कौटिल्य के राज्य संबंधी विचार-
राज्य की उत्पत्ति-
अर्थशास्त्र के प्रथम अधिकरण (तेहरवां अध्याय) में राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत दे रखा है|
कौटिल्य ने राज्य की उत्पत्ति के लिए सामाजिक समझौता सिद्धांत दिया है|
कौटिल्य ने राजा की उत्पत्ति को ही राज्य की उत्पत्ति माना है तथा राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत अथवा शक्ति सिद्धांत को नहीं मानता है|
कौटिल्य के अनुसार राज्य की उत्पत्ति से पहले समाज में अराजकता व्याप्त थी| अराजक व्यवस्था (मत्स्य न्याय) के अंत के लिए प्रजाजन ने मनु को राजा बनाया|
प्रजाजन ने राजा को भृति (वेतन) के रूप खेती से उत्पन्न अन्न का छठवां भाग तथा व्यापार से प्राप्त लाभ व स्वर्ण का दसवां भाग देने का निश्चय किया तथा राजा ने इसके बदले प्रजा की रक्षा, कल्याण अर्थात प्रजा के योगक्षेम का दायित्व स्वीकार किया अर्थात समझौता प्रजा व राजा के मध्य द्विपक्षीय था|
प्रजा, राजा को दंड एवं कर संबंधी अधिकार देती है|
कौटिल्य राजतंत्र की औचित्यपूर्णता का समर्थन करता है|
कौटिल्य एक व्यवहारिक राजशास्त्री है और उन्होंने प्रजाजन व राजा के बीच हुए समझौता का उल्लेख उनकी तत्कालीन उपयोगिता के कारण किया है, किसी सैद्धांतिक आस्था के कारण नहीं|
कौटिल्य के सामाजिक समझौते के अनुसार राज्य मनुष्यों द्वारा निर्मित संस्था है तथा प्रजाजन ने स्वेच्छा से राजा की नियुक्ति की है| और प्रजाजन ने राजा के प्रति दायित्व स्वीकारे हैं तथा राजा ने प्रजाजन के प्रति अपने दायित्व को स्वीकारा है|
कौटिल्य के सामाजिक समझौते या राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत की पाश्चात्य समझौते से तुलना-
के.पी जायसवाल ने कौटिल्य को भारत का हॉब्स कहा है, क्योंकि अनेक विद्वानों ने इसके राज्य उत्पत्ति के समझौता सिद्धांत की तुलना हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धांत से की है|
कौटिल्य तथा थॉमस हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धांत में समानताएं-
दोनों ने राज्य की उत्पत्ति सामाजिक समझौते द्वारा मानी है अर्थात राज्य एक मानव निर्मित संस्था है|
दोनों ने एक ही समझौते के द्वारा राज्य व राजा दोनों की उत्पत्ति को माना है|
कौटिल्य व हॉब्स के सामाजिक समझौते में असमानताएं-
थॉमस हॉब्स ने राज्य की उत्पत्ति से पहले की दशा को ‘प्राकृतिक अवस्था’ कहा है, जो समाज रहित अवस्था थी, जबकि कौटिल्य ने राज्य की उत्पत्ति से पहले की दशा को अराजकता की अवस्था कहा है, किंतु यह समाज रहित अवस्था नहीं थी|
थॉमस हॉब्स ने समझौते द्वारा राजा को पूर्ण प्रभुता सौंपी है, वह नैतिकता व कानून दोनों का स्रोत है, उसकी सत्ता पूर्ण, अनियंत्रित व निरंकुश है, जबकि कौटिल्य ने समझौते द्वारा राजा की सत्ता पर प्रजा के योगक्षेम (कुशलता- मंगलता) के दायित्व का नियंत्रण लगाया है| कौटिल्य ने राजा को नैतिकता व कानून का स्रोत नहीं माना है, राजा की सत्ता अनियंत्रित व निरंकुश नहीं है|
थॉमस हॉब्स का समझौता पूरी तरह भौतिकवादी है, जबकि कौटिल्य ने अपने समझौते में दैवी तत्वों को स्थान दिया है| कौटिल्य के अनुसार राजा में इंद्र व यम की शक्तियां है, अतः राजा का अपमान नहीं करना चाहिए, अपमान करने पर प्राकृतिक आपदाएं आती है|
कौटिल्य व हॉब्स दोनों ने ही राज्य को अनिवार्य संस्था माना है| राज्य कृत्रिम संस्था है|
राज्य की प्रकृति-
कौटिल्य ने राज्य की उत्पत्ति के विषय में अपने से पूर्व प्रचलित 4 सिद्धांतों का उल्लेख किया है, जो निम्न है-
राज्य युद्ध का परिणाम है|
राज्य रूपी संस्था का विकास धीरे-धीरे हुआ है|
लोभ-मोह से राज्य का जन्म हुआ है|
राज्य उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत|
कौटिल्य ने इन चारों ही सिद्धांतों को नहीं माना है|
कौटिल्य का राज्य कृत्रिम, जैविक, नैतिक, सामाजिक समझौते से उत्पन्न है|
कौटिल्य का राज्य धर्मनिरपेक्ष राज्य है|
कौटिल्य ने राज्य को साध्य (End- in- itself) तथा व्यक्ति को साधन माना है|
धर्म व नैतिकता के प्रति उनका दृष्टिकोण रूढ़िवादिता से परे है, अर्थात धर्म व नैतिकता पर राजनीति को ऊपर माना है|
कौटिल्य का राज्य कल्याणकारी है|
मानव धर्मशास्त्र के प्रणेता मनु की लीक से हटकर धर्म के बजाय अर्थ या राज्य हित को सर्वोपरि माना है|
राज्य हित के सामने नैतिकता के हित भी परे रख देता हैं|
इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर आचार्य कौटिल्य को भारत का मैक्यावली भी कहा जाता है| J.L नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में इन्हें भारत का मैक्यावली कहा था|
राज्य एक दंड युक्त संस्था है| दंड राजा की सर्वोच्च शक्ति है, लेकिन राजा निरंकुश नहीं है|
कौटिल्य के अनुसार राज्य प्रकृति से एक ऐसी संस्था है, जो अपनी दंड शक्ति का प्रयोग नैतिक साध्यों की प्राप्ति के लिए करता है|
कौटिल्य का मत था कि राज्य में दरिद्रता व अभाव नहीं होना चाहिए| कौटिल्य “जब लोग दरिद्र हो जाते हैं, तो वे लालची हो जाते हैं, जब लालची हो जाते हैं, तो उदासीन हो जाते हैं, उदासीन होने पर वे स्वेच्छा से शत्रु पक्ष की ओर चले जाते हैं और अपने स्वामी (राजा) का नाश कर देते हैं|”
राज्य का उद्देश्य-
कौटिल्य के अनुसार राज्य के निम्न उद्देश्य हैं-
अराजकता (मत्स्य न्याय) की समाप्ति करना| (नकारात्मक उद्देश्य)
शांति व व्यवस्था की स्थापना करना| (सकारात्मक उद्देश्य)
प्रजा को योगक्षेम प्रदान करना|
योगक्षेम का अर्थ- राज्य द्वारा किए जाने वाले वे कार्य जो प्रजा-पालन एवं प्रजा कल्याण की दृष्टि से आवश्यक है|
राज्य का सप्रांग सिद्धांत- (Seven- organs’ Theory of the State)
वर्णन- अर्थशास्त्र के छठवें अधिकरण में
सप्रांग सिद्धांत कौटिल्य की नई देन नहीं है| मनुस्मृति में भी सप्रांग सिद्धांत का उल्लेख है|
इस सिद्धांत के अनुसार राज्य एक शरीर है, जिसके 7 अंग है, जो सभी एक-दूसरे से निकट से जुड़े हैं, जिनका पृथक अस्तित्व संभव नहीं है|
कौटिल्य ने इन 7 अंगो की तुलना मानव शरीर से की है| राज्य को मानव शरीर माना है, जिसके अंग निम्न है-
स्वामी (राजा)- राज्य के सिर के तुल्य
अमात्य (मंत्री)- राज्य की आंखों के समान
पूर/ जनपद (भूमि एवं प्रजा)- राज्य की जंघाओं के समान
दुर्ग- राज्य की भुजाओ के समान
कोष- राज्य के मुख के समान
दंड- राज्य के मस्तिष्क के समान
सुहृद (राजा के मित्र)- राज्य के कान के समान
स्वामी-
सात अंगों में क्रम की दृष्टि से प्रथम माना है|
राजा कार्यपालिका का सर्वोच्च अधिकारी होता है|
राज्य व्यवस्था में केंद्रीय स्थान माना है|
राज्य के अन्य अंग (प्रकृतिया) स्वामी के गुणों व अवगुणों का अनुकरण करते है|
अमात्य-
राज्य का दूसरा अंग
कौटिल्य ने इस शब्द का प्रयोग मंत्री एवं सभी उच्च पदस्थ अधिकारियों के लिए किया है|
राज्य संचालन के लिए स्वामी एवं अमात्य के बीच सहयोग होना जरूरी है|
पुर/ जनपद-
जनपद का अर्थ है- जन युक्त भूमि|
कौटिल्य ने राष्ट्र के लिए जनपद शब्द का प्रयोग किया है|
कौटिल्य ने राज्य की एक प्रादेशिक इकाई को जनपद कहा है|
कौटिल्य के अनुसार “मनुष्यों से रहित भू-प्रदेश जनपद नहीं है और जनपद से रहित राज्य नहीं हो सकता है|”
दुर्ग-
कौटिल्य दुर्ग का महत्व रक्षा एवं सैन्य संचय के लिए बताया|
कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया है-
औदक दुर्ग
पार्वत दुर्ग
धान्वन दुर्ग
वन दुर्ग
कौटिल्य के अनुसार औदक दुर्ग व पार्वत दुर्ग शत्रु आक्रमण से राजा व प्रजा दोनों की रक्षा में उपयोगी होते हैं, जबकि धान्वन दुर्ग व वन दुर्ग शत्रु से पीड़ित राजा के लिए छुपने के लिए उपयुक्त स्थान होते हैं|
कोष-
कौटिल्य के अनुसार राज्य के संपूर्ण कार्यों का आधार कोष है|
सेना/ दंड-
कौटिल्य ने सेना के लिए दंड शब्द का प्रयोग किया है|
सेना में क्षत्रिय वर्ण की अधिकता होनी चाहिए|
कौटिल्य के अनुसार जिस राजा के पास शक्तिशाली सेना होती है, उनके मित्र तो मित्र बने रहते हैं तथा शत्रु भी मित्र बन जाते हैं|
सुहृद (मित्र)-
शांति काल में राज्य की प्रगति तथा आपत्तिकाल में राज्य की रक्षा के लिए मित्र-बल का विशेष महत्व है| मित्र बल की मदद से विजिगीषु राजा अपने राज्य के विस्तार में सफल होता है|
कौटिल्य के अनुसार मित्र ऐसे होने चाहिए-
पितृ/ पितामह (वंशपरंपरा) के समय से मित्र हो|
वश में रहने वाले, तत्काल मदद को तैयार रहने वाले, विरोध की संभावना नहीं हो|
मित्र में उक्त गुणों का होना मित्र संपन्न कहलाता है|
कौटिल्य ने राज्य के इन सात अंगों में राजा को महत्वपूर्ण माना है| कौटिल्य ने कहा है कि सार रूप में राज्य की दो ही मूल प्रकृति (अंग) है- राजा और राज्य|
कौटिल्य ने कहा है कि स्वामी अन्य प्रकृतियों (अंगों) के अभ्युदय और पतन का कारण होता है|
कौटिल्य राजा और अमात्य को राज्य रूपी गाड़ी के दो पहिए कहा है|
राज्य के कार्य-
कौटिल्य ने दंडनीति (राज्यशास्त्र) के उद्देश्यों को ही राज्य के कार्य बताया है|
राज्य/ दंडनीति (राज्यशास्त्र) के कौटिल्य ने चार उद्देश्य बताए हैं-
अलब्ध की प्राप्ति- अर्थात जो कुछ अभिष्ट है, परंतु प्राप्त नहीं हुआ है, उसे प्राप्त करना|
लब्ध का परिरक्षण- अर्थात जो कुछ प्राप्त कर लिया है, उसकी रक्षा करना|
रक्षित का विवर्धन- अर्थात जिसकी रक्षा की गई है, उसमें बढ़ोतरी करना|
विवर्धित का सुपात्रो में विभाजन- अर्थात जिसकी बढ़ोतरी की गई है, उसे उपयुक्त पात्रों में वितरित करना|
जो राजा दंडनीति के उद्देश्यों की पूर्ति करता है, उसका यश चारों दिशाओं में फैलता है|
डॉ. M.L शर्मा तथा डॉ.परिपूर्णानंद वर्मा के मतानुसार अर्थशास्त्र में जो कार्य बताए हैं, वे आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य से भी अधिक विस्तृत है|
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