल है, क्योंकि वह आत्मा को मारती है|”
गांधीजी के मत में “राजनीति ने लोगों को सर्प की कुंडली की तरह जकड़ लिया है, जिससे कोई बाहर नहीं निकल सकता|”
धर्म और राज्य-
गांधीजी धर्म और राज्य को एक-दूसरे से अलग रखना चाहता है, अर्थात धर्मराज्य का विरोध करता है|
गांधीजी ने पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रस्तुत धर्मनिरपेक्ष राज्य से भी असहमति प्रकट की है, क्योंकि यह राज्य को आध्यात्मिक नैतिक मूल्यों से मुक्त रखने का समर्थन करता है|
गांधीजी ने सर्वधर्म समभाव राज्य का समर्थन किया है अर्थात राज्य को सभी धर्मों के प्रति आस्था रखनी चाहिए||
गांधीजी के राजनीतिक आदर्श-
गांधीजी के दो राजनीतिक आदर्श हैं-
पूर्ण आदर्श समाज या दार्शनिक अराजकतावाद
आदर्श राज्य या उप आदर्श समाज
पूर्ण आदर्श समाज या दार्शनिक अराजकतावाद-
अराजकता का सामान्य अर्थ है- राज्य या राज्य शक्ति का अभाव|
गांधीजी मूलतः दार्शनिक या प्रशांत अराजकतावादी विचारक है, उनका पूर्ण आदर्श समाज एक अराजकतावादी समाज अर्थात राज्य विहीन समाज है| इसे बौद्धिक अराजकतावादी समाज भी कहते हैं
लेकिन गांधीजी के मत में ऐसे समाज की स्थापना संभव नहीं है|
आदर्श राज्य या उप आदर्श समाज-
गांधीजी ने आदर्श राज्य के रूप में ‘रामराज्य’ की धारणा प्रस्तुत की है, जो एक अहिंसात्मक समाज व्यवस्था है| इसको ‘ग्राम स्वराज्य’ भी गांधीजी ने कहा है|
गांधीजी का रामराज्य गांवो का एक संघ होगा|
गांधी ने मैसूर रियासत को रामराज के तुल्य माना है|
महात्मा गांधी “शहरों में व्यक्ति रहते हैं, लेकिन गांव में देवताओं का निवास होता है|”
गांधीजी के लिए रामराज्य का अर्थ-
राजनीतिक रूप में हर रूप और स्वरूप में अंग्रेजी सेना के नियंत्रण को हटाना|
आर्थिक रूप में अंग्रेज पूंजीपतियों और पूंजी तथा साथ में उनके भारतीय समकक्षो से मुक्ति|
नैतिक रुप में सशस्त्र सेनाओं से मुक्ति| उनका मानना था कि स्वयं की राष्ट्रीय सेना द्वारा शासित देश भी कभी स्वतंत्र नहीं हो सकते हैं|
राज्य पर विचार-
गांधीजी राज्य को हिंसक व अनैतिक संस्था बताता है, अतः गांधीजी ने ‘अराजकतावादी समाज व्यवस्था’ का समर्थन किया है|
राज्य आत्मा रहित मशीन है| राज्य व्यक्ति के नैतिक विकास का विनाश कर देता है|
गांधीजी के मत में ‘राज्य एक आवश्यक बुराई तथा नकारात्मक साधन’ है|
राज्य का एकमात्र महत्व समाज में अशांति व अव्यवस्था को रोकना है|
गांधी के मत में नैतिक दृष्टि से व्यक्ति और राज्य में परस्पर विरोध पाया जाता है और व्यक्ति के पूर्ण नैतिक विकास के लिए राज्य का अंत कर दिया जाये| अर्थात एक राज्य-विहीन समाज में ही व्यक्ति का नैतिक विकास हो सकता है
गांधीजी ने व्यक्ति को साध्य तथा राज्य को साधन माना है तथा राज्य की सीमित, नियंत्रित, मर्यादित प्रभुसत्ता को स्वीकार किया है|
गांधीजी ने अहिंसात्मक राज्य (रामराज्य) का समर्थन किया है| राज्य का सर्वोत्तम उद्देश्य या साध्य ‘सर्वोदय’ है| यह केवल रामराज्य में ही संभव है|
गांधीजी के मत में राज्य विशुद्ध रक्षात्मक होना चाहिए| राज्य को स्वास्थ्य एवं शिक्षा के प्रति भी सरोकार नहीं रखना चाहिए| स्वास्थ्य एवं शिक्षा को निजी पहल पर छोड़ना ही श्रेयकर होगा|
गांधीजी का राज्य समाज का वह रूप है, जिसकी चारित्रिक विशेषताएं आत्म शासन एवं आत्म नियंत्रण, स्वैच्छिक सहायता एवं त्याग की भावना हो, न की प्रतिस्पर्धा और बल प्रयोग, जो कि आधुनिक राज्य की चारित्रिक विशेषताएं हैं|
राज्य का कार्य क्षेत्र-
गांधीजी राज्य के न्यूनतम कार्यक्षेत्र का समर्थन करता है|
व्यक्ति के नैतिक उत्थान की दृष्टि से, स्वराज्य की दृष्टि से, लोकतंत्र की दृष्टि से राज्य को न्यूनतम कार्य करने चाहिए|
राज्य व समाज-
गांधीजी ने राज्य व समाज के मध्य विभेद को स्वीकार किया है|
गांधीजी ने भारतीय समाज के आध्यात्मिक प्रभुत्व की तुलना, पश्चिमी समाज के राजनीतिक प्रभुत्व से की है|
गांधीजी ने पश्चिमी राजनीतिक शक्ति का वर्णन पशुबल के रूप में किया है तथा भारतीय समाज का महिमामंडन किया है, जिसमें राजा एवं तलवारें नैतिकता की तलवार से निम्न थे|
अधिकार एवं कर्तव्य पर विचार-
गांधीजी ने आध्यात्मिक एवं नैतिक श्रेणी के अधिकारों का समर्थन किया है| तथा अधिकारों को राज्य द्वारा अनुलंघनीय माना है|
गांधीजी ने ‘कर्तव्य-सापेक्ष’ अधिकारों पर बल दिया है| अर्थात अधिकारों का मूल स्रोत कर्तव्य है|
स्वतंत्रता पर विचार-
गांधीजी ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बल दिया है|
मात्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही मनुष्य को पूर्णत: समाज की सेवा में स्वैच्छिक रूप से समर्पित कर सकती है|
गांधीजी “यदि व्यक्तिगत स्वतंत्रता मनुष्य से छीनी जाती है, तो मनुष्य एक स्वचालित यंत्र बन जाता है और समाज नष्ट हो जाता है|
गांधीजी “संभवत कोई भी समाज व्यक्तिगत स्वतंत्रता के निषेध पर निर्मित नहीं हो सकता है, यह मनुष्य की प्रकृति के विपरीत है|”
शासन संबंधी विचार-
गांधीजी ने सभी प्रकार के अधिनायकतंत्रों एवं समग्रतावादी शासनो की निंदा की है|
पश्चिमी लोकतंत्र की आलोचना-
गांधीजी ने पश्चिमी लोकतंत्र की निंदा की है| उदारवादी लोकतंत्र को गांधीजी ने मछली बाजार कहा है, जिसमें लोग अपने स्वहित के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं|
गांधीजी ने ब्रिटेन के लोकतंत्र को बुरा कहा है, जिसमें सिर गिनने में विश्वास होता है, जिसे 51 प्रतिशत मत प्राप्त होता है, वही विजेता होता है, अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के सामने झुकना पड़ता है|
लोकतंत्र की आलोचना करते हुए गांधीजी कहते हैं कि “यूरोपीय देशों में जनता के हाथों में राजनीतिक सत्ता रहती है, किंतु स्वराज्य नहीं रहता है|”
गांधीजी के मत में लोकतंत्र का अर्थ दल का शासन हो गया है, जिसमें भी विशेष रूप से प्रधानमंत्री का| प्रत्येक दल सौदेबाजी एवं सनसनीपरकता के बल पर फल-फूल रहा है|
गांधीजी के मत में जीवन की भौतिकवादी अधीनस्थता ने पश्चिमी लोकतंत्रों को औपनिवेशिक विश्व के शोषण की ओर धकेला है| लोग शासक वर्ग अथवा जातियों द्वारा लोकतंत्र के नाम पर शोषित हो रहे हैं|
गांधीजी “लोकतंत्र सर्वोत्तम रूप में साम्राज्यवाद की नाजीवादी एवं फासीवादी प्रवृत्तियों को छिपाने का लबादा मात्र है|”
ब्रिटिश संसद की आलोचना-
गांधीजी ने ब्रिटिश संसद की भी आलोचना की है| संसद को उन्होंने वेश्या, बांझ और बंजर कहा है|
गांधीजी ने कार्लाइल के आरोप को दोहराते हुए ‘संसद को बातचीत की दुकान’ कहा है, जिसमें लोग एक दूसरे के साथ आश्चर्यजनक खेल खेलते हैं|
लोकतंत्र में सुधार-
गांधीजी के मत में लोकतंत्र का तात्पर्य है कि सबसे दुर्बल व्यक्ति को भी सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के समान अवसर मिलने चाहिए|
गांधीजी ने लोकतंत्र में बहुसंख्यक सिद्धांत को पीछे छोड़ कर सर्वसहमति, सहयोग एवं सर्वजन हित का अनुसरण किया है|
गांधीजी ने लोकतंत्र में निम्न सुधारों पर बल दिया है-
लोकतंत्र को अहिंसात्मक होना चाहिए|
लोकतंत्र सर्वसहमति, सहयोग एवं सर्वजनहित पर आधारित होना चाहिए|
जनता में परस्पर सहिष्णुता होनी चाहिए|
जनता में जागरूकता होनी चाहिए|
शासक एवं जनता को सादा जीवन व्यतीत करना चाहिए|
लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप शिक्षा पद्धति अपनाई जानी चाहिए|
राष्ट्रवाद एवं अंतरराष्ट्रियवाद संबंधी विचार-
राष्ट्रीय समुदाय का विकसित रूप अंतरराष्ट्रीय समुदाय है-
गांधीजी के मत में सामाजिक विकास क्रम में प्रथम इकाई परिवार है, उसके बाद क्रमश उच्च समुदाय निम्न है- जाति⇾ गांव ⇾ प्रदेश ⇾ राष्ट्र ⇾ अंतरराष्ट्रीय समुदाय
राष्ट्रीय समुदाय से अंतरराष्ट्रीय समुदाय श्रेष्ठ नैतिक समुदाय है|
अंतर्राष्ट्रीयवादी होने की पूर्व शर्त राष्ट्रवादी होना है|
“वसुधैव कुटुंबकम” के आदर्श का अनुसरण करना चाहिए|
गांधीजी ने एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की धारणा को स्वीकारा है, जिसमें राष्ट्रों के आपसी संबंध समता, न्याय, बंधुत्व, शांति एवं मानवीय एकता के नैतिक मूल्यों के अनुरूप हो|
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